हर दोष पुलिस में ही क्यों ढूंढा जाता है

पुलिस को ही बलि का बकरा न बनाकर अन्य विभाग भी अपने दायित्व को समझें…

किसी भी समाज की व्यवस्था, विकास और सुरक्षा के लिए पुलिस बल जैसी संस्थाओं का होना अति आवश्यक होता है। पुलिस तंत्र आदिकाल से ही शासन व्यवस्था बनाए रखने के लिए कार्यरत रहा है तथा पुलिस विभाग हमेशा अच्छाइयों व बुराइयों द्वारा मिश्रित रूप से प्रभावित होता आ रहा है। एक ओर आकर्षक व बलिष्ठ शरीर, अनुशासन प्रियता तथा कत्र्तव्य निष्ठा, पुलिस जवानों का विशिष्ट गुण होता है, वहीं यह भी कटु सत्य है कि पुलिस जवान तनाव में रहते हुए कई व्यसनों के शिकार भी हो जाते हैं। सभी पुलिस कर्मचारियों व अधिकरियों को प्रशिक्षण के दौरान निष्पक्षता एवं निष्ठा से कत्र्तव्य पालन का सबक सिखाया जाता है। पुलिस से यही अपेक्षा की जाती है कि वह अपराधियों का उन्मूलन कर कानून व्यवस्था बनाए रखने में अपना पूरा सहयोग दे। अपने इस कत्र्तव्य पालन में हर पुलिस कर्मचारी व अधिकारी को दोधारी तलवार पर चलना पड़ता है।

पुलिस कर्मचारी कितना भी कुशल व निपुण क्यों न हो, उसे जनता से प्रशंसा बहुत कम मिलती है तथा अन्य विभागों की नाकामियों के लिए भी पुलिस को ही बलि का बकरा बनाया जाता है। वास्तव में जैसे जैसे समय बीतता गया, सरकार ने पुलिस की संख्या बढ़ाने की तरफ कम ध्यान दिया तथा कानून व्यवस्था को बनाए रखने के लिए अन्य विभागों को भी पुलिस के समानांतर अधिकार दे दिए गए तथा यह सभी विभाग अपनी नाकामियों पर पर्दा डालने के लिए पुलिस को ही मोहरा बनाते चले आ रहे हैं। उदाहरणत: वन विभाग, खनन व आबकारी विभाग कुछ ऐसे विभाग हैं जिन्हें अपराधियों पर नकेल डालने के सभी अधिकार दे दिए गए हंै, मगर जब यह विभाग अपने कार्य का निष्पादन सही ढंग से नहीं कर पाते तो ये सारा दोष पुलिस के माथे पर ही मढ़ देते हैं तथा दूसरी तरफ कहीं न कहीं अपराधियों के साथ अपनी पूरी साठगांठ करते हुए अपना काम निकालते रहते हैं। अनधिकृत खनन को रोकने के लिए खनन विभाग को अपराधियों पर शिकंजा कसने का पूरा अधिकार दिया गया है, मगर न जाने अचानक कितनी गाडिय़ां रेत व बजरी को अवैध ढंग से ले जाती हुई पाई जाती हैं तथा जब उनको कोई न्यायालय या मीडिया के लोग उनकी लाचारी का कारण पूछते हैं तब इस विभाग के अधिकारी यह कह कर अपना पल्ला झाड़ लेते हंै कि उनके पास पर्याप्त स्टाफ नहीं होता तथा अपराधियों से अपनी सुरक्षा करने के लिए कोई हथियार इत्यादि भी नहीं होते। ऐसे में आम जनता भी इस सबके लिए पुलिस को ही जिम्मेदार ठहराती है। इसी तरह वन विभाग के अधिकारियों को वनों के अवैध कटान इत्यादि को रोकने के लिए पूर्ण अधिकार दिए गए हैं तथा यहां तक कि वन पुलिस स्टेशन भी खोले गए हंै। यह विभाग केवल छोटे-मोटे अपराधों में जुर्माना इत्यादि करके ही अपना काम चलाता रहता है तथा जब किसी बड़े अपराध की घटना हो तो रिपोर्ट बनाकर पुलिस के हवाले करके मरा हुआ सांप उनके गले में डाल देते हैं।

अगर हम आबकारी विभाग की बात करें तो शराब के तमाम बड़े ठेकेदार बिना परमिट के शराब की काफी बड़ी मात्रा अपने स्टाक में रखते हैं तथा यह ठेकेदार छोटे-छोटे दुकानदारों को घर-घर जाकर अवैध शराब की आपूर्ति करते रहते हैं तथा सरकार पुलिस को एक-एक, दो-दो बोतलें पकडऩे का काम दे देती है। यदि ठेकेदारों पर विभाग की कड़ी कार्रवाई होती रहे तो घर-घर पर अवैध शराब की आपूर्ति सम्भव न हो पाती। ऐसा न करने से केवल पुलिस को ही इसके लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है। इसी तरह यदि हम मादक पदार्थों व दवाईयों की बात करें तो कैमिस्टों पर ड्रग कन्ट्रोलर व उसके अन्य कर्मचारियों का नियन्त्रण होता है, मगर उनकी मिलीभगत से दुकानदार इन प्रतिबंधित दवाइयों का काला धन्धा करते रहते हैं। इस विभाग ने ऐसे नियम बना रखे हैं कि पुलिस कैमिस्टों की दुकान पर अचानक छापा भी नहीं मार सकती तथा ऐसा करने के लिए उन्हें ड्रग निरीक्षक को साथ लेना आवश्यक रखा गया है। अब बताएं कि कितनी बार पुलिस इन निरीक्षकों को ऐसे छापों के लिए बुलाए और क्या ये अधिकारी तुरंत उपलब्ध भी होंगे या नहीं, यह एक अन्य बात है। बच्चे नशे की दवाईयां खरीदते हैं तथा नशेड़ी बनकर समाज व परिवार का माहौल दूषित करते रहते हैं और इन सबके लिए पुलिस को ही जिम्मेदार ठहराया जाता है। ऐसे और भी कई उदाहरण हैं जिन्होंने पुलिस विभाग को पंगु बना रखा है जबकि जनता की अपेक्षाएं यह होती हैं कि पुलिसमैन अपने पैरों में बेडिय़ां बांधकर ऊंचे पर्वतों की चढ़ाई चढक़र विजय पताका फहराता रहें। एक तरफ कानून की परिसीमाएं, दूसरी तरफ जनता की असीम अपेक्षाएं पुलिसमैन को असतुंलित होने के लिए विवश कर देती हैं। दबाव और द्वन्द्व वाली परिस्थितियां उसके दिल और दिमाग पर दुष्प्रभाव डालने लगती हैं और वह समाज से अपने आपको अलग महसूस कराने लगता है तथा फिर वह इन सभी की भरपाई अपने असीमित अधिकारों व अहंकार के माध्यम से पूरा करने की कोशिश करता है।

अपराधी भी उसका कुंवारापन तोडऩे के लिए कई प्रकार के प्रलोभन जैसा कि सुरा, रिश्वत और औरत इत्यादि द्वारा उसको अपने मार्ग से पथभ्रष्ट करने के लिए कोशिश में लगे रहते हंै। लोग बुराई के समुद्र में अच्छाई का (पुलिस) टापू ढूंढते रहते हैं तथा पुलिसमैन को यह नहीं सोचना चाहिए कि यदि समाज ही गन्दा है तो वह भी वैसा ही होगा। पुलिस को समाज बदलने का काम करना चाहिए तथा अर्जुन की तरह गांडीव उठाकर आतताइयों का विनाश करना ही होगा। समाज में कई प्रकार के अपराध जैसा कि हत्या, बलात्कार, आपसी जमीन जायदाद के झगड़े इत्यादि आम तौर पर होते रहते हैं तथा इनको पुलिस द्वारा नहीं रोका जा सकता। पुलिस तो ऐसे अपराधियों को पकड़ ही सकती है तथा न्यायालय तक पहुंचा सकती है, इन्हें सजा दिलवाने वाली एजेंसियां व सजा देने वाले न्यायालय अपना-अपना काम स्वन्तत्र रूप से करते हैं तथा यदि अपराधी सजा मुक्त हो जाए तो पुलिस को ही जिम्मेदार ठहराना तर्कसंगत नहीं है। इसके अतिरिक्त कई अन्य प्रकार की व्यस्तताएं जैसे कि ट्रैफिक, मेले व त्यौहारों का आयोजन, चुनाव ड्यूटी इत्यादि में भी लोग कई प्रकार के उल्लंघन करते रहते हैं तथा लोग अपनी कोई भी जिम्मेदारी न निभाते हुए सारा बोझ पुलिस के कन्धों पर ही डाल देते हैं। पुलिस के पास न तो जादूगर की कोई छड़ी होती है और न ही अली बाबा द्वारा दिए जाने वाले तबीज व ऐसे मन्त्र होते हैं जिनके द्वारा कानून व्यवस्था को बनाए रखा जा सके। याद रहे प्रत्येक आठ सौ व्यक्तियों के पीछे एक पुलिस वाला तैनात है तथा वह कहां तक अपराधों को रोके? आम लोग व अन्य विभाग भी अपनी-अपनी जिम्मेदारियों को निभाएं तथा पुलिस को ही बलि का बकरा न बनाकर अपने दायित्व को भी समझें।

राजेंद्र मोहन शर्मा

रिटायर्ड डीआईजी


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