जंगे अजीम के गुमनाम हिमाचली नायक

प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति के साथ ही उन योद्धाओं की वीरता का सुनहरा मजमून भी समाप्त हो गया। राज्य के शूरवीरों के साहस की शौर्यगाथाएं शिक्षा पाठ्यक्रम में शामिल होनी चाहिए ताकि भावी पीढिय़ां पहाड़ की सैन्यशक्ति के शौर्य पर गर्व महसूस कर सकें…

शौर्य से लबरेज वीरभूमि हिमाचल का सैन्य इतिहास किसी तारूफ का मोहताज नहीं है। जब भी मुल्क की हशमत व सालमियत के लिए बलिदान की बात आई तो पहाड़ का सैन्य पराक्रम शूरवीरता की कसौटी पर सर्वश्रेष्ठ साबित हुआ है। पहली जंगे अजीम (1914-1918) में ब्रिटिश इंडियन आर्मी के परचम तले भारत के लगभग ग्यारह लाख सैनिक फ्रांस, ग्रीस, इटली, अफ्रीका, फिलीस्तीन व मैसोपोटामिया सहित कई देशों में अंग्रेजों की तरफ से लड़े थे। हिमाचल के हजारों सैनिक उस जंग में शामिल हुए थे। इतिहास के अनुसार 20 जून 1914 को आस्ट्रिया साम्राज्य के वारिस ‘आर्कड्यूक फ्रांज फार्डिनांड’ तथा उनकी पत्नी ‘सॉफी’ की बोस्निया की राजधानी ‘सेरोजेवो’ में हत्या कर दी गई थी। वही कत्ल पूरी कायनात को हिलाने वाली पहली जंगे अजीम का नुक्ता-ए-आगाज साबित हुआ था। सर्बिया को उस कत्ल का मुजरिम माना गया था। 28 जुलाई 1914 को आस्ट्रिया ने सर्बिया पर हमला कर दिया था। दिसंबर 1915 में 37 व 41 डोगरा रेजिमेंटों के शेरदिल सैनिकों ने ‘मैसोपोटामिया’ के महाज पर दस्तक देकर ‘शेखसाद’ की भीषण जंग में ‘खिलाफत-ए-उस्मानिया’ सल्तनत की सेना की पूरी तजवीज को नेस्तनाबूद करके अंग्रेजों को अपने पराक्रम से अवगत करवा दिया था।

21 जनवरी 1916 को मैसोपोटामिया के ‘अल हना’ रणक्षेत्र में तुर्क सेना की मजबूत किलेबंदी पर 37 व 41 डोगरा बटालियन के सैनिकों ने जोरदार हमले को अंजाम दिया था। अल हना की उस शदीद जंग में 41वीं डोगरा के हिमाचली सपूत जमादार ‘लाला राम’ ने असीम वीरता का एक नया अध्याय लिख दिया था। अंग्रेज सैन्य अधिकारी कै. ‘निकल्सन’ तथा लै. ‘लिंडोप’ युद्ध में दुश्मन की गोलीबारी में जख्मी हो चुके थे। रणक्षेत्र में दुश्मन की भीषण बमबारी के बीच लाला राम ने अपनी जान जोखिम में डालकर दोनों अंग्रेज सैनिकों को महफूज मुकाम पर पहुंचा दिया था। हालांकि कुछ समय बाद ‘निकल्सन’ की मौत हो गई, मगर लाला राम ने जोखिम भरे प्रयास से लिंडोप को सुरक्षित बचा लिया था। शत्रु के समक्ष निर्भीक सैन्य निष्ठा के लिए बर्तानिया हुकूमत ने लाला राम को सर्वोच्च वीरता पदक ‘विक्टोरिया क्रॉस’ से नवाजा था। हिमाचल के प्रथम विक्टोरिया क्रॉस लाला राम को सेंट जार्ज का ‘रूसी क्रॉस’ भी प्रदान किया गया था। रूह-ए-तामीर को जख्म देने वाली मैसोपोटामिया की उसी जंग में बिलासपुर के ‘मसौर’ गांव के ग्यारह ‘मैहता राजपूत’ डोगरा व पंजाब रेजिमेंट का हिस्सा बनकर तुर्क सेना से लड़े थे। रणभूमि में अदम्य साहस के लिए अंग्रेजों ने ‘सुरजन सिंह मैहता’ को ‘इंडियन आर्डर ऑफ मेरिट’ मेडल तथा ‘बहादुर’ की उपाधि से नवाजा था। युद्ध में कहलूर के सैनिकों की बहादुरी से मुतासिर होकर अंग्रेजों ने ‘कहलूर रियासत’ के चंदेल शासक ‘विजय चंद’ को ‘मेजर’ साहब की मानद उपाधि प्रदान की थी।

दूसरे विश्व युद्ध में भारत के प्रथम ‘मिलिट्री क्रॉस’ विजेता कर्नल अनंत सिंह पठानिया के पिता कर्नल ‘रघबीर सिंह पठानिया’ पहली जंगे अजीम के दौरान पूर्वी अफ्रीकी सैन्य मिशन में ‘जैक राइफल्स’ के कमान अधिकारी थे। ‘जस्सिन’ की भीषण जंग में जर्मन सेना पर किए गए हमले में कर्नल रघबीर सिंह 18 जनवरी 1915 को शहीद हो गए थे, मगर जैक राइफल के जवानों ने जर्मन की तोप व परचम को अपने कब्जे में ले लिया था। ऊना के भदसाली गांव के 208 रणबांकुरों ने प्रथम विश्व युद्ध में कई मुल्कों के महाज पर जौहर दिखाए थे, जिनमें ग्यारह सैनिक बलिदान हो गए थे। भदसाली के योद्धाओं ने जर्मन सेना को मैदाने जंग में शिकस्त देकर उनकी तोप को अपने कब्जे में ले लिया था। सैनिकों की वीरता से प्रभावित होकर अंग्रेजों ने जर्मन तोप भदसाली गांव को ही भेंट कर दी थी। नंगल जरियालां गांव के 78 सूरमां प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटिश फौज की तरफ से लड़े थे। कांगड़ा के अन्दराणा गांव के छह कटोच राजपूत पहली जंगे अजीम में शहीद हुए थे। प्रथम विश्व युद्ध में देश के लाखों सैनिक भेजने का मकसद यह था कि युद्ध जीतने के बाद अंग्रेज भारत को गुलामी की दास्तां से आजाद कर देंगे, मगर युद्ध खत्म होने के बाद देश की रियासतों व सियासतदानों के लब-ए-इजहार पर खामोशी की रजामंदी तथा अंग्रेजों की सफ्फाक हुकूमत की बेवफाई के आगे देश के लाखों सैनिकों की कुर्बानियां नजरअंदाज हो गई। प्रथम विश्व युद्ध में भारतीय फौज की वीरता से प्रभावित होकर ही अंग्रेजों ने हिंदोस्तानी सैनिकों को बर्तानिया सल्तनत का आलातरीन सैन्य एजाज विक्टोरिया क्रॉस देना मुनासिब समझा था। स्मरण रहे मल्लिका-ए-बर्तानिया ‘विक्टोरिया’ (1891-1901) ने सन् 1854 में क्रिमिया युद्ध के दौरान सर्वोच्च बहादुरी का प्रदर्शन करने वाले सैनिकों के सम्मान में सन् 1856 से विक्टोरिया क्रॉस मेडल देने की शुरुआत की थी।

रूस के प्रसिद्ध लेखक ‘लियो टाल्स्टॉय’ उसी क्रिमिया युद्ध में रूसी तोपखाने के सैन्य अफसर थे। क्रिमिया युद्ध के बाद टाल्सटॉय ने रूसी सेना को छोड़ दिया था तथा अपने मशहूर उपन्यास ‘युद्ध और शांति’ की रचना की थी। पहली जंगे अजीम में ग्यारह भारतीय सैनिकों को विक्टोरिया क्रॉस प्रदान किए गए थे। सिपाही ‘खुदादाद’ प्रथम भारतीय ‘विक्टोरिया क्रॉस’ विजेता सैनिक थे। विभाजन के बाद पाक सेना ने खुदादाद को उनके जीवनकाल में ही ‘बाबा-ए-बलोच रेजिमेंट’ के खिताब से सरफराज कर दिया था। रावलपिंडी के सैन्य म्यूजियम में खुदादाद का तांबे का मुजस्समा भी लगाया गया है। मगर अफसोस विदेशी भूमि पर शौर्य पराक्रम का सर्वोच्च शिलापट्ट लिखकर देश को गौरवान्वित करने वाले हिमाचल के रणबांकुरों की दास्तान-ए-शुजात इतिहास के पन्नों में ही दब कर रह गई। जंगे अजीम को बेखौफ अंदाज से अंजाम तक पहुंचा कर बर्तानिया को दुनिया का फातिम बनाने वाले जांबाज गुमनामी के दौर में चले गए। प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति के साथ ही उन योद्धाओं की वीरता का सुनहरा मजमून भी समाप्त हो गया। जबकि उनका मंजिल ए मकसूद देश की आजादी ही था। राज्य के शूरवीरों के साहस की शौर्यगाथाएं शिक्षा पाठ्यक्रम में शामिल होनी चाहिए ताकि भावी पीढिय़ां पहाड़ की सैन्यशक्ति के गौरवशाली शौर्य पर गर्व महसूस कर सकें।

प्रताप सिंह पटियाल

स्वतंत्र लेखक


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