महिला दिवस विशेष : रूढि़वादी सोच के कारण है नर-नारी असमानता

यदि नारी को अपने हिस्से की धूप चाहिए, अपने हिस्से का आसमां चाहिए, अपने हिस्से का जहां चाहिए, तो उसे हिसारों से बाहर आना होगा। जिस नारी के आंचल में दूध है, उसकी आंखों में आखिर पानी क्यों? पापा के आंगन की मल्लिका आखिर मर्द की दासी कैसे बन जाती है? मर्द द्वारा दिए गए चुनरी के उस दाग के लिए वो जि़म्मेदार कैसे है…

हाल ही में मंडी के कटौला क्षेत्र की पांच बेटियों- अनिता, सुनीता, कविता, रेखा और सपना ने अपने पिता के पार्थिव शरीर को कंधा देने के पश्चात मुखाग्नि दी। ऐसा लगा नारी ने रूढि़वादी सोच से बाहर आने का साहस किया है। इसी तरह भारत की पूर्व विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के पार्थिव शरीर को मुखाग्नि देकर बेटी बांसुरी ने नारी समाज के लिए नज़ीर पेश की थी। हिमाचल प्रदेश की प्रज्ज्वल बस्टा ने 21 वर्ष की उम्र में देश की सबसे कम उम्र की पंचायत समिति अध्यक्ष बन कर नारी शक्ति की मिसाल पेश की थी। इस तरह के साहसिक कृत्य ही महिला को पुरुष के समकक्ष खड़ा करते हैं। भले ही ईश्वर ने नर और नारी शारीरिक रूप से अलग-अलग रचा है, परंतु एक को दूसरे से हीन बिल्कुल नहीं बनाया।

अगर ऐसा होता, तो राम के साथ सीता का नाम न लिया जाता, राधा के साथ कृष्ण न होते, गौरी के साथ शंकर न होते। नर और नारी दोनों एक साथ हैं, तो ही ये मानव दुनिया है। नर और नारी एक दूसरे के बगैर पूरे नहीं हैं। ये एक ऐसा सत्य है जिसे समझने के लिए किसी रॉकेट साइंस की आवश्यकता नहीं। नारी आधी दुनिया है और वह पुरुष की अर्धांगिनी है, ऐसा हम ज़रूर कहते हैं। परंतु इसे वास्तविक जीवन में अपना कर ही सार्थक बनाया जा सकता है। हालांकि महिलाओं को आरक्षण उन्हें आर्थिक सुरक्षा ज़रूर देता है, परंतु यह नारी की समानता की गारंटी नहीं। मुझे लगता है कि महिला व पुरुष की असमानता का मसला पुरुष की अहंवादिता, समाज की रूढि़वादी सोच, कुंद मानसिकता, नारी समर्पण, संकोच व दब्बूपन से जुड़ा हुआ मामला है। ऐसा नहीं है कि पुरातन काल में महिलाओं को सम्मान का स्थान प्राप्त नहीं था। वैदिक साहित्य के उल्लेख बताते हैं कि उस युग में बालकों के समान बालिकाओं का भी उपनयन संस्कार होता था और उन्हें भी गुरुओं के आश्रमों में शिक्षा ग्रहण करने के लिए भेजा जाता था। वेदों के अलावा उन्हें गीत-संगीत, नृत्य, चित्रकला व शस्त्र विद्या सहित कुल चौंसठ कलाओं की शिक्षा दी जाती थी। गार्गी, मैत्रेयी, घोषा, गोधा, विश्ववारा, अपाला, अदिति जैसी अनेक विदुषियों ने ऋग्वेद के सूक्तों की रचना भी की। कालांतर में महिलाओं की स्थिति में बदलाव आता गया। समाज में नारी का रुतबा, सम्मान पुरुष की सुविधानुसार बनता-बिगड़ता रहा है। कभी देवी की सूरत, कभी श्रद्धा की मूरत, कभी पूजनीय, कभी ताडऩीय, कभी ममता की गगरी, कभी दुख भरी बदरी। कहने को पुरुष धर्मराज बना रहा, परंतु जुए की बिसात पर शकुनियों के पासों के आगे परास्त होकर वो नारी को ही दांव पर लगाता रहा। इस तरह नारी के हाथ में आते रहे पुरुष के आदेश, उपदेश, प्रताडऩा व वर्जनाएं। कई बेटियों के बाद बेटे की चाहत, माहवारी के समय महिला को अछूत समझ कर किसी पुरानी कोठरी में या किसी पशुशाला में बिठा देना, मंदिर में उसका प्रवेश वर्जित करना, ये सब बातें नारी के प्रति हमारे समाज की संकीर्णता व खोखली सोच की बानगी है। प्रश्न वही पुराना है- क्या नारी को उसके हिस्से का आसमान मिल पा रहा है?

वास्तव में नारी की व्यथा उसके जन्म व पालन-पोषण के माहौल की परिणति है। हालांकि अब लडक़ी के जन्म पर भी खुशी मनाई जाती है, परंतु मन में घर कर गई पुत्र पाने की लालसा बनी रहती है। घर में सास-ससुर, आस-पड़ोस व रिश्ते-नाते वाले ये कहते सुने जा सकते हैं- अगली बार बेटा होगा। यदि पति के साथ पत्नी भी नौकरीपेशा है, तो अमूमन घर पहुंच कर चाय पत्नी ही बनाएगी क्योंकि यही रीत है। यदि कभी पति भी ऐसा कर ले, तो काफी दिनों तक वो ज़रूर याद दिलाता रहेगा कि फलां दिन उसने चाय भी बनाई थी। घर में जब कोई मेहमान आता है, तो मा-बाप बेटी से ही कहते हैं, ‘बेटी चाय तो बना लाओ।’ बेटा चाहे पास बैठा हो या टीवी पर क्रिकेट मैच देख रहा हो या मोबाइल फोन पर गेम खेल रहा हो, उसे ऐसा करने के लिए नहीं कहा जाता। अगर उससे ऐसा कह भी दिया जाए तो, छोटे लाल कहते हैं, ‘ये तो दीदी करेगी क्योंकि वो लडक़ी है।’ घरों में बेटियों को अक्सर कहा जाता है, ‘ये मत करो, वो मत करो, तुम लडक़ी हो। औरों के घर जाओगी, तो वे क्या कहेंगे?’ इन्हीं रूढ़ जुमलों से बने हिसारों और दीवारों में हमारी बेटियां पल कर बड़ी होती हैं। बेटी से बहन, पत्नी और मां बनते-बनते भेदभाव व पूर्वाग्रहों की दीवारें पुख्ता होती जाती हंै। नारी इसे अपनी नियती समझ कर अपना किरदार चाहे-अनचाहे निभाती जाती है। वो तब सीता या द्रौपदी बनी और आज उसे निर्भया, गुडिय़ा या आसिफा के रूप में पुरुष की दरिंदगी का शिकार होना पड़ता है। आज भी वह शोषण, बलात्कार, दहेज, भ्रूण हत्या से जूझ रही है। मैं ये तो नहीं कहता कि नारी ने तरक्की नहीं की है। दरअसल हमारा नारी समाज दो वर्गों में बंटा है।

एक वर्ग में राष्ट्रपति मुर्मू, सरोजनी नायडू, इंदिरा गांधी, कल्पना चावला, सुनिता विलियम्स, किरण देसाई, नीरजा भनोट, निर्मला सीतारमण, सुषमा स्वराज, कल्पना चावला, किरन बेदी, साइना नेहवाल, पीवी सिंधू, दीपा कर्माकर, मैरी कॉम, बबीता फोगाट जैसी प्रगतिशील और सशक्त महिलाएं हैं। परंतु नारी समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसी महिलाओं का है जो कोने में दुबक कर एक शून्य की जिंदगी जी रही हैं। वे पुरुष प्रधान समाज की रूढि़वादी सोच को या तो अपना भाग्य मान बैठी हैं या फिर धर्म मान कर रिश्ते निभा रही हैं। नारी समानता के लिए महिला और पुरुष दोनों को अपनी मानसिकता को बदलना होगा। पुरुष को पुरुष होने का दंभ व अहम त्यागना होगा व महिला को खुद की शक्ति को पहचान कर अबला का चोला उतारना होगा। यदि नारी को अपने हिस्से की धूप चाहिए, अपने हिस्से का आसमां चाहिए, अपने हिस्से का जहां चाहिए, तो उसे हिसारों से बाहर आना होगा। जिस नारी के आंचल में दूध है, उसकी आंखों में आखिर पानी क्यों? पापा के आंगन की मल्लिका आखिर मर्द की दासी कैसे बन जाती है? मर्द द्वारा दिए गए चुनरी के उस दाग के लिए वो जि़म्मेदार कैसे है? खुद को प्रगतिशील घोषित करने वाले पुरुष समाज के लिए ये लानत भरे सवाल हैं।

जगदीश बाली

स्वतंत्र लेखक


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