भूमि बैंक की दिशा में

By: Feb 20th, 2023 12:02 am

हिमाचल में निवेश और विकास को चाहिए जमीन की ऐसी पेशकश, ताकि समय से पहले तय हो जाए कि कहां तक घूमेंगे पहिए और कहां तक संभव है सफर। उद्योग मंत्री हर्षवर्धन चौहान ऐसी जमीन तलाश रहे हैं जहां सरकार अपने लक्ष्यों का औद्योगिक निवेश कर सके। पूरा प्रदेश डे बोर्डिंग स्कूल, चार्जिंग स्टेशन और हेलिपोर्ट के लिए जमीन की तलाश में है, तो इसी सफर के यात्री कहीं गोल्फ कोर्स, कहीं टेंट कालोनी तो कहीं आईटी पार्क के लिए जमीन खोज रहे हैं। बेशक सुक्खू सरकार ने प्रदेश की चारों दिशाओं में प्रशासन को सक्रिय रूप से जमीन की तलाश में लगाया है और यही वजह है कि वक्त की तय सीमा के भीतर ही फाइलें नतीजे ला रही हैं। ऐसे में जरूरी यह है कि राज्य अपने भविष्य की जरूरतों को इंगित करते हुए स्थायी रूप से लैंड बैंक की स्थापना करे। हिमाचल की तरक्की, नागरिक सुविधाओं, शहरी एवं ग्रामीण विकास, आर्थिक व विकास दर के उत्थान, विभागीय, औद्योगिक व पर्यटन गतिविधियों के लिए भूमि बैंक चाहिए।

पिछले कई दशकों से जमीन की तलाश में या तो बहानेबाजी या ड्रामेबाजी होती रही, इसीलिए कोरी सियासत ने टांग अड़ाई। इसका एक उदाहरण धर्मशाला केंद्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना को लेकर बन चुका है। किस तरह राज्य और केंद्र के बीच सियासत ने केंद्रीय विश्वविद्यालय की मिट्टी पलीद कर दी। कितनी बार भूमि का चयन हुआ और कितनी बार इसे नामंजूर करने के बहाने पैदा किए गए। धर्मशाला बनाम देहरा के बीच बंटे विश्वविद्यालय ने एक ऐसी सियासी जमीन ढूंढ ली, जिसके कारण जदरांगल परिसर को आज भी कोलकाता और दिल्ली की दौड़ में अपने सपनों को खोना पड़ रहा है। इसी तरह पिछली भाजपा सरकार ग्रीन फील्ड एयरपोर्ट के लिए बल्ह घाटी में उम्मीदों की जमीन तैयार करते-करते यह भूल गई कि कांगड़ा हवाईअड्डे की सफलता को आगे बढ़ाने के लिए दो गज जमीन चाहिए थी। ऐसी कई परियोजनाएं आज भी जमीन की अनुपलब्धता के कारण रेंग रही हैं, तो हिमाचल के विकास को सबसे अधिक परेशानी पर्यावरण एवं वन संरक्षण अधिनियम से रहती है। अतीत में झांकते हुए अगर भविष्य की जरूरतों को संबोधित करने का सही मकसद पैदा करें, तो प्रदेश की हर पंचायत व नगर निकायों को अपने-अपने स्तर पर भूमि बैंक स्थापित करने चाहिएं।

इसके लिए राजस्व विभाग को एक विस्तृत अध्ययन करते हुए सर्वप्रथम ऐसा ब्यौरा तैयार करना चाहिए ताकि सार्वजनिक व गैर वन भूमि का लेखा जोखा सामने आए। प्रदेश सरकार को भूमि बैंक बनाने के लिए कुछ मान दंड तय करते हुए जनता के साथ आदान प्रदान के लिए पूल बनाकर विकास करना होगा। उदाहरण के लिए कांगड़ा घाटी में कई चाय बगान पूरी तरह बंजर हो चुके हैं, लेकिन इनके स्वामी न तो इन्हें बेच पा रहे हैं और न ही घाटे से उभर रहे हैं। ऐसे में अगर सरकार संपत्तियों में पार्टनरशिप के तहत निवेश कराए, तो इन्हें भी लैंड बैंक में शामिल कराया जा सकता है। प्रदेश की भौगोलिक परिस्थितियों को समझते हुए ऐसी जमीन की उपयोगिता बढ़ानी होगी, जो अब तक किसी न किसी कारण बेकार रही है। कई शहरों में प्राकृतिक नालों या खड्डों के किनारे बेकार रह गई जमीन को इनके चैनेलाइजेशन और कहीं-कहीं इनके ऊपर लैंटल डालकर भविष्य की अधोसंरचना से जोड़ा जा सकता है। प्रदेश में बैंकिंग सेक्टर अगर ऐसे चैनलाइजेशन में सहयोग करे, तो शहरों में पार्किंग व्यवस्था के अलावा बैंक स्केवर व आफिस परिसर बनाए जा सकते हैं।

शहरों में डंपिंग साइट तय करके भूमि बैंक का आकार बढ़ाया जा सकता है, जबकि पूरे प्रदेश में टीसीपी कानून लागू करके ऐसी जमीनों की तलाश हो जाएगा, जो केवल सार्वजनिक कार्यों या नए निवेश के लिए काम आ सकती है। प्रदेश में पुश्तैनी जमीनों का बंटवारा कुछ इस तरह हुआ है कि छोटे टुकड़ों में विभक्त और इधर-उधर बांटी भूमि अनुपयोगी हो गई है। अगर हर गांव में ऐसी मिलकीयत को एकट्ठी करने के एवज में सरकार केवल भूमि में अंशदान खोजे, तो कॉमन पूलिंग से जमीन के कई हिस्से सार्वजनिक हो सकते हैं। अतिक्रमण को चिन्हित करके सैकड़ों एकड़ जमीन को बचाया जा सकता है। राज्य को अपनी तरक्की में बाधक बनी ऐसी वन भूमि को पुन: हासिल करना होगा, जो अन्यथा विकास व निवेश के लिए उपयोगी साबित होगी। हिमाचल प्रदेश की सत्तर फीसदी जमीन वनों के अधीन है, जिसे हर सूरत पचास फीसदी तक घटाने को पैरवी करनी होगी। उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर व पूर्वोत्तर राज्यों के मंच पर यह मांग राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में एक आवश्यक चिंतन पैदा कर सकती है, बशर्ते हिमाचल इसकी अगुवाई करे।


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