प्रजातंत्र के मुद्दों से भटक रही सियासत

मौजूदा हालात के मद्देनजर महंगाई, भ्रष्टाचार व नशाखोरी जैसी समस्याओं से राह-ए-निजात तलाशने की जरूरत है। डिग्रियों पर बेवजह विलाप करने वाले सियासतदानों को समझना होगा कि देश को गुलामी की दास्तां से मुक्त कराने के लिए तख्ता-ए-दार पर झूलने वाले इंकलाबी चेहरे डिग्रीधारक नहीं थे…

‘वारांग्नेव नृपनीतिरनेकरूपा’- इस पंक्ति का उल्लेख ‘भर्तृहरि’ द्वारा रचित नीतिकाव्य ‘नीतिशतक’ के 47वें श्लोक के अंत में हुआ है, अर्थात राजनीति भी तवायफ की भांति अनेक प्रकार के रूप धारण करती है। शायद महान विद्वान भर्तृहरि ने अपने गहन अनुभव व दूरदर्शी सोच से वर्तमान सियासत के नुक्ता-ए-नजऱ को सैकड़ों वर्ष पूर्व ही भांप लिया था। आम लोग अपने बेशकीमती वोट की ताकत से लोकतंत्र की संस्थाओं में प्रतिनिधि इस उम्मीद से चुनकर भेजते हैं ताकि किसान, मजदूर व युवावर्ग के हितों के मुद्दों पर बहस हो तथा कोई योजना बने। लोगों को महंगाई की गर्दिश से राहत मिले तथा युवाओं को रोजगार के साधन उपलब्ध हों, मगर सत्ता की चौखट पर पहुंचने के बाद आवाम की खिदमत के लिए किए गए वादों के आब-ए-आईना की चमक आमतौर पर धुंधली पड़ जाती है। हाल ही में दिल्ली सूबे पर हुकूमत करने वाले सियासी दल के वजीरों ने देश की राजधानी में ‘डिग्री दिखाओ’ अभियान की शुरुआत की है। यह अभियान ऐसे वक्त में शुरू हुआ है जब देश में बेरोजगारी के सैलाब में फंसकर रोजगार की जुस्तजू में सबसे बड़ी तादाद डिग्री धारक युवाओं की है। करोड़ों डिग्रीधारकों की फौज देश के रोजगार कार्यालयों के बाहर हाथों में अपनी डिग्रियां लेकर कतारों में लगी होती है। शदीद दुश्वारियों के दौर से गुजर रहे बेरोजगार युवाओं की आधी जिंदगी डिग्रियों की फोटोकॉपी व लेमिनेशन कराने में तथा रोजगार समाचार पत्रों का अध्ययन करके रोजगार कार्यालयों के चक्कर काटनें में ही व्यतीत हो जाती है। सुरक्षा एजेंसियां देश के कई शिक्षण संस्थानों का फर्जी डिग्रियों के घोटालों में पर्दाफाश कर चुकी हैं। रोजगार के लिए डिग्रीधारक छात्रों का विरोध प्रदर्शन बेरोजगारी के दर्द को दर्शाता है। वोट बैंक के लिए जाति, मजहब की सदारत करने वाली सियासत के चलते देश ने 1990 के दशक का वो दौर भी देखा है जब देश की राजधानी दिल्ली में आरक्षण व्यवस्था के विरोध में कई छात्रों ने अपनी डिग्रियां जला डाली थी। दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र सुरेंद्र सिंह चौहान ने 24 सितंबर 1990 को आत्मदाह कर लिया था। आत्मदाह के प्रयास में बुरी तरह झुलस चुके देशबंधु कालेज के छात्र राजीव गोस्वामी की सन् 2004 में जाकर मौत हुई थी। दिल्ली मेट्रो स्टेशन ‘राजीव चौक’ का नाम उसी राजीव गोस्वामी के नाम से जाना जाता है।

प्रश्न यह है कि वीआईपी सुरक्षा के घेरे में महफूज रहने वाले प्रतिनिधियों को क्या लोगों को डिग्रियां दिखाने के लिए चुनकर भेजा है। डिग्रियों का महत्त्व अपनी जगह हो सकता है। देश को उन्नति के शिखर पर पहुंचाने के लिए जमीनी स्तर पर योगदान देने वाले सियासी रहनुमाओं की जरूरत है। कृषि क्षेत्र में दिन-रात संघर्ष करने वाले किसान डिग्रीधारक नहीं हैं, मगर मुल्क की 140 करोड़ आवाम को अनाज मुहैया करवाकर किसान खाद्यान्न क्षेत्र में भारत को आत्मनिर्भर बना चुके हैं। सशस्त्र बलों की मुस्तैदी से कश्मीर जैसे राज्य में जी-20 का इजलास होने से वैश्विक पटल पर भारत की हैसियत में इजाफा हो रहा है। खिलाड़ी अंतरराष्ट्रीय खेल पटल पर देश का गौरव बढ़ा रहे हैं, लेकिन देश के सैकड़ों डॉक्टर व इंजीनियर निजी क्षेत्र व विदेशों का रुख करने को मजबूर हैं। देश के कई वैज्ञानिक ‘नासा’ जैसी एजेंसी में अपनी सेवाएं दे रहे हैं। भारत के कई प्रतिभावान युवा विदेशी कंपनियों के उच्च पदों पर आसीन हैं। देश में गुरबत से जूझ रही आवाम महंगाई व भ्रष्टाचार से परेशान है। प्रजातंत्र का बुनियादी स्तंभ युवावर्ग रोजगार को मोहताज है। देश में वीआईपी कल्चर व सियासी रसूखदारी का बोलबाला बढ़ रहा है। आम लोगों से जुड़े मुद्दे हाशिए पर जा रहे हैं, मगर सरकारी इदारों पर विराजमान ज्यादातर डिग्रीधारक अहलकारों की योग्यता को आरक्षण व्यवस्था के तहत सहारा दिया जाता है। देश के सियासी रहनुमाओं का मुकद्दर आम लोगों के वोट से तय होता है। जम्हूरियत के निजाम पर हुक्मरानी करने वाले सियासतदान अपने सियासी मुस्तकबिल के लिए बेचैन होकर लोकतंत्र की बुलंदी पर बैठने को बेताब हैं। शिक्षा व्यवस्था में अंग्रेजी भाषा के बढ़ते वर्चस्व से देश के निजी शिक्षण संस्थान एक बड़े शिक्षा व्यवसाय का रूप ले चुके हैं। ट्यूशन व कोचिंग के नाम पर करोड़ों रुपए का व्यवसाय हो रहा है। निजी शिक्षण संस्थानों में बेहद महंगी फीस तथा महंगे निजी छात्रावास (पीजी) अभिभावकों को आर्थिक तौर पर कमजोर कर चुके हैं। नतीजतन आधुनिक सुविधाओं की कमी से जूझ रहे दूरदराज के ग्रामीण क्षेत्रों की हजारों प्रतिभाएं उच्च शिक्षा ग्रहण करने से महरूम रह कर उच्च शिक्षण संस्थानों की दहलीज तक नहीं पहुंच पाती हैं। आरक्षण व्यवस्था व बेरोजगारी के आगे डिग्रियों की चमक वैसे भी फीकी पड़ चुकी है।

देश में चपरासी पद के लिए हजारों की संख्या में डिग्रीधारक आवेदन करते हैं। वास्तव में मौजूदा शिक्षा पद्धति डिग्री हासिल करने तक ही सीमित रह चुकी है। व्यवहार या कौशल की शिक्षा नहीं बनी, जो युवाओं को रोजगार के साधन मुहैया कराए। इसी कारण विश्व की सबसे बड़ी युवा आबादी वाले देश भारत में बेरोजगारी देश के विकास में प्रमुख बाधा बन चुकी है। आखिर डिग्री धारक बेरोजगार हैं तो दोष किसका है, शिक्षा में गुणवत्ता या कौशल व हुनर की कमी, इस मुद्दे पर बहस होनी चाहिए। अत: मौजूदा हालात के मद्देनजर महंगाई, भ्रष्टाचार व नशाखोरी जैसी समस्याओं से राह-ए-निजात तलाशने की जरूरत है। बहरहाल डिग्रियों पर बेवजह विलाप करने वाले सियासतदानों को समझना होगा कि देश को गुलामी की दास्तां से मुक्त कराने के लिए तख्ता-ए-दार पर झूलने वाले इंकलाबी चेहरे डिग्रीधारक नहीं थे। जब देश की सरहदें आतंक के मरकज पाकिस्तान व विस्तारवादी शातिर चीन से सटी हों, दुनिया के दुर्दांत आतंकी संगठन देश को दहलाने की फिराक में बैठे हों, सांप्रदायिक माहौल तैयार करके देश विरोधी तत्व राष्ट्र को खंडित करने का मंसूबा तैयार कर रहे हों तो देश की अस्मिता व स्वाभिमान को महफूज रखने के लिए उम्दा कूटनीति व अदम्य साहस जैसे राष्ट्रवादी गुणों की जरूरत होती है। ऐसे हालात से निपटने के लिए राष्ट्रहित में बड़े फैसले लेने की क्षमता का साहस रखने वाले सियासी नेतृत्व की जरूरत है, डिग्रियों की नहीं। अत: राष्ट्र को हमेशा राजनीति से ऊपर रखने वाली सोच होनी चाहिए।

प्रताप सिंह पटियाल

स्वतंत्र लेखक


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