शेरजंग : क्रांतिकारी से लेखक तक का सफर

By: Jan 22nd, 2023 12:05 am

राजेंद्र राजन

मो.-8219158269

साहित्य की निगाह और पनाह में परिवेश की व्याख्या सदा हुई, फिर भी लेखन की उर्वरता को किसी भूखंड तक सीमित नहीं किया जा सकता। पर्वतीय राज्य हिमाचल की लेखन परंपराओं ने ऐसे संदर्भ पुष्ट किए हैं, जहां चंद्रधर शर्मा गुलेरी, यशपाल, निर्मल वर्मा या रस्किन बांड सरीखे साहित्यकारों ने साहित्य के कैनवास को बड़ा किया है, तो राहुल सांकृत्यायन ने सांस्कृतिक लेखन की पगडंडियों पर चलते हुए प्रदेश को राष्ट्र की विशालता से जोड़ दिया। हिमाचल में रचित या हिमाचल के लिए रचित साहित्य की खुशबू, तड़प और ऊर्जा को छूने की एक कोशिश वर्तमान शृंाखला में कर रहे हैं। उम्मीद है पूर्व की तरह यह सीरीज भी छात्रों-शोधार्थियों के लिए लाभकारी होगी…

-(पिछले अंक का शेष भाग)

निर्मला लिखती हैं, सन् 1937 के अंत में या 1938 के आरंभ में जेल में एक ज़ोरदार संघर्ष हुआ। देशभर के सब राजनैतिक कैदियों ने भूख हड़ताल की। भावुकता में आकर मैंने भी 5-6 दिन भोजन नहीं किया और कमज़ोरी का आभास होने लगा, तथापि मेरा निश्चय दृढ़ रहा। तभी मुझे पार्टी ने जेल में बंदियों से संपर्क बनाने को कहा। तब मैंने सोचा, ‘‘मेरी भूख हड़ताल क्या है? क्या यह सहयोगी कार्य है?.. नही। तो क्यों न मैं अपने आप को उस काम में लगा दूं, जिससे मैं उनके संघर्ष में योगदान दे सकूं।’’ मैंने चुपचाप अपना व्रत तोड़ कर खाना खाना शुरू कर दिया और संपर्क बनाने की चेष्टा में लग गई। जेल के डॉक्टर का बेटा मेरे कॉलेज में पढ़ता था। उसके द्वारा मैंने भूख हड़तालियों से संपर्क बना लिया और उसके माध्यम से अंदर-बाहर संदेश आने-जाने लगे।

दिन बीतते गए, हमारी मैत्री प्रेम में बदल गई। जेल का वह रूखा-नीरस स्थान हमारे लिए रोमांचकारी हो गया। तभी एक घटना हुई जिससे हमारा यह अप्रत्यक्ष प्यार पंजाब सरकार असेम्बली में प्रश्र का विषय बन गया। मेरा एक पत्र एक ऐसे व्यक्ति के हाथ में आ गया जिसने उसका पूरा लाभ उठाना चाहा। उसने पत्र को हथिया कर पंजाब के मुख्यमंत्री सिकन्दर को भेज दिया। ‘‘जेल में प्रेम’’! जेल के अनुशासन पर एक प्रश्नचिन्ह लग गया और साथ में मेरे परिवार में भी चिंता की लहर दौड़ गई। मैं अपने पिता की चिंता को समझ सकती थी। क्रांतिकारी के साथ बेटी का संबंध उनकी दृष्टि में खतरे से खाली नहीं था। पिता जी ने मुझे बहुत समझाया किन्तु वह मेरे इरादे को बदल नहीं पाए। उन्होंने नाराज़ होकर मुझे घर छोड़ देने को कहा। मैं होस्टल में चली गई और ट्यूशन से अपना खर्च चलाने लगी। 2 मई 1938 को मैं परीक्षा से लौटी तो होस्टल के प्रवेश द्वार पर मुझे शेरजंग दिखाई दिए। यह क्या? …. यह कैसा विभ्रम ….? मैं ठिठकी और आंखें उठाकर सीधे देखा। …. शेरजंग ही है। …. ‘‘आप?’’…. ‘‘हां, मैं रिहा हो गया हूं’’।

उन्होंने कहा ‘‘अचानक कैसे?’’ मैंने पूछा। …. उन्होंने कहा, ‘‘सरकार को डर था कि अगर मेरी रिहाई की सूचना बाहर निकल गई तो जेल पर भीड़ इक_ी हो जाएगी। इसलिए इसे बिल्कुल गुप्त रखा गया। मुझे दफ्तर में बुलाकर आर्डर थमा दिया गया और एक तांगे में बिठा दिया गया। मैं सीधे यहां चला आया।’’ मैं कुछ असमंजस में पड़ गई परंतु शीघ्र ही उन्हें उनके मित्र राणा जंग बहादुर के घर ले गई। मेरी परीक्षा दस मई तक थी। कुछ विशिष्ट जनों की मध्यस्ता से सरकार ने शेरजंग के पंजाब निष्कासन का हुक्म मेरी परीक्षा के पूरा हो जाने तक रोक लिया। मेरी परीक्षा खत्म हुई और बारह मई को पिता जी ने मेरे निर्णय को स्वीकार करते हुए पूरे रीति-रिवाज से मेरा विवाह कर दिया। चौदह मई को हम परिवार के साथ हरिद्वार के लिए रवाना हो गये। शेरजंग अपने अज्ञातवास के दिनों में हरिद्वार रहे थे। इसलिए वहां से कुछ लोग हमें लेने आए थे। उनका प्यार भरा आग्रह हमारे लिए मानो हुकम बन गया था। शेरजंग की अंग्रेजी भाषा में लिखी अपने पुस्तकों का निर्मला ने अनुवाद किया जिसमें उनकी खूब चर्चित पुस्तक ‘प्रिजन डेज़’ भी शामिल है।

जेल में ही शेरजंग ने उर्दू, हिन्दी में कविताएं लिखनी आरंभ की जो बाद में उनकी अनेक काव्य संकलनों में शामिल हुईं। जेल में ही उनकी भेंट हिन्दी के महान व युगान्तरकारी लेखक सच्चिदानंद वात्सायायन अज्ञेय से हुई। अज्ञेय ने शेरजंग पर अनेक लेख लिखे व उनकी काव्य यात्रा का विस्तार से वर्णन किया। 1935 में लाहौर जेल में अज्ञेय और शेरजंग साथ-साथ थे। क्रांति के दिनों में अज्ञेय केवल वात्सायन के नाम से जाने जाते थे। जंगे आज़ादी के दौरान कोई भी स्वाभिमानी व संवेदनशील युवक तटस्थ नहीं रह पाया था। अज्ञेय भी स्वाधीनता संग्राम में कूद पड़े और पंजाब की जेलों में लम्बे अरसे तक बंदी रहे। एक दफा तो शेरजंग और वात्सायायन एक ही जेल में बंद थे। अपनी किताब ‘प्रिज़न डेज़’ में शेरजंग लिखते हैं, ‘मैं लाहौर में स्थित द्वारिकादास पुस्तकालय का $खासतौर से शुक्रगुजार हूं। 14 साल जेल में रहते हुए मुझे जो भी पुस्तकें चाहिए थीं। यह लाइब्रेरी मुझे डाक से भेजती रही। इन किताबों ने मेरे मस्तिष्क के क्षितिज को विस्तार दिया। जेल में रहते हुए शेरजंग ने कार्लमाक्र्स, ऐन्जलस, लेनिन को पढ़ा तो सोरेल, स्किमडिट, प्रोधन क्रोपोटोकिन व बकुनिन की किताबें भी पढ़ीं। लीयो टालस्टाय की सभी किताबें पढ़ डालीं। उन पर वे बारीकी से समीक्षा करते थे।

8 अप्रैल 1929 को भगत सिंह के साथ सैंट्रल लैजिस्लेटिव असैम्बली में बटुकेश्वर दत्त ने बम फैंका था। मई 1930 को जब हाई कोर्ट ने शेरजंग को अहमदगढ़ रेल डकैती में मौत की सज़ा सुनाई थी तो उन्हें सीधे लुधियाना कोर्ट से लाहौर जेल ले जाया गया था। यहीं पहले ही दिन उनकी भेंट बटुकेश्वर दत्त से हुई। बटुकेश्वर दत्त से मिलकर शेरजंग को बेहद खुशी हुई और वे कुछ पल के लियेस्वयं पर हुए अत्याचार व क्रूरता को भूल गये। बटुकेश्वर दत्त पर अपने एक लेख में शेरजंग लिखते हैं, ‘बटुकेश्वर दत्त और भगत सिंह लाहौर जेल में ही थे। दत्त रोज़ मुझे मिलने आते थे। पहले ही दिन उसने मुझे दो किताबें पढऩे को दीं। रोवसपीयर के नाटक और ‘थामॅस ए, कैम्पिस की ‘इमिटेशन ऑफ क्राइस्ट’। यूं तो मेरी जान पहचान भगत सिंह से काफी पहले से थी। लेकिन हम तीनों उस वार्ड में एक महीना रहे जो मौत की सजा पाने वाले कैदियों के लिये आरक्षित था। एक महीने बाद बटुकेश्वर को अंडेमान जेल में भेज दिया गया था। जब तक वो लाहौर जेल में रहा, वो हर रोज मुझे मिलने आता। कभी किताब, कभी अखबार, कभी कोई संदेश, कभी कोई चिट्ठी तो कभी खुशियों के अलफाज़ लेकर आता। हम तीनों यानी मैं, बटुकेश्वर और भगत सिंह एक-दूसरे का ख्याल रखते और ऊंचा मनोबल बनाए रखते।’

जेल में लेखक का जन्म

जेल में रहकर शेरजंग नक्काश नाम से शायरी लिखते थे। उर्दू के कठिन शब्दों के प्रयोग और फारसी के शब्दों के इस्तेमाल ने उनकी शायरी को कभी-कभार आम आदमी की समझ से दूर भी रखा। लेकिन वे उसकी गहराई व उसके मारक अर्थों से समझौता न कर पाये। यह भी कम हैरतअंगेज नहीं है कि 14 साल तक पंजाब की जेलों में अपने यौवन को स्वाहा कर देने वाले शेरजंग ने अपनी सृजनात्मक प्रतिभा को क्षीण नहीं होने दिया। लगातार लिखते रहे और 1944 के बाद जब वे रिहा हुए तो किताबों की शक्ल में जो उनका सृजनात्मक लेखन सामने आया वह उनके क्रांतिकारी व्यक्तित्व के प्रभाव और आभामंडल में दब सा गया। यह बात कम दिलचस्प नहीं है कि अज्ञेय जैसे हिन्दी के स्तम्भ ने शेरजंग जैसे हीरे को पहचाना और उनकी काव्य यात्रा पर 1935 में ‘विशाल भारत’ पत्रिका में एक लंबा आलोचनात्म्क लेख लिखा। शक्ति चंदेल की शेरजंग पर छपी पुस्तक में यह लेख संकलित है और इसे खोजने का कार्य शेरजंग की पत्नी निर्मला ने किया था।

-(शेष भाग निचले कॉलम में)

अतिथि संपादक

डा. सुशील कुमार फुल्ल
मो.-9418080088
हिमाचल रचित साहित्य -४८
विमर्श के बिंदु
1. साहित्य सृजन की पृष्ठभूमि में हिमाचल
2. ब्रिटिश काल में शिमला ने पैदा किया साहित्य
3. रस्किन बांड के संदर्भों में कसौली ने लिखा
4. लेखक गृहों में रचा गया साहित्य
5. हिमाचल की यादों में रचे-बसे लेखक-साहित्यकार
6. हिमाचल पहुंचे लेखक यात्री
7. हिमाचल में रचित अंग्रेजी साहित्य
8. हिमाचल से जुड़े नामी साहित्यकार
9. यशपाल के साहित्य में हिमाचल के रिश्ते
10. हिमाचल में रचित पंजाबी साहित्य
11. चंद्रधर शर्मा गुलेरी की विरासत में

शेरजंग का आजादी की लड़ाई में योगदान

-(ऊपरी कॉलम का शेष भाग)

अज्ञेय क्रांतिकारी शेरजंग और शायर के रूप में नक्काश नाम से चर्चित के बारे में उक्त लेख में लिखते हैं, ‘नक्काश एक कुलीन राजपूत युवक है। बचपन ही से वह विद्रोही रहा है। बच्चा होकर बड़ों के विरुद्ध, विचारक होकर रूढि़ के विरुद्ध, नागरिक होकर समाज के विरुद्ध, प्रजा होकर राजा के विरुद्ध और अंत में बंदी होकर सरकार के विरुद्ध, वह लड़ता ही आया है, इस लड़ाई में वह थका भी है, निराश भी हुआ है, रोया भी है, हारा भी है, लेकिन पराजित नहीं हुआ। रह-रहकर उसकी शक्तिमयी आत्मा फिर जाग उठती है। जब वह बन्दी नहीं था, तब वह वन के जीवन से, साल के वृक्षों से जमुना के कूल से, पहाड़ की चोटियों से, तारों भरी सुनसान रातों से, गूजरों के भटकते हुए मवेशियों से और गूजरियों के बिखरे हुए गान से और सबसे अधिक अपनी बंदूक से निकली हुई शिकारी को उल्लसित कर देने वाली बारूद की गन्ध से प्रेरणा पाता था।’ अब बन्दी होकर उन्हीं की स्मृति से, उनसे अलग रखने वाली ज़जीरों की कठोरता से और उन जंज़ीरों को तोड़-फोडक़र बाहर निकल आने का आवाहन करने वाले किसी अदम्य आकर्षण से पाता है। जेल में आशा, निराशा, घात-प्रतिघात की पीड़ा से लबरेज नक्काश लिखता है : ‘यही है फसले गुल अब तो/यही गुलशन यही दुनिया/मेरा सब कुछ यही/मेरे दरो दीवार जिंदा है।’ एक और बानगी देखिए : ‘कफस की तालियों में बेकफन ही/वतन से दूर दफनाया गया हूं कहीं/अब करो जुल्मों सितम/शौक से जितना चाहे/दिल को हम आज से बेखौफे सजा करते हैं/सैंकड़ों वीरानियों से है लिये आबाद दिल/जो कि तन्हा हूं व लेकिन खुद ही इक महफिल हूं मैं।’

महज चार या पांच क्लास तक शिक्षा प्राप्त करने के बावजूद वे एक बड़े लेखक बने और 10 किताबों की रचना की। उन्हें हिंदी, उर्दू, फारसी, अंग्रेजी के अलावा अनेक भाषाओं का ज्ञान प्राप्त था। ये सभी भाषाएं उन्होंने अनौपचारिक शिक्षा से प्राप्त कीं। खा़सकर 1929 से 1938 के मध्य लाहौर और पंजाब की जेलों में बिताए दिनों में उनके भीतर का लेखक मुखर होकर सामने आया। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। हिन्दी के महान लेखक अज्ञेय के साथ जेल में रहते हुए शेरजंग ने उन्हें उर्दू सिखाई तो अज्ञेय ने शेरजंग को हिंदी। साल 1967 में उनकी एक पुस्तक ‘ट्रिस्ट विद टाइगरस’ रोबर्ट हेल लंदन से प्रकाशित हुई थी। मूलत: अंग्रेजी में रचित पुस्तक ‘प्रिज़न डेज़’ का हिंदी अनुवाद उनको पत्नी निर्मला ने ‘कारावास के दिन’ नाम से किया था जिसे देश के शीर्ष हिंदी प्रकाशक राजकमल ने प्रकाशित किया था। शेर जंग की पत्नी निर्मला ने भी अनेक पुस्तकों के माध्यम से हिंदी साहित्य में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई है। अपने पति की पुस्तकों को अनुवाद जिस कौशल और कल्पनाशीलता से वे पाठकों के समक्ष ला पायी उससे स्पष्ट है कि वे एक बेहद संवेदनशील लेखिका थीं। अपनी एक पुस्तक ‘शेरजंग : हिमाचल का शेर’ में एक अध्याय शेरजंग की सृजन यात्रा पर केंद्रित है, ‘-यानी किस प्रकार युवावस्था में जो व्यक्तित्व एक महान क्रांतिकारी के रूप में देश ने देखा वह जेल में सजायाफता कैदी और रिहाई के बाद के सालों में लेखक के रूप में ढला।’

निर्मला लिखती हैं : ‘शेरजंग को अनेक भाषाओं का ज्ञान था। अंग्रेजी, उर्दू, हिन्दी, उर्दू, फारसी, बंगाली और जर्मन। उनकी पहली प्रकाशित पुस्तकें हिंदी और उर्दू में हैं, तो बाद में लिखी पुस्तकें प्रमुखत: अंग्रेजी में हैं। उर्दू और अंग्रेजी की पत्रिकाओं में उनके लेख प्राय: छपते रहते थे। उनकी पहली पुस्तक ‘ओराके परीना’ उर्दू की नॉवल है। यह पुस्तक उनके बंदीकाल में प्रकाशित हुई थी। उनकी अंतिम पुस्तक, ‘प्रिज़न डेज़’ अंग्रेजी में है जो सन् 1991 में बी.आर. पब्लिशिंग कॉर्पोरेशन से प्रकाशित हुई थी।’ जिस समय शेरजंग बंदी हुए थे उस समय वे केवल उर्दू और फारसी जानते थे। उनके पिता चौधरी प्रताप सिंह इन भाषाओं के विद्वान थे। जेल जाने से पूर्व शेरजंग ने केवल उर्दू साहित्य ही पढ़ा था। उर्दू में कुछ कविताएं भी लिखी थी जिन्हें किशोरावस्था की मन-तरंगें ही कहा जा सकता है। उनका अंग्रेजी का ज्ञान लगभग न के बराबर था। उस समय जेल में बंदियों को विशेषकर राजनैतिक बंदियों को पढऩे-लिखने की सुविधाएं नहीं दी जाती थी। शेरजंग को एकाकी कैद भी बहुत भुगतनी पड़ी, परंतु अन्य कैदियों के द्वारा उन्होंने चोरी छिपे दूसरे क्रांतिकारियों से पुस्तकें प्राप्त की और पढ़ीं। बैरक में दूसरों से हिंदी और अंग्रेजी पढ़ी और उन्हें फारसी सिखाई। प्रसिद्ध हिंदी लेखक और कवि सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ से हिंदी सीखी और उन्हें उर्दू सिखायी। दोनों को कविताओं से प्रेम था। दोनों ने मिलकर हिंदी और अंग्रेजी कविताओं की रचना भी की। शेरजंग ने जर्मन भाषा जीवन लाल गाबा से सीखी। वे संपन्न और बहुत शिष्ट परिवार से थे।

पढऩे-लिखने के शौकीन थे। कुछ दीवानी झगड़ों की उलझन में फंसकर वे लाहौर जेल में बंद थे। शेरजंग को उन्होंने पूरी तन्मयता से जर्मन सिखाई। बाद में इनकी मित्रता एक प्रकार से पारिवारिक संबंधों में बदल गई। शेरजंग ने अपने कविता संग्रह ‘‘लोरजा’’ को भी मृणाल के नाम से प्रकाशित करवाने की सोची जो सन् 1937 में शारदा मंदिर, दिल्ली से प्रकाशित हुआ। इसको प्रकाशित करवाने का श्रेय प्रसिद्ध हिंदी कहानी लेखक और स्वतंत्रता सेनानी जेनेंद्र कुमार को है। शेरजंग ने कुछ उर्दू कविताएं भी लिखी थीं जिसकी किताब क्रांतिकारी जहांगीर लाल के छोटे भाई इंद्रपाल ने की थी, जो स्वयं भी सैण्ट्रल जेल लाहौर में राजनैतिक कैदी थे। इस पुस्तक के प्रकाशित होने से पहले ही मई 1938 में शेरजंग रिहा हो गये और रिहा होते ही पंजाब से निष्कासित कर दिये गए।

-(शेष भाग अगले अंक में)

पुस्तक समीक्षा

परवा•ा : दीवार के उस पार की घनीभूत अनुभूतियों की अभिव्यंजना

डा. देवकन्या ठाकुर विविध मुखी प्रतिभा की धनी हैं। उनकी सर्जनात्मक प्रतिभा उनके उपन्यास ‘मलाणा क्रीम’ और कहानी संग्रह ‘मोहरा’ में बखूबी देखी जा सकती है। वे कवि, कथाकार होने के साथ-साथ फिल्मकार और फिल्म निर्देशक भी हैं। हिमाचल प्रदेश की जेलों में जेल सुधारों पर आधारित उनकी फिल्म ‘बिहाइंड द वारज’ और जनजातीय महिलाओं को पैतृक संपत्ति से वंचित रखने संबंधी निर्मित फिल्म ‘नो वुमन्स लैंड’ चर्चित और राष्ट्रीय मानवाधिकार द्वारा पुरस्कृत भी हुई है। उनकी विलक्षण प्रतिभा उनके संपादन कार्य में भी देखी जा सकती है। ‘परवा•ा’ शीर्षक से उनका सद्य: संपादित काव्य संग्रह है जिसमें हिमाचल प्रदेश की कारागारों में जीवन गुजार रहे पच्चीस कवियों की एक सौ बतीस कविताएं संग्रहीत हैं। आदर्श केंद्रीय कारागार नाहन, आदर्श कारागार (कंडा) शिमला, जिला कारागार धर्मशाला और उप कारागार मंडी, जिला कारागार (कैथू) शिमला में कैदी जीवन गुजार रहे पच्चीस कवियों की कविताएं विविध मुखी और विविध रंगों की संवेदना भूमि से संबंध रखती हैं। ‘परवा•ा’ शीर्षक इस काव्य संग्रह के प्राक्कथन में सतवंत अटवाल त्रिवेदी, अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक कारागार एवं सुधार सेवाएं, शिमला ने स्पष्ट किया है, ‘हर मनुष्य क्षमता और सच्चाई के साथ पैदा हुआ है और वह अपने आदर्शों और भावनाओं के साथ अपने ज़मीर को जि़ंदा रखता है। इसी परवा•ा से उपजे इस काव्य संग्रह में सलाखों के पीछे कुछ बंद आवाजों ने अपनी आंतरिक चेतना को नवीन पंक्तियों के रूप में समाहित किया है।’

‘संपादक की कलम से’ शीर्षक भूमिका के अंतर्गत संपादक डा. देवकन्या ठाकुर ने कारागृह की सलाखों और दीवारों के पीछे जिन कविताओं को सृजन किया है, उनकी संवेदना भूमि और उनमें निहित सार्वभौमिक सत्य को सारगर्भित और तार्किक भाषा में व्यंजित किया है। इस संपादित संग्रह की कविताएं कवियों के भोग हुए क्षण की सहज, सरल अभिव्यक्ति है, कहीं भी काल्पनिकता का भ्रम उत्पन्न नहीं करतीं। कविताओं से गुजरते हुए सहज सहृदय कवि की आत्म पीड़ा, आत्मग्लानि, पश्चाताप, स्वाभिमान पूर्ण जीवन जीने की चाह, परिस्थितियों की विडंबना से उत्पन्न स्थितियों और नियति काव्य संवेदना की आधार भूमि प्रत्येक कवि की दृष्टि में केंद्रित रही है। इन कविताओं से कवि स्वयं को सृजित करता हुआ प्रतीत होता है। संग्रह की कुछ कविताएं समाज की विसंगतियों और विकृतियों पर केंद्रित हंै। कुछ कविताओं में किशोर प्रेम की कल्पना में जीने वाले कवि की प्रेम अभिव्यंजना है। इस काव्य संग्रह के प्रारंभ में सुभाष चंदेल की कविताएं वक्त, महात्मा गांधी, शायराना अंदाज, धरती माता, वक्त ही सर्वोपरि, जीवन, तथ्य, याचना, खुद ही, दर्दे दास्तां आदि संग्रहीत हैं। श्याम सिंह की कविता शीर्षक कविता में जेल जीवन की विवश परिस्थितियों और पश्चाताप को व्यंजित किया है। कवि प्रताप सिंह ने ‘आजादी तुम हो’ में सुभाष, भगत सिंह, राजगुरु और चंद्रशेखर आजाद के स्वतंत्रता प्राप्ति के संघर्ष को स्मरण करते हुए वर्तमान में आजादी की रिक्तता को अनावृत किया है। सतीश कुमार की ‘रिश्ते कच्चे धागे की डोर’ में प्रेमानुभूति, विरह, आशा और निराशा के अंधकार का चित्रण है। कवि राहुल के दोहों में जीवन की क्षणभंगुरता और गुरु के महत्व आदि भावों की अभिव्यक्ति है। नर बहादुर की कैद, उलझन, वक्त, करीब, सलाखें, उम्र बंदी, दर्द, जख्म, वक्त की गाड़ी आदि कविताओं में जेल जीवन का अकेलापन, कारागार की कोठरी में घुटन भरी मनोस्थिति, पश्चाताप आदि की व्यंजना है। कवि अयान अहमद की दूरी, उम्मीद, ऐ देश, मुआवजा आदि कविताओं में प्रेमानुभूतियों और देश के लिए कुछ करने की भावना का उन्मेष है।

कवि बलदेव की दीवार के इस पार, बिटिया मेरी लाडली, अपने से दूर, नारी जीवन, मुझे भी जीने दो, विचार, गुजऱा वक्त, हालात आदि कविताएं इस संग्रह में सम्मिलित हैं। कवि सलीम की मेरा हिंदुस्तान, मेरा खुदा, मैंने देखा, बेटी, ऐ देश मेरे, सफर, महबूब, गर तुम कह दो, तुमसे न मिला होता, तुमसे मिला हूं जिंदगी कविताएं इस संग्रह में सम्मिलित हैं। कवि कृष्ण की इस संग्रह में तीस कविताएं संग्रहीत हैं। इन कविताओं में कवि यह व्यक्त करता है कि जेल में व्यक्ति कितना अकेला हो जाता है। कवि रामचंद्र की कुदरत, वक्त, भौतिक सुख, न्याय, उम्मीद, नशा, रूह, माटी के सपूत, महफिल, इंडिया, आंसू आदि कविताएं संग्रहीत हैं। कवि भागमल सौहटा की जब आया जेल में अब लगा पता, ऐ मेरे दोस्त, अब दिन आएंगे अच्छे में जेल जीवन के यथार्थ की व्यंजना है। श्याम सिंह ने नास्तिक कविता में यह स्पष्ट किया है कि ईश्वर के प्रति किंचित भी अनुरक्ति और भक्ति नहीं रखी। माया मोह के चक्कर में धन संचय करता रहा। अतुल ठाकुर की कविता ‘यह मेरी आदत’ में नियति बदलने की स्थितियों का निरूपण है। अरविंद मलिक, आनंद गोपाल, मुरारी लाल, जय राम सूर्यवंशी, कवि देवराज की कविताएं भी इस संग्रह में संग्रहीत हैं। उषा कुमारी, गुरपाल, अमर सिंह, आशा काइथ, विजय कुमार ठाकुर व संजय राणा की कविताएं भी श्रेष्ठ हैं। डा. देवकन्या ठाकुर ने इस अद्भुत काव्य संग्रह के संपादन के माध्यम से महत्वपूर्ण कार्य किया है। निश्चित रूप में पाठकों में ‘परवा•ा’ को पढऩे की जिज्ञासा उत्पन्न होगी। पाठक इस संग्रह का स्वागत करेंगे।

-डा. हेमराज कौशिक

हिमाचल के योद्धाओं को मंडोत्रा का नमन

भगत राम मंडोत्रा की पुस्तक ‘हिमाचल प्रदेश के शूरवीर योद्धा’ प्रकाशित हुई है। इसमें परमवीर चक्र, अशोक चक्र और महावीर चक्र विजेताओं की शौर्य गाथाएं दी गई हैं। आजादी के अमृत महोत्सव पर यह प्रकाशन हुआ है। कांगड़ा निवासी मंडोत्रा भारत के निगहबानों को यह पुस्तक समर्पित कर रहे हैं। पुस्तक के प्रकाशक स्वयं लेखक ही हैं तथा इसकी कीमत 300 रुपए है। हिमाचल प्रदेश की भूमि ने चार परमवीर चक्र, तीन अशोक चक्र, 12 महावीर चक्र तथा 23 कीर्ति चक्र विजेता पैदा किए हैं। इसके अलावा 1107 सैनिक विभिन्न पदकों से सम्मानित हैं।

कांगड़ा जिला का सैन्य इतिहास में सर्वाधिक योगदान है। परमवीर चक्र विजेताओं में मेजर सोमनाथ शर्मा, मेजर धन सिंह थापा, राइफल मैन संजय कुमार तथा कैप्टन विक्रम बतरा शामिल हैं। इसी तरह अशोक चक्र विजेताओं में कैप्टन जसबीर सिंह रैना, कैप्टन संदीप शांकला व मेजर सुधीर कुमार वालिया की शौर्य गाथाएं छापी गई हैं। महावीर चक्र विजेताओं में ले. कर्नल कमान सिंह, मेजर पृथी चंद, मेजर खुशाल चंद, ले. कर्नल शेर जंग थापा, ले. कर्नल अनंत सिंह पठानिया, सिपाही कांशी राम, हवलदार सतिंजियन फुनचोक, कैप्टन चंद्र नारायण सिंह, मेजर रणजीत सिंह दयाल, ले. कर्नल कश्मीरी लाल रतन, मेजर बासदेव सिंह मनकोटिया, ले. कर्नल रतन नाथ शर्मा व ले. कर्नल इंदरबल सिंह बावा शामिल हैं। योद्धाओं की शौर्य गाथाएं पढक़र पाठक निश्चय ही वीर रस की अनुभूति करेगा। आशा है यह किताब पाठकों को पसंद आएगी। यह किताब संग्रहणीय भी है।

-फीचर डेस्क


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