प्राकृतिक जल स्रोतों का संरक्षण जरूरी

जल प्रबंधन की परिपाटी का उच्च स्तर तथा धार्मिक गौरव व आध्यात्मिक महत्त्व को समेटे मुकद्दस पारंपरिक जलस्रोतों का अस्तित्व बचाना होगा। पुरखों की अमूल्य विरासत पेयजल तंत्र की उत्तम व्यवस्था पनघट संस्कृति के जीर्णोद्धार के लिए यदि सरकारी दरवाजे खुले तो जल संकट का यकीनी तौर पर समाधान हो सकता है…

देवभूमि हिमाचल प्रदेश को कुदरत ने जिन व्यापक संसाधनों से नवाजा है उनमें सबसे अमूल्य सौगात प्राकृतिक जलस्रोत हैं। प्रदेश में बहने वाली नदियों, खड्डों व प्राकृतिक जलस्रोतों के पानी से पड़ोसी राज्यों की पेयजल सहित सिंचाई की जरूरत भी पूरी हो रही है। नि:संदेह हम अपने पुरखों की कई गौरवशाली परंपराओं के वारिस रहे हैं, लेकिन इस बात में कोई दो राय नहीं कि आधुनिकता की चकाचौंध में पूर्वजों की उन गौरवमयी परंपराओं व रीति-रिवाजों को उपेक्षित करके पश्चिमी तहजीब की दहलीज पर खड़े होने की पुरजोर कोशिश हो रही है। जम्हूरियत के मौजूदा निजाम में इसे विकास कहें या आधुनिकता का खुमार, यह निश्चित तौर पर मंथन का विषय है। गर्मी का मौसम दस्तक देते ही जल संपदा के धनी राज्य हिमाचल को भी पेयजल की किल्लत से जूझना पड़ता है। दुनिया को पानी का महत्त्व समझाने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ ने सन् 1993 से 20 मार्च के दिन को ‘विश्व जल दिवस’ के रूप में मनाने की शुरुआत की है। मगर सनातन संस्कृति के पौराणिक ग्रंथों में जल व जलाशयों की महिमा का विशेष उल्लेख हुआ है। धार्मिक मान्यताओं में जलस्रोतों को देवतुल्य तथा जल संरक्षण को सर्वोपरि पुण्य कार्य माना गया है। मकर पर विराजमान ‘वरुण देव’ की जल देवता के रूप में पूजा की जाती है। सन् 2010 में जल दिवस के मौके पर यूएनओ के तत्कालीन सरवराह ‘बान की मून’ ने कई राष्ट्रों को संबोधित करते हुए कहा था कि जल ही जीवन है। मगर भारतीय सभ्यता में ‘जल ही जीवन है’ का सिद्धांत अनादिकाल से ही प्रतिपादित है।

पैदल यात्रा करने वाले राहगीरों के लिए पेयजल की नि:शुल्क व्यवस्था ‘प्याऊ संस्कृति’ प्राचीन काल से हमारे पूर्वजों का पुण्य सरोकार विश्व के लिए अनूठा उदाहरण है। महर्षि ‘याज्ञवल्क्य’ ने ‘शतपथ ब्राह्मण’ ग्रंथ में ‘आपो वै प्राण:’ प्रसंग के माध्यम से जल को प्राण की संज्ञा दी है। हमारे ऋषियों ने पंच तत्त्वों में जल को सबसे विशिष्ट महत्व देकर अमृत से तुलना की है। मगर अफसोस कि अमृत समझे जाने वाले प्राकृतिक जलस्रोतों का शुद्ध जल प्रदूषण का दंश झेल रहा है तथा करोड़ों आबादी की प्यास बुझाने वाले पारंपरिक जलस्रोत अपने वजूद को तरस रहे हैं। भूजल के सतत प्रबंधन को अहमियत देने के लिए भारत सरकार ने सन् 1987 में पहली ‘राष्ट्रीय जलनीति’ का मसौदा तैयार किया था। जल संसाधनों के कुशल प्रबंधन के लिए अप्रैल 2002 में दूसरी राष्ट्रीय जलनीति बनाई गई। जल संकट को गंभीर खतरा मानते हुए पानी के बेहतर प्रबंधन एवं संरक्षण हेतु 2012 में तीसरी राष्ट्रीय जलनीति के तहत पानी के निजीकरण को विस्तार दिया गया। भूजल संसाधनों के वैज्ञानिक और सतत विकास प्रबंधन के लिए सन् 1970 में केंद्रीय भूजल बोर्ड की स्थापना भी की गई थी। पानी की गंभीर चुनौतियों से निपटने तथा लोगों को पेयजल सुविधा मुहैया कराने के लिए ‘जल शक्ति मंत्रालय’ का गठन भी किया गया है। वर्तमान में इस मंत्रालय के अंतर्गत राष्ट्रीय जल जीवन मिशन के तहत ग्रामीण क्षेत्रों में ‘कार्यात्मक घरेलु नल कनेक्शन’ पेयजल सुविधा उपलब्ध कराई जा रही है। पेयजल की आपूर्ति के लिए गांवों में पाइपों के जाल बिछ चुके हैं। हजारों की तादाद में सरकारी व निजी हैंडपंप लगाए जा चुके हैं, मगर इसके बावजूद लोगों को पेयजल की समस्या का सामना करना पड़ता है।

स्मरण रहे कि हमारे पुरखे जल आपूर्ति के लिए जल विभाग या जल मंत्रालयों पर निर्भर नहीं थे। पूर्वजों द्वारा पेयजल संग्रहण की सदियों पुरानी उत्तम पद्धति बावडिय़ां व खातरियां आदि हिमाचल के गांवों में आज भी मौजूद हैं। इन पारंपरिक जलस्रोतों के गुणवत्तायुक्त शुद्ध पेयजल का आज भी कोई विकल्प नहीं है। कृषि भूमि में सिंचाई व्यवस्था के लिए जल प्रबंधन की पुरातन प्रणाली हिमाचल में ‘कूहल’ के नाम से विख्यात रही है। बावडिय़ां, कुएं व तालाब आदि जल संरचनाओं के जरिए हर गांव को जलतंत्र विकसित करके पूर्वजों ने अनूठी मिसाल कायम की थी। इंसानों के अलावा जीव-जंतु, पशु-पक्षी तथा जंगली जानवरों के पानी को तलाशते सूखे हलक भी इन्हीं जल संसाधनों पर तर होते थे। ग्रामीण संस्कृति से गहरा नाता रखने वाले पारंपरिक जलस्रोतों का कृषि अर्थतंत्र को मुन्नवर करने में भी मुख्य किरदार रहा है। कई धार्मिक अनुष्ठानों का आयोजन भी जलाशयों के तटों पर होता आया है। मगर विडंबना है कि हमारे समाज की जीवनशैली में अंग्रेजी तहजीब इस कदर मुश्तमिल हुई कि अपने पूर्वजों की बेशकीमती विरासत पारंपरिक जलस्रोतों को खैरात में मिला गुजरे जमाने का नजऱाना समझ कर नजऱअंदाज कर दिया गया। विनाश को अंजाम देने वाले जबरन विकास की आंधी में मशीनीकरण के प्रहारों से भूमिगत प्राकृतिक जलधाराएं लुप्त हो रही हैं। नतीजतन बावडिय़ां, चश्में व झरने आदि जल सरंचनाओं का अस्तित्व भी लुप्त होने की कगार पर पहुंच चुका है। खनन माफिया की बढ़ती दखलअंदाजी ने खड्डों व नालों का प्राकृतिक स्वरूप बिगाड़ दिया है।

उद्योगों व आग उगल रही फैक्टरियों से उत्पन्न जहरनुमा प्रदूषण से नदियों, खड्डों व प्राकृतिक जलस्रोतों का पानी दूषित हो चुका है। सैकड़ों सरकारी हैंडपंप व पेयजल परियोजनाएं दम तोड़ रही हैं। अत: पहाड़ों में बसे सैकड़ों गांवों की पेयजल आपूर्ति का जरिया पुन: प्राकृतिक जलस्रोत ही बनेंगे। इनका वजूद बचाने में समाज के साथ शासन व प्रशासन को संगीदगी दिखानी होगी। ज्ञात रहे पेयजल की शदीद गर्दिश कई देशों में लाखों आबादी के पलायन का कारण बनी है। लिहाजा अपनी बदहाली पर अश्क बहा रहे पारंपरिक जलस्रोतों की खामोशी भविष्य में बड़े जल संकट की आहट का इशारा करती है। इससे सबक लेने की जरूरत है। पहाड़ के पानी से मरुस्थलों की तकदीर बदलने वाले हिमाचल में जल प्रबंधन की सदियों पुरानी कारगर तदबीर पारंपरिक जलस्रोत जलसंकट से उबारने में पूरी तरह सक्षम है। अत: जल प्रबंधन की परिपाटी का उच्च स्तर तथा धार्मिक गौरव व आध्यात्मिक महत्त्व को समेटे मुकद्दस पारंपरिक जलस्रोतों का अस्तित्व बचाना होगा। पुरखों की अमूल्य विरासत पेयजल तंत्र की उत्तम व्यवस्था पनघट संस्कृति के जीर्णोद्धार के लिए यदि सरकारी दरवाजे खुले तो जल संकट का यकीनी तौर पर समाधान हो सकता है।

प्रताप सिंह पटियाल

लेखक बिलासपुर से हैं


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