सांस्कृतिक संरक्षण के लिए बजट जरूरी

हिमाचल प्रदेश की कला-संस्कृति के संरक्षण एवं संवर्धन के लिए विशेष बजट का प्रावधान किया जाना चाहिए। कलाकारों को आर्थिक रूप से सबल बनाया जाना चाहिए…

सामान्य शब्दों में संस्कारों की ऐसी एक सुकृति जो हमारी जीवन शैली को सरल, सौम्य, सभ्य, शिष्ट तथा सुंदर बनाती है, संस्कृति कहलाती है। संस्कृति एक विशाल शब्द है जिसे परिभाषित करना इतना सरल भी नहीं है लेकिन विद्वानों द्वारा दी गई अनेकों परिभाषाओं में यह स्वीकार किया गया है कि संस्कृति का संबंध हमारे खान-पान, रीति-रिवाज, धर्म-कर्म, वेशभूषा, देव संस्कृति, पूजा पद्धति, मान्यता, विश्वास, परिधान, कला, भाषा, सभ्यता, संस्कार, व्यवहार, आचरण तथा समग्र जीवन शैली से ही है। अत: कौन सी परिभाषा सही एवं उपयुक्त है, इसका निर्णय नहीं हो सकता। अपने आप में जीवन की व्यापकता की अनगिनत परतों को समेटे यह शब्द नित्य नवीन एवं जीवंत रहेगा। लोक संगीत, लोक कला, लोक परम्परा, लोक नाट्य, लोक भाषा, लोक संस्कृति तथा लोकाचार के बिना न तो आदर्श समाज की स्थापना हो सकती है, न ही कल्पना की जा सकती है। आश्चर्य है कि यह सब जीवन का अटूट अंग होते हुए हम उसका मूल्य नहीं समझते। कोई भी समाज, सभ्यता, संस्कृति तथा राष्ट्र तब तक उन्नति नहीं कर सकता, जब तक उसकी परम्पराएं, कलाएं, संस्कृति तथा नैतिक एवं मानवीय मूल्य जीवंत नहीं हैं। दु:ख इसी बात का है कि आज भौतिकवादी परिवेश में ऐसी बातों की चर्चा करना भी हास्यास्पद हो जाता है और हम बनते हैं उपहास के पात्र। सांस्कृतिक दृष्टिकोण से यह सब होना बुद्धि की कंगाली है। आज हमने सभी क्षेत्रों में सफलता के झंडे गाड़े हैं, परंतु सांस्कृतिक चेतनता के महत्त्व को समझते हुए हम उसे स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। वर्तमान में हम पाश्चात्य तथा भौतिकवाद की आंधी में उड़ कर भारतीयता की जड़ों से विमुख हो रहे हैं।

भौतिकवादी सुख का आनंद प्राप्त करना कोई बुरी बात नहीं है, परंतु उसमें लिप्त हो जाना सांस्कृतिक विचार की दृष्टि से चिंतन का विषय है। इसलिए सभी महान संस्कृतियों को प्रणाम करते हुए भारतीय संस्कृति के संरक्षण एवं संवर्धन पर विचार करना आवश्यक है। अपनी पुरातन सभ्यता या संस्कृति से जुड़े रहना कोई रूढि़वादिता या संकीर्णता नहीं है, बल्कि अपने अतीत पर गौरवान्वित होने का विषय है। यह हमारा आधार है और जितनी नींव मजबूत होती है, भविष्य की इमारत उतनी ही विशाल, सुंदर तथा सशक्त होती है। वर्तमान में हम सांस्कृतिक पतन की ओर बढ़ रहे हैं। विश्व के अनेकों देश भारतीय संस्कृति की ओर आकर्षित हो रहे हैं और हम उससे मुख मोड़ रहे हैं। जीवन में सब कुछ आवश्यक है, लेकिन सांस्कृतिक विरासत की कीमत पर नहीं। यह हमारे जीवन का आधार है, विरासत है तथा पूंजी है। संस्कृति का विघटन होना भविष्य के लिए शुभ संकेत नहीं है, लेकिन इसे सुरक्षित करने की जि़म्मेदारी परिवारों, समाजों, सम्प्रदायों, व्यवस्थाओं तथा सरकारों की सामूहिक है। वर्तमान में सरकारें शिक्षा, स्वास्थ्य, सडक़, सुरक्षा, बिजली, पानी, उद्योग तथा चहुंमुखी विकास की बात तो करती है, लेकिन जब सांस्कृतिक संरक्षण एवं संवर्धन की बारी आती है तो बजटीय प्रावधानों में निराशा ही मिलती है। साधारणत: इस विषय को समझने वाले नीति निर्धारक इसका मूल्य नहीं समझ पाते कि इसी सांस्कृतिक धरोहर की जमीन पर हमारा अस्तित्व निर्भर करता है।

नई प्रदेश सरकार अपना पहला बजट विधानसभा पटल पर प्रस्तुत करने वाली है। निश्चित रूप से सरकारों की अपनी-अपनी प्राथमिकता तथा प्रतिबद्धता होती है। राजनीतिक दल सत्ता में आने के लिए लोक लुभावन वादे करते हैं तथा उनकी आशाओं तथा आकांक्षाओं पर उतरने का प्रयास करते हैं, परंतु सांस्कृतिक चेतनता जगाने तथा लोक परम्पराओं, लोक कलाओं, लोक विधाओं का संरक्षण करने में कोई अधिक बजट की आवश्यकता नहीं होती। इन सभी के संरक्षण के लिए लोक कलाकारों को आर्थिक संरक्षण देना तथा लुप्त हो रही कलाओं, लोक शैलियों, लोक भाषाओं को आर्थिक सहायता देकर संजीवनी दिया जाना अति आवश्यक है। हिमाचल प्रदेश में कई वर्षों से एक सशक्त सांस्कृतिक नीति की मांग हो रही है ताकि इसके संरक्षण के लिए कोई नीति संहिता का निर्माण हो सके। अनेकों कलाओं तथा कलाकारों की कृतियों तथा उनके परमपरित व्यवसायों का संरक्षण किया जा सके। पुश्तैनी, परम्परागत, पीढ़ी दर पीढ़ी घरानों, परिवारों, व्यक्तियों, जातियों, समुदायों की कलाओं का संरक्षण किया जा सके। आज समाज का सामान्य, साधारण व्यक्ति भी भौतिकवाद की चपेट में आ चुका है। सरकारी संरक्षण न होने से अपना परम्परागत विरसा व्यवसाय, लोक परम्पराओं को छोड़ कर छोटा-मोटा काम-धंधा, नौकरी, दिहाड़ी-मजदूरी, खोखा, ढाबा करने पर मजबूर हैं जो बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है। सरकारें इन लोगों को आश्रय देने की बात तो करती हैं, लेकिन यही वर्ग उपेक्षित रहता है। आज शिक्षा के साथ कौशल विकास, स्थानीय खानपान, कला, संस्कृति तथा ‘वोकल फार लोकल’ की बात तो की जाती है, परंतु धरातल पर कुछ भी नहीं दिखाई देता। लोक कलाओं के वास्तविक वाहक तथा समाजिक रूप से अधिकृत पेशेवर लोक कलाकारों को चयनित कर उन्हें आर्थिक संरक्षण दिया जाना आवश्यक है।

सरकार के नियंत्रण तथा दिशानिर्देश में चल रहे मंदिर ट्रस्टों से प्राप्त होने वाली आय की कम से कम बीस प्रतिशत राशि सांस्कृतिक संरक्षण के लिए व्यय होनी चाहिए। पर्यटन तथा धार्मिक पर्यटन से प्राप्त आय का भी कुछ भाग सांस्कृतिक संरक्षण पर खर्च किया जाना चाहिए, क्योंकि यह धनराशि प्रदेश के प्राकृतिक संसाधनों एवं धार्मिक संस्थानों से प्राप्त होती है। सभी प्रकार की लुप्त होती कलाओं तथा कलाकारों को चिन्हित कर उनके प्रशिक्षण के लिए निरंतर कार्यशालाओं का आयोजन होना चाहिए। वृद्ध कलाकारों को प्रशिक्षण के लिए रिसोर्स पर्सन के रूप में आमंत्रित किया जाना चाहिए ताकि पीढ़ी दर पीढ़ी कलाओं का सम्प्रेषण हो सके। कला-संस्कृति से सम्बन्धित सभी विभागों की वार्षिक एवं निश्चित कार्ययोजना होनी चाहिए। जि़ला स्तर पर भाषा अधिकारियों के साथ कला एवं संस्कृति अधिकारियों के पदों का सृजन होना चाहिए। जि़ला स्तर पर सांस्कृतिक अधिकारियों को लोक कलाओं, लोक कलाकारों, लोक वाद्यों, लोक साहित्य, लोक भाषा, लोक परम्पराओं, लोक नृत्यों, लोक वाद्यों, लोक नाट्यों, लोक परिधानों के संरक्षण की जिम्मेदारी दी जानी चाहिए। प्रत्येक पंचायत तथा नगर पंचायत में एक सामुदायिक पुस्तकालय होना चाहिए। हिमाचल प्रदेश की कला-संस्कृति के संरक्षण एवं संवर्धन के लिए विशेष बजट का प्रावधान किया जाना चाहिए। लोक कलाओं के पुश्तैनी तथा परंपरित घरानेदार कलाकारों को आर्थिक रूप से सबल बनाया जाना चाहिए।

प्रो. सुरेश शर्मा

लेखक घुमारवीं से हैं


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