भेदभाव पर भागवत की स्पष्टोक्ति

इसके अध्ययन के बाद आधुनिक काल में इस भेदभाव को खत्म करने के लिए सामाजिक चेतना की जरूरत है…

पिछले दिनों मुम्बई में संत शिरोमणि रविदास जी की जयन्ती पर बोलते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डा. मोहन भागवत जी ने कहा कि रविदास जी जिस मार्ग पर चल रहे थे, उसका अपने वक्त में विरोध भी हुआ था। विरोध करने वाले लोग भी अपने ही थे। लेकिन रविदास जी ने अपना रास्ता नहीं छोड़ा। वे शाश्वत सुख का रास्ता तलाश रहे थे। भागवत जी का कथन सही है। रविदास की लड़ाई का एक दूसरा पक्ष भी था। बाहर वालों के विरोध से तो लड़ा भी जा सकता है, लेकिन अपने लोगों का विरोध ज्यादा कष्टकारी होता है। रविदास जी इस कष्टकारी मार्ग से होकर ही शाश्वत सुख का रास्ता तलाश रहे थे। रविदास जी उस समाज के लिए सुख का रास्ता तलाश रहे थे जो जाति भेद से ग्रस्त था। वर्गीकरण तो दुनियाभर के सभी समाजों में होता है, लेकिन रविदास उस समाज का हिस्सा थे जो जाति व्यवस्था में भी व्यावहारिक रूप से ऊंच-नीच में फंसा हुआ था। ऐसे समाज के लिए शाश्वत सुख क्या था और उसकी प्राप्ति का रास्ता क्या था? रविदास ने इसी का उल्लेख करते हुए कहा था- ‘ऐसा चाहूं राज मैं, जहां मिले सबन को अन्न। छोट बड़ो सब संग बसे रैदास रहे प्रसन्न।’ यह आर्थिक व सामाजिक समरसता का मार्ग था। इसी मार्ग से शाश्वत सुख का अनुभव किया जा सकता था। ऐसा नहीं कि रविदास अकेले ही सामाजिक समरसता के रास्ते की तलाश कर रहे थे। दूसरे लोग भी यह प्रयास कर रहे थे। लेकिन क्या दूसरों द्वारा बताए रास्ते को आंख मूंदकर स्वीकार कर लिया जाए? मोहन भागवत जी ने कहा कि रविदास जी ने निर्णय किया कि ‘सुनी सुनाई बातों पर न जाकर प्रत्यक्ष अनुभव लूंगा।’ सब जानते हैं कि प्रत्यक्ष अनुभव का रास्ता ही असली रास्ता है।

इस रास्ते पर रविदास जी की यात्रा स्वामी रामानंद जी के सान्निध्य में शुरू हुई। भागवत जी के अनुसार ‘रविदास जी को ज्ञान हुआ कि सत्य ही ईश्वर है। वह सत्य यह बताता है कि मैं सब प्राणियों में हूं, इसलिए रूप-नाम कुछ भी हो, लेकिन योग्यता एक है, मान-सम्मान एक है, सबके बारे में अपनापन है। कोई भी ऊंचा-नीचा नहीं है।’ सुख की यह अवधारणा सामाजिक व्यवहार में ऊंच-नीच की भावना का समूल नाश करने में समर्थ है। वैसे भी कम से कम इस पर तो सभी एकमत ही होने चाहिएं कि परमात्मा ने तो व्यक्ति-व्यक्ति में जन्म के आधार पर छोटे-बड़े की दीवार नहीं खड़ी की होगी। यदि ऐसा होता तो सारी दुनिया में ही यह व्यवस्था होनी चाहिए थी। लेकिन दुनिया के दूसरे देशों में तो जन्म के आधार पर ऊंच-नीच की अवधारणा नहीं है। यह केवल हिंदुस्तान के कुछ हिस्सों में ही है। यक्ष प्रश्न तो यह है कि जन्म के आधार पर ऊंच-नीच का व्यवहार किस प्रकार शुरू हुआ? अपने देश में तो कुछ लोग इस ऊंच-नीच के व्यवहार को उचित ठहराने के लिए पुरानी पोथियों यानी शास्त्रों का भी सहारा लेते हैं। मोहन भागवत जी ने कहा कि यह ठीक नहीं है। यह गलत है। यह झूठ है। उनके अनुसार, ‘जाति, जाति के बीच ऊंच-नीच की कल्पना के भंवर में फंसकर हम भ्रमित हो गए हैं। यह भ्रम दूर करना है। अपनी ज्ञान परंपरा यह नहीं बताती है, आज समाज को यह बताने की जरूरत है। वह परंपरा यह बताती है कि सत्य और धर्म कभी छोडऩा नहीं चाहिए।’ रविदास कहते हैं-‘रविदास जन्म के कारनै, होत न कोउ नीच/नकर कूं नीच करि डारी है, ओछे करम की कीच।’ वर्तमान में जब भारत अपनी प्रगति के रास्ते पर एक लम्बी छलांग लगाने की तैयारी कर रहा है तो रविदास जी की साधना के रास्ते को समझना और भी आवश्यक हो गया है। दरअसल भारतीय सामाजिक व्यवस्था को लेकर सदियों से बहस चलती आ रही है।

मोटे तौर पर यह व्यवस्था जाति पर आधारित है। ऐसा भी कहा जाता है कि जाति व्यवस्था वर्ण व्यवस्था का ही बिगड़ा हुआ रूप है। वर्ण व्यवस्था व्यक्ति की योग्यता और रुचि पर आधारित थी। उदाहरण के लिए दो भाईयों में से एक की रुचि पढऩे लिखने और ज्ञान अर्जन में है तो वह अपने इस स्वभाव और रुचि के कारण ब्राह्मण हो जाएगा, और दूसरे भाई को लगता है कि यह भाई तो सारा दिन पोथियों में डूबा रहता है, इससे किया मिलेगा, उसकी रुचि एक स्थान का बना या उत्पादित सामान दूसरी जगह जाकर बेचने में है। इससे चार पैसे गांठ में आ जाते हैं। यह लक्ष्मी साधना है। वह भाई वैश्य कहलाएगा। लेकिन यह जो पोथी साधना में डूबा रहता है, इसका घरबार कैसे चलेगा। लक्ष्मी के बिना तो पार पाना मुश्किल है, लेकिन इसके पास सरस्वती साधना के सिवा कुछ नहीं है। इसलिए सामाजिक व्यवस्था में कहा गया कि ब्राह्मण को दान देना चाहिए। कई जगह तो कहा गया कि ब्राह्मण को ही दान देना चाहिए। लेकिन ब्राह्मण ज्ञान साधना से प्राप्त ज्ञान क्या अपने पास ही रखेगा? यदि ऐसा हुआ तो ब्राह्मण की इस ज्ञान साधना से समाज को क्या लाभ हुआ? इसलिए व्यवस्था बनी कि ब्राह्मण यदि अपना यह ज्ञान अन्य लोगों तक नहीं पहुंचाएगा तो वह मरने के बाद ब्रह्म राक्षस बन जाएगा। उसकी गति नहीं होगी। लेकिन साथ ही यह व्यवस्था भी की गई कि पैसा लेकर ज्ञान बेचेगा नहीं। मामला फिर वहीं का वहीं अटक गया। बेचेगा नहीं तो अपना और परिवार का पेट कैसे भरेगा? तब यह व्यवस्था बनी कि अपने शिष्यों से दक्षिणा लेने का अधिकारी होगा। जिस भाई की रुचि न ज्ञान साधना में थी और न ही व्यापार करने में, बल्कि उसकी रुचि तलवार व तीर चलाने में थी, वह भाई क्षत्रिय कहलाया।

बाबा साहिब अम्बेडकर मानते हैं कि वेद की व्यवस्था तो केवल तीन वर्णों की ही थी। कालांतर में जिन क्षत्रियों का उपनयन संस्कार नहीं हुआ, वे शूद्र कहलाए। अम्बेडकर ने तो ‘शूद्र कौन थे’, इस नाम की एक पूरी किताब ही लिख दी। उनका कहना है कि कालांतर में यह वर्ण व्यवस्था विकृत होकर जाति बन गई और जाति काम व रुचि पर आधारित न होकर जन्म पर आधारित हो गई। अम्बेडकर मानते थे कि आग में घी डालने का काम अंग्रेज़ों ने कर दिया, जब उन्होंने अपने चश्मे से जाति की व्याख्या करनी शुरू कर दी। इतना ही नहीं, लेकिन एक बात ध्यान में रखनी चाहिए कि यह जाति व्यवस्था पूरे भारतीय समाज में कभी भी नहीं थी। यह केवल समाज के एक हिस्से में ही थी। सिन्धी समाज में इस प्रकार की कड़ी व सख्त जाति प्रथा कभी नहीं रही। पूर्वोत्तर के विशाल किरात समाज में भी यह व्यवस्था नहीं रही। अन्य अन्य ‘जन’ उदाहरण के लिए गोंड, संथाल इत्यादि में जाति व्यवस्था नहीं थी। इस्लाम पंथ में चले जाने से पूर्व पश्तून व बलोच समाज में भी ऊंच -नीच की जाति व्यवस्था नहीं थी। वैसे भी भारत जैसे विशाल देश में तमाम लोगों को घेरती हुई कोई भी सामाजिक व्यवस्था प्रचलित करना सम्भव ही नहीं है। लेकिन जब अंग्रेज़ यहां आए तो उनके लिए भारतीय समाज को समझना इतना आसान नहीं था। वे हैरान थे कि देश में कुछ लोग जाति व्यवस्था के अंदर हैं और कुछ उससे बाहर हैं। इससे पार पाना उनके बस में नहीं था। तब उन्होंने एक नया सिद्धांत गढ़ दिया।

जो जाति व्यवस्था वाला समाज है, वे आर्य लोग हैं और जो जाति व्यवस्था से बाहर का समाज है, वे अनार्य हैं और भारत के मूल निवासी हैं। उन्होंने उन्हीं को शूद्र मान लिया। अंग्रेज़ यहीं तक नहीं रुके। उन्होंने मामला और आगे बढ़ा दिया कि आर्यों ने तो सप्त सिन्धु के रास्ते से भारत पर हमला किया था और अनार्यों को पराजित कर दोयम दर्जे पर ला दिया था। इसे देश का दुर्भाग्य ही कहना होगा कि अपने ही देश के कुछ विद्वान अंग्रेज़ों की बातों और षड्यंत्रों को सही बता कर देश भर में उसका प्रचार करने लगे। बहरहाल, आज प्राचीन काल के शूद्रों और आज के दलित समाज को, अम्बेडकर के कथनानुसार, अलग मान कर इस बात के अध्ययन की जरूरत है कि आज का दलित समाज इस स्थिति तक कैसे पहुंचा? उसमें एटीएम के शासन की क्या भूमिका थी? इसके अध्ययन के बाद आधुनिक काल में इस भेदभाव को खत्म करने के लिए सामाजिक चेतना की जरूरत है। रविदास जी ने अपने समय में यही किया था। आज उसी रास्ते पर चलने की जरूरत है। मोहन भागवत जी ने इसी ओर संकेत किया है।

कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वरिष्ठ स्तंभकार

ईमेल:kuldeepagnihotri@gmail.com


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