घटती निष्पक्ष सोच

अनादिकाल से मनुष्य समाज के क्रमिक विकास का मूल आधार ज्ञान ही रहा है। जैसे जैसे भौतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक ज्ञान का विस्तार होता गया, मनुष्य समाज उत्तरोतर विकास की सीढिय़ां चढ़ता गया। ज्ञान का अर्थ हुआ, जानना। अर्थात उस विषय की सच्चाई को जानना। जब हम स्पष्टता से किसी विषय को जान लेते हैं तो उस विषय में विश्वास के साथ निर्णय लेकर कार्य कर सकते हैं। पूर्ण जानकारी पर आधारित कार्य ही विकास का मार्ग प्रशस्त करता है। आज का कार्य कल आने वाले विकास का कारण बन जाता है, और इस तरह कार्य-कारण का ऐसा चक्र चल निकलता है जिससे विकास की गाड़ी सतत गतिशील रहती है। किन्तु किसी भी विषय की वास्तविक सच्ची जानकारी के लिए निष्पक्ष मन की जरूरत होती है। जितने भी शोध कार्य किए जाते हैं उनका परिणाम सच के नजदीक तभी आता है जब वे निष्पक्ष मन द्वारा संचालित होते हैं। भौतिक ज्ञान का क्षेत्र इसे समझने के लिए सबसे उत्कृष्ट उदाहरण है।

यदि आपका मन किसी पूर्व आग्रह से ग्रस्त है तो आपके द्वारा प्राप्त ज्ञान सत्य के नजदीक नहीं होगा, जिस पर आधारित कार्य में आप सफल नहीं हो सकते और असफलता आपको दोबारा सोचने पर बाध्य कर देती है और आप नए सिरे से विषय का सच्चा ज्ञान प्राप्त करने के लिए प्रेरित हो जाते हैं। यदि आप रोगी का इलाज कर रहे हैं तो रोग नियंत्रित नहीं होगा, यदि कोई भी अन्य भौतिक कार्य कर रहे हैं तो वह सही नहीं होगा। आप दोबारा गलती सुधार कर ही आगे बढ़ सकते हैं, और इसके लिए जितना भी समय लगे आपको इंतजार करना पड़ेगा। तमाम वैज्ञानिक विकास इसी स्तर के ज्ञान के क्रमिक विकास पर निर्भर रहता हुआ आगे बढा है। इसी तरह सामाजिक ज्ञान के आधार पर ही राजनैतिक, आर्थिक और नैतिक विकास का सफर तय हुआ है। मनुष्य समाज चिर काल तक सुखी, शांत और समृद्ध जीवन जीने की इच्छा रखता है। इसके लिए किसी को ज्यादा सिखाने की भी जरूरत नहीं होती, यह उसकी स्वाभाविक वृति ही है।

किन्तु ऐसा जीवन जीने के लिए प्रयास दो तरह से किए जा सकते हैं। एक तो केवल अपने लिए व्यवस्था बनाने के लिए संघर्ष करने का मार्ग है। इस रास्ते पर चल कर हमें दूसरे से छीनने में भी कोई दोष नहीं दिखाई देगा। तो हम छीना झपटी वाला समाज बना लेंगे और सुख शांति के बदले दु:ख और अशांति ही पैदा कर लेंगे। और हमारी समृद्धि भी एक दूसरे के लिए दु:ख और अशांति पैदा करने के साधन इकठ्ठा करने में ही खप जाएगी। तमाम दावों, प्रति दावों के बावजूद अभी तक मनुष्य समाज वैज्ञानिक और तकनीकी विकास से अर्जित शक्ति का एक बड़ा भाग इसी दृष्टि से प्रयोग कर रहा है। इसीलिए दुनिया खेमों में बंद है, रोज बड़े बड़े हथियार तैयार हो रहे हैं, दूसरा कर रहा है, इसलिए हम न करें तो पिट जाएंगे और गुलाम होने का खतरा मंडराने लगेगा। जिन देशों ने गुलामी झेली है, वे स्वाभाविक तौर पर इस विषय में अधिक संवेदनशील हैं, और हथियारों की दौड़ में अग्रणी होना चाहते हैं। वैश्विक स्तर पर सामूहिक सोच विकसित करके ही इस दिशा में कोई पहल करने के बारे में सोचा जा सकता है। संयुक्त राष्ट्र संघ हालांकि इस तरह की वैश्विक कल्याणकारी कुछ पहलें कर भी रहा है, किन्तु सशस्त्र संघर्षों को रोकने के बारे में असमर्थ ही प्रतीत होता है। इसलिए किसी देश को भी अंतरराष्ट्रीय संघर्ष की दौड़ से रोकने का कोई तर्क बचता नहीं है।

कुलभूषण उपमन्यु

अध्यक्ष, हिमालयन नीति अभियान


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