व्यवस्था परिवर्तन की ओर कुछ कदम

प्रदेश के मुख्यमंत्री पहले दिन से व्यवस्था परिवर्तन की बात कर रहे हैं। इसके लिए बड़े और कड़े निर्णयों की आवश्यकता है और यदि सरकार इसी तरह निर्णय आने वाले समय में भी लेती है तो सरकार का यह प्रयास सफल हो सकता है। सरकार को जनता से किए वादे भी पूरे करने हैं…

नई चुनी हुई सरकारों के संदर्भ में यदि पिछले कुछ वर्षों का इतिहास देखा जाए और उनकी कार्यप्रणाली का मोटे तौर पर अध्यनन किया जाए तो सभी सरकारों की कार्यप्रणाली लगभग एक जैसी ही रही है। सरकार बनते ही कैबिनेट की पहली मीटिंग में पिछली सरकार द्वारा की गई घोषणाओं की समीक्षा के निर्णय के साथ ही जनता के किसी न किसी वर्ग को राहत देने के लिए कोई बड़ा निर्णय लिया जाता रहा है। पूर्ववर्ती सरकार ने भी अपनी पहली ही कैबिनेट मीटिंग में पिछली सरकार के निर्णयों की समीक्षा के अलावा बुजुर्गों को दी जाने वाली सामाजिक सुरक्षा पेंशन का दायरा अस्सी वर्ष से घटाकर 70 वर्ष कर दिया था। इसके अलावा एक बड़ा प्रशासनिक फेरबदल और बड़े स्तर पर तबादले भी नई सरकारों की कार्यप्रणाली का एक अहम हिस्सा रहे हैं। अमूमन कैबिनेट की पहली बैठक में पिछले निर्णयों की समीक्षा करने का निर्णय आज तक केवल कागजों तक ही सीमित रहा है और इक्का दुक्का घटनाओं को छोडक़र कभी भी बड़े स्तर पर पिछली सरकार के निर्णयों को नहीं पलटा गया। इसके अलावा जब सरकारें चुनावी वर्ष में होती थीं, तब भी सभी पूर्व की सरकारों की कार्यप्रणाली लगभग एक जैसी ही रही है। आखिरी वर्ष में घोषणाओं के दम पर सरकारों को रिपीट करने की कोशिश की जाती रही है लेकिन पिछले तीन दशकों में कोई भी पार्टी इसमें कामयाब नहीं हो पाई है।

लगभग नब्बे प्रतिशत की साक्षरता दर वाले इस पहाड़ी राज्य के वोटरों ने अपने सोचने और समझने का अंदाज बदल लिया है। चुनावी वर्ष में घोषणाओं के राजनीतिक दलों के अंदाज को जनता भली भांति समझ चुकी है, लेकिन अभी तक राजनीतिक दल और उनके रणनीतिकार जनता के इस बदले हुए अंदाज को समझ नहीं पाए हैं। जनता की बदलती हुई सोच के अनुसार ही यदि घोषणाएं की जाएं और निर्णय लिए जाएं तो शायद राजनीतिक दलों को इसका अधिक लाभ मिल सकता है। इस बार हिमाचल प्रदेश की नई चुनी हुई सरकार मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू के नेतृत्व में एक नए अंदाज में कार्य कर रही है और ये नया अंदाज जनता की वाहवाही पाने में सफल भी रहा है। नई सरकार द्वारा बिना किसी कैबिनेट की मीटिंग के ही चुनावी वर्ष में खुले सैंकड़ों कार्यालयों को बंद करने का निर्णय बहुत ही साहसिक कार्य है। इस निर्णय को भले ही मौजूदा सरकार ने इसलिए लिया है कि इन कार्यालयों को चुनावी घोषणाओं के रूप में खोला गया था, लेकिन फिर भी इस निर्णय को एक बड़े परिप्रेक्ष्य में देखने की आवश्यकता है। हमने पिछले दिनों कोविड-19 के समय घरों में रहकर यह सीख लिया है कि सूचना प्रौद्योगिकी के इस युग में घरों और कार्यालयों की दूरी कोई ज्यादा अहमियत नहीं रखती। कार्यालय जनता की पहुंच में है या नहीं इसका कोई ज्यादा प्रभाव आजकल नहीं पड़ता। कुछ ही समय के बाद 5-जी रफ्तार का आनंद सभी प्रदेशवासी उठाने वाले हैं। ऐसे में सूचना प्रौद्योगिकी के माध्यम से मोबाइल पर एक क्लिक से घरों और कार्यालयों की दूरी को बिल्कुल खत्म किया जा सकता है। इसके अलावा सडक़ों का जाल हर गांव, शहर में बिछ चुका है और यातायात के साधनों की भी कोई कमी नहीं है। इसलिए कार्यालय घर के नजदीक हों या दूर, कोई मायने नहीं रखता।

इसके अलावा यह भी बात ध्यान देने योग्य है कि जनता को समस्या पीने के पानी की है और इस समस्या का समाधान जल शक्ति विभाग का कार्यालय घर के पास खोलकर पूरी करने की कोशिश की जाती है तो न तो इसका लाभ जनता को होगा और न ही किसी राजनीतिक दल को। जल शक्ति विभाग का कार्यालय खोलने से ज्यादा जरूरी है कि प्रतिदिन समय पर पानी की आपूर्ति घरों में की जाए और ये कार्य कार्यालय में बैठकर नहीं बल्कि फील्ड में उतर कर पूरा किया जाता है। बिजली के दफ्तरों से ज्यादा जरूरी चौबीस घंटे बिजली की आपूर्ति है ताकि जनता को दफ्तरों के चक्कर न काटने पड़ें। लोक निर्माण विभाग के कार्यालय के बजाय अच्छी सडक़ों का निर्माण और मरम्मत का कार्य अधिक जरूरी है। इसलिए कार्यालयों से कहीं अधिक आवश्यकता कार्यप्रणाली में सुधार की है। इसके अलावा यह भी देखा जाता है कि नए कार्यालय खोलने की मांग जनता की तरफ से बहुत कम आती है। हिमाचल ही नहीं बल्कि किसी भी प्रदेश की जनता इस बात से कोई मतलब भी नहीं रखती कि कोई कार्यालय उनके घरों से कितनी दूर है क्योंकि कार्यालयों की तुलना में महंगाई, बेरोजगारी, सुरक्षा और भ्रटाचार के मुद्दे काफी बड़े हैं। नए कार्यालयों को खोलने की घोषणा चुनावों में पार्टी प्रत्याशियों के रिपोर्ट कार्ड की शान बढ़ाने के अलावा और कुछ भी नहीं है। नए कार्यालयों को खोलना कोई बुरी बात भी नहीं है, लेकिन इसके ऊपर प्रत्येक विभाग को एक विस्तृत कार्ययोजना के रूप में काम करना चाहिए ताकि चुनावी वर्ष में इस तरह की घोषणाओं की आवश्यकता ही न रहे।

जो दूसरा साहसिक कार्य नई सरकार द्वारा किया गया है, वो हमीरपुर स्थित हिमाचल प्रदेश सहायक सेवा चयन आयोग को सस्पेंड करने का है। प्रदेश के पढ़े लिखे बेरोजगारों के भविष्य से हो रहे खिलवाड़ से उनको बचाने के लिए प्रदेश सरकार द्वारा लिया गया यह एक बेहतरीन निर्णय है। प्रदेश के इतिहास में शायद यह पहली बार ही हुआ होगा कि सरकार बनने के बाद एक लंबे समय तक न तो मंत्रिमंडल का गठन हुआ और न ही कोई कैबिनेट की बैठक आयोजित की गई। मंत्रिमंडल का गठन सरकार और पार्टी का आंतरिक मामला है लेकिन कैबिनेट की बैठक का सीधा संबंध जनता से होता है क्योंकि इन बैठकों में जनता से जुड़े हुए मुद्दों पर निर्णय लिए जाते हैं। सरकार पहली कैबिनेट की मीटिंग में पुरानी पेंशन की बहाली को प्रतिबद्ध नजर आ रही है। ये निर्णय बहुत बड़ा है, इसलिए सरकार इसमें कोई जल्दबाजी करने के मूड में शायद नहीं है। क्योंकि यदि इस सरकार का ये पहला निर्णय ही आने वाले समय में बैक फायर कर जाता है तो सरकार के लिए मुश्किल खड़ी हो सकती है। इसलिए सभी पहलुओं को ध्यान में रखने के बाद और उन पर चर्चा के बाद ही सरकार कैबिनेट की मीटिंग बुलाकर उसमें पुरानी पेंशन की बहाली का निर्णय ले सकती है। प्रदेश के मुख्यमंत्री पहले दिन से व्यवस्था परिवर्तन की बात कर रहे हैं। इसके लिए बड़े और कड़े निर्णयों की आवश्यकता है और यदि सरकार इसी तरह निर्णय आने वाले समय में भी लेती है तो सरकार का यह प्रयास सफल हो सकता है।

राकेश शर्मा

लेखक जसवां से हैं


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