हिमाचली हिंदी कहानी : विकास यात्रा

By: Apr 16th, 2023 12:05 am

डा. हेमराज कौशिक

मो.-9418010646

कहानी के प्रभाव क्षेत्र में उभरा हिमाचली सृजन, अब अपनी प्रासंगिकता और पुरुषार्थ के साथ परिवेश का प्रतिनिधित्व भी कर रहा है। गद्य साहित्य के गंतव्य को छूते संदर्भों में हिमाचल के घटनाक्रम, जीवन शैली, सामाजिक विडंबनाओं, चीखते पहाड़ों का दर्द, विस्थापन की पीड़ा और आर्थिक अपराधों को समेटती कहानी की कथावस्तु, चरित्र चित्रण, भाषा शैली व उद्देश्यों की समीक्षा करती यह शृंखला। कहानी का यह संसार कल्पना-परिकल्पना और यथार्थ की मिट्टी को विविध सांचों में कितना ढाल पाया। कहानी की यात्रा के मार्मिक, भावनात्मक और कलात्मक पहलुओं पर एक विस्तृत दृष्टि डाल रहे हैं वरिष्ठ समीक्षक एवं मर्मज्ञ साहित्यकार डा. हेमराज कौशिक, आरंभिक विवेचन के साथ किस्त-1

कहानी का उद्भव एवं विकास मानवता के मूल उद्भव और विकास के साथ संबद्ध है। निश्चित रूप में कुछ नहीं कहा जा सकता है कि किस विशेष काल में इस विधा का प्रादुर्भाव हुआ। आदि ग्रंथ वेदों में भी कहानी के तत्वों की तलाश की जा सकती है। कहानी की मूल प्रकृति कहने और सुनने की है, इसलिए मानवता के जन्म के साथ ही कहानी की शुरुआत हो जाती है। कहानी शब्द का यह एक साधारण अर्थ में प्रयोग है, उस विशिष्ट अर्थ में नहीं जिसके लिए अंग्रेजी में ‘शार्ट स्टोरी’ और भारतीय भाषाओं में गल्प, कहानी, लघु कथा आदि शब्द प्रयुक्त होते हैं। हमारा लक्ष्य यहां कहानी के विशिष्ट अर्थ से है। हिंदी में आधुनिक हिंदी कहानी का आरंभ बीसवीं सदी के पूर्वाद्र्ध से माना जाता है। जब हिंदी कहानी का प्रारंभ हुआ, उस समय तक पश्चिम की कहानी कई मोड़ों से गुजर चुकी थी और चेखव द्वारा उस बिंदु पर लाई जा चुकी थी जहां से वह जीवन की नाटकीय कहानी बनने के स्थान पर स्वयं अनुभूत जीवन प्रतीत होने लगी थी। हिंदी कहानी ने अपनी यात्रा वहीं से प्रारंभ की जहां से पश्चिम की कहानी की यात्रा प्रारंभ हुई थी। प्रारंभिक कहानियों की संरचना के केंद्र में उपदेशपरकता और नैतिक मूल्यों के संवाहक विचार बिंदु विद्यमान होते थे, जो पूर्व दीप्ति शैली में चमक उठते थे। आधुनिक हिंदी कहानी का आरंभ द्विवेदी काल में हुआ। द्विवेदी युग पुनरुत्थान युग है, जिसमें राष्ट्रीय स्वाभिमान को जागृत करने वाली और सामाजिक विसंगतियों और समस्याओं का समाधान तलाश करने वाली सुधारात्मक कहानियों का सृजन प्रारंभ हुआ। हिंदी में आधुनिक कहानियों का वास्तविक प्रारंभ प्राय: समस्त विद्वानों के मतानुसार सरस्वती के (1900 ई.) के प्रकाशनारंभ से माना जाता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार किशोरी लाल गोस्वामी की ‘इंदुमती’ हिंदी की पहली कहानी है। कुछ विद्वान माधव राव सप्रे की कहानी ‘टोकरी भर मिट्टी’ को हिंदी की पहली कहानी मानते हैं जो 1901 ई. में ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ शीर्षक मासिक पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। ‘सरस्वती’ में 1902 ई. भगवान दीन की ‘प्लेग की चुड़ैल’ और 1903 ई. में आचार्य रामचंद्र शुक्ल की ‘ग्यारह वर्ष का समय’ प्रकाशित हुई थीं। बंग महिला की ‘कुंभ की छोटी बहू’ और ‘दुलाईवाली’ आदि हिंदी के प्रारंभिक कहानीकारों की कहानियां हैं। यहां मेरा लक्ष्य संपूर्ण हिंदी कहानी साहित्य की चर्चा करना नहीं है। यहां मैंने अपने विवेचन को हिमाचल की हिंदी कहानी तक ही सीमित रखा है।

कोई भी साहित्य विधा वस्तुत: किसी प्रदेश अथवा क्षेत्र विशेष की संकीर्ण परिधि में बंद नहीं रहती, न ही वह किसी क्षेत्र विशेष की निधि ही होती है। वास्तव में संपूर्ण मानव समाज अथवा समूचे राष्ट्र की संवेदना की अभिव्यक्ति का माध्यम होती है और उसमें व्यक्त मूल्य सार्वभौमिक होते हैं। फिर भी एक प्रदेश अथवा भूभाग में रचित साहित्य किसी न किसी रूप में ‘जमीन की गंध’ लिए होता है। वह अपनी मिट्टी से जुड़ कर वहां के जीवन की सच्चाइयों को सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में किसी न किसी रूप में अवश्य उद्घाटित करता है। ऐसा इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि हिंदी साहित्य का इतिहास हिंदी के अनेक रचनाधर्मियों का उल्लेख नहीं करता। वह केवल साहित्य की केंद्रीय प्रवृत्तियों और केंद्रीय व्यक्तियों तक सीमित रह जाता है। हिमाचल प्रदेश में हिंदी कहानी की शुरुआत चंद्रधर शर्मा गुलेरी सन् 1911 ई. में ‘भारतमित्र’ में प्रकाशित कहानी ‘सुखमय जीवन’ से होती है। उनकी दूसरी कहानी ‘बुद्धू का कांटा’ लिखी गई जो पाटलिपुत्र पुत्र में सन् 1914 में और तीसरी कहानी ‘उसने कहा था’ शीर्षक से अक्तूबर 1915 ई. में ‘सरस्वती’ में प्रकाशित हुई। गुलेरी जी की ये कहानियां उस समय की हैं जब हिंदी में कहानी लगभग नहीं के बराबर थी। यहां तक कि महत्वपूर्ण कथा शिल्पी प्रेमचंद ने भी उर्दू से हटकर हिंदी में लिखना प्रारंभ नहीं किया था। इस प्रकार गुलेरी आधुनिक हिंदी कहानी के प्रतिष्ठापक होने के साथ-साथ हिमाचल की हिंदी कहानी के प्रस्थान बिंदु हैं। वे अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कहानीकार हैं। विश्व कथा साहित्य में उनका स्थान प्रेमचंद, टॉलस्टॉय, विक्टर ह्यूगो, मोपांसा, तुर्गनेव के समकक्ष ठहराया गया है।

गुलेरी जी की प्रारंभिक दो कहानियों का महत्व ऐतिहासिक ही अधिक है। ये कहानियां उस समय लिखी जा रही दूसरी कहानियों की ही कोटि में आती हैं। इन कहानियों का स्मरण ऐतिहासिक महत्व की दृष्टि से ही अधिक किया जाता है। किंतु ‘उसने कहा था’ उस समय लिखी जा रही दूसरी कहानियों से भिन्न अस्तित्व बनाए हुए है। यह कहानी जहां प्रथम आधुनिक हिंदी कहानी मानी जाती है, वहां वह शिल्प की विशिष्टता और प्राविधिक स्तर पर संपन्नता के कारण कालजयी कहानी भी स्वीकार की गई है। उनकी इन तीनों कहानियों को पढऩे से सर्वप्रथम यह तथ्य सामने आता है कि ये मूलत: प्रेम कहानियां हैं, प्रेम के विकसित होते हुए स्वरूप और परिपक्व होती हुई अवस्थाओं का चित्रण है। ‘सुखमय जीवन’ और ‘बुद्धू का कांटा’ में व्यक्त प्रेम का स्वरूप ‘उसने कहा था’ की अपेक्षा सरल और उनकी आधार भूमि भी ‘उसने कहा था’ की भांति जटिल नहीं है। ‘उसने कहा था’ कहानी का सृजन युद्ध की पृष्ठभूमि पर हुआ है। यह कहानी ऐतिहासिकता और समकालीनता का एक साथ बोध कराती है। शुद्ध रोमांटिक रेशों से बुनी इस कहानी में युद्ध और प्रेम का विचित्र और रहस्यपूर्ण सम्मिश्रण है। गुलेरी जी के बाद सन् 1938 तक हिमाचल प्रदेश में कोई भी कहानीकार प्रकाश में नहीं आया। सन् 1939 में हिमाचल की हिंदी कहानी में दूसरे प्रखर व्यक्तित्व के रूप में यशपाल अवतरित हुए।

सन् 1939 में प्रकाशित ‘पिंजरे की उड़ान’ कहानी संग्रह के प्रकाशन के साथ उनकी कथा यात्रा प्रारंभ होती है। उन्होंने दो सौ से अधिक कहानियां लिखी हंै। ‘पिंजरे की उड़ान’ (1939), ‘वो दुनिया’ (1941), ‘तर्क का तूफान’ (1943), ‘अभिशप्त’ (1944), ‘ज्ञानदान’ (1944), ‘भस्मावृत चिंगारी’ (1946), ‘फूलो का कुर्ता’ (1949), धर्म युद्ध (1950), उत्तराधिकारी (1951), चित्र का शीर्षक (1952), तुमने क्यों कहा था मैं सुंदर हूं (1954), उत्तमी की मां (1955), ओ भैरवी (1955), सच बोलने की भूल (1962), खच्चर और आदमी (1965), भूखे के तीन दिन (1968), लैम्प शैड (1979) उनके सत्रह कहानी संग्रह प्रकाशित हैं। यशपाल की कहानियों में माक्र्सवाद और फ्रायड के प्रभाव को एक साथ देखा जा सकता है। उन्होंने मध्ययुगीन नैतिक मूल्यों की अभिव्यक्ति माक्र्सवादी स्तर पर की है। प्रेम और काम विषयक मूल्यों को चित्रित करते हुए यशपाल ने उन्हें सामाजिक संदर्भों से संपृक्त किया है। सामाजिक प्रतिबद्धता और सामाजिक दायित्व बोध उनकी रचनाओं की प्रमुख विशेषता है। यशपाल के बाद हिंदी कहानी साहित्य में योगेश्वर शर्मा गुलेरी का आगमन होता है। उनकी रचनाएं ‘सम्मेलन पत्रिका’, विशाल भारत, कल्याण व नया समाज आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई। उन्होंने नर या नारी, उसका टुकड़ा, राम जी की मरजी, जीवन का संगीत आदि एक दर्जन कहानियां लिखीं। उनके पुत्र विद्याधर गुलेरी ने ‘गुलेरी जी की अमर कहानियां’ शीर्षक से उनकी पांच कहानियों को संपादित किया है। हिंदी कहानी के क्षेत्र में योगेश्वर गुलेरी ने महान् कहानीकार चंद्रधर शर्मा गुलेरी के महान् पुत्र होने का प्रमाण दिया है। ‘जीवन का संगीत’ और ‘राम जी की मरजी’ उनकी विशिष्ट कहानियां हैं और वे अपने समय में पुरस्कृत भी हुई थीं। ‘जीवन का संगीत’ में कहानीकार ने यह प्रतिपादित किया है कि जीवन से विमुख होकर संगीत की साधना व्यक्ति को एकाकी बना देती है। वास्तविक संगीत तो जीवन की सार्थकता और संपन्नता में ही है।

कृष्ण कुमार नूतन की कहानी लेखन की शुरुआत सन् 1948 में प्रकाशित लघु पुस्तक ‘परिप्रभा’ से होती है। इस पुस्तक में उनकी दो कहानियां परिप्रभा और ममता संग्रहीत हैं। दोनों कहानियां उपदेशपरक हैं। नूतन के साहित्यिक जीवन में इन कहानियों का महत्व ऐतिहासिक ही है। हिंदी के स्थापित साहित्यकार निर्मल वर्मा स्वातंत्र्योत्तर काल के प्रथम दशक में कहानी के क्षेत्र में अवतरित हुए। उन्होंने सेंट स्टीफन कॉलेज में पढऩे के दिनों में कहानियां लिखना प्रारंभ कर दिया था और अपने बड़े भाई रामकुमार की प्रेरणा से कालेज की पत्रिका के लिए पहली कहानी लिखी थी। इसके बाद जो किसी अच्छी पत्रिका में प्रकाशित पहली कहानी ‘कहानी’ पत्रिका में प्रकाशित हुई थी, जिसके संपादक भैरव प्रसाद गुप्त थे। कल्पना में सन् 1954-55 में बद्री विशाल पति ने उनकी दूसरी कहानी ‘रिश्ते’ प्रकाशित की थी जो हैदराबाद से निकलती थी। निर्मल वर्मा की छठे दशक में ग्यारह कहानियां विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई और सन् 1960 में उनका पहला कहानी संग्रह ‘परिंदे’ शीर्षक से आया जिसमें उनकी सात कहानियां संग्रहीत हुई थी। उनके छह कहानी संग्रह परिंदे (1960), जलती झाड़ी (1964), पिछली गर्मियों में (1968), बीच बहस में (1973), कव्वे और काला पानी (1984), सूखा तथा अन्य कहानियां (1995) प्रकाशित हैं। निर्मल वर्मा की समग्र कहानियों के मूल में स्मृतियां हैं और वे उन्हें पुनर्जीवित करते हैं, अनुभूत करते हैं और संवेदनाओं का सजीव एवं प्राणवान विश्व हमारे सामने खड़ा करते हैं। अनुभूतियों के जिस संसार में वे विचरण करते हैं, उसमें व्यक्ति का अकेलापन, अजनवीपन, पारिवारिक विघटन, संबंधों की रिक्ततता और उदासीनता, टूटते संबंधों का यथार्थ, प्रेम और काम संबंध, संत्रास, मानवीय संबंधों का यथार्थ, प्रेम और यौन संबंध, देह विक्रय की विवशता आदि हैं। निर्मल वर्मा की कहानियों में उनकी एकांतिक अनुभूतियों का चित्रण है। यही वजह है कि समाज के स्थूल यथार्थ की अपेक्षा व्यक्ति के आधुनिक संदर्भ में निरंतर अकेले होते जाने की पीड़ा का चित्रण है।

छठे दशक में संतोष चौहान हिमाचल की कहानी यात्रा में अवतरित होने वाली कदाचित पहली महिला कहानीकार हंै। उनकी छठे दशक में आठ कहानियां प्रकाशित हुई। आगरा से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका ‘उत्सव’ में उनकी पांच कहानियां प्रकाशित हुई। पहली कहानी अप्रैल 1953 में ‘वास्तविक रूप’ शीर्षक से प्रकाशित हुई। इसी पत्रिका में उषा अरुण मेघ (1953), प्रियतमा का स्वागत (1954), नेत्रहीना (1960), जीवन आहुतियां (1960) और हिमप्रस्थ के प्रकाशन के प्रारंभिक वर्षों में पीले हाथ (1956), खोया हुआ कोट (1956) और तमाचा (1958) प्रकाशित हुई। संतोष चौहान की कहानियों की संवेदना भूमि संबंधों पर केंद्रित है। संबंधों के ताने-बाने में वे नारी नियति, पुरुष वर्चस्व, अनमेल विवाह, दहेज की विभीषिका, प्रेम की नैतिकता, किशोर वय के प्रेम की अमिट स्मृति आदि अनेक पक्षों को विन्यस्त करती हैं। शहरी मध्यवर्ग की प्रदर्शन वृति और गांव में निवास करने वाले अपने ही संबंधियों के प्रति उपेक्षा भाव और संकीर्ण मानसिकता आदि का चित्रण है। कहानीकार संतोष चौहान ने गांव के सेठ साहूकारों की अमानवीयता और शोषण वृत्ति और गांव के व्यक्ति के घोर दारिद्रय में भी साहूकारों की शोषण मूलक प्रकृति को रेखांकित किया है।

-(शेष भाग अगले अंक में)

हिमाचल का कहानी संसार

विमर्श के बिंदु

1. हिमाचल की कहानी यात्रा
2. कहानीकारों का विश्लेषण
3. कहानी की जगह, जिरह और परिवेश
4. राष्ट्रीय स्तर पर हिमाचली कहानी की गूंज
5. हिमाचल के आलोचना पक्ष में कहानी
6. हिमाचल के कहानीकारों का बौद्धिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक व राजनीतिक पक्ष

लेखक का परिचय

नाम : डॉ. हेमराज कौशिक, जन्म : 9 दिसम्बर 1949 को जिला सोलन के अंतर्गत अर्की तहसील के बातल गांव में। पिता का नाम : श्री जयानंद कौशिक, माता का नाम : श्रीमती चिन्तामणि कौशिक, शिक्षा : एमए, एमएड, एम. फिल, पीएचडी (हिन्दी), व्यवसाय : हिमाचल प्रदेश शिक्षा विभाग में सैंतीस वर्षों तक हिन्दी प्राध्यापक का कार्य करते हुए प्रधानाचार्य के रूप में सेवानिवृत्त। कुल प्रकाशित पुस्तकें : 17, मुख्य पुस्तकें : अमृतलाल नागर के उपन्यास, मूल्य और हिंदी उपन्यास, कथा की दुनिया : एक प्रत्यावलोकन, साहित्य सेवी राजनेता शांता कुमार, साहित्य के आस्वाद, क्रांतिकारी साहित्यकार यशपाल और कथा समय की गतिशीलता। पुरस्कार एवं सम्मान : 1. वर्ष 1991 के लिए राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार से भारत के राष्ट्रपति द्वारा अलंकृत, 2. हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा राष्ट्रभाषा हिन्दी की सतत उत्कृष्ट एवं समर्पित सेवा के लिए सरस्वती सम्मान से 1998 में राष्ट्रभाषा सम्मेलन में अलंकृत, 3. आथर्ज गिल्ड ऑफ हिमाचल (पंजी.) द्वारा साहित्य सृजन में योगदान के लिए 2011 का लेखक सम्मान, भुट्टी वीवर्ज कोआप्रेटिव सोसाइटी लिमिटिड द्वारा वर्ष 2018 के वेदराम राष्ट्रीय पुरस्कार से अलंकृत, कला, भाषा, संस्कृति और समाज के लिए समर्पित संस्था नवल प्रयास द्वारा धर्म प्रकाश साहित्य रतन सम्मान 2018 से अलंकृत, मानव कल्याण समिति अर्की, जिला सोलन, हिमाचल प्रदेश द्वारा साहित्य के लिए अनन्य योगदान के लिए सम्मान, प्रगतिशील साहित्यिक पत्रिका इरावती के द्वितीय इरावती 2018 के सम्मान से अलंकृत, पल्लव काव्य मंच, रामपुर, उत्तर प्रदेश का वर्ष 2019 के लिए ‘डॉ. रामविलास शर्मा’ राष्ट्रीय सम्मान, दिव्य हिमाचल के प्रतिष्ठित सम्मान ‘हिमाचल एक्सीलेंस अवार्ड’ ‘सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार’ सम्मान 2019-2020 के लिए अलंकृत और हिमाचल प्रदेश सिरमौर कला संगम द्वारा डॉ. परमार पुरस्कार।

युग संबोधन के साथ जनरल जोरावर सिंह

उपन्यास : जनरल जोरावर सिंह कहलूरिया : गाथा एक महान योद्धा की
लेखक : गंगाराम राजी
प्रकाशक : नमन प्रकाशन, नई दिल्ली
कीमत : 395 रुपए

हिमाचल के नायकत्व में लेखन की जिम्मेदार पारी खेलते गंगाराम राजी इस बार ज्ञात इतिहास की पलकों पर ‘जनरल जोरावर सिंह कहलूरिया’ उपन्यास के बहाने प्रदेश के शौर्य को सम्मान दे रहे हैं। उपन्यास के भीतरी संवाद में वह संस्कृति और इतिहास को जुबान देते हैं, तो हिमाचल के अनछुए संदर्भों को लेखन की अनिवार्यता से तरोताजा कर देते हैं। वह इतिहास के पुनर्लेखन को महीन कहानियों से सजाते हुए व्यक्तित्व की संरचना में हिमाचल के नायकों की महानता को सम्मानित व प्रतिष्ठित करते आ रहे हैं। प्रस्तुत कृति के सजीव चित्रण में पाठक को केवल उपन्यास नहीं, बल्कि एक ऐसा योद्धा मिल रहा है जिसके प्रति शब्द के संबोधन आज तक मुकम्मल नहीं हुए थे। गंगाराम राजी लिखते-लिखते कब समाज की आंखें खोल देते हैं या कब जीवन के तर्क उंडेल देते हैं, यह पाठक समाज के मानस पटल पर बोनस की तरह चस्पां हो जाता है। यहां भी वह जोरावर सिंह की शक्तियों और उसके व्यक्तित्व की क्रांतिकारी धार को बाबा की अद्भुत व चमत्कारी शिक्षाओं से मुलायम करते हुए रामायण की चौपाई तक के तर्क से अर्थपूर्ण बना देते हैं, तो गंगा मैया के संदर्भ में अध्यात्म की पोटली खोल देते हैं। उपन्यास के भीतर कई ऐसे प्रसंग आते हैं जहां एक तरफ शास्त्रार्थ है, तो दूसरी तरफ युद्ध के कठोर शब्द संग्राम की दिशा तय करते हैं।

गंगाराम राजी जनरल जोरावर सिंह को कहलूरिया उपनाम ही नहीं पहनाते, बल्कि इसकी पृष्ठभूमि में, हमीरपुर के अंसार से बिलासपुर में अपने ननिहाल की परवरिश से जुड़े इस नायक की महानता का रिश्ता भी जोड़ देते हैं। इसकी दूसरी वजह जम्मू के राजा गुलाब सिंह की पत्नी भी रही जिसका संबंध कहलूर रियासत से था। लेखक जनरल जोरावर सिंह को कहलूरिया अलंकरण देने के कारण जुटाते हुए बिलासपुर के लाहौल पूजन के कांगड़ा-हमीरपुर के रली उत्सव से जोड़ देते हैं। जोरावर सिंह से भागती जिंदगी बहुत कुछ अनसुना कर देती है, लेकिन इस भागदौड़ में घोड़ों की टाप हमेशा उसके शौर्य को प्रमाणित करती है। उपन्यास अपने भीतर युग की संवेदना, संघर्ष, सामाजिक-भौगोलिक उथल-पुथल के साथ समय के रथ पर अंतत: वहां पहुंचता है जहां सिंह शोरटन यानी शेरों के शेर जोरावर सिंह की तिब्बत में समाधि है। अनवरत हवाओं तक पहुंचता उपन्यास जोरावर सिंह के बचपन, चुलबुली प्रेमिका के साथ जवानी और शौर्य के साथ एक युवा उत्साह को सैनिक से जनरल बनने की साहसिक यात्रा तक ले जाता है। जोरावर सिह के अतीत मेें अपने ही चाचा या बाद में राजा रणजीत सिंह के सेना नायक खडक़ सिंह से लिए गए खूनी बदले को लेकर लेखक ने जो पृष्ठभूमि सजाई है, उससे कहानी की विश्वसनीयता, स्पष्टता और नायक बनने की तर्कपूर्ण गाथा सामने आ जाती है। गंगाराम राजी के उपन्यासों में किस्सागोई की तमाम खूबियां वर्क दर वर्क खुलती हैं और पाठक के सामने इतिहास, संस्कृति और अध्यात्म के साथ कई चलचित्र घूमने लगते हैं, ‘समय के साथ जोरावर सिंह ने गुलाब सिंह का पूर्ण विश्वास प्राप्त कर लिया। गुलाब सिंह अब कोई भी निर्णय जोरावर सिंह की सलाह से ही लेने लगा। जोरावर सिंह कहलूरिया जब से गुलाब सिंह की सेना में पहुंचा था तो घोड़े के साथ छह साथियों को लेकर आया था।

घोड़ों की उपयोगिता को वह अच्छी तरह जानता था, मुगलों और अंग्रेज कंपनी की युद्ध नीति को भी अच्छी तरह से समझने लगा था।’ इतिहास के नायकों के साथ जुड़ी कई तरह की भ्रांतियां रही हैं। जाहिर है अब तक श्रुतज्ञान या सामाजिक आख्यान में जोरावर सिंह का व्यक्तित्व जहां था, उससे कहीं आगे निकल कर यह उपन्यास दस्तावेजी तर्कों को अपनी भाषा दे रहा है। गंगाराम राजी नायकत्व से जुड़े मनोविज्ञान को गहरे से समझते हैं और पाठक को समझाने के शब्द, संदर्भ, संवेदना और सारांश समेट लेते हैं। वीर रस केवल अपनी बुनियाद पर व्यक्ति को नायक नहीं बनाता, बल्कि इसके पीछे परिवेश, परिस्थितियांं, परिकल्पना, प्रतिशोध और पौरुष की प्रबलता की अविरल धारा का बहना भी है। उपन्यास की रगों में दौड़ता इतिहास यथासंभव युद्ध के मानसिक दबाव को महसूस करता है, लेकिन कहीं बहुत दूर अंसार में गुम हो गए चुलबुली के साथ बीते क्षण या रणक्षेत्र से दूर रह गई पत्नियों का साथ भी विरह वेदना के अवसाद को हावी नहीं होने देता, इसलिए जोरावर सिंह अपनी वीरता के प्रांगण में डोगरा पहचान को आज भी सैन्य श्रेष्ठता का ताज पहना रहा है। लेखन ने जोरावर सिंह का कहानी से कहीं आगे युग के संबोधन के साथ मानवीय उद्बोधन भी किया है। देखें इससे आगे हिमाचल अपने नायक को अध्ययन व शोध की किस परिपाटी से जोड़ता है।

-निर्मल असो

पुस्तक समीक्षा : खट्टी-मीठी यादों का गुलदस्ता
पालमपुर निवासी हिमाचल की लेखिका कृष्णा अवस्थी का संस्मरण ‘बीता हुआ काल खंड’ प्रकाशित हुआ है। अपनी छोटी बहन से मिली प्रेरणा लेकर लिखे गए इस संस्मरण में विभिन्न प्रसंग बटोरे गए हैं। बचपन के दिन, छात्र काल और अपने व्यावसायिक जीवन से जुड़े खट्टे-मीठे अनुभव इस पुस्तक में संकलित किए गए हैं। पुस्तक के आरंभ में एक लघु उपन्यास ‘मामा जी’ लिखा गया है जो पाठकों को जरूर पसंद आएगा। वर्ष 1953 की भयंकर आग का प्रसंग पाठकों को भावुक कर देगा। छात्र काल में स्कूलों में बिताए गए दिनों से भी पाठक रूबरू होंगे। बचपन की अठखेलियों का चित्रण इस तरह किया गया है कि पाठक अपने बचपन में डूब जाता है। घर में मां की क्या भूमिका होती है, उसका क्या महत्त्व होता है, इसका उल्लेख एक प्रसंग में किया गया है। लेखिका ने नई नौकरी के कसैले अनुभव भी साझा किए हैं। लड़कियों का पढऩा क्यों जरूरी है, इसके पक्ष में तर्क देता एक प्रसंग प्रेरणादायक है। किताब में कई और रोचक प्रसंग भी संकलित किए गए हैं, जिन्हें पढक़र पाठक जरूर कोई न कोई सीख हासिल करेंगे। नमन प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित इस किताब की कीमत 350 रुपए है। आशा है यह किताब पाठकों को जरूर पसंद आएगी।

-फीचर डेस्क


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App