किसानों की संवेदनाएं समझें सत्ताधीश

देश के कृषि अर्थशास्त्र को अपने पसीने से मुन्नवर करने वाले किसानों के हितों की पैरवी के लिए सियासी नजर-ए-करम की जरूरत है। बहरहाल बेमौसम बरसात से नुकसान का आकलन करके मुआवजे का ऐलान होना चाहिए। कृषि अर्थतंत्र की मजबूत नींव किसानों की संवेदनाओं का सम्मान करना ही होगा…

आमतौर पर मशविरा दिया जाता है कि मेहनत करने वालों की कभी हार नहीं होती लेकिन यदि वास्तव में इनसान किसान की भूमिका में हो तो कृषि व्यवसाय में मेहनत भी शिकस्त का दंश झेलने को मजबूर रहती है। मार्च व अप्रैल महीने में रबी की फसल पूरे शबाब पर होती है। मगर मूसलाधार बारिश व ओलावृष्टि के कहर ने किसानों व बागवानों की कई महीनों की मेहनत पर पानी फेर कर किसानों को मायूस कर दिया है। हिमाचल के निचले क्षेत्रों में बेमौसम बरसात से ‘ब्लॉज्म ब्लाइट’ रोग ने आम की पैदावार को भारी नुकसान पहुंचाया है। कृषि अर्थशास्त्र की बुलंद इमारत अन्नदाता अतीत से एक बड़े परीक्षार्थी की तरह जीवनयापन करता आ रहा है। मौसम अपने तल्ख तेवरों व बेरूखे मिजाज से किसान वर्ग की सबसे बड़ी परीक्षा लेता है। फसल तैयार होने पर बाजार नाम की व्यवस्था व उपभोक्ता किसानों की परीक्षा लेते हैं। कभी व्यवस्थाओं में बैठे अहलकार तो कभी सरकारें किसानों की परीक्षा लेती हैं। कृषि उत्पादन में कड़ी मेहनत के साथ धन भी खर्च होता है। महंगे बीज, मशीनीकरण, खाद व कीटनाशक किसानों का आर्थिक पक्ष कमजोर करते हैं। सूखे की मार व कोहरे से फसलों की तबाही का खामियाजा भी किसान ही भुगतते हैं। मगर कृषि उपज का मोल बाजार तय करता है। कृषि क्षेत्र के संघर्ष व समस्याओं को समझने में देश की सियासी व्यवस्था ने कभी तत्परता नहीं दिखाई। करोड़ों आबादी को खाद्यान्न उत्पादन करने वाला कृषक वर्ग प्राकृतिक आपदाओं की मार से फसलों की तबाही को कुदरत का कहर या विधि का विधान मान कर खामोशी से सहन कर लेता है। फसल कटाई के बाद खेतों में फसली अवशेष जलाने पर ‘एनजीटी’, सरकारें व न्यायालय भी किसानों को ही दोषी ठहराते हैं। आखिर किसान अपने दर्द-ए-जिगर का इजहार किससे करे। विडंबना है कि देश में लोकतंत्र की सबसे बड़ी पंचायतें उद्योगपतियों के नाम पर हंगामें की भेंट चढ़ जाती हैं, मगर देश की 140 करोड़ आबादी को खाद्य सुरक्षा मुहैया कराने वाले अन्नदाता की समस्याओं का जिक्र तक नहीं होता। फसलों की तबाही का मंजर न्यूज चैनलों की सुर्खियां भी नहीं बनता। लेकिन जब सियासी जमीन खिसक जाए तो सत्ता पक्ष पर निशाना साधने के लिए विपक्षी दलों का मुख्य मुद्दा किसान ही बनते हैं। कृषि अर्थतंत्र का बुनियादी स्तंभ अन्नदाता लोकतंत्र की मजबूती के लिए मतदाता का जिम्मेदाराना किरदार भी अदा करता है। जम्हूरियत की बुलंदी पर पहुंचने का रास्ता खेत खलिहान व गांव की चौपालों से होकर ही गुजरता है। चुनावी समर में किसान सियासी दलों की प्राथमिकता में शामिल हो जाते हैं। खोया हुआ जनाधार हासिल करने के लिए सत्ता का समीकरण कृषक समाज के इर्द-गिर्द ही घूमता है। चुनावी मौसम में सियासी मैदान में ताल ठोंकने वाले प्रतिनिधि भी खुद को किसान बताकर किसानों का रहनुमां बनने की पूरी कोशिश करते हैं। कई सियासी रहनुमां किसानों का मसीहा बन कर किसानी से जुड़े मुद्दों को अपना सियासी एजेंडा बनाकर सत्ता की सीढिय़ां चढक़र जम्हूरियत की पंचायतों में पहुंच गए। मगर इक्तदार हासिल होने के बाद किसानों के मुद्दे सियासी दलों के एजेंडे से गायब हो जाते हैं। मशहूर ब्रिटिश अर्थशास्त्री ‘थॉमस राबर्ट माल्थस’ ने सन् 1798 में अपनी किताब ‘प्रिंसिपल ऑफ पॉपुलेशन’ के जरिए दुनिया को चेताया था कि अनाज उत्पादन की तुलना में यदि जनसंख्या अधिक होगी तो बहुत से लोग भोजन की कमी से मरेंगे। जब आबादी खाद्य आपूर्ति से अधिक हो जाए तो खाद्यान्न व जनसंख्या में असंतुलन पैदा हो सकता है।

माल्थस के शत-प्रतिशत सही इस तर्क के भविष्य में परिणाम जो भी हों, मगर हमारे मेहनतकश किसानों ने भारत को खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाकर ‘माल्थुसियन सिद्धांत’ को कादी हद तक गलत साबित किया है। भारत में निवास करने वाली विश्व की लगभग 18 प्रतिशत दूसरी सबसे बड़ी आबादी को खाद्य सुरक्षा प्रदान की जा रही है। सरकारी डिपुओं में करोड़ों लोगों को अनाज सस्ते दामों पर मिल रहा है। स्कूलों में मिड डे मील योजना के तहत करोड़ों छात्रों को भोजन उपलब्ध कराया जा रहा है। कई पड़ोसी देशों को अनाज भेजकर आवाम की मदद की जा रही है। देश के अनाज भंडारों में भंडारण क्षमता से अधिक अनाज मौजूद है। यदि देश के किसी हिस्से में भुखमरी या कुपोषण जैसे हालात हैं तो इसके लिए सियासी निजाम जिम्मेवार है। खाद्यान्न, फल-सब्जियां तथा दुग्ध उत्पादन में भारत को विश्व में दूसरे पायदान पर काबिज करके कृषक समाज ने अपनी काबिलीयत का लोहा पूरी दुनिया में मनवाया है। इन उपलब्धियों का श्रेय भले ही देश के सत्ताधीश लेते हैं, मगर खाद्यान्न का रिकॉर्ड उत्पादन किसानों के संघर्ष का परिणाम है। अन्न संकट के मद्देनजर देश में सन् 1965 में ‘भारतीय खाद्य निगम’ तथा कृषि उपज के न्यूनतम समर्थन मूल्य की सिफारिश के लिए ‘कृषि लागत एवं मूल्य आयोग’ भी वजूद में आया था, मगर किसानों को मेहनत के अनुरूप उपज का मूल्य नसीब नहीं होता। स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता के लिए वर्तमान में लोगों का झुकाव आर्गेनिक फूड की तरफ बढ़ रहा है। जैविक व प्राकृतिक खेती की वकालत भी जोरों पर हो रही है, मगर प्राकृतिक उत्पाद भी किसानों की मेहनत पर निर्भर करते हैं। भारत विश्व की पांच सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में शुमार कर चुका है। बेशक देश में शिक्षा, स्वास्थ्य व सैन्य क्षेत्रों में काफी उन्नति हुई है। भारत को खाद्यान्न क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाने वाला कृषक वर्ग गुरबत से जूझ कर भी देश के स्वाभिमान को कायम रखने के लिए कर्जदाता बनकर प्रयत्नशील है। मगर करोड़ों किसानों की आजीविका का साधन हमारे गांव का पुश्तैनी व्यवसाय कृषि क्षेत्र आजादी के सात दशकों बाद भी कई समस्याओं से ग्रसित होकर विकास की दौड़ में पिछड़ा हुआ है। अत: देश के कृषि अर्थशास्त्र को अपने पसीने से मुन्नवर करने वाले किसानों के हितों की पैरवी के लिए सियासी नजर-ए-करम की जरूरत है। बहरहाल बेमौसम बरसात से नुकसान का आकलन करके मुआवजे का ऐलान होना चाहिए। कृषि अर्थतंत्र की मजबूत नींव किसानों की संवेदनाओं का सम्मान करना होगा ताकि युवा पीढ़ी का खेती की तरफ रुझान बढ़े।

प्रताप सिंह पटियाल

स्वतंत्र लेखक


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App