स्कूली शिक्षा के लिए संघर्ष

स्कूली शिक्षा देश के सभी बच्चों को आसानी से मिले, यह हमारी सबसे बड़ी प्राथमिकता होनी चाहिए। पैसे की कमी के कारण गरीब के बेटे और बेटी के लिए गुणात्मक स्कूली शिक्षा प्राप्त करने में रुकावट नहीं बननी चाहिए। माननीय हाई कोर्ट का फैसला प्रशंसनीय है क्योंकि इसमें फीस न दे पाने पर छात्र की पीड़ा पर मरहम लगाई गई है। गरीब छात्रों को निशुल्क शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए…

दिल्ली हाईकोर्ट ने हाल ही में शिक्षा के अधिकार को लेकर एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की है। माननीय कोर्ट ने कहा है कि शिक्षा एक महत्वपूर्ण अधिकार है और फीस का भुगतान न कर पाने के कारण किसी छात्र को क्लास में बैठने या मिड-सेशन के एग्जाम देने से रोकना गलत है। माननीय अदालत ने यह निर्देश दिल्ली के एक प्राइवेट स्कूल के 10वीं क्लास के एक छात्र की याचिका के संदर्भ में दिया है। इस केस में छात्र का नाम फीस न देने के कारण स्कूल से हटा दिया गया था। छात्र ने कोर्ट में याचिका डालकर आगामी बोर्ड परीक्षाओं में बैठने की अनुमति देने की मांग की थी। शिक्षा का अधिकार कानूनी तौर पर एक मौलिक और मूल अधिकार होने के बावजूद आज भी हमारे अनेक गरीब छात्रों को शिक्षा प्राप्त करने के लिए निरंतर संघर्ष करना पड़ता है। विदित हो कि भारत की संसद द्वारा अगस्त 2009 में नि:शुल्क व अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम पर सहमति की मुहर लगाई गई थी और 1 अप्रैल 2010 से यह कानून पूरे देश में लागू हुआ।

इसके बाद केंद्र और राज्य सरकारों की कानूनी रूप से यह बाध्यता हो गई कि वे 6 से 14 साल आयु समूह के भारत के सभी बच्चों को नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध कराएं। आजादी के 62 वर्षों बाद पहली बार एक ऐसा कानून बना था जिससे 6 से 14 साल के सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्राप्त करने का मौलिक अधिकार हासिल हो सका। निश्चित रूप से इस कानून की अपनी सीमाएं रही हैं, जैसे 6 वर्ष से कम और 14 वर्ष से अधिक आयु समूह के बच्चों को इस कानून के दायरे से बाहर रखना, शिक्षा की गुणवत्ता पर पर्याप्त जोर नहीं देना, इस कानून के पीछे की मंशा और और पिछले दस वर्षों के दौरान जिस तरह से इसे अमल में लाया गया है, उसमें काफी फर्क है। क्या यह जरूरी नहीं कि शिक्षा का अधिकार कानून के क्रियान्वयन की समीक्षा की जाए, जो महज आंकड़ों के मकडज़ाल से आगे बढ़ते हुए शिक्षा का अधिकार कानून के बुनियादी सिद्धांतों पर केन्द्रित हो। कहना न होगा कि एक दशक बाद शिक्षा का अधिकार कानून की उपलब्धियां सीमित हैं। इस कानून को लागू करने के लिए जिम्मेदार लोग पिछले अनेक सालों के दौरान इससे अपना पीछा छुड़ाते हुए दिखाई पड़ रहे हैं। क्या पिछले दस वर्षों के दौरान केंद्र और राज्य सरकारें आरटीई को लागू करने में उदासीन रही हैं? इस बात के गवाह रहे हैं कि छात्र किस तरह से भारत की स्कूली शिक्षा की अधोसंरचना, पर्याप्त शिक्षकों की नियुक्ति व गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए उपेक्षा से जूझता रहे हैं। इस बात का विश्लेषण किया जाए कि पिछले कई वर्षों के दौरान आरटीई स्कूलों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुनिश्चित करने में क्यों विफल साबित हुआ है। आज प्राथमिक स्कूलों में नामांकन तो हो गए हैं लेकिन स्कूलों में बच्चों के टिके रहने की चुनौती अभी भी बरकरार है। इसी के साथ ही आज भी बड़े पैमाने पर अनेक राज्यों में सरकारी स्कूल बुनियादी ढांचागत सुविधाओं, जरूरी संसाधन, शिक्षा के लिए माहौल और शिक्षकों की भारी कमी से जूझ रहे हैं। सार्वजनिक शिक्षा एक आधुनिक विचार है जिसमें सभी बच्चों को, चाहे वे किसी भी लिंग, जाति, वर्ग, भाषा आदि के हों, शिक्षा उपलब्ध कराना हमारा कर्तव्य है। गौरतलब है कि भारत एक ऐसा मुल्क है जहां सदियों तक शिक्षा पर कुछ खास का एकाधिकार रहा है। यह सिलसिला औपनिवेशिक काल में टूटा, जब भारत में स्कूलों के माध्यम से सबके लिए शिक्षा का प्रबंध किया गया।

अंग्रेजी हुकूमत द्वारा स्थापित स्कूल-कालेज सभी भारतीयों के लिए खुले थे। अंग्रेजों द्वारा स्पष्ट नीति अपनाई गई कि जाति और समुदाय के आधार पर किसी भी बच्चे को इन स्कूलों में प्रवेश से इंकार नहीं किया जाएगा। यह एक बड़ा बदलाव था जिसने सभी भारतीयों के लिए शिक्षा का दरवाजा खोल दिया। आजादी के बाद इस प्रक्रिया में और तेजी आई। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 29 में भारत के सभी नागरिकों को धर्म, मूलवंश, जाति या भाषा के किसी भेदभाव के बिना किसी भी शिक्षा संस्थान में भर्ती होने का अधिकार दिया गया। वैसे शिक्षा का अधिकार कानून की कुछ खूबियां भी हैं। साल 2010 में शिक्षा का अधिकार कानून के लागू होने के बाद पहली बार केंद्र और राज्य सरकारों की कानूनी जवाबदेही बनी कि वे 6 से 14 साल तक के सभी बच्चों के लिए नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था करेंगे। लेकिन इसी के साथ ही इस कानून की सबसे बड़ी सीमा यह रही है कि इसने सार्वजनिक और निजी स्कूलों के अंतर्विरोध से कोई छेड़छाड़ नहीं की। शिक्षा का अधिकार कानून ने न केवल शिक्षा की दोहरी व्यवस्था को बनाए रखा है बल्कि इसे मजबूत बनाने में भी मददगार साबित हुआ है। इसने सरकारी स्कूलों को ‘मजबूरी की शाला’ में बदलने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। जो लोग सक्षम हैं उनकी दौड़ पहले से ही प्राइवेट स्कूलों की तरफ है। इस स्थिति को हमें बदलना होगा। बहरहाल पिछले तीन दशकों के दौरान दुनिया बहुत तेजी से बदली भी है और इसी के साथ ही देश-दुनिया की शिक्षा प्रणाली बढ़ती जरूरतों और मांगों के अनुसार कई बदलावों से गुजरी है। दुर्भाग्य से भारत में कुछ खास वर्ग ही इन बदलाव का फायदा उठा पा रहे हैं। देश की एक बड़ी जनसंख्या, जिसमें मुख्य रूप से गरीब, अल्पसंख्यक और परम्परागत रूप से हाशिये पर रखे गए समुदाय शामिल हैं, की शिक्षा तक पहुंच नहीं हो सकती है। इस बदली हुई दुनिया में ज्ञान पर एकाधिकार की एक नयी व्यवस्था बनी है जिसमें पूंजी और बाजार की एक बड़ी भूमिका है। इससे शिक्षा के मूल और मौलिक अधिकार पर सभी की बराबर पहुंच पर कुठाराघात लगा है। कटु सत्य है कि पिछले कुछ वर्षों के दौरान शिक्षा का फैलाव तो हुआ है, लेकिन इसका विभाजन भी बहुत गहरा हुआ है।

इस नए विभाजन के दो बिंदु हैं। जहां एक तरफ कुछ चुनिन्दा कुलीन और संभ्रांत स्कूल हैं तो दूसरी तरफ सरकारी और गली मुहल्लों में चलने वाले छोटे और मध्यमस्तर प्राइवेट स्कूल हैं। इन तमाम चुनौतियों से उभरने के हमें दो स्तरों पर उपाय करने की जरूरत है। एक तो आरटीई के दायरे में रहते हुए जरूरी कदम उठाने ही होंगे, साथ ही शिक्षा का अधिकार कानून को और प्रभावशाली बना कर भी आगे बढऩा होगा। प्राथमिक शिक्षा में लगभग शत प्रतिशत नामांकन के करीब पहुंचने के बाद आरटीई को सभी बच्चों के लिये प्राथमिक शिक्षा के लिये अवसर का कानून की भूमिका से आगे बढ़ते हुए सभी बच्चों के लिये गुणवत्तापूर्ण और समान शिक्षा के लक्ष्य की ओर आगे बढऩा होगा। अब नामांकित बच्चों के नियमितीकरण और उन्हें अधिक समय तक स्कूल शिक्षा में रोके रखने के लिये तत्काल ठोस उपाय किये जाने की जरूरत है। इसका सीधा सम्बन्ध शिक्षा की गुणवत्ता से जुड़ा हुआ है। माननीय हाई कोर्ट का फैसला प्रशंसनीय है क्योंकि इसमें फीस न दे पाने पर छात्र की पीड़ा पर मरहम लगायी गयी है जबकि यह काम शिक्षा प्रशासन का है। स्कूली शिक्षा देश के सभी बच्चों को आसानी से मिले, यह हमारी सबसे बड़ी प्राथमिकता होनी चाहिए। पैसे की कमी के कारण गरीब के बेटे और बेटी के लिए गुणात्मक स्कूली शिक्षा प्राप्त करने में रुकावट नहीं बननी चाहिए। इस बात में दो राय नहीं कि आज भी देश के लाखों बच्चों के लिए स्कूली शिक्षा प्राप्त करना संघर्ष है। देश के सभी स्कूल यदि शाम को जब उनका इन्फ्रा फ्री रहता है, सिर्फ दो घंटे की मुफ्त शिक्षा की सुविधा मजदूरी करते गरीब छात्रों को दें तो शिक्षा के लिए यह बेहतर होगा।

डा. वरिंद्र भाटिया

कालेज प्रिसीपल

ईमेल : hellobhatiaji@gmail.com


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