मातृभाषा दिवस विशेष : मातृभूमि का स्वाभिमान मातृभाषा

देश को बर्तानियां हुकूमत की दास्तां से मुक्त कराने के लिए सरफरोशी की तमन्ना के साथ तख्ता-ए-दार पर झूलने वाले भारत के इंकलाबी चेहरों का मकसद हिंदोस्तान की सरजमीं से केवल अंग्रेजी निजाम को रुखसत करना ही नहीं था बल्कि आज़ादी के परवाने उन तमाम व्यवस्थाओं को हटाना चाहते थे जो मुगल आक्रांताओं व अंग्रेजो की सफ्फाक हुकूमत ने भारत पर जबरदस्ती थोपी थी। राष्ट्रवादी विचारधारा से लबरेज स्वाभिमानी राष्ट्र गुलामी के कलंकों को बर्दाश्त नहीं करते और न ही सहेज कर रखते हैं बल्कि ध्वस्त कर देते हैं। अंग्रेजों ने 15 अगस्त 1947 को भारत छोड़ दिया था मगर पश्चिमी तहजीब व अंग्रेजी तालीम देश के सिंहासन व लोगों के दिलोदिमाग पर आज भी पूरी शिद्दत से हुकूमत कर रही है। गुलामी के निशान लाख कोशिश करने के बाद भी पीछा नहीं छोड़ रहे बल्कि देश की संस्कृति में मुल्लविश होकर परंपराओं का हिस्सा बन चुके हैं। अपनी मातृभाषा व संस्कृति के प्रति मोहब्बत के जज्बातों का जुनून किस कदर होता है, बांग्लादेश की आवाम ने 1971 में इसकी मिसाल कायम की थी। दरअसल 21 फरवरी 1952 को ढाका यूनिवर्सिटी में सैंकड़ों छात्र अपनी मातृभाषा ‘बांग्ला’ के वजूद को बरकरार रखने के लिए पाक हुकूमत के खिलाफ तहरीक पर उतर गए थे जिसमें पाक सैन्यबलों ने 16 छात्रों को मौत के घाट उतार दिया था।

उस हिंसक प्रदर्शन में शहीद हुए छात्रों की स्मृति में ‘यूनेस्को’ ने 21 फरवरी 1999 को अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाने की घोषणा की थी ताकि सांस्कृतिक विविधता व मातृभाषा के संरक्षण को बढ़ावा दिया जा सके। सैन्य पराक्रम के अलावा कई लेखक, साहित्यकार, नामवर सहाफी व मकबूल शायर अपनी बुलंद कलम से राष्ट्र को चेतनाहीन होने से बचाने में अहम किरदार निभाते आए हैं। सन् 1905 में अंग्रेजों द्वारा बंगाल विभाजन की कारकर्दगी से आहत होकर ‘रवींद्रनाथ टैगोर’ ने बंगाल में एकीकरण का माहौल उत्पन्न करने के लिए ‘आमार शोनार बांग्ला’ नामक गीत की रचना की थी। जब 1971 में भारतीय सेना ने पूर्वी पाक से पाक फौज को बेदखल किया था। उस वक्त पूर्वी पाक की आवाम ने अपने नए आजाद मुल्क का नाम अपनी मातृभाषा बांग्ला के नाम से ‘बांग्लादेश’ रखा था तथा रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा रचित ‘आमार शोनार बांग्ला’ को अपना कौमी तराना तस्लीम कर लिया था। स्मरण रहे मातृभाषा की ताकत ने बांग्ला आवाम के जमीर को जगाकर पाक हुकूमत के खिलाफ बगावत की आग भडक़ा दी थी। अपनी मातृभाषा व तहजीब को महफूज रखने के लिए 1952 को बांग्ला लोगों का भडक़ा आक्रोश मजहब के नाम पर वजूद में आए पाकिस्तान को टुकडों में तकसीम करके ही शांत हुआ था। दुनिया की चश्म-ए-पलक ने उस बगावत का नतीजा 16 दिसंबर 1971 को बांग्लादेश के रामना रेसकोर्स गार्डन में देखा था। इससे इतर हिमाचल की पहाड़ी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने के लिए राज्य के कई बुद्धिजीवी व साहित्यकार एक मुद्दत से मांग कर रहे हैं। कई साहित्यकार पहाड़ी लेखन व कवि संगोष्ठियों के माध्यम से पहाड़ी भाषा के संरक्षण में लगे हैं।

प्रताप सिंह पटियाल

लेखक बिलासपुर से हैं

हिंदी मात्र भाषा नहीं, मातृभाषा है

प्रो. मनोज डोगरा

लेखक हमीरपुर से हैं

मातृ भाषा एक ऐसी भाषा है जो मनुष्य बचपन से मृत्यु तक बोलता है। घर परिवार में बोली जाने वाली भाषा ही हमारी मातृभाषा है। भाषा संप्रेषण का एक माध्यम होती है जिसके द्वारा हम अपने विचारों का आदान-प्रदान करते हैं और अपनी मन की बात किसी के समक्ष रखते हैं। जो शब्द रूप में सिर्फ अभिव्यक्त ही नहीं बल्कि भाव भी स्पष्ट करती है। एक नन्हा सा बालक अपने मुख से वही भाषा बोलता है जो उसके घर परिवार में बड़े लोग बोलते हैं। इस भाषा का प्रयोग करके वह अपने विचारों को अपने माता पिता को अपनी मुख से उच्चारण करके बताता है। उसका भाषा ज्ञान सीमित होता जाता है। भाषा ज्ञान की प्राप्ति का वह मार्ग है जिसके जरिये व्यक्ति दैनिक जीवन में प्रयोग करके सफलता प्राप्त करता है। भाषा के बिना मनुष्य जानवर के समान है जो देख तो सकता है, पर अपने अन्दर छुपी भावनाओं को कह नहीं सकता। ‘ह’ से हिन्दी और ‘ह’ से ही है हिन्दुस्तान, तभी तो है हमारा देश महान्।भले ही ये पंक्तियां सुनने में काफी उत्साह व राष्ट्र के प्रति भाषा प्रेमियों के प्यार को व्यक्त करती हों, मगर वास्तविकता से भी कोई अनजान नहीं है। भारत राष्ट्र हिन्दी व संस्कृत भाषा के अथाह ज्ञान भंडार का स्रोत रहा है। हर मुश्किल में नमस्ते, वसुधैव कुटुंबकम व स्वागतम की संस्कृति भारत की रही है। कहा जाता है कि किसी भी राष्ट्र और समाज के संतुलित विकास में वहां की भाषा व संस्कृति की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। ऐसी ही विशेष भूमिका भारतीय समाज के विकास में हमारी अपनों के सपनों की भाषा हिन्दी ने निभाई है। हिन्दी ने हमें विश्व में एक नई पहचान दिलाई है। हिन्दी दिवस भारत में हर वर्ष 14 सितंबर को मनाया जाता है।

हिन्दी विश्व में बोली जाने वाली प्रमुख भाषाओं में से एक है। विश्व की प्राचीन, समृद्ध और सरल भाषा होने के साथ-साथ हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा भी है। वह दुनियाभर में हमें सम्मान भी दिलाती है। यह भाषा है हमारे सम्मान, स्वाभिमान और गर्व की। हम आपको बता दें कि हिन्दी भाषा विश्व में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली तीसरी भाषा है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक, साक्षर से निरक्षर तक प्रत्येक वर्ग का व्यक्ति हिन्दी भाषा को आसानी से बोल-समझ लेता है। यही इस भाषा की पहचान भी है कि इसे बोलने और समझने में किसी को कोई परेशानी नहीं होती। पहले के समय में अंग्रेजी का ज्यादा चलन नहीं हुआ करता था, तब यही भाषा भारतवासियों या भारत से बाहर रह रहे हर वर्ग के लिए सम्माननीय होती थी। लेकिन बदलते युग के साथ अंग्रेजी ने भारत की जमीं पर अपने पांव गड़ा लिए हैं, जिस वजह से आज हमारी राष्ट्रभाषा को हमें एक दिन के नाम से मनाना पड़ रहा है। पहले जहां स्कूलों में अंग्रेजी का माध्यम ज्यादा नहीं होता था, आज उनकी मांग बढऩे के कारण देश के बड़े-बड़े स्कूलों में पढऩे वाले बच्चे हिन्दी में पिछड़ रहे हैं। इतना ही नहीं, उन्हें ठीक से हिन्दी लिखना और बोलना भी नहीं आती है। भारत में रहकर हिन्दी को महत्व न देना भी हमारी बहुत बड़ी भूल है। हम हमारे ही देश में अंग्रेजी के गुलाम बन बैठे हैं और हम ही अपनी हिन्दी भाषा को मान-सम्मान नहीं दे पा रहे हैं।


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