देसी पहचान खत्म करने की रणनीति

भारतीय देसी मुसलमान भी एटीएम की इस दुर्भावना को पकड़ नहीं पा रहे हैं। ताज मोहम्मद एटीएम की इसी दुर्भावना पर व्यंग्य कसते हुए लिखते हैं, ‘ये सैयद साहिब हालांकि अपनी अपील में मुसलमानों के बीच जाति विशिष्टता के खिलाफ दलील देते दिखाई पड़ते हैं परंतु व्यावहारिक उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए उन्होंने स्वयं अपने नाम के आगे सैयद लिखने से परहेज़ नहीं किया। यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि उदाहरण प्रस्तुत करना उपदेश देने से बेहतर होता है। वह एक ही सांस में गर्म और ठंडी आहें भरते हुए जान पड़ते हैं।’ भारतीय देसी मुसलमानों का यह आशा करना कि एटीएम के लोग भी अपने सिर पर से सैयद की कलगी हटा लें, शायद शेरनी के दूध की आशा करना ही है। दरअसल एटीएम के पास सैयद नाम का यह पिंजरा ही तो है जिसमें वे भारतीय देसी मुसलमानों यानी मोमिनों को बंद करके रखते हैं। इस रणनीति से मतांतरित भारतीय देसी मुसलमान सैयदी कर्मकांडों के शिकंजे में अच्छी तरह फंस जाएंगे। इसलिए इस समाज में नया मजहब अपनी जडें़ जमा लेगा और अपनी परंपराओं व कर्मकांड से टूटे हुए इन देसी मुसलमानों का आसानी से सैयदीकरण हो सकेगा…

एटीएम (अरब, तुर्क, मंगोल) भारतीय मुसलमानों को अपना ग़ुलाम मानने की मानसिकता से ग्रसित रहे हैं। एटीएम की मानसिकता की शुरुआती अभिव्यक्ति जियाऊद्दीन बर्नी के कथनों में चौदहवीं शताब्दी में ही मिल जाती है। बर्नी ने भारत में शासन कर रहे एटीएम के शासकों को इस आदेश का हवाला देकर समझा रहा है कि उन्हें भारतीय देसी मुसलमानों से कैसा व्यवहार करना चाहिए। बर्नी के अनुसार, ‘केवल अशरफ समाज को यह अधिकार प्राप्त है कि वे समाज में उच्च पदों को सुशोभित करें।’ लेकिन यह कैसे सम्भव था? बर्नी ने इस समस्या का समाधान यह कहते हुए दिया कि ‘समाज के निचले वर्ग के लोगों को शिक्षा ही नहीं देनी चाहिए।’ जाहिर है बर्नी का निचले कुल के मुसलमानों से अभिप्राय देसी मुसलमानों से ही है। बर्नी जैसे विद्वान मुसलमान अरब, तुर्क और मुगल यानि एटीएम मूल के मुसलमानों में भी ऊँच और नीच का वर्गीकरण करते हैं तो यक़ीनन भारतीय मूल के सभी मुसलमान तो उनकी दृष्टि में अति नीच कोटि के ही होंगे।

लेकिन अब इस मानसिकता की खुले आम अभिव्यक्ति नहीं की जाती बल्कि भारतीय मुसलमानों की पहचान को समाप्त करने की रणनीति पर काम किया जा रहा है। एटीएम (अरब, तुर्क, मंगोल) जानता है कि उनकी संख्या भारत के मुसलमानों में आटे में नमक के बराबर भी नहीं है। इसके बनिस्बत भारतीय देसी मुसलमानों की संख्या कहीं ज्यादा है। कौन भारतीय देसी मुसलमान है और कौन विदेशी मूल के एटीएम का है, इसकी शिनाख्त भी नाम से ही हो जाती है। इसलिए दोनों वर्गों के आंकड़े सामने आ जाने पर देसी मुसलमान को सहज ही पता चल सकता है कि एटीएम उनका शोषण ही नहीं कर रहा बल्कि उनको अपने पिंजरे में क़ैद कर उसका राजनैतिक लाभ उठा रहा है। इसलिए एटीएम की गहरी रणनीति रही है कि देसी भारतीय मुसलमान की पहचान ही समाप्त हो जाए। उस तरह वे लम्बे अरसे तक एटीएम के पिछलग्गू बने रहेंगे। 1941 की जनगणना के समय से ही एटीएम की यह रणनीति साफ होने लगी थी। एटीएम के सैयद बदरूद्दीन अहमद, जो उन दिनों मुस्लिम लीग की बिहार शाखा के महासचिव भी थे, ने अख़बारों में विज्ञापन देकर भारतीय देसी मुसलमानों से अपील की कि वे जनगणना में अपने नाम के पीछे अपने वंश का नाम न लिखें। उसका तीखा जवाब एक भारतीय देसी मुसलमान, जिन्हें बिहार में उन दिनों मोमिन कहा जाता था, ताज मोहम्मद ने दिया। यह उत्तर अली अनवर ने अपनी पुस्तक ‘मसावात की जंग’ में अक्षरश: उद्धृत किया है। ताज मोहम्मद सर्च लाइट अखबार में लिखते हैं, ‘मोमिनों की संख्यागत ताक़त से भयभीत होकर मुस्लिम लीग के दिग्गज ने, जिन्होंने हमेशा ही एक वर्ग के रूप में मोमिनों को हिक़ारत की नजऱ से देखा है, उन्हें मोमिनों के रूप में नहीं बल्कि सिर्फ मुसलमान के रूप में पंजीयन के रूप में उकसाने में कोई कसर नहीं रखी है। इसके लिए वे उन्हें भविष्य में मसावात यानि बराबरी का दर्जा देने का आश्वासन दे रहे हैं। सैयद बदरूद्दीन ने अपनी अपील में जो कुछ लिखा है, उससे ख़तरे की बू आती है।’

यह ख़तरा क्या है? दरअसल इससे पता चल जाता है कि मुसलमानों की कुल संख्या में विदेशी मूल के एटीएम कितने हैं और भारतीय मूल यानि देसी मुसलमान मोमिनों की संख्या कितनी है। इससे मोमिनों को पता चल जाएगा कि संख्या उनकी है लेकिन महत्व के सभी स्थानों पर कब्जा एटीएम का है। एटीएम इसी का पर्दाफाश होने से डरता है। सैयद बदरूद्दीन की अपील के पीछे असली षड्यन्त्र यही है। लेकिन भारतीय देसी मुसलमान भी एटीएम की इस दुर्भावना को पकड़ नहीं पा रहे हैं। ताज मोहम्मद एटीएम की इसी दुर्भावना पर व्यंग्य कसते हुए लिखते हैं, ‘ये सैयद साहिब हालांकि अपनी अपील में मुसलमानों के बीच जाति विशिष्टता के खिलाफ दलील देते दिखाई पड़ते हैं परन्तु व्यावहारिक उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए उन्होंने स्वयं अपने नाम के आगे सैयद लिखने से परहेज़ नहीं किया। यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि उदाहरण प्रस्तुत करना उपदेश देने से बेहतर होता है। वह एक ही सांस में गर्म और ठंडी आहें भरते हुए जान पड़ते हैं।’ भारतीय देसी मुसलमानों का यह आशा करना कि एटीएम के लोग भी अपने सिर पर से सैयद की कलगी हटा लें, शायद शेरनी के दूध की आशा करना ही है। दरअसल एटीएम के पास सैयद नाम का यह पिंजरा ही तो है जिसमें वे भारतीय देसी मुसलमानों यानि मोमिनों को बन्द करके रखते हैं।

इस रणनीति से मतान्तरित भारतीय देसी मुसलमान सैयदी कर्मकांडों के शिकंजे में अच्छी तरह फंस जाएंगे। इसलिए इस समाज में नया मजहब अपनी जडें़ जमा लेगा और अपनी परम्पराओं और कर्मकांड से टूटे हुए इन देसी मुसलमानों का आसानी से सैयदीकरण हो सकेगा। दूसरा आर्थिक लाभ था। मस्जिदों पर कब्जा तो सैयदों का ही था। उसमें इमाम या मौलवी के पद तक किसी भारतीय देसी मुसलमान के पहुंच पाने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता था। इसलिए ख़ैरात, लम्बी हज यात्रा से आर्थिक लाभ तो इन्हीं सैयदों या अरबों को ही होने वाला था। उनकी आर्थिक समृद्धि के अनेक रास्तों में से यह भी एक नया और निरापद रास्ता था। भारतीय देसी मुसलमानों के प्रति एटीएम का यह रवैया चौदहवीं शताब्दी तक ही सीमित नहीं था, बल्कि यह आज भी बदस्तूर जारी है। देसी मुसलमानों के खिलाफ रची जा रही इस साजिश को भारतीय मुसलमानों को समझना होगा। अगर उनकी विशिष्ट पहचान ही खत्म हो जाएगी, तो इससे उनकी संस्कृति भी नष्ट हो जाएगी। भले ही एटीएम संख्या में थोड़े हैं, फिर भी वे बहुसंख्यक देसी मुसलमानों पर अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहते हैं। इससे समाज में वे उच्च स्थिति में आ जाएंगे। समाज और राष्ट्र में बड़े-बड़े पदों पर उनका कब्जा हो जाएगा। देसी मुसलमानों से एटीएम शिक्षा का अधिकार भी छीन लेना चाहता है। यह बहुत पुरातन सोच है। शिक्षित होकर अगर देसी मुसलमान आगे बढऩा चाहते हैं, तो इसमें भला किसी को कोई आपत्ति क्यों होनी चाहिए। जाहिर है एटीएम एक पुरातनपंथी समाज है जो देसी मुसलमानों को गुलाम बनाना चाहता है।

कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वरिष्ठ स्तंभकार

ईमेल:kuldeepagnihotri@gmail.com


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