हिमाचली मेधा का छलकता सागर

By: Apr 8th, 2023 7:34 pm

साहित्य की निगाह और पनाह में परिवेश की व्याख्या सदा हुई, फिर भी लेखन की उर्वरता को किसी भूखंड तक सीमित नहीं किया जा सकता। पर्वतीय राज्य हिमाचल की लेखन परंपराओं ने ऐसे संदर्भ पुष्ट किए हैं, जहां चंद्रधर शर्मा गुलेरी, यशपाल, निर्मल वर्मा या रस्किन बांड सरीखे साहित्यकारों ने साहित्य के कैनवास को बड़ा किया है, तो राहुल सांकृत्यायन ने सांस्कृतिक लेखन की पगडंडियों पर चलते हुए प्रदेश को राष्ट्र की विशालता से जोड़ दिया। हिमाचल में रचित या हिमाचल के लिए रचित साहित्य की खुशबू, तड़प और ऊर्जा को छूने की एक कोशिश वर्तमान शृंाखला में कर रहे हैं। उम्मीद है पूर्व की तरह यह सीरीज भी छात्रों-शोधार्थियों के लिए लाभकारी होगी…

अतिथि संपादक, डा. सुशील कुमार फुल्ल

हिमाचल रचित साहित्य -58

विमर्श के बिंदु
1. साहित्य सृजन की पृष्ठभूमि में हिमाचल
2. ब्रिटिश काल में शिमला ने पैदा किया साहित्य
3. रस्किन बांड के संदर्भों में कसौली ने लिखा
4. लेखक गृहों में रचा गया साहित्य
5. हिमाचल की यादों में रचे-बसे लेखक-साहित्यकार
6. हिमाचल पहुंचे लेखक यात्री
7. हिमाचल में रचित अंग्रेजी साहित्य
8. हिमाचल से जुड़े नामी साहित्यकार
9. यशपाल के साहित्य में हिमाचल के रिश्ते
10. हिमाचल में रचित पंजाबी साहित्य
11. चंद्रधर शर्मा गुलेरी की विरासत में

डा. सुशील कुमार ‘फुल्ल’, मो.-9418080088

कोई भी रचनाकार बड़ा या छोटा नहीं होता और कोई भी रचना निरर्थक नहीं होती। हर रचना में कुछ न कुछ संकेत निहित होता है। इतना अवश्य है कि अपनी प्रभावान्विति में अपेक्षाकृत सबल या दुर्बल हो सकती है। सन् 1978 में मुझे इंडिया इंटरनेशनल सेंटर, नई दिल्ली में भारत सरकार द्वारा आयोजित 15 दिवसीय वर्कशाप फार एशियन राइटर्ज में हिमाचल का प्रतिनिधित्व करने का अवसर मिला जहां हिंदी एवं अंग्रेजी तथा अन्य अनेक भाषाओं के ख्यात लेखकों से संवाद का अवसर मिला। मुझे डा. मुल्कराज आनंद का वह वक्तव्य बार-बार स्मसण हो आता है, जिसमें उन्होंने कहा था कि हर लेखक को सर्वप्रथम अपना आत्म वक्तव्य लिखना चाहिए कि ‘मैं क्यों लिखता हूं?’ आत्म-विश्लेषण करने से लक्ष्य में स्पष्टता आती है अन्यथा लेखक भटकता ही रहता है। उन्होंने अपनी कहानी ‘द लौस्ट चाइल्ड’ का भी जिक्र किया और कहा कि रचना जीवन से जुड़ी होनी चाहिए, तभी प्रभावशाली हो सकेगी। यह कथन ‘प्रतिबिम्ब’ में चली वर्तमान शृंखला के संदर्भ में भी सटीक जान पड़ता है। अनेक मित्र-अमित्र लेखक कभी-कभार यह प्रश्न उठाते हैं कि आकलन में मुझे पीछे क्यों रखा या मुझे अमुक-अमुक लेखक से कम्पेयर क्यों किया।

हमीरपुर के युवा कवि, कहानीकार व उपन्यासकार विक्रम गथानिया ने तो आक्रोश में मुझसे पूछा कि लेखकों की सूची में मेरा नाम क्यों नहीं लिया जाता, जबकि मुझे अकादमी का पुरस्कार मिल चुका है। मैंने कहा कि लेना तो चाहिए, परंतु यदि नहीं भी लिया तो भी क्या हो गया? सम्पादक, आलोचक की अपनी भी सीमाएं होती हैं। कई बार मेरा नाम भी बहुत से मित्र छोड़ देते हैं, तब मैं समझता हूं कि मेरा नाम तो आदि-आदि में आ गया है। अस्तु, हमें आत्म निरीक्षण करना चाहिए और छोटी-छोटी बातों में समय नष्ट नहीं करना चाहिए। रचना ही महत्त्वपूर्ण है और वही रचनाकार को भी समय आने पर ख्याति देगी। रमणीय प्रदेश हिमाचल कला एवं संस्कृति से तो लहलहाता ही है, साथ ही यहां विभिन्न भाषाओं के सृजनात्मक साहित्य का भी अक्षुण्ण भण्डार है। यह और भी महत्त्वपूर्ण है कि प्रकाशन की न के बराबर सुविधाएं होने पर भी रचनाकार अपनी धुन में सृजन में रत रहते है। उल्लेखनीय है कि सोलन के प्रकाशक कुमार संस सोलन, मद्दी बुक शॉप मंडी, गोयल बुक डिपो पालमपुर व पालम प्रकाशन पालमपुर जैसे प्रकाशक अब पुस्तकें प्रकाशित नहीं करते। नाहन में शायद एक-आध प्रकाशक अभी भी सक्रिय है। यह अलग बात है कि प्रदेश का विशिष्ट योगदान होने पर भी हिमाचल का लेखन सुर्खियों में कम ही रहता रहा है। इसके आकलन एवं मूल्यांकन के संगठित प्रयास कम ही हुए हैं। किन्हीं उद्यमी लेखकों ने यदा-कदा व्यक्तिगत स्तर पर आयोजन करके अपनी उपस्थिति का संकेत भले ही दिया हो, परंतु यह संस्थागत आयोजनों की तुलना में अधिक प्रभावी नहीं हो पाता। इतना अवश्य है कि यदि कोई संस्कृति सचिव महाराज कृष्ण काव या राकेश कंवर, सीआरबी ललित तथा डा. पंकज ललित जैसा साहित्य प्रेमी आ जाए तो गतिविधियों को कुछ समय के लिए पंख अवश्य लग जाते हैं। गेयटी थियेटर में किताब घर का खुलना एक ऐसा ही ऐतिहासिक प्रसंग है।

हिमाचल के लेखकों के लिए बहुत कुछ करना अभी बाकी है, जिसमें अकादमी एवं भाषा विभाग धुरी का काम कर सकते हैं। लेकिन सबसे पहले लेखकों के रचना कर्म का आकलन एवं मूल्यांकन जरूरी है। ‘दिव्य हिमाचल’ में प्रतिबिम्ब के अंतर्गत एक वर्ष से अधिक समय तक धारावाहिक रूप से चली ‘हिमाचल रचित साहित्य’ की यह शृंखला वस्तुत: इसी दिशा में किया गया एक विनम्र प्रयास रहा है। इसमें अनेक विद्वानों के सहयोग से इस यज्ञ का श्रीगणेश किया गया है। अभी बहुत कुछ ढंूढना, उसका आकलन करना और उसे कालक्रमानुसार शृंखलाबद्ध करना शेष है। इस महत्त्वपूर्ण कार्य से जुडऩे और इसे परिणति तक पहुंचाते-पहुंचाते मुझे अहसास हुआ है कि दरअसल हिमाचल के हर जिले का साहित्यिक इतिहास डिस्ट्रिक्ट गजेटियर की भांति ही लिखा जाना चाहिए, जिसे जिले का ही कोई वरिष्ठ या सक्रिय लेखक लिखे तथा बाद में बारह जिलों के साहित्येतिहास को भाषा एवं संस्कृति विभाग के तत्वावधान में हिमाचल कला संस्कृति भाषा अकादमी के सहयोग से इस समग्र कार्य को संयोजित किया जाए। और इसका प्रकाशन हिमाचल सरकार यानी भाषा एवं संस्कृति विभाग या हिमाचल अकादमी करे ताकि सारा आयोजन वैज्ञानिक ढंग से सम्पन्न हो सके। यह महत्त्वाकांक्षी लग सकता है, परंतु यह उसी तर्ज पर हो सकता है जिस प्रकार काशी नागरी प्रचारिणी सभा वाराणसी ने हिंदी साहित्य का बृहत्इतिहास सोलह खण्डों में प्रकाशित किया था। यह श्रमसाध्य कार्य है, परंतु हो सकता है।

वर्तमान शृंखला में सभी जिलों के उत्साही नए-पुराने सभी वर्गों के लेखकों को इस यज्ञ में आहुति डालने के लिए सफलतापूर्वक प्रेरित किया गया और सभी लेखकों ने सहर्ष इस अभियान का हिस्सा बनने में गर्व महसूस किया। मुझे यह स्वीकार करने में भी कोई संकोच नहीं कि शृंखला मेेें बहुत कुछ समेट लेने पर भी हम उन वरिष्ठ लेखकों पर एक्सक्लूसिव लेख नहीं लिखवा पाए, जिन्होंने सात-सात, आठ -आठ दशकों तक लिखना जारी रखा है यथा प्रिंसिपल परमानंद शर्मा, डा. सत्यपाल शर्मा, सुंदर लोहिया, रमेशचंद्र शर्मा, डा. ओम अवस्थी, श्री अबरोल, के. के. तूर, योगेश्वर शर्मा, जयदेव विद्रोही, रामकृष्ण कौशल या ऐसे और भी बहुत से लोग हैं। जो बिल्कुल नए लोग उभर कर आए हैं, एकदम उल्कापात की तरह, जैसे गणेश गनी, मुरारी शर्मा, राजेंद्र, उमेश अश्क, नवीन हल्दूणवी, रवि मंधोत्रा आदि। इन पर भी कभी न कभी बात तो करनी ही होगी। पीएन शर्मा जी शतकीय वर्ष में हैं, इससे बड़ा गौरव हिमाचल के लिए और क्या हो सकता है। एक पक्ष और जिस पर मेरे सहयोगी लेखकों ने कम लिखा, वह है उन लेखकों के बारे में जो हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय में पढ़ाते रहे और हिमाचल के लेखन को दिशा भी देते रहे। यथा डा. गणपति चंद्र गुप्त, डा. राजकुमार देव, डा. बच्चन सिंह, डा. हरवंशलाल शर्मा, डा. ललन राय, डा. अनिल राकेशी, डा. कुमार कृष्ण, कृष्णा रैणा, डा. ओम प्रकाश सारस्वत तथा उन्हीं की परम्परा के और बहुत से अन्य विद्वानों के विषय में। डा. मीनाक्षी एफ. पाल, डा. डिमरी, डा. उषा वंदे, डा. जगदीश कुमार शर्मा, डा. सोम पी. रंचन आदि जो हमारे अग्रणी रहे हैं और जिन्होंने हिमाचल के साहित्य को गति एवं दिशा दी है। अनेक लेखक भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान में भी आते रहे और हिमाचल यूनिवर्सिटी के दूरवर्ती शिक्षा निदेशालय में भी आते रहे। ‘हांक’ पत्रिका का ऐतिहासिक अंक निकालने वाले हिमाचल के वरिष्ठ कवि एवं आलोचक मेरी सहायता करने को तत्पर थे, परंतु व्यस्तता के कारण ऐसा हो न पाया।

हिमाचल में मुख्यत: हिंदी, संस्कृत, अंग्रेजी, उर्दू, भोटी, हिमाचली-पहाड़ी तथा पंजाबी में साहित्य की भिन्न विधाओं में साहित्य का सृजन हुआ है। यह भी सच है कि सभी भाषाओं में साहित्य का उत्पादन एक समान न हो सकता है और न ही यहां हुआ है। इन भाषाओं के साहित्यिक योगदान पर अनेक विद्वानों ने श्रमपूर्वक सामग्री जुटा कर उसे सुसज्जित ढंग से प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है। उन सबके प्रति मेरा आभार। अतिथि सम्पादक तो केवल द्वारपाल होता है, एक व्यवस्थापक होता है और असली नीरक्षीर विवेकी तो पाठक होते हैं। हां इतना संतोष एवं सुखद अनुभूति मुझे है कि शृंखला समाप्त होते-होते भी बहुत से उत्साही और युवा लेखकों की ओर से और लिखने के प्रस्ताव आते रहे हैं, परंतु हर शृंखला का एक ध्येय होता है, समय सीमा होती है और कार्य योजना भी, उस के अनुसार ही चलना बेहतर होता है। शृंखला बहुत खिंच जाने से भी पाठकवृंद और लेखक भी विरक्त हो जाते हैं।

किसी और ढंग से फिर कभी और आकलन हो सकता है। संभावना बनी रहनी चाहिए। क्षेमचंद्र सुमन जी ने जिस प्रकार भारत के दिवंगत हिंदी सेवियों पर एक पुस्तक लिख कर उनका स्मरण किया, इसी प्रकार मेरा भी प्रयत्न रहा है कि हिमाचल के सभी जिलों के दिवंगत साहित्यकारों का स्मरण ही नहीं बल्कि उन के योगदान को रेखांकित किया जाए। यह शायद पहली बार ही हो रहा है कि दिव्य हिमाचल में साहित्यिक धरोहर का आकलन हो पाया है, यह केवल शुरुआत है। नाहन के श्री चिरानंद शास्त्री जी ने तो सुझाव भी दिया है कि हिमाचल के दिवंगत साहित्यकारों पर पुस्तक ही प्रकाशित कर दी जाए। सुझााव तो बहुत अच्छा है, बात प्रकाशन की सुविधा-असुविधा पर आकर रुक जाती है। अनेक साथियों ने दिवंगत साहित्यकारों की खोजबीन करके लेख लिखे। भूले-बिसरे साहित्यकारों को स्मरण करना वस्तुत: अपनी धरोहर को पहचानना होता है और कालक्रमानुसार साहित्यकारों के योगदान को रेखांकित करना अपने आप में एक पुनीत कार्य होता है, पितरों के स्मरण जैसा ही श्रद्धेय नमन। बहुत से दिवंगत साहित्यकारों के बारे में पूरी जानकारी कहीं-कहीं मिली भी नहीं। अकादमी ने बहुत पहले लेखक परिचय पुस्तक प्रकाशित की थी, परंतु उसका नवीनतम या संवद्र्धित कोई संस्करण फिर देखने में नहीं आया। इस दिशा में सोलन के समग्र लेखकों पर एक पुस्तक जरूर देखने में आई जिसमें सोलन जिला के लगभग सभी सौ से अधिक लेखकों का परिचय प्राप्त होता है। यदि थोड़ा परिचय लेखकों की रचनाओं का भी रहे तो पुस्तक उपयोगी हो जाती है। अलग-अलग लेखकों की पुस्तकें तो पर्याप्त मिलती हैं जिनके बारे में प्रचार-प्रसार की होड़ भी लगी रहती है। यह भी क्या विडम्बना है कि अधिकांश लेखक अपने बारे में ही सुनना चाहते हैं, दूसरों के बारे में कोई टिप्पणी या प्रशंसा करने में वे संकोच ही करते हैं। और हिमाचल में कुछ खास स्थानों पर यानी शिमला, कुल्लू, मंडी, नाहन, सुंदरनगर, बिलासपुर, हमीरपुर आदि में ही साहित्यिक आयोजन या पुस्तक प्रमोट करने के आयोजन होते हैं,बाकी जगह कभी -कभार। कभी धर्मशाला में भी खूब कार्यक्रम होते थे, परंतु अब कम होते हैं। तपोवन के नजदीक श्री संदीप परमार की एनजीओ गुंजन में साहित्यिक कार्यक्रमों की गूंज अवश्य सुनाई पड़ती रहती है। जो साहित्यिक मंच सक्रिय रहते थे, उनके कार्यक्रमों में भी सुस्ती आई है। शायद प्राथमिकताओं या सुविधाओं की बात भी हो सकती है या फिर जहां-जहां लेखक ज्यादा एक्टिव हैं, वहां-वहां ऐसी घटनाएं ज्यादा होती हैं। वास्तव में विश्व हिंदी सम्मेलन या हिंदी सम्मेलन प्रयाग की तर्ज पर हिमाचल के लेखकों का महासम्मेलन होना चाहिए ताकि परस्पर मिलना-जुलना, विचार-विमर्श, पुस्तकों का आदान-प्रदान हो सके। इस अवसर का इस बात के लिए भी लाभ उठाया जा सकता है कि हिमाचल के लेखकों की पुस्तकों की प्रदर्शनी तथा पुस्तकों के विक्रय की व्यवस्था की जा सकेगी।

शोधार्थी पुस्तकों के लिए इधर-उधर भटकते रहते हैं, उनके लिए भी यह अवसर सहायक हो सकता है। महा सम्मेलन के अनेक लाभ हो सकते हैं। गेयटी थियेटर में किताब घर की परिकल्पना एक सुखद एवं सफल प्रयास है। शिमला से इतर स्थानों पर भी ये प्रयत्न हो सकते हैं। नाहन, चंबा, धर्मशाला, कुल्लू या रोटेशन से कहीं भी इनका आयोजन हो सकता है। जहां यह नए लेखकों को ऊर्जा प्रदान करेगा, वहीं पुस्तक संस्कृति को भी बढ़ावा देगा। एक सौ बीस से अधिक लेखकों ने इस शृंखला यानी ‘हिमाचल रचित साहित्य’ को अपना प्यार एवं सहयोग दिया, इसके लिए आप सबका एक बार पुन: आभार। ‘दिव्य हिमाचल’ ने अतिथि सम्पादक के रूप में मुझे इस शृंखला को अपने ढंग से चलाने की स्वतंत्रता दी, उसके लिए प्रधान सम्पादक श्री अनिल सोनी जी के प्रति कृतज्ञ हूं। यदि इस शृंखला से कुछ अच्छा योगदान हिमाचली साहित्यिक परिदृश्य को मिला है तो उसका श्रेय कॉलम के लेखकों को है और जो त्रुटियां रहीं, उनके लिए मैं क्षमा याचना करता हूं। जय हिंदी, जय नागरी।       -डा. सुशील कुमार फुल्ल

चिंतन : विश्वविद्यालय में हिमाचली भाषा

प्रो. ओम प्रकाश शर्मा, मो.-9418480231

-(पिछले अंक का शेष भाग)
हिमाचल की जिन दस उपभाषाओं अथवा बोलियों का भाषिक अध्ययन डा. ग्रियर्सन, डा. मौलूराम ठाकुर तथा अन्य भाषाविदों ने किया है, सन् 1931 की जनगणना में इनकी संख्या 63 तक संकेतित की गई है। डा. यशवंत सिंह परमार ने अपनी पुस्तक ‘हिमाचल प्रदेश : क्षेत्र एवं भाषा’ में हिमाचल के जनों द्वारा बोली जाने वाली भाषा को ‘पहाड़ी भाषा’ सिद्ध कर इसकी बोलियों की संख्या 30 तक गिनाई है। टी. ग्राहम बैली ने अपनी पुस्तक ‘लैंग्वेजिज़ ऑफ दी नॉर्दर्न हिमालयाज़’ में हिमाचली पहाड़ी भाषा की बोलियों का विश्लेषण किया है। भाषिक दृष्टि से पहाड़ी भाषा की बोलियों (उपभाषाओं) तथा इनकी उपशाखाओं के समष्टि स्वरूप को मातृभाषा कहा जा सकता है। अत: बोलियों अथवा उपभाषाओं की समष्टि स्वरूपा ‘पहाड़ी भाषा’ को हम सिद्धांत: मातृभाषा कहते हैं। हिमाचल के किसी भी गांव में पैदा हुआ बालक चाहे किसी भी बोली या उपभाषा के परिवेश में पला हो, व्यष्टि रूप में उसकी मातृभाषा उसके परिवेश की बोली या उपभाषा होगी और भाषा वैज्ञानिक सिद्धांत के समष्टि स्वरूप में हम पहाड़ी भाषा को उसकी मातृभाषा कह सकते हैं। डा. ग्रियर्सन ने पहाड़ी भाषा, बोलियों अथवा उपभाषाओं का सर्वेक्षण भौगोलिक आधार पर किया था, परंतु भाषिक सिद्धांतों के सिद्धांतकारों के विश्लेषण के अनुरूप हिमाचल में बोली जाने वाली भाषा को हम ‘हिमाचली पहाड़ी भाषा’ के स्वरूप में सहज ही समझ सकते हैं। इस नामकरण में डा. ग्रियर्सन द्वारा स्तरित पश्चिमी पहाड़ी की कश्मीरी व डोगरी से हिमाचली पहाड़ी भाषा एक पृथक इकाई के रूप में उभर कर समक्ष आती है। भारत के संविधान की आठवीं अनुसूची में 22 भाषाएं सम्मिलित हैं। आठवीं अनुसूची में सम्मिलित इन भाषाओं का यदि भाषा वैज्ञानिक अध्ययन किया जाए तो इन सभी भाषाओं की अपनी-अपनी बोलियां अथवा उपभाषाएं भी समक्ष आती हैं। पंजाबी की 11 प्रमुख बोलियां हंै और इनका समष्टि स्वरूप पंजाबी भाषा है।

इसी प्रकार कश्मीरी, डोगरी, बंगला व कई अन्य भाषाओं की अपनी-अपनी उपभाषाएं (बोलियां) हैं। संस्कृत सभी भाषाओं की जननी है, जिसमें सभी भाषाओं की सरिताएं बोलियों (उपभाषाओं)की ओर बहती हैं। हिंदी की पोषक-ब्रजभाषा, अवधी, शौरसेनी, राजस्थानी व हरियाणवी की अनेकों उपभाषाएं अथवा बोलियां हैं। अंतररीष्ट्रीय स्तर पर देखें तो ब्रिटेन में उपजी अंग्रेजी भाषा की भी अनेकों आंचलिक बोलियां (उपभाषाएं) हैं। हिमाचली पहाड़ी भाषा यद्यपि आठवीं अनुसूची में अभी तक शामिल नहीं है, परंतु इसकी भी अपनी समृद्ध उपभाषाएं अथवा बोलियां हैं। ये उपभाषाएं हिमाचली पहाड़ी भाषा की पोषक व संवर्धक हैं। इन उपभाषाओं अथवा बोलियों का अपना समृद्ध लोकसाहित्य है। सनातन परम्परा से यह लोकसाहित्य- गीत, कथा, गाथा, लोकनाट्य व लोक सुभाषित विधाओं में रचा गया है। यही नहीं हिमाचल की थाती पर- ब्राह्मी, खरोष्ठी, कुटिल, शारदा, देवनागरी, शारदा से उद्भूत- टांकरी, पाबुची, भटाखरी, पण्डवाणी, चन्दवाणी तथा देवनागरी लिपियों में पहाड़ी भाषा के अभिलेख, शासकीय आदेश व पाण्डुलिपियां रची गई हैं। शारदा से उपजी- टांकरी, पाबुची, भटाखरी, पंडवाणी व चन्दवाणी तो हिमाचल की थाती की अपनी लिपियां हैं जिसमें असंख्य अभिलेख, शासकीय आदेश व पाण्डुलिपियां पहाड़ी भाषा की विभिन्न बोलियों अथवा उपभाषाओं में रची उपलब्ध होती हैं। चम्बा में पहाड़ी भाषा में निबद्ध अभिलेखों की लम्बी सूची है। पाबुची, भटाखरी, पण्डवाणी व चन्दवाणी लिपियों में असंख्य सांचा पाण्डुलिपियां पहाड़ी भाषा में निबद्ध हैं। टांकरी में असंख्य शासकीय आदेश व पाण्डुलिपियां निबद्ध हैं। पहाड़ी भाषा का आधुनिक साहित्य आज देवनागरी लिपि में रचा जा रहा है। पहाड़ी कविताएं, कथाएं, उपन्यास, निबंध व नाटक विधाएं आज सहज़ रूप से देवनागरी में रची जा रही हंै। देवनागरी लिपि आज पहाड़ी भाषा की लिपि प्रतिष्ठित हो गई है।

हम आज संविधान की आठवीं अनुसूची में अपनी- हिमाचली पहाड़ी भाषा को सम्मिलित करवाने के पात्र हैं। भाषा वैज्ञानिक आधार पर भी भाषाविदों ने अपने शोधपरक आधार पहाड़ी भाषा के संदर्भ तैयार किए हैं। हिमाचल निर्माता डा. यशवंत सिंह परमार ने सन् 1975 में मंडी में युवाओं को संबोधित करते हुए कहा था- ‘‘पहाड़ी भाषा जो हिमाचल प्रदेश के लोगों की भावाभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम है, इस प्रदेश की असल भाषा है। इस भाषा को राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता दिलाने के लिए प्रयत्न किए जाएंगे। वास्तव में हिमाचल के पूर्णराज्यत्व प्राप्ति द्वारा पहाडिय़ों के विशिष्ट व्यक्तित्व को स्वीकारा गया है और उस पृष्ठभूमि में पहाड़ी भाषा को अंतत: अपना उचित स्थान मिल जाएगा। मैं आशा करता हूं कि हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय पहाड़ी भाषा के विकास में सहयोग देगा। किसी भी प्रदेश की संस्कृति को उभारने के लिए वही भाषा सबसे सशक्त माध्यम है जो क्षेत्र विशेष में व्यापक रूप से बोली जाती है।’’ हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय की परमार पीठ ने इस संदर्भ में सन् 2020 में डा. परमार के चिंतन के अनुरूप पाठ्यक्रम निर्माण का कार्य प्रारंभ किया। परमार पीठ में डिप्लोमा कोर्स के अंतर्गत तीन पेपर पहाड़ी भाषा, बोलियों (उपभाषाओं) व लेखन के व्यावहारिक पक्षों के संदर्भ में तैयार किए गए हैं। आज हम पहाड़ी भाषा के इस पाठ्यक्रम के माध्यम से भावी पीढ़ी को एक सशक्त आधार प्रदान करने की ओर अग्रसर हैं। नई शिक्षा नीति में जिस मातृभाषा के पठन-पाठन की चर्चा की गई है, उस संदर्भ में हम पहाड़ी भाषा के ‘मातृभाषा’ परक सूत्रों पर कार्य करने में भी सक्षम हैं। ये सूत्र हिमाचली पहाड़ी भाषा के उद्भव, स्वरूप और विकास के विविध चरणों में मिल जाएंगे।

पुस्तक समीक्षा : नामानुरूप खंड काव्य महावीरकीर्तिसौरभम्

राष्ट्रीय कालिदास पुरस्कार से सम्मानित, महामहोपाध्याय की उपाधि से विभूषित तथा आशु कवि के रूप में विख्यात, अनेक काव्यों तथा महाकाव्यों के रचनाकार मूलत: कांगड़ा से सम्बन्ध रखने वाले और इन दिनों पतंजलि विश्वविद्यालय में संस्कृत विभागाध्यक्ष डा. मनोहर लाल आर्य ने संस्कृत की सेवा में सर्वस्व समर्पित करने वाले एक अन्य यशस्वी विद्वान् डा. महावीर अग्रवाल के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को लेकर उनके यश एवं नामानुरूप ‘महावीरकीर्तिसौरभम्’ नामक खंड काव्य की रचना कर उनके कीर्ति सौरभ को दिक-दिगन्त तक फैलाने का यशस्वी कार्य किया है। इस खंड काव्य की विशेषता यह भी है कि यह संस्कृत पाठकों के लिए ही नहीं बल्कि हिंदी तथा अंग्रेजी में अनूदित होकर सभी के लिए सुपाठ्य बन पड़ा है। आशु कवि की वैदुष्य भरी ‘प्रास्ताविकी वाक’ के अनुशीलन के पश्चात खंड काव्य की हिंदी तथा अंग्रेजी अनुवादकत्र्री डा. शुभम दीक्षित ‘अपनी बात’ सहजता से कह देती हैं और तब पाठक को हिमाचल के पवित्र स्थल भागसूनाग में आरंभ किए इस खंड काव्य की रसानुभूति का अवसर प्राप्त होता है।

पांच खंडों में विभक्त इस खंड काव्य के ‘वंशाभिज्ञावर्णनात्मक’ प्रथम खंड के पूरा होने पर लेखक भले ही आंखों की शल्यक्रिया हेतु चंडीगढ़ पहुंच जाते हैं, किंतु उन्हीं के शब्दों ‘…विरमति न परं कोविद: काव्यकृत्यात’ में वे अंतर्मुखी होकर मन ही मन पद्य रचना करते रहे और उनकी पुत्री उन्हें लिपिबद्ध करती रही और तब इसी क्रम में यह काव्य आश्चर्यजनक ढंग से पूर्णता को प्राप्त करता है। हिंदी तथा अंग्रेजी में अनूदित यह काव्य हर तरह के पाठक वर्ग के लिए पठनीय, मननीय तथा संग्रहणीय बन गया है जिसके अध्ययन से यशस्वी महावीर के प्रेरक जीवन चरित से बहुत कुछ सीखने की प्रेरणा मिलती है।

– आचार्य ओमप्रकाश राही


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App