अभिभावकों का आर्थिक शोषण व स्कूल

छात्रों के माता-पिता को अपनी सुविधा के अनुसार इन किताबों और स्कूल यूनिफॉर्म को किसी भी दुकान से खरीदने की स्वतंत्रता सुनिश्चित करनी होगी। इसके अलावा कोई भी निजी स्कूल कम से कम तीन साल तक स्कूल यूनिफॉर्म के रंग, डिजाइन या अन्य विशिष्टताओं को नहीं बदल सके, इस बात को यकीनी बनाना होगा…

देश के स्कूलों मे दाखिला शुरू है। इसके साथ ही कुछ स्कूलों द्वारा किताबों-कापियों व ड्रेस इत्यादि को बेचने की आड़ मे अभिभावकों का आर्थिक दोहन शुरू हो चुका है। पंजाब में तो राज्य के शिक्षा मंत्री द्वारा इस सम्बन्ध में कड़े आदेश भी जारी किए गए हैं। कितने शातिर तरीके से पूरे देश में स्कूलों द्वारा छात्रों के अभिभावकों को शिक्षा जैसे पवित्र मिशन की आड़ में लूटा जा रहा है, जानने की जरूरत है। सोशल और प्रिंट मीडिया पर अनेक खबरें कहती हैं कि देश के अनेक शहरों में कुछ कथित स्कूल संचालक स्कूल से अधिक स्टेशनरी एवं ड्रेस की दुकान से कमीशन के रूप में कमाई करते हैं। स्टेशनरी दुकानदार निजी प्रकाशकों की किताब अभिभावकों को दस गुना अधिक दाम पर बेच कर स्कूल संचालकों को 50 फीसदी तक कमीशन देते हैं। इसका अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि देश के एक राज्य में मीडिया रिपोर्ट के अनुसार निजी प्रकाशक की 25 पन्ने की अंगे्रजी ग्रामर की किताब जिसकी कीमत महज 100 रुपए होनी चाहिए, उसमें 550 रुपए प्रिंट रेट डालकर अभिभावकों से मनमाने दाम वसूले जा रहे हैं। वहीं एक स्कूल की ड्रेस जिसकी ओपेन बाजार में कीमत अधिकतम एक हजार रुपए है, वह ड्रेस फिक्स दुकानों में अभिभावकों को 2500 रुपए में बेची जा रही है। स्कूलों द्वारा तय दुकानों पर किताबें और दूसरा शैक्षणिक सामान मिलना कमीशनखोरी में संलिप्तता को दर्शाता है।

ऐसे में कई रसूखदार और पहुंच रखने वाले स्कूल संचालकों के आगे कई बार जिला प्रशासन व शिक्षा अधिकारी भी चुप्पी साधकर बैठे रहते हैं। खुद को साफ-सुथरा छवि का संचालक मानने वाले इन कथित स्कूलों के जिम्मेदार मालिक कमीशन के लालच के आगे प्रशासन के निर्देश को रद्दी की टोकरी में डालकर मनमानी करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। इन धंधेबाज कुछ स्कूल संचालकों के आगे मजबूर अभिभावक पुस्तक विक्रेता के हाथों लुटने को मजबूर हैं। यह देखा गया है कि कुछ स्कूल प्राइवेट पब्लिशर्स की किताबें लेते हैं। वे स्कूल प्रबंधन के साथ मिलकर पिछले साल की किताबों के अध्यायों को आगे-पीछे कर देते हैं, जबकि बोर्ड ने पाठ्यक्रम में कोई बदलाव नहीं किया होता। यह माता-पिता और बच्चों के साथ गलत किया जा रहा है। ऐसा इसलिए होता है ताकि वे सैकंड हैंड पुस्तकों का उपयोग न करें और नई पुस्तकों पर फिर से खर्च करें। इसलिए इसे रोकने की जरूरत है। माता-पिता या छात्रों को नई किताबें खरीदने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। स्कूल शिक्षा से जुड़ा कटु सत्य है कि आज कुछ स्कूल पैसा उगाही का एक भी मौका अपने हाथ से जाने नहीं देते। स्कूलों द्वारा नियमों को ताक पर रखकर पैसे की उगाही की जाती है। अघोषित रूप से कुछ स्कूलों ने कई ऐसे नियम बना रखे हैं जिन्हें न चाहते हुए भी पैरेंट्स को फॉलो करना पड़ता है। स्थिति ऐसी है कि पैरेंट्स स्कूल की इन मनमानियों के खिलाफ बोल भी नहीं पाते हैं।

पैरेंट्स में इस बात का भय रहता है कि अगर ऑन रिकार्ड कोई कंप्लेन दर्ज करेंगे, तो इसका खामियाजा बच्चों को भुगतना होगा। हालत ऐसे है कि देश के कई स्कूलों में कैंपस से ही किताब लेना कंपलसरी है। वहीं, कुछ स्कूलों ने पैरेंट्स को यह निर्देश दे रखा होता है कि खास दुकान से ही किताब और स्टेशनरी के सामान लें। पैरेंट्स अगर किताब लेना चाहते हैं, तो उन्हें कॉपी भी लेनी ही होगी। अगर कॉपी नहीं लेते हैं तो किताब भी नहीं मिलेगी। साथ ही कॉपियों का एक बंडल बना होता है। बंडल का साइज स्कूल के हिसाब से वैरी करता है। स्कूल कैंपस या फिर स्कूल की बताई दुकान से किताबें लेने पर कोई डिस्काउंट नहीं दी जाती है। आगरा से एक रिपोर्ट बताती है कि नर्सरी का बैग लेकर जा रहे एक अभिभावक का कहना था कि हम बच्चे को पहली बार स्कूल भेज रहे हैं। वो ए, बी, सी, डी और अ, आ, ई तक नहीं जानता, लेकिन बैग में हिंदी-इंग्लिश पोयम की किताबें हैं। इनकी कीमत 160 रुपए है। एक अभिभावक ने बताया कि उनके बच्चे ने नर्सरी पास की है। उनके पास करीब आधा दर्जन किताबें और कॉपियां ऐसी हैं जो स्कूल में मंगाई तक नहीं। वो कोरी रखी हैं। इनकी कीमत करीब डेढ़ हजार रुपए है। मगर स्कूल वालों ने बैग में जबरदस्ती हमें ये बुक दे दी हैं। रिपोर्ट बताती है कि एनसीईआरटी व स्टेट बोर्ड की किताबों का सेट अमूमन हजार-पंद्रह सौ रुपये के अंदर आ जाता है।

वहीं, प्राइवेट प्रकाशकों की किताबें चार हजार रुपये से कम की नहीं मिलतीं। स्कूल शिक्षा में धंधे के चलते कुछ प्रकाशक अपनी किताबों को लागू कराने के लिए स्कूलों को कमीशन देते हैं। स्कूल भी दुकानदारों से कमीशन वसूलते हैं। स्कूल अभिभावकों को किताबों की लिस्ट थमा कर मौखिक तौर पर बता देते हैं कि उनको किस दुकान से किताबें खरीदनी हैं। तय दुकान से किताबें लेने पर अभिभावकों को छूट नहीं मिलती, जबकि खुले बाजार में किसी भी दुकान से किताबें खरीदें तो उन्हें 20 प्रतिशत तक की छूट आराम से मिल जाती है। कई स्कूल्स अपने आसपास की बुक शॉप्स से ही अभिभावकों को किताबें खरीदने पर जोर देते हैं। कई स्कूलों ने किताबों के साथ-साथ स्टेशनरी की लिस्ट भी अपनी मनपसंद कंपनियों के हिसाब से निर्धारित कर दी होती है। अभिभावकों को स्कूल की दी हुई कंपनियों के हिसाब से ही बच्चों के लिए कलर बॉक्स, पेंसिल और पेंट ब्रश, यहां तक कि गोंद वगैरह खरीदना पड़ता है। शिक्षा की आड़ में हो रहे धंधों की यह एक काली तस्वीर है जिसकी पुष्टि करवाई जा सकती है, लेकिन बच्चों को स्कूल में पढ़ाने की मजबूरी के चलते अभिभावक लिखित शिकायत भी करने से डरते हैं। ऐसी बातों का व्यवस्था खुद संज्ञान ले और दोषी स्कूलों की मान्यता रद्द करने जैसे कड़े कदम उठाए जाएं। जनहित में कथित स्कूलों की मनमानी पर रोक लगाने के लिए कोई प्रभावशाली मॉनिटरिंग बॉडी होनी चाहिए। देश के सभी राज्यों में एक ऐसी सशक्त रेग्यूलेटरी बॉडी होनी चाहिए जो शिक्षा देने के परचम तले स्कूलों द्वारा किए जा रहे अभिभावकों के आर्थिक शोषण पर नजर रख सके। सरकारी स्तर पर सख्त कार्रवाई की दरकार है। जो स्कूल शिक्षा को एक आर्थिक शोषण के लिए हर मौके को तलाशता और तराशता है, इस धंधे का एक ही मकसद स्कूल छात्रों के अभिभावकों की जेब को हल्का करना है।

स्कूल छात्रों के अभिभावकों का कहना है कि प्रतिवर्ष मनमाने ढंग से विविध शुल्कों में वृद्धि कर दी जाती है। अभिभावकों की शिकायत को प्रबंधन द्वारा नहीं सुना जाता है, उल्टे बच्चे को स्कूल से बाहर कर दिए जाने का अल्टीमेटम दे दिया जाता है। क्या इन बातों पर कार्रवाई की जरूरत नहीं है? स्कूलों को अभिभावकों की जानकारी के लिए नया शैक्षणिक सत्र शुरू होने से पहले कक्षावार किताबों और अन्य अध्ययन सामग्री की सूची अपनी वेबसाइट पर प्रदर्शित करनी चाहिए। इसके अतिरिक्त स्कूलों को अपनी वेबसाइट पर पास की कम से कम पांच दुकानों के पते और फोन नंबर भी प्रदर्शित करने चाहिएं, जहां माता-पिता किताबें और स्कूल यूनिफॉर्म खरीद सकें। छात्रों के माता-पिता को अपनी सुविधा के अनुसार इन किताबों और स्कूल यूनिफॉर्म को किसी भी दुकान से खरीदने की स्वतंत्रता सुनिश्चित करनी होगी। इसके अलावा कोई भी निजी स्कूल कम से कम तीन साल तक स्कूल यूनिफॉर्म के रंग, डिजाइन या अन्य विशिष्टताओं को नहीं बदल सके, इस बात को यकीनी बनाना सरकार और प्रशासन की नैतिक जिम्मेवारी है। शिक्षा की आड़ में हो रहे आर्थिक शोषण को रोकना अति जरूरी है। इससे सामाजिक न्याय को मजबूती मिलेगी।

डा. वरिंद्र भाटिया

कालेज प्रिंसीपल

ईमेल : hellobhatiaji@gmail.com


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