पंजाब में भाजपा की भविष्य की रणनीति

इतना निश्चित है कि जालंधर लोकसभा का चुनाव परिणाम पंजाब की राजनीति पर छाई धुंध को बहुत सीमा तक दूर कर सकेगा। भाजपा के लिए यह चुनाव परिणाम बहुत महत्त्वपूर्ण है। देखना होगा ऊंट किस करवट बैठता है…

पंजाब में भाजपा ऊहापोह की स्थिति में है। अकाली दल से समझौते से पूर्व जनसंघ/भारतीय जनता पार्टी पंजाब में 0 से लेकर 9 विधानसभा सीटों तक सिमटी हुई थी। आपात स्थिति के उपरान्त 1977 में हुए चुनावों में भी जब जनता पार्टी और अकाली दल ने मिल कर चुनाव लड़ा था तो जनता पार्टी में जनसंघ ग्रुप को विधानसभा में महज 12 सीटें मिली थी। कालान्तर में जब भाजपा और अकाली दल ने आपस में मिल कर चुनाव लडऩे का मन बना लिया तो भाजपा को 12 से 18 के बीच सीटें मिलने लगी थीं। इसमें कोई शक नहीं कि यह राजनीतिक सुविधा का समझौता था। भाजपा ने मान लिया था कि वह पंजाब में हिन्दुओं के एक तबके की पार्टी है और अकाली दल ने मान लिया था कि वह मोटे तौर पर पंजाब के जट्ट/सिख की पार्टी है। दोनों पार्टियों के लिए जरूरी था कि वे अपने प्रभाव क्षेत्र को बढ़ा कर पूरे पंजाबियों की पार्टी बनने की कोशिश करतीं। अन्यथा उनकी स्थिति पंजाब की राजनीति में दबाव समूह से आगे नहीं बढ़ पाएगी। अकाली दल का प्रभाव क्षेत्र यकीनन भाजपा से ज्यादा था, लेकिन वह समस्त पंजाबियों की पार्टी न होकर जाटों के एक हिस्से और कुछ सीमा तक खत्री सिखों के एक हिस्से की पार्टी मात्र ही थी। लेकिन भारतीय जनता पार्टी का प्रभाव क्षेत्र अकाली दल से भी कम था। इस स्थिति में दोनों पार्टियों के पास सत्ता के सिंहासन तक पहुंचने का एक ही रास्ता था, या तो अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ा कर समस्त पंजाबियों की पार्टी बनती या फिर सत्ता तक पहुंचने का कोई बाईपास ही तलाशतीं। दोनों पार्टियों ने दूसरे रास्ते को ही सरल व प्रभावकारी समझा। उन्होंने आपस में समझौता कर लिया और सत्ता पर कब्जा कर लिया। यकीनन इस राजनीतिक प्रयोग में भाजपा की हैसियत ‘छोटे भाई’ की ही होती। यह प्रयोग दो-तीन दशक तक चला। लेकिन इस प्रयोग में दोनों पक्ष ही असन्तुष्ट दिखाई देने लगे। भाजपा के कार्यकर्ताओं को यह लगने लगा था कि अकाली दल से समझौते के कारण पार्टी का विस्तार रुक गया है, जबकि यह सोच यथार्थ पर आधारित नहीं थी।

समझौते से पूर्व के तीन दशकों में भी पार्टी पूरे पंजाब, खासकर राज्य का ह्रदय कहे जाने वाले मालवा क्षेत्र में तो अपना प्रभाव कहीं भी बना नहीं सकी थी। अकाली दल को यह भ्रम होने लगा था कि अब पंजाब के अन्य समुदायों में भी उसने अपना संगठन खड़ा कर लिया है और अपने बलबूते वह पंजाब में अपनी सरकार बना सकता है। इसलिए किसान आन्दोलन के बहाने उसने भाजपा से अपना पुराना गठबन्धन तोड़ लिया। लेकिन इससे दोनों पक्ष ही प्रसन्न दिखाई दे रहे थे। अकाली दल को लगता था उसकी पीठ से बोझ उतर गया और भाजपा को लगा कि उसके विकास के रास्ते की दीवार हट गई। सचमुच इसका क्या परिणाम हुआ, यह 2022 के विधानसभा चुनावों से पता चला जब भारतीय जनता पार्टी को दो और अकाली दल को महज तीन सीटों पर ही संतोष करना पड़ा। आम आदमी पार्टी ने 118 सीटों वाली विधानसभा में 92 सीटें झटक लीं। लेकिन लगता है आम आदमी पार्टी की जीत पंजाब में विकल्पहीनता की स्थिति का परिणाम था। इसका सबूत चुनावों के तुरन्त बाद, संगरूर लोकसभा की सीट के चुनाव परिणामों से मिला।

ह सीट मुख्यमंत्री भगवन्त सिंह मान के त्यागपत्र से खाली हुई थी। भगवन्त सिंह दो बार निरन्तर यह सीट लाखों के मार्जिन से जीत चुके थे। लेकिन उनके मुख्यमंत्री बनने के तुरन्त बाद आम आदमी पार्टी यह सीट हार गई। जीत अलगाववाद के समर्थक सिमरनजीत सिंह की पार्टी अकाली दल (अमृतसर) की हुई। प्रत्याशी भी सिमरनजीत सिंह स्वयं थे। पंजाब में इस नई राजनीतिक स्थिति ने प्रदेश की राजनीति की दिशा बदल दी। अकाली दल को लगा कि उसे अपने पुराने अड्डे पर वापस लौट जाना चाहिए। इसलिए वह पंथ के हितों की रक्षा वाले अपने पुराने स्वरूप की ओर लौटने लगी। अभी तक उसकी कोशिश थी कि भारतीय जनता पार्टी से छुटकारा पा लिया जाए और स्वयं को पंजाबियों की पार्टी के तौर पर स्थापित किया जाए। लेकिन अब वह वापस अपने पुराने घर की ओर चल पड़ी। लेकिन भाजपा इस स्थिति में कौनसा रास्ता अख्तियार करे? क्या वह भी अपने उस पुराने घरौंदे में सिमटी रहे या फिर वह भी पूरे पंजाबियों की पार्टी बनने के रास्ते पर चल निकले। पार्टी के भीतर ही एक समूह पुराने घरौंदे को ही सुरक्षित मानता था।

से लगता है कि सारे पंजाबियों की पार्टी बनने के चक्कर में वह अपना सुरक्षित जनाधार भी गंवा लेगी। लेकिन लगता है नरेन्द्र मोदी ने दूसरे रास्ते को अधिमान दिया है। भारतीय जनता पार्टी का पंजाब के हर फिरके में विस्तार किया जाए। यही कारण है कि पार्टी ने अपने दरवाजे पूरी तरह खोल दिए। ऐसा नहीं कि ये दरवाजे पहले बन्द थे। यही कारण है कि कांग्रेस और अकाली दल से टूट-टूटकर अनेक लोग भाजपा में आने लगे। आने वालों में उन समुदायों मसलन जट्ट समुदाय और अनुसूचित समुदाय के लोग ज्यादा संख्या में आने लगे हैं। इससे पूर्व इन्हीं समुदायों के लोग भाजपा में आने में संकोच करते थे। ऐसा नहीं है कि पहले इन समुदायों के लोग भाजपा में नहीं थे, लेकिन प्राय: ऐसे लोग थे जिनका अपने समुदायों में जनाधार ज्यादा नहीं था। लेकिन अब स्थिति बदलने लगी थी। इसका परिणाम यह हुआ कि भाजपा समस्त पंजाबियों की पार्टी बनने की ओर अग्रसर होने लगी। जाहिर था इससे पुराने लोगों में रोष भी होता। यही कारण है कि पार्टी के भीतर नए आने वालों की जन्म कुंडलियां खंगालने का काम शुरू होने लगा। लेकिन प्रेम चन्द ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि भूख में साग पात सभी रुचिकर होता है, लेकिन पेट भर जाने पर चुनने की सुविधा ली जा सकती है। अभी तो भारतीय जनता पार्टी को अपनी स्वयं की निर्मित चारदीवारी से बाहर निकल कर समस्त पंजाबियों की प्रतिनिधि राजनीतिक पार्टी बनने की ओर अग्रसर होना होगा। पार्टी यह काम कर भी रही है।

यह निश्चित है कि अकाली दल निकट भविष्य में अपना खोया जनाधार प्राप्त नहीं कर सकेगा। अब वह पंजाब में सिखों में एक सीमित समुदाय जट्ट/खत्री में ही अपने सीमित जनाधार को बचाए रखने का प्रयास करता दिखाई देगा। श्री प्रकाश सिंह बादल के देहान्त के बाद उनके सुपुत्र और अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल के पास फिलहाल यही रास्ता बचा है कि ‘बेअदबियों’ के मुद्दे से जूझते हुए अपने बचे खुचे जनाधार को किसी तरह भी बचा कर रखा जाए। पंजाब में आम आदमी पार्टी का जितनी तेजी से उभार हुआ था, उतनी तेजी से ही वह उतार पर जाती दिखाई दे रही है। इसमें कोई शक नहीं कि कांग्रेस पंजाब में किसी न किसी रूप में सभी समुदायों का प्रतिनिधित्व करती रही है। भारतीय जनता पार्टी भी इसी प्रकार की पार्टी बनने के प्रयास में है जो निश्चय ही पंजाब के हित में है। इस पृष्ठभूमि में जालन्धर लोकसभा का उप चुनाव महत्वपूर्ण हो गया है। इसी चुनाव के परिणाम से पता चल जाएगा कि क्या आम आदमी पार्टी संगरूर लोकसभा चुनाव के बाद जनता के दरबार में पुन: उभर सकी है या उसी ढलान पर है। सिमरनजीत सिंह मान की पार्टी भी संगरूर लोकसभा चुनाव के परिणाम के बाद अति उत्साहित होकर जालन्धर में देख पाएगी कि क्या वह पंजाबियों का सुविचारित निर्णय था या फिर आम आदमी पार्टी के प्रति गुस्सा मात्र ही था। अकाली दल ने शुरू से ही बसपा की बैसाखियों पर चलने का निर्णय कर लिया था। उसका परिणाम भी पता चल जाएगा। भाजपा अपने नए अवतार यानी समस्त पंजाबियों की प्रतिनिधि बन कर चुनाव मैदान में है। लेकिन इतना निश्चित है कि जालन्धर लोकसभा का चुनाव परिणाम पंजाब की राजनीति पर छाई धुंध को बहुत सीमा तक दूर कर सकेगा। भाजपा के लिए यह चुनाव परिणाम बहुत महत्वपूर्ण है। देखना होगा ऊंट किस करवट बैठता है।

कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वरिष्ठ स्तंभकार

ईमेल:kuldeepagnihotri@gmail.com


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App