रडयार्ड किपलिंग और शिमला का बंदर

By: Jan 1st, 2023 12:05 am

साहित्य की निगाह और पनाह में परिवेश की व्याख्या सदा हुई, फिर भी लेखन की उर्वरता को किसी भूखंड तक सीमित नहीं किया जा सकता। पर्वतीय राज्य हिमाचल की लेखन परंपराओं ने ऐसे संदर्भ पुष्ट किए हैं, जहां चंद्रधर शर्मा गुलेरी, यशपाल, निर्मल वर्मा या रस्किन बांड सरीखे साहित्यकारों ने साहित्य के कैनवास को बड़ा किया है, तो राहुल सांकृत्यायन ने सांस्कृतिक लेखन की पगडंडियों पर चलते हुए प्रदेश को राष्ट्र की विशालता से जोड़ दिया। हिमाचल में रचित या हिमाचल के लिए रचित साहित्य की खुशबू, तड़प और ऊर्जा को छूने की एक कोशिश वर्तमान शृंाखला में कर रहे हैं। उम्मीद है पूर्व की तरह यह सीरीज भी छात्रों-शोधार्थियों के लिए लाभकारी होगी…

श्रीनिवास जोशी

मो. – 9418157698

अगर मैं रडयार्ड किपलिंग (1865-1936) के बारे में यह कहूं कि उन्होंने शिमला को सात समुन्दर पार पहुंचाया, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। उन्होंने 19वीं शताब्दी के शिमला का चित्रण अपनी पुस्तकें ‘प्लेन टेल्स फरॉम द हिल्ज़’, ‘द फेन्टम रिक्षॉ एण्ड अदर टेल्ज़’ और उपन्यास ‘किम’ में किया है। जोसेफ रडयार्ड किपलिंग का जन्म 30 दिसम्बर, 1865 को एलिस और जॉन लौकवुड के घर मुंबई में हुआ था। जॉन लौकवुड, जो जाने माने अभिकल्पक तथा मूर्तिकार थे, उन दिनों जीजीभॅाय कला तथा उद्योग पाठशाला में प्राचार्य थे। कवि तो थे रडयार्ड किपलिंग और अपने पैदाइशी शहर के बारे में लिखते हैं (हिन्दी रूपान्तरण मेरा) : ‘शहरों की मां/ है वो मेरे लिए/ पैदा हुआ था मैं इसके गेट में/खजूर के दरख्त/ और/समन्दर के बीच में/जहां दुनिया होती है ख़त्म/और/ स्टीमर्स करते हैं इन्तज़ार।’ यह सही है कि जिस कोठी में रडयार्ड पैदा हुए थे, वह बहुत पुरानी होने के कारण ढहा दी गई है, पर जेजे इन्स्टीच्यूट ऑफ एप्लाईड आर्ट मुम्बई में वह फलक जिसमें रडयार्ड किपलिंग का जन्म दर्शाया गया है, कायम है। जब वह 6 वर्ष के थे तब अपनी बहिन ट्रिक्स के साथ इंग्लैंड पढऩे चले गए, परन्तु स्कूली विद्या पूरी कर लेने के बाद जब उन्हें ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में पढऩे के लिए वजीफा नहीं मिला तब उनके पिता, जो तब मेयो कॉलेज ऑफ आट्र्स लाहौर के प्राचार्य थे और वित्तीय स्थिति के कारण अपने बेटे को बिना वजीफे के पढ़ाने में असमर्थ थे, ने उन्हें भारत बुला लिया। 16 साल और 9 महीने की छोटी उम्र में पुत्र को पिता ने लाहौर के सिविल और मिलिट्री गज़ट में सहायक सम्पादक के पद पर लगवा दिया। यह हंसमुख, मौजी, गोलमटोल, छोटा बन्दा जिसकी चौड़ी मुस्कान के ऊपर नीली आंखों पर चढ़ा चश्मा और ऊपर-नीचे नाचती घनी, काली भौंहे थीं, एक सख्त सम्पादक स्टीफन व्हीलर के मातहत कार्य करने लग गया। वहां से वह अपने माता-पिता के साथ 1883 की गर्मियों में पहली बार शिमला आए थे। फिर 1885 से 1888 तक वह लगातार हर गर्मियों में शिमला आते रहे। उन्हें शिमला बहुत पसन्द था। जब मैदानों में आग जैसी गर्मी में सुलगते आदमियों ने कहा कि शिमला में लोग मौज-मस्ती मनाते हैं तब उन्होंने लिखा, ‘तो मनाने दो।’ वह लिखते हैं, ‘शिमला में रहना विशुद्ध आनन्द है। यहां बिताया हर पल सुनहरा है। यात्रा के आरम्भ में जितनी असुविधा हो या गर्मी लगे पर यहां पहुंच कर ठंडी ठंडी शाम में अपने शयनकक्ष में जलती हुई लकड़ी की तपस आनन्ददायक होती है।’

किम में उन्होंने लर्गन साहेब का जो पात्र बनाया है वह अद्वितीय है। वह चरित्र वास्तविक पुरुष जैकब को देख कर ही बनाया है। जैकब 1870 में शिमला आया था और कीमती पत्थरों और दुर्लभ कृतियों का व्यापार करता था। ऐसा ही लर्गन साहेब भी करता है। वह बहुत अच्छे कवि माने जाते हैं। मैंने चंडीगढ़ से एक पुस्तक खऱीदी थी जिसमें लगभग 555 कविताएं हैं और उस पुस्तक का शीर्षक है-रडयार्ड किपलिंग-द कम्पलीट वर्स। शायद ही कोई पाठक होगा जिसने उनकी कविता ‘इफ’ नहीं पढ़ी होगी।़ मशहूर कवि टैनिसन ने उनके बारे में लिखा था, ‘दैविक दीप्ति लिए युवा कवि’। इस लेख में मैं उनके और एक विद्वान बन्दर के बीच हुए वार्तालाप को प्रस्तुत कर रहा हंू। उनकी क़लम को हिन्दी रूपान्तर देने की धृष्टता मैंने ही की है। हुआ यों था कि एक रात रडयार्ड ने खूब पी ली और सवेरे सवेरे मयखाने से बाहर निकले तो देखा कि सामने वाली पहाड़ी में बना तारादेवी का मन्दिर झूम रहा है। वहीं उन्हें एक बन्दर बैठा दीख पड़ा। उन्होंने कहा: ‘कुलीन बन्दर, रहस्यमय आदेश एक/बनाता है तुझे उल्लसित, जंू भरा तू/और मुझे बनाता परिश्रान्त, क्लान्त मैं’। इस पर बन्दर ने उनसे कहा: ‘पहाड़ों पर रेंगते पोशाकों से ढके, विषण्ण मानव!/अनभिज्ञ मैं रेंकन और उसकी मासिक देनदारी से/जान ले, पहनता नहीं मैं कोट और न ही पतलून/मेस की ताश और शराब का नहीं मुझे जुनून।’ रैंकन उन दिनों शिमला का एक महंगा और जाना-माना दर्जी हुआ करता था। यहां बन्दर भारतीय संन्यासी की तरह रडयार्ड को मोह-माया के जाल से दूर रहने और बाइबिल के ‘कामुकता से भरी दुर्वासना’ को त्यागने की बात करता है। ‘जीवन में नहीं, कभी नहीं, न कभी कभार/पैलिटी में सुन्दर परायी बन्दरी पर डाले डोरे/ओ, असार छैलापन ओढ़े, बांके तिरछे छोरे/न पहाड़ी घोड़े हैं पास मेरे, न है मोटर कार।’ पैलिटी उन दिनों शिमला का एक ख्यातिप्राप्त रेस्तरां होता था। किपलिंग को मिलने वाला बन्दर अपने परिवार की बातों को बाहर नहीं उगलता था और किपलिंग को भी उसने यही सलाह दी: ‘अपनी पत्नी से लड़ता हंू मैं घर के ही अन्दर/उगलता न वमन बाहर, जीवन सुख है यही/प्यारी बन्दरी मेरी जाने सब कुछ; माने वही परम इष्ट मुझे सहन्ने में एक नवेला बन्दर’। इतनी शिक्षा पा लेने के बाद भी रडयार्ड सांसारिक विषयों में इस तरह संलिप्त थे कि उन्होंने अन्त में बन्दर को ही सलाह दे डाली: ‘जा, मेरे भाई / शान्ति से हो अगोचर/ठौर है तेरा चीड़ का तरुवर/ भूल जाना नश्वर मनुष्य को/दी थी सलाह कभी / बन्दर सा बदलने का मुकद्दर।’ ऐसी कला थी रडयार्ड के पास कि एक बन्दर के माध्यम से कितनी ऊंची ऊंची बातें कर गए और पाठकों की रुचि भी बनी रही। तभी तो उन्हें साहित्य का नोबेल पुरस्कार भी मिला।

अतिथि संपादक

डा. सुशील कुमार फुल्ल
मो.-9418080088

हिमाचल रचित साहित्य -४5
विमर्श के बिंदु
1. साहित्य सृजन की पृष्ठभूमि में हिमाचल
2. ब्रिटिश काल में शिमला ने पैदा किया साहित्य
3. रस्किन बांड के संदर्भों में कसौली ने लिखा
4. लेखक गृहों में रचा गया साहित्य
5. हिमाचल की यादों में रचे-बसे लेखक-साहित्यकार
6. हिमाचल पहुंचे लेखक यात्री
7. हिमाचल में रचित अंग्रेजी साहित्य
8. हिमाचल से जुड़े नामी साहित्यकार
9. यशपाल के साहित्य में हिमाचल के रिश्ते
10. हिमाचल में रचित पंजाबी साहित्य
11. चंद्रधर शर्मा गुलेरी की विरासत में

लाल टीन की छत्त और मनोविज्ञान

डा. पूनम कुमारी

मो.-8219148460

‘लाल टीन की छत्त’ निर्मल वर्मा का चर्चित उपन्यास है। इस उपन्यास की रचना वर्मा जी ने शिमला में रहते हुए की। इनका जन्म शिमला में हुआ जिसके कारण इनके कथा साहित्य में शिमला के पहाड़, धुंध, बर्फ, चीड़ के पेड़ों का वर्णन मिलता है। निर्मल वर्मा नई कहानी आंदोलन के लेखक माने जाते हैं। ‘लाल टीन की छत्त’ उन्यास का शीर्षक काया के मकान की छत्त लाल टीन की छत्त को लेकर लिखा गया है। टीन दिन में शीशे की तरह चमकती रहती है। यह उपन्यास निर्मल वर्मा जी के सृजन का प्रस्थान बिंदु है। उपन्यास की कथा काया नामक लडक़ी के चारों तरफ घूमती है, जो सर्दी की लंबी छुट्टियों में इधर-उधर भटकती रहती है। काया एक ऐसी अवस्था में है, जहां बचपन पीछे छूट चुका है और आने वाला समय मस्तक के समक्ष रहस्य, संकेतों से भरपूर है। ‘लाल टीन की छत्त’ उपन्यास सृजनात्मक यात्रा का महत्त्वपूर्ण बिंदु है। काया के माध्यम से उम्र के खास समय का केंद्रीयकरण किया गया है, जो कि न तो पूर्णत: लडक़पन की अंतिम अवस्था है और न ही किशोरावस्था का पूर्णत: आरंभ। उपन्यास में आत्मा का अकेलापन और शरीर के एकाकीपन की नंगी सच्चाई की यातना को दिखाया गया है। उपन्यास के सभी पात्र निराशा, अजनबीपन के साथ-साथ विद्रोही मानसिकता से ग्रस्त भी हैं। काया अपने अतीत की स्मृतियों में डूबी रहती है। वर्मा जी ने इस उपन्यास में मुख्य रूप से अकेलेपन, अजनबीपन, हताशा, संत्रास इत्यादि का जिक्र किया है। ‘लाल टीन की छत्त’ के माध्यम से वर्मा जी ने दर्शाया है कि बड़े व्यक्ति ही नहीं, बच्चे भी खालीपन व अलगाव को महसूस करते हैं, जिसे हम काया, छोटे लामा व बीरू के माध्यम से देख सकते हैं।

कैसे यह बच्चे गिरजे, झरने, रेलवे लाइन तथा जंगलों में भटकते रहते हैं, इसका सजीव चित्रण हुआ है। काया के बाबू जी दिल्ली में रहते हैं। जोसुआ (विदेशी महिला) अपने क्वार्टर में बैठी रहती थी, मां अपने कमरे में तथा काया और छोटे भी अपने कमरे में, जो कभी रेलवे लाइन, कालीबाड़ी मंदिर तथा कभी जंगलों में भटकते रहते हैं। आंधी-तूफान में उनका घर हवा से हिलता रहता है। लगता है कोई दरवाजा खटखटा रहा है। इसी कारण उस घर को ‘हिलता हिल्स’ भी कहा जाता है। लामा (बुआ की बेटी) सर्दियों की छुट्टियों में मामा के घर यानी काया के घर शिमला आती है। बच्चों के द्वारा मृत्यु क्या होती है, आत्मा क्या होती है, जैसे प्रश्न उठाए गए हैं। ‘लाल टीन की छत्त’ में समरहिल (रेलवे स्टेशन), जाखू, संजौली की सिमिट्री तथा अन्नाडेल एवं रिज मैदान का वर्णन किया गया है। काया को लगता है कि वह जाखू से लामा का मेरठ वाला घर व लामा को देख सकती है। काया जब चाचा के घर जा रही थी, तो उसे खालीपन का एहसास हुआ था। काया को लगता है कि हमें हर समय कोई देखता रहता है। वह पुरानी स्मृतियों में डूब जाती है। वह भ्रम में अपना जीवन व्यतीत कर रही कि हमेशा कोई उसे देखता रहता है। इस उपन्यास में एक अजीब तरह की बेचैनी और उदासी है। बचपन में खोई काया किशोरावस्था में घुसने की कोशिश नहीं करती है। वह उसी आवरण में लिपटी और दुबकी रहने की कोशिश करती है। किरदारों में सिलवटें पड़ी हुई दिखाई पड़ती हैं। ऐसा लगता है, मानो वे अपने आपको सुव्यवस्थित रखने की कोशिश नहीं करते हैं।

काया के बाबू दिल्ली में रहते हैं। मां ऊपर कमरे में भटकती रहती है। मिस जोसुआ अकेले अपने घर में रहती है। फॉक्स लैंड में चाचा और बीरू एकांकी जीवन व्यतीत कर रहे हैं। बुआ मेरठ में रहती है और काया अंधेरे बंद कमरे में जो कभी जंगलों में भटकती रहती है। उपन्यास के सभी पात्र खालीपन के शिकार हैं। काया को कुछ भी अच्छा नहीं दिखाई देता है, सिवाय पहाड़ों के। लेकिन रेल की लाइन के ऊपर वह अब भी है। पहाड़ों के बीच से बाहर निकलती हुई एक दोपहर, सूखी मलान रोशनी में नथ वाली औरत दोनों ही काया से पूछते हैं, ‘काया तुम्हें आता है क्या?’ लेकिन काया समझ नहीं पाती है। धीरे-धीरे काया को फॉक्स लैंड से वही चाह हो जाती है जो उसे अपने घर की चीजों से है। उपन्यास के आखिरी पन्ने पर आकर आखिरकार काया को उस बात का जवाब मिल जाता है, जो उसकी मां पूछा करती थी। काया महसूस करती है कि वह बचपन से निकल कर प्रौढ़ावस्था में पहुंच चुकी है। उपन्यास के सहारे अतीत में छुपी हुई स्मृतियां परत दर परत खुलती जाती हैं। उपन्यास की रचना इसी उद्देश्य को लेकर की गई है। वर्मा जी के उपन्यासों की सबसे बड़ी बात यह है कि पात्रों से ज्यादा पात्रों की भावनाएं और संवेदनाएं बोलती हैं। वे अपने किरदारों को चुन-चुन कर जवाब और शब्द देते हैं, जिसके कारण पात्र जीवंत लगते हैं। वह भटकती रहती है। किसी उम्मीद, जिज्ञासा और जोखिम के साथ अपने आसपास की चीजों को समेटकर रखना चाहती है।

उसे ऐसी चीज की तलाश है जो कभी मौजूद ही नहीं थी, जो कभी उसके हाथ न लग पाई, जो न तो सुख है और न पूरा अवसाद। मरना क्या होता है, वह नहीं जानती। लेकिन जब नथ वाली औरत कहती है, उसका आदमी मर गया है तो वह सोचती है, गिन्नी भी शायद मर गई है, तभी वह लौटकर नहीं आती है। उसके जाने का बिछोह, उसके मन से हटता ही नहीं है। वह बार-बार उसे याद करती है। काया को समझ में आने लगता है कि जो लोग चले जाते हैं, वे लौटकर नहीं आते। लामा, गिन्नी कभी लौटकर नहीं आएंगे। काया इन स्मृतियों से बाहर नहीं निकल पाती। ‘लाल टीन की छत्त’ उपन्यास के पात्र शारीरिक कष्ट की अपेक्षा मानसिक पीड़ा को अधिक झेलते हैं।

सामाजिक पक्ष को जिंदा रखतीं कुंवर दिनेश की कहानियां

अपनी दस कहानियों के साथ कुंवर दिनेश का ‘जब तक जिंदा है’, संग्रह सामाजिक बुनियाद के नए मुहाने खोज रहा है। कहानियां पाठक की तरह सहजता व सरलता से गांठें खोल रही हैं या किसी उथल-पुथल के बिना जैसे दरिया में किसी नाव पर सवार होकर मंजिल पर निकली हों। कुंवर कहानियों के मार्फत कुछ प्रश्न पूछते हैं, मसलन ‘महत्त्वाकांक्षा’ में कोई सनकी क्यों बनता है। कहानी मनोवैज्ञानिक दृष्टि से उस इनसान का पीछा करती है जिसकी काबिलीयत असामान्य होते हुए भी महत्त्वाकांक्षा के पालने में अधीर हो जाती है। वह अपनी प्रतिभा को धैर्य के साथ अपनी महत्त्वाकांक्षा से नहीं जोड़ पाया। जमीन जायदाद के झगड़े कब परिवार के गले से उतर कर दिन में बैठ जाते हैं, इन्हीं को लेकर बुनी गई कहानी ‘कब तक जिंदा हैं’, जमीन पर चढ़ी भृकुटि का वृत्तांत बन जाती है। कानूनी दांवपेंच में मूंछों की लड़ाई कब शुरू हुई और कब तक रहेगी, शायद ‘जब तक दोनों पार्टियां जिंदा हैं।’ फर्ज की दहलीज पर फिसलते लोग और लूट-खसूट का सामान बनता चरित्र, ‘चंदू टुंडा’-कहानी के मर्म में झांकता है। भगत राम का तुन्नी का पेड़ काटना चंदू टुंडा को महंगा पड़ा और अंतत: जिस देव की उसने झूठी कसम खाई थी, उसी ने दूध का दूध और पानी का पानी कर दिया। बदचलन ‘लच्छी’ के घर की आग में झुलसती मानवता को कसूरवार ठहराएं या उसके पाप के घड़े में हो रहे ऐसे छेद का उपहास उड़ाएं। लच्छी के बहाने कहानीकार समाज की मानसिकता पर प्रश्न उठा रहा है। पुरुषोत्तम लाल ने मुसीबत में लच्छी के ऊपर लगे लांछन खुरच दिए और उसे एहसास करा दिया की जिंदगी की खामियों को चारित्रिक बदलाव से भरा जा सकता है। गरीबी के अर्थगणित से निकली कहानी ‘पटबाल’ यानी मुंडन बताती है कि अर्थगणित के बाहुपाश में जिंदगी किस कद्र घटती रहती है, लेकिन औरत की कर्मठता विडंबनाओं को ढोते-ढोते जीतना सीख जाती है। परंपराओं और आर्थिक विषमताओं का आमना-सामना करती बसंती आखिर खुद को जीतना सीख जाती है। उम्र के चरम या आत्मचिंतन के यथार्थ में जब इनसान पहुंचता है, तो उसके लिए सारा जीवन एक चलचित्र हो जाता है। ‘ब्राह्मण का कर्ज’ उतारने के लिए 85 साल के वैद जी शहर पहुंच जाते और पंडित आत्माराम की जिस तख्ती को उन्होंने स्कूल में तोड़ा था, उसका कर्ज अदा कर देते हैं। एक बूढ़े सांप के इर्द-गिर्द ‘मुमूर्षा’ आम बोलचाल में यह पूछती है कि सांप से स्वयं को बचाना जरूरी है या उसे मार देना ही उसकी मुक्ति है। कुंवर दिनेश की शैली अपनी सादगी, सरलता, सहजता और विषय को निरूपित करती ऊर्जा से भरपूर है। वह भाषायी प्रयोग करते हुए, ‘आंगन में बूढ़ी दादी के घर की दीवार से उतरती धूप को सहेज रही थी।’ ‘बाजार के कुछ लाले उसे जरूर समझाते कि वह इस तरह खुलेआम इस घिनौने धंधे से बाज आए, पर उसकी हालत अब इतनी बिगड़ चुकी थी कि उसे वापस इनसान बनाना फटे दूध को सही करने जैसा था।’ नारी उन्मुक्तता बनाम समाज की बेडिय़ों से जन्म लेती ‘ममा’ के चरित्र में घुसकर कहानी संवाद कर रही है। यहां बचपने को पीछे छोड़ते बौद्धिक विकास की फेहरिस्त में फंसे नन्हें अखिल के बड़े होने का चित्रण, अपनी विधवा मैं को सामान्य नारी स्थिति में देखने की तमन्ना से एक मार्मिक भाव व शृंगार के रस से सहज सवाल करने की छूट देता है। दोस्ती की हाय! हैलो। अब नए संबंधों का ऐसा तखल्लुस बनते जा रहे हैं जहां ‘पुराना मित्र’ भी आवभगत की नई शब्दावली में व्यावहारिक सूखापन महसूस कर सकते हैं। ‘मुआवजा’ में परिवार की बेटी के अध्याय कुपित, पीडि़त व शर्मिंदा हैं। अशुभ लक्षण में जन्म की तोहमतें अंतत: उस मुआवजे से लिपट कर उपहार बन गईं, जब प्राय: मनहूस समझी गई लक्ष्मी की बस में हुई मौत ने इतना मुआवजा दिला दिया कि बाप का सारा कर्ज उतर गया। कुंवर दिनेश की हर कहानी का एक निश्चित परिचय, आरंभ करने का सलीका, प्रवाह में चलते विषय और गंतव्य को हासिल करने की क्षमता, संग्रह को सार्थक बना देती है।

-निर्मल असो

कहानी संग्रह : जब तक •िांदा है

लेखक : कुंवर दिनेश

प्रकाशक : हिंदी साहित्य निकेतन, बिजनौर

कीमत : 220 रुपए

पुस्तक समीक्षा

हिमाचली परिवेश को रेखांकित करता उपन्यास

हिमाचली परिवेश और विशेषकर गद्दियों के जनजीवन को लेकर अनेक कहानियां एवं उपन्यास लिखे गए हैं। घुमंतू लोगों की कठिन जीवन शैली एवं दुर्गम परिवेश के कारण इन पर लिखी रचनाएं किसी को भी आकर्षित करने में सक्षम हैं, यथा रेसमां, पर्वतों के ऊपर उपन्यास, छैलो, मेमना, ठूंठ आदि कहानियां। इसी कड़ी में पीयूष गुलेरी के उपन्यास ‘झूमती याद’ का उल्लेख प्रासंगिक है। सातवें दशक में वीर प्रताप, मिलाप आदि समाचार पत्रों ने अनेक उभरते रचनाकारों के उपन्यास धारावाहिक रूप से प्रकाशित किए थे। यह जालंधर के हिंदी अखबारों का बड़ा योगदान था, जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता। यही कार्य अब ‘दिव्य हिमाचल’ बखूबी निभा रहा है। डा. गुलेरी का प्रस्तुत उपन्यास भी धारावाहिक रूप में वीर प्रताप में छपा था। पीयूष गुलेरी का उपन्यास ‘झूमती याद’ प्रत्यक्षत: एक त्रिकोणीय प्रेम कहानी है, जिसके प्रमुख पात्र हैं राकेश, लीलो, सीलो, सुरेश, सगरांदू, बलदेव, भागीराम आदि। उपन्यास यद्यपि मूलत: राकेश एवं सीलो की प्रेम कहानी है। सीलो गद्दियों की बेटी है, जो रेवड़ लेकर घूमते रहते हैं और प्राय: छह महीने गद्देरन में रहते हैं तथा सर्दी शुरू होते ही नीचे उतरने लगते हैं। उनकी अपनी समस्याएं हैं जिनका बखूबी उल्लेख उपन्यास में हुआ है।

चलते ही जाना है उन्हें चरागाहों की तलाश में। और सर्दियों में जब वे नीचे उतरते हैं तो उन्होंने डेरा डालना होता है जहां वे अपने रेवड़ के साथ तथा अपने परिवार के साथ पांच-छह महीने गुजार सकें। भागीराम गद्दी राकेश के घर डेरा डालता है और राकेश और सीलो का परस्पर मिलना जुलना प्रेम में परिणत हो जाता है। प्रेम धीरे धीरे विकसित होता है। फिर मन ही मन अंतरजातीय विवाह की समस्या का भी संकेत है। सुरेश नाम का व्यक्ति खलनायक की भूमिका में प्रकट होता है, परंतु यह खलनायक की अपेक्षा एक ईष्र्याकरने वाले व्यक्ति के रूप में अधिक उभरता है। उपन्यास के अंत में सीलो का भाई लीलो राकेश के साथ उसकी शादी करवाता है। यदि वह समय पर हस्तक्षेप न करता तो सीलो की शादी उसकी बिरादरी में हो जानी थी, सगाई तो पहले ही की जा चुकी थी। सुखद परिणति है उपन्यास की।

प्रेम कथा के अतिरिक्त उपन्यास में शिक्षण संस्थानों पर भी चुटकी ली गई है और स्कूलों में खासकर निजी संस्थानों में दोहरे मापदंड अपनाने की प्रवृत्ति पर कटाक्ष किया गया है। राकेश एक आदर्श पात्र के रूप में उभरता है जो स्वाध्याय से उपाधियां अर्जित कर कालेज में प्रवक्ता के पद पर पहुंचता है। उपन्यास में गद्दी समुदाय द्वारा गाए जाने वाले अनेक गीतों की प्रस्तुति उपन्यास को और भी रोचक बना देती है। सन् बासठ में पीयूष द्वारा रचित यह उपन्यास लेखक की मेधा का परिचायक है। भाषा शैली सुगठित, चुस्त दुरुस्त है। एक युवा लेखक की पठनीय रचना। रवीना प्रकाशन से प्रकाशित इस उपन्यास की कीमत 350 रुपए है। -डा. सुशील कुमार फुल्ल


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