ऊना जिला का साहित्य व साहित्यकार

By: Feb 25th, 2023 7:36 pm

साहित्य की निगाह और पनाह में परिवेश की व्याख्या सदा हुई, फिर भी लेखन की उर्वरता को किसी भूखंड तक सीमित नहीं किया जा सकता। पर्वतीय राज्य हिमाचल की लेखन परंपराओं ने ऐसे संदर्भ पुष्ट किए हैं, जहां चंद्रधर शर्मा गुलेरी, यशपाल, निर्मल वर्मा या रस्किन बांड सरीखे साहित्यकारों ने साहित्य के कैनवास को बड़ा किया है, तो राहुल सांकृत्यायन ने सांस्कृतिक लेखन की पगडंडियों पर चलते हुए प्रदेश को राष्ट्र की विशालता से जोड़ दिया। हिमाचल में रचित या हिमाचल के लिए रचित साहित्य की खुशबू, तड़प और ऊर्जा को छूने की एक कोशिश वर्तमान शृंाखला में कर रहे हैं। उम्मीद है पूर्व की तरह यह सीरीज भी छात्रों-शोधार्थियों के लिए लाभकारी होगी…

अतिथि संपादक, डा. सुशील कुमार फुल्ल, मो.-9418080088

हिमाचल रचित साहित्य -53

विमर्श के बिंदु
1. साहित्य सृजन की पृष्ठभूमि में हिमाचल
2. ब्रिटिश काल में शिमला ने पैदा किया साहित्य
3. रस्किन बांड के संदर्भों में कसौली ने लिखा
4. लेखक गृहों में रचा गया साहित्य
5. हिमाचल की यादों में रचे-बसे लेखक-साहित्यकार
6. हिमाचल पहुंचे लेखक यात्री
7. हिमाचल में रचित अंग्रेजी साहित्य
8. हिमाचल से जुड़े नामी साहित्यकार
9. यशपाल के साहित्य में हिमाचल के रिश्ते
10. हिमाचल में रचित पंजाबी साहित्य
11. चंद्रधर शर्मा गुलेरी की विरासत में

लाल चंद ठाकुर, मो.-9805984861

राज्यों के पुनर्गठन से पहले ऊना पंजाब प्रांत के अंतर्गत जिला होशियारपुर में पड़ता था। उस समय इसका अस्तित्व एक छोटी सी तहसील के रूप में था। कुटलैहड़ की रियासत आजादी से पहले राजा बृजमोहन पाल की जागीर थी। बाद में उनके बेटे राजा महिंद्रपाल, जो चंडीगढ़ में स्थापित हो गए थे, को एक दस्तावेज के अंतर्गत सुपरिंटैंडेंट कुटलैहड़ फारैस्ट्स नियुक्त किया गया। उपरोक्त पुनर्गठन के बाद ऊना तहसील को कांगड़ा जिला में मिला दिया गया। 1972 में सोलहसिंगी धार और उसके नीचे की कुछ पंचायतें मिलाकर इसे हमीरपुर की तरह जिला बना दिया गया और कुटलैहड़ विधानसभा क्षेत्र का भी प्रारूप तैयार हो गया। स्व. सरला शर्मा बतौर विधायक इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करती रही और बाद में कैबिनेट मंत्री भी बनी। ऊना को पौडिय़ों वाला शहर भी कहा जाता था। यह एक प्रसिद्ध व्यापारिक केंद्र था। यहां से ऊटों के काफिले पीर-निगाह, मंदली, बीहड़ू होते हुए लठियानी के रास्ते ऊपरी क्षेत्रों में खाद्य सामग्री व अन्य सामान पहुंचाते थे। उस समय लठियानी एक बहुत बड़ा पड़ाव था जहां व्यापारियों व अन्य यात्रियों के ठहरने और भोजन आदि की सम्यक व्यवस्था होती थी।

कहते हैं प्राचीन काल में डोहगी भी एक व्यापारिक केंद्र था जो एक बहुत बड़े भूचाल के कारण पूरे का पूरा कस्बा जमींदोज हो गया था। तालाब या कुआं आदि की खुदाई में आज भी तत्कालीन अवशेष मिलते हैं। कुछ अवशेष पुरातत्व विभाग के पास भी सुरक्षित हैं। सोमभद्रा संस्कृति की अपनी अलग पहचान रही है। यहां का गन्ना बड़ा मशहूर था। स्थान-स्थान पर पक्की ईंटों के भट्ठे भी लोगों को सम्यक रोजगार प्रदान करते रहे। उस समय गोबिंद सागर झील भी अभी अस्तित्व में नहीं आई थी। बाबा रुद्रानंद (अमलैहड़), जोगी पंगा, बाबा वडभाग सिंह, चिंतपूरनी, पिपलू और समतैहण का ठाकुरद्वारा लोगों की आस्था के केंद्र थे। ऊना में वेदियों का किला इसकी प्राचीनता का मूकदर्शक है। अमृतसर और लाहौर में ऊना के हलवाइयों का वर्चस्व था। संस्कृत के प्रचार-प्रसार में डोहगी महाविद्यालय की अहम भूमिका रही है। संगीत, कला और नृत्य में स्थानीय लोगों की बेहद रुचि रही है। स्व. नसीब सिंह की भजन मंडली को आज भी लोग याद करते हैं। संस्कृत के उच्च अध्ययन हेतु वी. वी. रिसर्च विश्वविद्यालय साधु आश्रम होशियारपुर की बहुत ही अहम भूमिका रही है। राजनीति के क्षेत्र में यहां बहुत बड़ी स्पर्धा रही है। यहां की मिट्टी बड़ी उर्वरा और हर प्रकार की फसल हेतु अति उत्तम है। सिंचाई की सम्यक व्यवस्था है। जल स्तर काफी ऊपर है। फलत: गन्ना, गेहूं, धान, मक्की आदि की भरपूर फसल होती है।

सब्जी और फलों के उत्पादन में स्वां का निकटवर्ती क्षेत्र लोगों की समृद्धि में सम्यक योगदान देता रहा है। जबकि बीत क्षेत्र में सिंचाई की सुविधा नहीं के बराबर थी। भाखड़ा बांध के बनने के बाद नंगल टाऊनशिप की स्थापना और खाद फैक्टरी (एनएफएल) के लगने से यहां के लोगों के लिए रोजगार के क्षेत्र में क्रांति आ गई थी। रेलवे लाइन, इंडस्ट्रियल एरिया मैहतपुर, तदनंतर टाहलीवाल व अंब के विकसित होने पर ऊना जिला का कायाकल्प हो गया। विकास की प्रक्रिया को पंख लग गए हैं। नए-नए संस्थान खुल रहे हैं। लोगों की सोच बदल रही है। कुल मिलाकर ऊना का भविष्य उज्ज्वल है।

कुछ साहित्यकारों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है : आचार्य सालिग राम जी (1917-2008) : ऊना जिला के संस्कृत के विद्वानों में आचार्य सालिग राम जी कोहडरा वाले अग्रगण्य माने जाते हैं। उनका जन्म 1917 ईस्वी में कोहडरा (ऊना) तत्कालीन पंजाब प्रांत में हुआ। उस समय प्रथम विश्व युद्ध निर्णायक स्थिति में था। उन्होंने मैट्रिक के बाद शास्त्री पंजाब यूनिवर्सिटी लाहौर से तथा वाराणसी संस्कृत विश्वविद्यालय से दर्शनाचार्य व नव न्यायाचार्य और इसके बाद व्याकरणाचार्य पंजाब यूनिवर्सिटी चंडीगढ़ से पास की। और यहीं पर बतौर दर्शनाचार्य उनकी नियुक्ति भी हो गई। तदनंतर संस्कृत महाविद्यालय सोलन, संस्कृत महाविद्यालय सुंदरनगर और अंत में संस्कृत महाविद्यालय सोलन से ही सेवानिवृत्त हुए। यहीं पर उन्होंने न्याय दर्शन की टीका लिखी। इसके पश्चात वैशेषिक दर्शन, भागवत के अंतर्गत-वेद स्तुति, दुर्गा सप्तशती की टीका और अंत में गीता के आठ अध्यायों पर टीका लिखी। न्याय की टीका के उपरांत जो कुछ भी लिखा, उसे प्रकाशित करवाने की हसरत मन में ही रह गई। उपरोक्त पांडुलिपियां उनके परिजनों के पास सुरक्षित पड़ी हैं। सन् 2008 में समाधि की अवस्था में ही इस नश्वर देह को त्याग कर ज्योति ज्योत समा गए।

स्व. विनोद लखनपाल (1938-2014) : विनोद लखनपाल का जन्म 20 अगस्त 1938 को बलदेव मित्र ‘बिजली’ के घर हुआ था। पिता क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी व गर्म दल के अग्रणी सदस्य होने के कारण 18 वर्ष तक अंग्रेजों की जेल में रहे। लखनपाल जी की उनसे पहली मुलाकात जेल में ही हुई थी, जब वह आठ वर्ष के थे। वह 1962 में पंजाब सरकार के सूचना एवं जन संपर्क विभाग में नियुक्ति के बाद हिमाचल सरकार के सूचना एवं जन संपर्क विभाग में विभिन्न पदों पर कार्य करने के बाद संयुक्त निदेशक के पद से सेवानिवृत्त हुए। लखनपाल जी 1974 में हिमोत्कर्ष संस्था के मुख्य परामर्शक के रूप में जुड़े और आजीवन जुड़े रहे। हिमाचल और पंजाब की अनेक संस्थाओं से भी जुड़े रहे। अजय पाराशर, उप निदेशक, सूचना एवं जन संपर्क विभाग धर्मशाला के परम मित्र, समाज धर्म पत्रिका के संपादक प्रो. वीएन कश्यप के निकटतम सहयोगी। वह एक व्यक्ति नहीं, संस्था थे। एक चलती-फिरती लाइब्रेरी, एक एनसाइकलोपीडिया। होठों पर मृदु मुस्कान और चुटकी लेना कोई उनसे सीखे। मेरी दूसरी पुस्तक के लोकार्पण पर जब उन्होंने मुझे बधाई दी तो मैंने कहा- यह सब आपका ही आशीर्वाद है। वह तपाक से बोले, आशीर्वाद तो कुलदीप का है। इस पर पंडाल में बड़े जोर का ठहाका लगा था। वास्तव में स्व. ईश्वर दुखिया के छोटे भाई कुलदीप शर्मा आशीर्वाद होटल के मालिक भी थे। उनके आकस्मिक निधन पर दीपक जालंधरी ने कहा- ‘अभी तो न थे तेरे मरने के दिन, अभी से तुम्हें क्यों मौत आ गई।’ अजय पाराशर जी ने कहा, ‘वह जो हम में तुम में करार था (तुम्हें याद हो कि न याद हो)।’ डा. गौतम शर्मा व्यथित ने कहा, ‘जागते हम थे रहे, पर वो अचानक सो गए।’ डा. रतन चंद शर्मा रंधाड़ (फतेहपुर) ने लिखा, ‘यूं तो सदा रहने के लिए आता नहीं कोई, मगर जैसे आप गए वैसे जाता नहीं कोई।’ डा. ओमप्रकाश सारस्वत ने कहा, ‘उनका जाना एक जागरूक चिंतक का समाज से उठ जाना है।’ स्व. डा. भक्तवत्सल शर्मा, प्राचार्य, आदर्श संस्कृत महाविद्यालय डोहगी ने कहा, ‘उनका मुस्कुराना, गुनगुनाना कब याद नहीं आएगा, उनका सौहार्द अपनापन यह दिल भूल नहीं पाएगा।’ के. आर. भारती, पूर्व उपायुक्त ऊना ने कहा, ‘लखनपाल की याद आती रहेगी।’ कुलदीप शर्मा, पूर्व अध्यक्ष अखिल भारतीय साहित्य परिषद ऊना, जो उनके आकस्मिक निधन के चश्मदीद थे, ने कहा, ‘यकीन नहीं हो रहा था कि मौत इस कदर क्रूर और नाटकीय भी हो सकती है।

उनके जाने से बाकी बस एक शून्य है, चीखता हुआ सन्नाटा है। मेरे मुंह से भी अचानक बेखुदी में यही शब्द निकले- तुझी तक है जफर ये सुल्ताने सल्तनत, तेरे बाद न बलि अहदी न इंतजामे सल्तनत।’ समाज धर्म पत्रिका के संपादक प्रो. भोलानाथ कश्यप, जो देहलां स्थित आश्रम में स्वामी विवेकानंद जयंती पर आयोजित समारोह में उपस्थित थे, ने कहा, ‘एक वट वृक्ष उखड़ गया।’ अपने अध्यक्षीय भाषण दे रहे लखनपाल जी ने यही अंतिम शब्द कहे, ‘माफ करना, मेरी तबीयत कुछ नासाज हो रही है’ और गिर पड़े। हिमोत्कर्ष संस्था के अध्यक्ष स्व. कंवर हरि सिंह ने कहा, ‘उनकी काव्य रचनाएं तथा स्वतंत्रता संग्राम विषयक प्रमाणित पुस्तक- भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष- मुख्य घटनाएं एवं विद्रोह, ऊना जनपद एक परिचय- धार्मिक एवं आध्यात्मिक विषयों पर आधा दर्जन से अधिक पुस्तकों का संपादन- प्रकाशन और एक लंबे समय तक हिमोत्कर्ष पत्रिका का संपादन, समाज धर्म पत्रिका का मार्गदर्शन कभी भूलेगा नहीं। उनके निधन के साथ ही एक युग का अंत हो गया। स्व. हरि सिंह जी (1939-2020) : हिमोत्कर्ष बहुआयामी संस्था ऊना के संस्थापक स्व. कंवर हरि सिंह किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। उनका जन्म 1939 ईस्वी में तत्कालीन गुरदासपुर की तहसील शक्करगढ़ (जो अब पाकिस्तान में है) में हुआ। उन्होंने एसडी कालेज पठानकोट से ग्रेजुएशन की। तत्पश्चात हिमाचल सरकार के इंडस्ट्री डिपार्टमेंट में उनकी नियुक्ति बतौर ई. ओ. इंडस्ट्री हुई। यह बात 1967 की है। इसी विभाग में अनेक पदों पर कार्य करते हुए हि. प्र. महिला विकास निगम से जनरल मैनेजर के पद से सेवानिवृत्त हुए। तत्पश्चात ऊना में एक बहुआयामी संस्था हिमोत्कर्ष की स्थापना की। यह सन् 1974 की बात है। स्व. विनोद लखनपाल जी इस संस्था के मुख्य परामर्शक बने। ‘अकेला अभिमन्यु किस-किस से लड़े’ के लेखक स्व. शमशेर राणा जी इस संस्था के उपाध्यक्ष पद पर नियुक्त किए गए और वह इस संस्था से आजीवन जुड़े रहे। ओम प्रकाश शांत जी उनके कर्मठ सहयोगी रहे। इनका निधन हो चुका है। शमशेर राणा जी के आकस्मिक निधन से हिमोत्कर्ष संस्था, हिमोत्कर्ष पत्रिका, समाज धर्म पत्रिका और विशेषकर साहित्य जगत को जो क्षति हुई, उसकी पूर्ति कभी नहीं होगी। स्व. रोशन लाल शर्मा जी का भी इस संस्था को बड़ा सहयोग रहा। इसके अतिरिक्त भी ऊना के गण्यमान्य व्यक्ति इस संस्था से जुड़े हैं। इन विभूतियों के निधन के बाद ऐसा लगता था कि इस संस्था का सूर्य अस्त होने वाला है। आशा की कोई किरण दिखाई नहीं देती थी। उपरोक्त दिव्य विभूतियों का सान्निध्य और संस्कार रंग लाए। स्व. कंवर हरि सिंह के लख्ते जिगर जितेंद्र कंवर ने इस संस्था को तन-मन-धन से चलाने की भीष्म प्रतिज्ञा कर ली। ऊपर से बुजुर्गों का आशीर्वाद। संस्था द्रुत गति से नए-नए आयाम और कीर्तिमान स्थापित करने जा रही है। जितेंद्र कंवर के संरक्षण में इस संस्था का भविष्य बड़ा उज्ज्वल है। मैं इस संस्था के मंगलमय भविष्य की कामना करता हूं।                                                                            -लाल चंद ठाकुर, -(शेष भाग अगले अंक में

व्यंग्य की कचहरी में गंगा राम राजी की कहानियां

व्यंग्य का अपना चरित्र इतना श्रेष्ठ है कि यह संसार की तमाम अच्छाइयों से ऊपर या किंवदंतियों से बाहर हो सकता है। ‘गंगा राम राजी की हास्य व्यंग्य कहानियां’, ऐसे कई बिंदुओं का स्पर्श करती हुईं हकीकत के बंद दरवाजे खोल देती हैं। अपनी चौदह कहानियां पेश करते राजी कहते हैं, ‘जिंदगी में कुछ हिस्से ऐसे भी हैं जो कभी भूलते ही नहीं। मेरा अनुभव ऐसी भी रहा है कि ये किस्से अपनी स्मृतियों के पटल के स्टोर में रख लेने चाहिएं, जो वक्त-बेवक्त मनोरंजन का साधन तो बनते ही हैं, जीवन में एक ऊर्जा का संचार भी कर देते हैं।’ इसलिए ‘जय भोले बाबा की’ कहानी पर व्यंग्य की खोज होती है, तो लेखक धार्मिक चाटुकारिता से बाहर निकल कर निष्पक्ष भाव से हमारी विडंबनाओं का सहज उल्लेख कर देते हैं। इन कहानियों के विषय व्यंग्य के सूत्रधार होते हुए भी सामाजिक संवेदना के कर्णधार हैं। ‘कैशलैस’ के बहाने परंपराओं की उथल-पुथल और जीवन की अस्थिरता किसी न किसी बहाने सामने आ ही जाती है। राजी अपने तर्कों की रामायण खोलकर प्रशासन के राम और देश के राम राज्य की पोल पट्टी ‘दशरथ मरेगा तो राम राज्य आएगा’ के मार्फत इस कद्र खोलते हैं कि आम आदमी को भी भरोसा होने लगता है कि व्यवस्था है ही टेढ़ी खीर। गंगा राम राजी अपनी बहुआयामी लेखनी से दिल के दरिया को हमेशा लिखते हैं और यही उदारता उनकी रचनाओं को बंधनमुक्त रखती है। ‘चोर चोरी से जाए पर’, पुुलिस की इबारत में व्यवस्था के जख्मों को चुनते-चुनते लेखक ऐसे पाताल को छान मारते हैं, जो कानून व्यवस्था की जड़ों में किसी जहर की तरह छुपा बैठा है। कहानी की विधा में व्यंग्य परोसते राजी, अपने लेखकीय हुनर की मुस्कराहट में जीवन के बुरे अक्स को भी छुपा लेते हैं। ‘मुझे वर्षा में चलना पसंद है’, ऐसी ही एक कहानी है जो ‘भाई जी’ के चरित्र में हमें हर सूरत आनंद में रहना सिखाती है। जीवन की असहनीय पीड़ा, हताशा, निराशा और सारी प्रतिकूलता के मध्य कहीं तो व्यंग्य हो सकता है। यहां व्यंग्य टेढ़ी निगाह से नहीं देखे जाते और एक तरह के सामान्य संवाद से निकली गवाही की तरह पाठक को बार-बार पकाते हैं। ‘मेरा नाम जोकर’ इसी सहजता के कठघरे में खुद से मुलाकात करने का अफसाना बन जाता है।

व्यंग्य का भी एक दर्शन और मूल्यों से घर्षण सदा सामने आता है, हालांकि ‘राजी’ कलम के अवतार में सोचने की मोहलत नहीं देते, बल्कि यह आभास कराते हैं कि हर हालात को जीने की मुस्कराहट के पीछे छिपा लो। इसी सरलता को ‘वामन अवतार’ कहानी गलबहियां डालकर पूछ रही है कि हम अपनी पर आ जाएं, तो यूं ही कमाल कर लेते हैं। ‘तीसरी सवारी’ में गंगा राम राजी की किस्सागोई, व्यंग्य को इसकी मचान सौंपते हुए गुदगुदी सी कर देती है। इन कहानियों में एक खास रस है जो परिवेश के घटनाक्रम से हकीकत को व्यंग्य का हकीम बना देता है। स्कूल में बंटती खिचड़ी के इर्द-गिर्द जितने भी हास्यास्पद वाक्या हो सकते हैं, उन्हें ‘हमने धनुष नहीं तोड़ा’ के मार्फत आवाज मिलती है। कहानी के रूप में वह शिक्षा की स्थिति और स्कूलों के चरित्र को व्यंग्य की कचहरी में पहुंचा देते हैं। राजी का व्यंग्य लोटपोट कर देने का आदी है और इस तरह यह कसूरवार व्यवस्था के कान पकड़ और पाठक का दर्द छीनकर, उसे भी अपनी खुन्नस मिटाने का अवसर देता है। दिल तो बच्चा है की तर्ज पर लेखक अपने चुंबकीय अंदाज में, ‘एक ही राग’ ढूंढ लाता है। दीनानाथ और सारनाथ दो वरिष्ठ नागरिक अपनी हरकतों के दम पर खुद तो हंसते हैं, साथ में आसपास को भी मुस्कराने का अवसर देते हैं। दिल अगर व्यंग्य कबूल कर ले, तो वरिष्ठ नागरिक भी जीने के हर अवसर में खुराफात कर सकते हैं। ‘नाथों के नाथ’ अपनी शैली में बाल कहानी का रूप अख्तियार कर लेती है, तो ‘नटखट भयो राम जी’ में बचपना शरारती होकर भी जीवन के महाकाव्य में कुछ हास्य रस के शब्द जोड़ देता है। कुल चौदह कहानियों के बीच व्यंग्य को कहीं-कहीं बेहतरीन अवसर मिलते हैं, लेकिन कहीं कहानी अपने भीतर व्यंग्य को पीछे छोडक़र आगे बढ़ गई है। पुस्तक प्रकाशक अगर प्रूफ रीडिंग को व्यंग्यमय वातावरण के साथ गंभीरता से लेता, तो शायद कहानी खुद से और अपने तापमान से बात भी कर लेती।                                                                                          -निर्मल असो

व्यंग्य संग्रह : गंगा राम राजी की हास्य व्यंग्य कहानियां, भाग-3
लेखक : गंगा राम राजी
प्रकाशक : रवीना प्रकाशन, दिल्ली
मूल्य : 350 रुपए

पुस्तक समीक्षा : अतुल कुमार की अतुलनीय रचनाएं

कवि अतुल कुमार का एक और काव्य संग्रह ‘अतुलनीय रचनाएं’ (एकल काव्य संग्रह) प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह में 58 रचनाएं 64 पृष्ठों में संकलित हैं। प्रकाशक वर्तमान अुंकर, नोएडा से प्रकाशित इस काव्य संग्रह की कीमत 199 रुपए है। प्रस्तावना में अतुल कुमार कहते हैं कि यह मेरा दूसरा काव्य संग्रह है। इस पुस्तक में मैंने उन विषयों पर कविताएं लिखी हैं, जो आम आदमी के जीवन से जुड़ी होती हैं। इन कविताओं के माध्यम से मैं पाठकों को बताना चाहता हूं कि मानवीय जीवन में रिश्तों का क्या महत्व होता है। इनसान की प्रकृति कैसी होती है तथा किन्हीं विशेष परिस्थितियों में इनसान किस प्रकार व्यवहार करता है, पर उसका व्यवहार वास्तव में क्या होना चाहिए। इनसान को अपने जीवन के दुखों को कैसे कम करना चाहिए, कैसे अपने जीवन में आने वाली विपरीत परिस्थितियों में धैर्य रखकर उनका निवारण करना चाहिए। इस पुस्तक में यह प्रयास किया है कि इनसान को जीवन में सकारात्मक रहते हुए एक सुंदर जीवन जीना चाहिए। इस पुस्तक में कुछ प्रेरणादायक कविताएं हैं, कुछ मार्मिक कविताएं हैं। भूमिका में सुनीता सोनू कहती हैं कि हमको आशा ही नहीं, पूर्ण विश्वास है कि काव्य संग्रह ‘अतुलनीय रचनाएं’ बहुत सफल होगा क्योंकि कलम के धनी अतुल कुमार ने जीवन के छुए-अनछुए पहलुओं को भाव प्रधान बनाकर प्रस्तुत किया है। इस संग्रह में सभी रचनाएं सरल व सहज शब्दों में प्रस्तुत की गई हैं जो पाठकों को अपनी ओर आकर्षित करेंगी। कवि अतुल कुमार को इस काव्य संग्रह के प्रकाशन पर बधाई है।                    -फीचर डेस्क


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