उपेक्षित होते हिमाचली लोक कलाकार

कलाकारों, आयोजकों, प्रशासकों की सहमति लेकर सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होना चाहिए…

हिमाचल प्रदेश की पहाड़ी लोक संस्कृति अनायास सभी का मन मोह लेती है। प्रदेश में प्रतिवर्ष स्थानीय मेलों से लेकर राज्य, राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर के मेलों का आयोजन होता है। अंतरराष्ट्रीय मेलों में कुल्लू का दशहरा, रामपुर का लवी, चंबा का मिंजर, सिरमौर का रेणुका मेला तथा शिमला का ग्रीष्मोत्सव उत्सव मुख्य हैं। इन मेलों में करोड़ों का व्यापार होता है। लोगों को प्रदेश की कला एवं संस्कृति के दर्शन होते हैं। मनोरंजन के लिए सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होता है। कला तथा कलाकारों को उनकी कला का प्रदर्शन का अवसर तथा आय के अवसर प्राप्त होते हैं। इन मेलों को स्थानीय जि़ला प्रशासन तथा राज्य सरकार द्वारा उपमण्डल स्तरीय, जिला स्तरीय, राज्य स्तरीय, राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय मेलों की श्रेणी में रखा गया है। ग्रामीण मेलों से लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर के मेलों में विभिन्न स्तरों पर आयोजन समितियों को बहुत से प्रबन्धन करने पड़ते हैं जिनमें स्थानीय लोगों, व्यापारियों, उद्योगपतियों, प्रशासन तथा सरकारी अनुदान से धनराशि एकत्रित की जाती है।

दुकानों, झूलों, खाने-पीने, मनोरंजन की दुकानों के लिए स्थान की नीलामी कर भी बहुत सा धन इक_ा किया जाता है। यह एकत्रित धन जनता का होता है तथा प्रशासनिक अधिकारियों, जनता के प्रतिनिधियों एवं आयोजन समितियों की देखरेख में खर्च किया जाता है। सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजन के साथ-साथ इन मेलों में कहीं-कहीं कुश्तियों तथा ग्रामीण खेलों के आयोजन भी होने लगे हैं। निश्चित रूप से इन मेलों के आयोजन में करोड़ों रुपए खर्च किए जाते हैं। इन मेलों में आयोजन समितियों तथा प्रशासन पर जनता के पैसे को लुटाने, दुरुपयोग करने तथा मनमाने ढंग से खर्च करने के आरोप भी लगते रहे हैं। अब तो सांस्कृतिक कार्यक्रमों की बुकिंग में दलालों की घुसपैठ के समाचार भी सामने आने लगे हैं। आमतौर पर इन आयोजनों के बाद असंतुष्ट लोगों तथा कलाकारों के बयान ही समाचार पत्रों में पढऩे को मिलते हैं, लेकिन कभी भी इन समस्याओं का समाधान नहीं निकलते देखा गया है। आयोजन समितियों तथा सदस्यों को बदल कर लीपापोती कर दी जाती है और अगले वर्ष फिर वही सिलसिला, आयोजन, आयोजनकर्ता, मतभेद, आरोप-प्रत्यारोप। न कोई सुधार होता है, न कोई व्यवस्था परिवर्तन होता है। हर बार केवल चेहरे ही बदलते हैं।

इन मेलों की सांस्कृतिक संध्याओं में भाग लेने वाला कलाकार वर्ग आयोजन समितियों, स्थानीय प्रशासन तथा सरकारी व्यवस्था से नाखुश ही रहता है। व्यवस्था विरोधी बयान प्रिंट मीडिया तथा इलैक्ट्रोनिक मीडिया में दिखते रहते हैं। कोई अपने चयन को लेकर असंतुष्ट है, कोई मंच पर समय न मिलने से आक्रोशित है तथा कोई अपने मान-सम्मान एवं पर्याप्त धनराशि न मिलने पर नाराज़ है। हिमाचल प्रदेश में स्थानीय तथा पहाड़ी कलाकारों की उपेक्षा, महंगे पंजाबी तथा फिल्मी कलाकारों के ऊपर धनराशि लुटाने के आरोप भी लगते रहते हैं। माननीय सर्वोच्च न्यायालय के आदेशानुसार अब दस बजे के बाद कोई भी आयोजन तथा ध्वनि यंत्रों का प्रयोग मान्य नहीं है। आयोजनों में सायं पांच बजे सांस्कृतिक संध्याएं शुरू कर दी जाती हैं। खाली कुर्सियों को पहाड़ी संगीत सुना दिया जाता है। सीमित समय होने के कारण जब तक बाहर से बुलाए पंजाबी तथा फिल्मी कलाकारों को मंच मिलता है तब समय समाप्त हो जाता है। लाखों रुपए मात्र कुछ मिनटों में हाजिऱी लगाने के दे दिए जाते हैं। आयोजकों तथा प्रशासन के सामने मूल समस्या यह है कि कलाकार किसे माना जाए, कौन सा छोटा या बड़ा कलाकार है, कलाकार का प्रमाण पत्र जारी करने के लिए कौन सी प्रक्रिया अपनाई जाए, किस कलाकार को किस श्रेणी में रखा जाए, मंच प्रदर्शन के लिए कौनसा और कितना समय दिया जाए तथा कलाकार को मानदेय स्वरूप कितनी राशि दी जाए, इन प्रश्नों का उत्तर देने के लिए कोई प्रक्रिया, नियमावली या मापदण्ड नहीं हैं। साथ ही अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावशाली व्यक्तियों, प्रशासनिक अधिकारियों तथा राजनीतिक हस्तक्षेप भी हो ही जाता है।

यह भी ध्यातव्य है कि कलाकारों की भी अब बाढ़ सी आ गई है और स्वयंभू स्थापित, अपने आप को कलाकार समझने वाले बहुत से लोग अपने हुनर तथा सुर, ताल, शब्द, संगीत की सच्चाई को स्वीकार न करते हुए किसी भी कीमत पर मंच पर आना चाहते हैं। कलाकारों को अपना स्तर सुधारने पर काम करना चाहिए, न कि मौका पाने के प्रबन्धन कला कौशल का। अब तो इन कार्यक्रमों से पूर्व ऑडिशन लिए जाते हैं। स्थानीय महिला मंडलों, स्थानीय कलाकारों, लोक संपर्क विभाग के द्वारा अनुमोदित सांस्कृतिक दलों, पंजाबी, फिल्मी कलाकारों का चयनकर्ताओं पर बहुत सा दबाव रहता है। बहुत से बेसुरे, बेताले, अयोग्य कलाकारों को कभी दर्शक तथा श्रोता स्वीकार नहीं करते तथा कभी आयोजक मंच से नीचे उतार देते हैं। सुर ताल से तो बड़ों-बड़ों को फिसलते देखा जा सकता है। बहुत से कलाकार अपने संगीत प्रदर्शन पर केन्द्रित न होकर किसी प्रबन्धन कौशल या सिफारिश से मंच पर अपनी हाजिऱी लगाना चाहते हैं। कुल मिलाकर यह संस्कृति संवर्धन नहीं बल्कि व्यवस्था का मज़ाक बन कर रह गया है जिसका समाधान भी आसानी से संभव नहीं। किसके सुझाव माने जायें, किसके नहीं यह विचारणीय है। यह भी आवश्यक है कि प्रदेश की लोक कलाओं, लोक संस्कृति, लोक संगीत तथा लोक कलाकारों को अधिमान दिया जाना चाहिए। हमारे पहाड़ी कलाकारों को पंजाब, हरियाणा, दिल्ली तथा अन्य प्रदेशों में कम ही अवसर मिलते हैं।

इसके साथ ही प्रदेश के कलाकार वर्ग को भी अपनी साधना से अपनी कला में असर पैदा करते हुए आकर्षक बनाना होगा। हिमाचल प्रदेश में बहुत लम्बे समय से समग्र सांस्कृतिक नीति की मांग उठती रही है। कला, कलाकारों, लोककलाओं, नाट्य, गायन, वादन, नृत्य तथा अनेकों लोक शैलियों के संरक्षण एवं संवर्धन के लिए यह आवश्यक भी है। सांस्कृतिक आयोजन कैसे हों, चयन प्रक्रिया, मानदेय तथा सम्मान राशि, मेलों की श्रेणी तथा कलाकारों का उनकी योग्यतानुसार वर्गीकरण निर्धारण पर नियम बहुत स्पष्ट होने चाहिए। इन मेलों के आयोजन के लिए नियामक संस्थाओं की स्थापना होना बहुत ही आवश्यक है। इस रेगुलेटरी बोर्ड के माध्यम से मेलों तथा कलाकारों के स्तर का वर्गीकरण, अनुदान, चयन प्रक्रिया तथा नियमावली निर्धारित की जा सकती है। कौन सी व्यवस्था, नियमावली तथा चयन प्रक्रिया हो, कलाकारों, आयोजकों, प्रशासकों की सहमति लेकर निष्पक्ष रूप से सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होना चाहिए, अन्यथा आरोप-प्रत्यारोप तथा विरोध के स्वर उठते ही रहेंगे जिनका कभी भी कोई समाधान निकलने की संभावना नहीं है।

प्रो. सुरेश शर्मा

लेखक घुमारवीं से हैं


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