आत्मरक्षा का अधिकार और पुलिस का दायित्व

वास्तव में आत्म सुरक्षा का अधिकार एक प्रतिरोध है और इसे अधिनियमित किया है…

हर व्यक्ति को अपने जीवन में किसी न किसी समय और किसी भी परिपे्रक्ष्य में गुस्सा आना स्वाभाविक है। जब गुस्सा व आक्रोश एक सीमा से ऊपर चला जाता है तो व्यक्ति का व्यवहार हिंसक हो जाता है तथा विधि द्वारा अपेक्षित की गई सीमाओं को लांघ कर वह कोई न कोई अपराध कर बैठता है। इसी तरह दूसरी तरफ काम व वासना से ग्रस्त होकर भी वह सभी मानवीय सीमाएं लांघ कर दरिंदगी पर उतर आता है। बलात्कार व हत्या जैसी घिनौनी घटनाओं को इल्जाम दे देता है। इस तरह कुछ ऐसे भी शातिर व आततायी लोग हैं जिनका काम लोगों को मारना -पीटना, लूटपाट व डकैती जैसे घृणित अपराध करना होता है। ऐसे लोग अपने व्यवहार में विचलित होकर शांतप्रिय माहौल को बिगाड़ते रहते हैं। अब प्रश्न उठता है कि ऐसे विचलित लोगों का सामना कैसे किया जाए। जहां अपराधियों को सजा देने के लिए विधि विधान बनाए गए हैं, उसी तरह पीडि़त व्यक्तियों को भी अपनी सुरक्षा के लिए कुछ अधिकार दिए गए है जिनका प्रयोग कुछ परिस्थितियों में किया जा सकता है। महिलाओं के साथ होने वाले अपराधों को रोकने के लिए, उन्हें सशक्त बनाने की कवायदें तो काफी की जाती हैं, मगर कानून की पेचीदगियां अभी भी उनको उलझाए रखती हैं। कानून निर्माताओं को पता था कि पीडि़त व्यक्ति को अपनी सुरक्षा के लिए किसी सीमा तक अपराधियों पर बल का प्रयोग करने का अधिकार होना चाहिए तथा इसीलिए भारतीय दंड संहिता की धारा 96 से 106 तक कुछ ऐसे प्रावधान बनाए गए जिनके अंतर्गत हर व्यक्ति को अपराधियों का सामना करने के लिए बल का प्रयोग करने का अधिकार दिया गया है। इन धाराओं में व्यक्ति को अपनी सुरक्षा तथा दूसरों की सुरक्षा करने के लिए कुछ ऐसे अधिकार दिए गए हंै जिनका उपयोग वह कुछ विशेष परिस्थितियों में कर सकता है।

इन प्रावधानों के अनुसार जब कोई अपराधी किसी पीडि़त को चोट पहुचांता है या फिर उसके घर में सेंध लगाकर चोरी या लूट/डकैती जैसी घटनाएं करता है तो पीडि़त को पूर्ण अधिकार है कि उस पर होने वाले अपराध का सामना करने के लिए वह एक निश्चित सीमा में बल का प्रयोग कर सके। इसी तरह धारा 100 के अंतर्गत जब पीडि़त व्यक्ति को लगे कि अपराधी उसके साथ बलात्कार, हत्या या रात्रि के समय गृह भेदन करने की कोशिश करता है तो अपराधी की मृत्यु तक की जा सकती है। यहां पर यह वर्णन करना भी आवश्यक है कि पीडि़त को अपराधी के विरुद्ध उस स्तर तक ही बल का प्रयोग करने का अधिकार है जिस स्तर तक अपराधी द्वारा उस पर बल का प्रयोग किया जा रहा हो। इसी तरह जब कोई पीडि़त व्यक्ति अपनी सुरक्षा या फिर कोई अन्य व्यक्ति की सहायता के लिए बल का प्रयोग करता है तथा उसी कशमकश/हाथापाई में किसी निर्दोष व्यक्ति को कोई चोट आ जाती है या यहां तक कि उसकी मृत्यु भी हो जाती है, तब भी आत्म सुरक्षा करने वाले व्यक्ति को दोषी नहीं माना जाएगा। आत्म सुरक्षा में प्रयोग किए गए बल को सैद्धांतिक तौर पर साबित करने के लिए बहुत ही पेचीदगियां हैं तथा इसके लिए पीडि़त को कुछ सावधानियां ध्यान में रखनी होगीं जिनका विवरण इस प्रकार से है : 1. बल का प्रयोग केवल उसी समय ही किया जाए जब आपके पास कोई विकल्प न हो। 2. किसी महिला के साथ यदि कोई बलात्कार करने की कोशिश करता है तो बिना किसी बात का इंतजार किए अपराधी पर किसी भी सीमा तक बल का प्रयोग कर लेना चाहिए। 3. बदले की भावना से बल का प्रयोग कभी भी न किया जाए तथा इसका प्रयोग तो तत्काल मौके पर ही करना होगा। 4. हो सके तो बल का प्रयोग करने से पहले ऊंची आवाज में अपने बचाव के लिए शोर मचाया जाए तथा संभवत: मौके पर उपस्थित व्यक्ति या व्यक्तियों को गवाह बनाया जाए। 5. आजकल मोबाइल का जमाना है तथा उसके साथ अपराध होते समय वीडियो रिकार्डिंग कर लेना उचित है। 6. इस संबंध में पुलिस को तुरंत सूचित किया जाए तथा उसे पूर्ण जानकारी उपलब्ध करवाई जाए। ऐसे मामलों की तफतीश करते समय पुलिस की जिम्मेवारी भी सर्वोपरि है तथा उसे निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए। 1. पीडि़त द्वारा आत्म सुरक्षा के लिए किए गए बल के प्रयोग द्वारा अपराधी को किस प्रकृति की चोटें आई हैं तथा पीडि़त की चोटें कितनी गंभीर हैं, इसका पूरा संज्ञान लेना चाहिए। 2. यह ठीक है कि पुलिस को दोनों पक्षों की तरफ से अलग-अलग मुकदमे दर्ज करने ही पड़ेंगे, मगर मौके की परिस्थितियों व गवाहों के बयानों के आधार पर पीडि़त व्यक्ति को सहायता पहुंचानी चाहिए। 3. ऐसे मामलों में वरिष्ठ अधिकारियों को घटना स्थल पर जाकर अपना प्रवेक्षण नोट जारी करना चाहिए ताकि अन्वेषण अधिकारी अपनी मर्जी से ही तफतीश को आगे न बढ़ाए। 4. यदि पीडि़त व्यक्ति को पुलिस द्वारा गिरफ्तार करना ही पड़ जाता है तो न्यायालय में उसकी जमानत के समय सभी तथ्यों को पूर्ण रूप से प्रस्तुत करना चाहिए ताकि उसे आसानी से जमानत प्राप्त हो सके। 5. हालांकि ऐसी बहुत ही कम संभावनाएं हंै जिससे कि पुलिस को पता चल जाए कि पीडि़त ने अपने बचाव में ही बल का प्रयोग किया है, मगर यदि कोई वीडियो या सीसीटीवी के छायाचित्र उपलब्ध हो जाते हैं तब पीडि़त को सहायता पहुंचाने की कोशिश करनी चाहिए। ऐसे मामलों में न्यायालय में जज साहिबानों का विवेक भी बहुत अधिक काम करता है। जज साहिब को भी तथ्यों का गहनता से विचार करना चाहिए तथा आपराधिक कानून के सिद्धांत को ध्यान में रखते हुए अपना निर्णय देना चाहिए तथा नहीं भूलना चाहिए कि सबूतों के आधार पर ही पीडि़त ने आत्म सुरक्षा के अधिकार के तहत ही अपराध किया है तथा उसे संदेह का लाभ पहुंचना चाहिए।

इसी तरह अभियोजन पक्ष को भी ऐसे पीडि़त लोगों को परिस्थितियों को ध्यान में करते हुए उन्हें लाभ पहुंचाना चाहिए। केस स्टडी के रूप में एक उदाहरण देना विचारणीय है। मैं जब डीआईजी (जेल) तैनात था तो मैंने एक जेल में कैदियों से परिचय करते हुए पाया कि एक फौजी जो घर छुट्टी आया हुआ था, एक रात उसने पाया कि कुछ अपहरणकर्ता उसके गांव की लडक़ी को अपनी गाड़ी में डालकर ले जाने की कोशिश कर रहे थे। फौजी को पता चलते ही वह मौके पर जाकर उनकी गाड़ी को रोकता है, मगर अपराधी अपनी बंदूक निकालकर उस पर हमला करने की कोशिश करते हैं तथा इसी कशमकश में फौजी उनकी बंदूक छीनकर उन पर फायर कर देता है तथा एक व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है। इस मामले में फौजी को न्यायालय से सजा मिल जाती है। आत्म सुरक्षा में किए गए अपराध व हमलावर अपराधी के अपराध में बहुत बारीक सीमा है जिसे समझना बहुत मुश्किल कार्य है। वास्तव में आत्म सुरक्षा का अधिकार एक प्रतिरोध है और इसे लोकतांत्रिक देशों के अपराध शास्त्रों में अधिनियमित किया गया है।

राजेंद्र मोहन शर्मा

रिटायर्ड डीआईजी


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