हिमाचली हिंदी कहानी : विकास यात्रा

By: May 7th, 2023 12:05 am

डा. हेमराज कौशिक

अतिथि संपादक

मो.-9418010646

कहानी के प्रभाव क्षेत्र में उभरा हिमाचली सृजन, अब अपनी प्रासंगिकता और पुरुषार्थ के साथ परिवेश का प्रतिनिधित्व भी कर रहा है। गद्य साहित्य के गंतव्य को छूते संदर्भों में हिमाचल के घटनाक्रम, जीवन शैली, सामाजिक विडंबनाओं, चीखते पहाड़ों का दर्द, विस्थापन की पीड़ा और आर्थिक अपराधों को समेटती कहानी की कथावस्तु, चरित्र चित्रण, भाषा शैली व उद्देश्यों की समीक्षा करती यह शृंखला। कहानी का यह संसार कल्पना-परिकल्पना और यथार्थ की मिट्टी को विविध सांचों में कितना ढाल पाया। कहानी की यात्रा के मार्मिक, भावनात्मक और कलात्मक पहलुओं पर एक विस्तृत दृष्टि डाल रहे हैं वरिष्ठ समीक्षक एवं मर्मज्ञ साहित्यकार डा. हेमराज कौशिक, आरंभिक विवेचन के साथ किस्त-४

-(पिछले अंक का शेष भाग)
इसके बाद सन् 1977 में शांता कुमार और संतोष शैलजा का सांझा कहानी संग्रह ‘पहाड़ बेगाने नहीं होंगे’ वीणा प्रकाशन पालमपुर से प्रकाशित हुआ जो 1978 में ‘ज्योतिर्मयी’ शीर्षक से राजपाल एंड संज से दूसरे संस्करण के रूप में सामने आया। इस संग्रह में संतोष शैलजा की ग्यारह कहानियां हैं। पहाड़ बेगाने नहीं होंगे, कब तक पुकारूं, बेतवा की लहरें, ज्योतिर्मयी, बिछड़ी राहें, रज्जो काकी आदि संग्रह की कहानियां हैं। ‘पहाड़ बेगाने नहीं होंगे’ राष्ट्रभक्ति एवं राष्ट्रप्रेम से ओतप्रोत कहानी है। भारत-पाक युद्ध की पृष्ठभूमि में इस कहानी का सृजन किया गया है। युद्ध काल में देश के नागरिकों का क्या उत्तरदायित्व होता है, उसे भिखू के चरित्र द्वारा प्रकट किया गया है। बेतवा की लहरें सम्राट अशोक और वनदेवी के प्रेम और विवाह को लेकर लिखी कहानी है। वे दोनों राज्य हित के लिए एक-दूसरे से पृथक होते हैं। ज्योतिर्मयी में प्रेम और कत्र्तव्य की उपेक्षा करने वाले प्रेमी समर सिंह के रणभूमि से पलायन करने और अपनी प्रेमिका को वरण करने की आकांक्षा की कहानी है। प्रेमिका युद्ध क्षेत्र से भागने वाले प्रेमी को देशद्रोही समझकर तिरस्कार ही नहीं करती, बल्कि देशद्रोही पति की हत्या तक कर डालती है। स्वयं ज्योतिर्मयी धधकती अग्नि की लपटों में मिल जाती है। बिछुड़ी राहें मध्यवर्गीय परिवारों में जन्म लेने वाली लड़कियों के पारिवारिक उत्तरदायित्व को लेकर लिखी कहानी है। शांता कुमार की इस संग्रह में छह कहानियां संग्रहीत हैं- समर्पण, कलाई, सरसराहट, मुलाकात, मूक बलिदान व गोल दायरा।

शांता कुमार की कहानियों का कथ्य इतिहास, समाज, घर गृहस्थी और रागात्मकता संबंधों का संस्पर्श लिए हुए है। समर्पण में ब्रह्म सूत्र की रचना करने में लीन रहने वाले वाचस्पति के आध्यात्मिक जीवन की एकाग्रता और बारह वर्षों तक पति की एकाग्रता को बनाए रखने के लिए अपनी आकांक्षाओं, भावनाओं को दमित रखने वाली भामति का चित्रण है। कलाई में कहानीकार ने ऐतिहासिक चरित्रों- राम गुप्त, चंद्रगुप्त, ध्रुव स्वामिनी के माध्यम से भारतीय संस्कृति के मूल्यों की अभिव्यक्ति की है। मुलाकात में लेखक ने एक व्यक्ति के अपराधी बनने के कारणों की तलाश की है। सन् 1978 में कहानीकार केशव का प्रथम कहानी संग्रह ‘फासला’ शीर्षक से सामने आया। इसमें केशव की बारह कहानियां संग्रहीत हैं- फासला, नियति, दरिंदे, एक नदी का मनोवेग, बड़े लोग, बाज, मोर्चाबंदी, केंचुल, कछुआ आदि। फासला कहानी में कहानीकार ने संबंधों के अजनबीपन, अकेलेपन और अंतद्र्वंद्व को कीर्ति और भुवन के संबंध के जरिये उठाया है। नियति में आज के सामाजिक संबंधों की औपचारिकता और प्रदर्शनवृत्ति की अभिव्यक्ति है। एक नदी का मनोवेग कहानी में मूल्यों की दुहरी स्थिति को मां की चरित्र सृष्टि के माध्यम से व्यंजित किया है।

डा. सुशील कुमार फुल्ल की दूसरी संपादित कहानी की पुस्तक ‘पगडंडियां’ शीर्षक से सन् 1978 में प्रकाशित हुई। प्रस्तुत संग्रह में हिमाचल प्रदेश के उन्नीस कहानीकारों की कहानियां इस क्रम में प्रस्तुत हैं : रज्जो काकी (संतोष शैलजा), वसीयत (खेमराज गुप्त सागर), वह लडक़ी (रामकृष्ण कौशल), भूख हड़ताल (गंगाराम राजी), बिना पलक की मछलियां (विजय सहगल), सरकारी पैसा (सुदर्शन वशिष्ठ), समर्पण (शांता कुमार), अधर में लटके हुए लोग (डा. सुशील कुमार फुल्ल), निशानी (डा. नरेश चंद्र महाजन), वह जरूर आएगी (सुधीर महाजन), आग (रमेश शर्मा अरुण), कीड़े (मोलू राम ठाकुर), पंछी बोलता रहा (डा. गौतम शर्मा व्यथित), कमली (डा. श्रीकांत प्रत्यूष), डोरी कटा पतंग (शिव उपाध्याय), लाल पर्दे (सोम शर्मा), मृगतृष्णा (अशोक सरीन), उसका सागर (सुरेंद्र शर्मा), किनारा (गिरधर योगेश्वर)। संपादक डा. सुशील कुमार फुल्ल ने कहानियों के बाद कहानीकारों का परिचय दिया है। कहानी संग्रह के प्रारंभ में डा. फुल्ल ने ‘कहानी एक विशिष्ट दृष्टिकोण’ शीर्षक के अंतर्गत विस्तृत भूमिका प्रस्तुत की है जिसमें हिमाचल की हिंदी कहानी का विकासात्मक परिचय दिया है, साथ में कहानीकारों के उद्देश्य कथन को भी इसमें समाविष्ट किया है। इस भूमिका में संपादक डा. फुल्ल ने पुन: ‘सहज कहानी’ को परिभाषित किया है- ‘ऐसी रचना जो कथ्य और शैली दोनों ही दृष्टियों से अपनी सहज स्वाभाविक भाव भंगिमा के कारण आकर्षित करे और जिसमें सहज स्थितियों, घटनाओं आदि का समावेश भी संरचनात्मक प्रक्रिया के अंग के रूप में ही हो। यह किसी वर्ग विशेष को रूपायित नहीं करती, अपितु सृष्टि की समग्रता का कोई भी तंतु इसका आधार हो सकता है। इस संदर्भ में यह समानांतर कहानी से अपने आपको अलगाती है। अ-कहानी, सचेतन कहानी, नई कहानी आदि की शिल्प जन्य अथवा विषय वस्तु जन्य उठापटक सहज कहानी में आरोपित नहीं होती। इस दृष्टि से सहज कहानी आधुनिकता एवं कलात्मकता का वर्णन करती हुई भी कहानी के अधिक निकट है।’

प्रस्तुत संग्रह के अंत में कहानीकारों का परिचय और अंत में दैनिक ट्रिब्यून के संपादक राधेश्याम शर्मा की संकलन के संबंध में समीक्षात्मक प्रतिक्रिया है। उनका कहना है कि सभी आंचलिक कहानियां हैं जिनमें हिमाचल प्रदेश के अंचल के जनजीवन तथा ग्रामीण जीवन की झांकी है। सभी कहानियां कथावस्तु की दृष्टि से उत्तम और जनजीवन का स्पर्श करती हैं। आंचलिक होते हुए भी सभी कहानियां रोचक और कौतूहलपूर्ण हैं।

डा. सुशील कुमार फुल्ल ने सन् 1979 में तीसरे संकलन का संपादन किया जिसमें हिमाचल प्रदेश के सोलह कहानीकारों की कहानियां इस क्रम में प्रस्तुत की गईं : ऋण (अशोक सरीन), भटका राही (गिरधर योगेश्वर), सात किले (डा. बंशीराम शर्मा), बेकार की कार (गंगाराम राजी), बुढिय़ा राम बोल (सोम शर्मा), सीमांत (निर्मल फुल्ल), सुलगती राख (देसराज डोगरा), वह रोयी (धर्मपाल कपूर), विरासत में (सुदर्शन वशिष्ठ), एक तथ्य अटका हुआ (पीयूष गुलेरी), टुकड़ा टुकड़ा जिंदगी (रविराणा), ममता (श्रीकांत प्रत्यूष गुलेरी), पंखहीन (अश्वनी कुमार अवस्थी), भोगा हुआ यथार्थ (रमेश शर्मा अरुण), उमड़ता सा कुछ अंतहीन (महींद्र सूद) और जिजीविषा (सुशील कुमार फुल्ल)। इन संकलनों के संपादन में डा. फुल्ल की साहित्य के प्रति सक्रियता, समर्पण और निष्ठा परिलक्षित होती है। डा. मस्तराम कपूर की सृजन यात्रा सन् 1951 में प्रकाशित पहली कहानी ‘बहन’ शीर्षक से होती है जो नवभारत टाइम्स में मुंबई के रविवारीय संस्करण के नवंबर या दिसंबर 1951 के अंक में प्रकाशित हुई थी। प्रारंभ में वे बाल साहित्य लेखन की ओर विशेष रूप में प्रवृत्त रहे, जिसके परिणाम स्वरूप सन् 1954 में ‘किशोर जीवन की कहानियां’ भाग एक और भाग दो संग्रह हिंदी ग्रंथ रत्नाकर मुंबई से प्रकाशित हुए। उनका पहला कहानी संग्रह ‘तुषानल और अन्य कहानियां’ सन् 1959 में प्रकाशित हुआ।

इस संग्रह में प्रकाशित तेरह कहानियां छठे दशक में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई थीं। प्रेमिका की तलाश, पागलपन की दवा (रानी 1953), आवश्यक काम (रंगमंच 1953), स्वप्न सुंदरी, वह अनाथ थी, अर्धांगिनी, जीवन नाटक, धरोहर (सजनी 1954), नौ साल का अनुभव (अरुण 1954), परीक्षा (सरिता 1954), तुषानल, परांठे वाले मेहमान, दान (नव कथा 1958) के विविध अंकों में प्रकाशित हुईं। इसके बाद छठे दशक के अंत में ‘तुषानल और अन्य कहानियां’ संग्रह के रूप में सामने आया। ‘एक अदद औरत’ शीर्षक से दूसरा संग्रह सन् 1969 में सामयिक प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित हुआ। इस संग्रह में ग्यारह कहानियां संग्रहीत हैं, यथा : रंच पीचो, आंधी के अवशेष, अनिश्चय, गर्म राख, एक अदद औरत, गांधी टोपी और फ्रंट सीट, मैं-एक भीड़, चौथी लडक़ी, बस स्टॉप, सुंदरम् शिवम् सत्यम्, मोहभंग। ‘एक अदद औरत’ एक ऐसे अभागे व्यक्ति की कहानी है जो सारी उम्र औरतों को आशीर्वाद बांटने के बाद भी स्वयं औरत के लिए तरसता है। अंत में ईश्वर के खिलाफ विद्रोह करके पागल हो जाता है। आंधी के अवशेष और अनिश्चय कहानियां देश विभाजन की त्रासदी को व्यंजित करने वाली कहानियां हैं। गर्म राख में ग्रामीण स्त्री के स्वाभिमान का चित्रण है जो पति के मरने पर स्वयं हल चला कर अपना खेत जोतती है, परंतु गांव के जमींदार की धौंस नहीं सहती।

इस संग्रह की कहानियों में धर्म, राजनीति और समाज की विसंगतियों का एहसास और उनके प्रति आक्रोश का भाव व्यंजित हुआ है। लेखक ने यह स्पष्ट किया है कि साठ के दशक में उनकी कहानियां घटना, कौतूहल और चमत्कारिक ओ’ हेनरी, मोपांसा आदि से प्रभावित थीं, किंतु साठोत्तरी दशक और बाद की कहानियों में सामाजिक, राजनीतिक विसंगतियों के खिलाफ विरोध का भाव प्रमुख रहा। उनकी नई कहानी, अकहानी, सचेतन कहानी आदि आंदोलनों से पृथक लेखन की एक अलग दृष्टि रही। डा. कपूर लेखक संगठनों और साहित्यिक वादों से अप्रभावित एक प्रकार का एकांत लेखन करते रहे, परंतु उनका लेखन सामाजिक सरोकारों से संबद्ध रहा। सामाजिक विषमता और आजादी को कुचलने वाली हर प्रकार की सत्ता का विरोध उनकी साहित्य की मूल प्रेरणा रही है। उनका स्वतंत्रता, समता और बंधुता के मूल्यों पर अगाध आस्था और विश्वास रहा है। उनका यह विश्वास है कि वे मूल्य साहित्य की प्रेरणा भी हैं, उद्देश्य भी और कसौटी भी। आदमी इन्हीं मूल्यों को पाने या उनकी रक्षा करने के लिए जीता है और लेखन इस जीने का एक अंदाज है।

साधु राम दर्शक की कहानी सृजन यात्रा सन् 1954 में ‘उर्दू मिलाप’ में प्रकाशित लंबी कहानी ‘सन्यासी’ से होती है। संपादक ने यह कहानी ‘खुदा से बेहतर है इंसान होना’ शीर्षक से प्रकाशित की थी। उसके बाद अनेक कहानियां ‘उर्दू मिलाप’ में प्रकाशित होती रहीं । हिंदी में उनकी पहली कहानी ृ‘समय के चरण’ शीर्षक से दिल्ली से ‘जगत’ नाम की एक मासिक पत्रिका में सन् 1958 में प्रकाशित हुई। ‘सरिता’ पत्रिका में उनकी अस्पृश्यता पर केंद्रित ‘ब्रह्म भोज’ 1960 में और एक अन्य कहानी ‘मनहूस’ 1962 में प्रकाशित हुई। इसी प्रकार ‘डाक तार’ पत्रिका द्वारा आयोजित कहानी प्रतियोगिता में उनकी ‘जीत हार’ कहानी को द्वितीय पुरस्कार मिला था। ‘जनयुग’ साप्ताहिक में अनेक कहानियां प्रकाशित होती रहीं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कहानियां प्रकाशित होने के अनंतर ‘धारा बहती रही’ शीर्षक से सन् 1977 में उनका प्रथम कहानी संग्रह प्रकाशित हुआ। इस संग्रह में धारा बहती रही, एक और सावित्री, जीत हार, पतिता, मनहूस, असली हकदार, यातना के पिंजड़े में, चंद्रकिरण, समय के चरण आदि पच्चीस कहानियां हैं। हिंदी के प्रख्यात कथाकार भीष्म साहनी ने इस कहानी संग्रह की भूमिका लिखी है। ‘धारा बहती रही’ कहानी में जीवन के नैराश्य से निकलकर जीवन की मूल्यवता को महत्व प्रदान कर जीवन जीने की प्रेरणा है। चंद्र किरण में भी चंद्र का चरित्र नारी समाज को दृढ़ता से परिस्थितियों के विरुद्ध संघर्ष करते हुए जीवन जीने की प्रेरणा है। उनकी कहानियों में असमानता, अन्याय और शोषण का प्रतिकार है।

-(शेष भाग अगले अंक में)

विमर्श के बिंदु : हिमाचल का कहानी संसार

1. हिमाचल की कहानी यात्रा
2. कहानीकारों का विश्लेषण
3. कहानी की जगह, जिरह और परिवेश
4. राष्ट्रीय स्तर पर हिमाचली कहानी की गूंज
5. हिमाचल के आलोचना पक्ष में कहानी
6. हिमाचल के कहानीकारों का बौद्धिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक व राजनीतिक पक्ष

लेखक का परिचय

नाम : डॉ. हेमराज कौशिक, जन्म : 9 दिसम्बर 1949 को जिला सोलन के अंतर्गत अर्की तहसील के बातल गांव में। पिता का नाम : श्री जयानंद कौशिक, माता का नाम : श्रीमती चिन्तामणि कौशिक, शिक्षा : एमए, एमएड, एम. फिल, पीएचडी (हिन्दी), व्यवसाय : हिमाचल प्रदेश शिक्षा विभाग में सैंतीस वर्षों तक हिन्दी प्राध्यापक का कार्य करते हुए प्रधानाचार्य के रूप में सेवानिवृत्त। कुल प्रकाशित पुस्तकें : 17, मुख्य पुस्तकें : अमृतलाल नागर के उपन्यास, मूल्य और हिंदी उपन्यास, कथा की दुनिया : एक प्रत्यवलोकन, साहित्य सेवी राजनेता शांता कुमार, साहित्य के आस्वाद, क्रांतिकारी साहित्यकार यशपाल और कथा समय की गतिशीलता। पुरस्कार एवं सम्मान : 1. वर्ष 1991 के लिए राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार से भारत के राष्ट्रपति द्वारा अलंकृत, 2. हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा राष्ट्रभाषा हिन्दी की सतत उत्कृष्ट एवं समर्पित सेवा के लिए सरस्वती सम्मान से 1998 में राष्ट्रभाषा सम्मेलन में अलंकृत, 3. आथर्ज गिल्ड ऑफ हिमाचल (पंजी.) द्वारा साहित्य सृजन में योगदान के लिए 2011 का लेखक सम्मान, भुट्टी वीवर्ज कोआप्रेटिव सोसाइटी लिमिटिड द्वारा वर्ष 2018 के वेदराम राष्ट्रीय पुरस्कार से अलंकृत, कला, भाषा, संस्कृति और समाज के लिए समर्पित संस्था नवल प्रयास द्वारा धर्म प्रकाश साहित्य रतन सम्मान 2018 से अलंकृत, मानव कल्याण समिति अर्की, जिला सोलन, हिमाचल प्रदेश द्वारा साहित्य के लिए अनन्य योगदान के लिए सम्मान, प्रगतिशील साहित्यिक पत्रिका इरावती के द्वितीय इरावती 2018 के सम्मान से अलंकृत, पल्लव काव्य मंच, रामपुर, उत्तर प्रदेश का वर्ष 2019 के लिए ‘डॉ. रामविलास शर्मा’ राष्ट्रीय सम्मान, दिव्य हिमाचल के प्रतिष्ठित सम्मान ‘हिमाचल एक्सीलेंस अवार्ड’ ‘सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार’ सम्मान 2019-2020 के लिए अलंकृत और हिमाचल प्रदेश सिरमौर कला संगम द्वारा डॉ. परमार पुरस्कार।

जन्म दिवस विशेषलोकसा

हित्य के पुरोधा डा. बंशीराम शर्मा

डा. सुशील कुमार फुल्ल

मो.-9418080088

ऐसे व्यक्ति जो मन के बिल्कुल निर्मल, व्यवहार में शालीन, साधु प्रवृत्ति के, अध्यवसायी होते हैं, वे स्मृति पटल पर छाए रहते हैं और सम्पर्क में आए व्यक्तियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनते हैं। ऐसे लोगों की प्रासंगिकता समाज को दिशा देने में बनी रहती है। डा. बंशीराम शर्मा जी का जो चित्र मेरे मन में आज उभरता है, वह कुछ ऐसा ही है। डा. मनोहर लाल के बाल छोटी ही उम्र में बर्फ जैसे सफेद हो गए थे और मेरे बाल बिल्कुल काले थे। हम दोनों को अपनी ओर आते देख कर डा. बंशीराम ने चुटकी ली – लो आ गए ब्लैक एण्ड व्हाइट। और आसपास खड़े लोग ठठाक पड़े। एक बार वह अकादमी के सचिव बन गए तो उन्होंने जी-जान से हिमाचली, हिन्दी भाषा तथा साहित्य के उन्नयन के लिए अनेकों परियोजनाओं को लागू किया। पहाड़ी हिन्दी कोष को तैयार करवाया, सोमसी को नियमित शोध पत्रिका का रूप दिया। पुस्तक खरीद, पुरस्कार वितरण आदि अनेक योजनाओं को चालू किया। हिमाचल के लोगों के जो पीएचडी के शोध प्रबन्ध छपे थे, उनके सार संक्षेप धारावाहिक रूप में सोमसी में प्रकाशित किए। साहित्यिक गतिविधियों को विस्तार दिया।

कुछ महत्त्वपूर्ण पुस्तकें भी उन्होंने प्रकाशित कीं। कितने गर्व एवं गौरव की बात है कि बिलासपुर की घुमारवीं तहसील के एक छोटे से गांव कुठेड़ा मरहाना में सन 1935 की 11 मई को एक साधारण किसान परिवार में जन्म लेकर सामाजिक एवं साहित्यिक क्षेत्र में शिखरों का स्पर्श कर एक यशस्वी प्रेरणा पुंज का स्वरूप धारण कर लिया। पिता तुलसीराम और माता यशोधा देवी संस्कारी जीव थे, अपने धर्म कर्म में तल्लीन। बंशीराम जी के बड़े भाई श्री सुखराम पुलिस विभाग और छोटे भाई श्री सीताराम शर्मा राजनीति में सक्रिय रहे। बंशी राम ने अपनी आठवीं तक की पढ़ाई जिला हमीरपुर के भरेड़ स्कूल से पास की। दसवीं की परीक्षा बिलासपुर से उत्तीर्ण की। उन दिनों पंजाब विश्वविद्यालय के नियम प्राईवेट शिक्षा अर्जित करने वालों के पक्ष में थे और अध्यवसायी लोग छोटी-मोटी नौकरी करते हुए ही बीए व एमए तक की डिग्रियां प्राप्त कर लेते थे। डा. बंशीराम जी ने भी जेबीटी सोलन से करने के बाद नौकरी शुरू की तथा पढ़ते भी गए। उन्होंने बीएड भी राजकीय महाविद्यालय सोलन से की। मन में एक कसक थी, कुछ कर गुजरने की। हिन्दी में स्नातकोत्तर उपाधि अर्जित करने के बाद उनकी रुचि लोकसाहित्य में हो गई। पांचवें-छठे दशक में आने-जाने के साधन इतने अच्छे नहीं थे। दुर्गम क्षेत्रों में आम तौर पर पैदल ही चलना पड़ता था। हिमाचल के लोकसाहित्य में संस्कृति और संस्कार के अक्षय भण्डार छिपे थे और आज भी हैं।

राहुल सांकृत्यायन और देवेन्द्र सत्यार्थी की ही भान्ति डा. बंशी राम ने किन्नौर को ही अपनी साधना स्थली के रूप में चुना। यहां चुनौतियां ज्यादा थीं। चाहते तो बिलासपुर के लोकसाहित्य पर भी शोध कर सकते थे, जैसे सिरमौर के खुशीराम गौतम जी ने सिरमौर के लोकसाहित्य और कांशाीराम आत्रेय ने मण्डयाली लोकसाहित्य पर पंजाब विश्वविद्यालय से शोध किया, लेकिन बंशीराम को तो ऐसा कुछ करना था जिसे मौलिक शोध के रूप में आधिकारिक शोध संदर्भ के रूप में स्वीकार किया जाए। और उन्हें गुरु जी मिले राजस्थान विश्वविद्यालय के डा. सत्येन्द्र शर्मा, जो उतने ही विख्यात थे जितने अंग्रेजी लोकसाहित्य के विद्वान जॉन ड्रिंकवाटर। किन्नौर की भाषा या बोली बिल्कुल अलग है। लेकिन पंडित जी ने सोच लिया तो सोच लिया। शिक्षा निदेशक हिमाचल प्रदेश से स्वयं निवेदन कर किन्नौर जिले में अपना स्थानान्तरण करवा लिया और कल्पा के आसपास चगांव में अपनी धुनी रमा ली। इस तपस्या को परिणति तक ले जाने में बंशीराम जी की धर्मपत्नी श्रीमती पुष्पलता जी का का भी बराबर का योगदान है। उन्होंने भी अपनी ट्रांसफर चगांव में ही करवा ली थी। अपनी तीन बेटियों मीनाक्षी, अंजलि तथा अल्का और बेटे पंकज ललित के लालन-पालन के साथ-साथ पति के शोध में भी बराबर की सहभागिनी रहीं। लोकसाहित्य तो लोगों में मौखिक परम्परा में संरक्षित रहता है और उसे पुस्तकों में नहीं ढाला जा सकता, आज तो फिर भी बहुत सी सामग्री उपलब्ध है। साठ-सत्तर के दशक में ऐसा नहीं था। धुन होती है जो कठिन से कठिन काम पूरा करवा देती है। किन्नौर भ्रमण कर सामग्री रिकार्ड की, नोट्स लिए और फिर विश्लेषण।

पीएचडी हो गई। फिर ललित प्रकाशन लहड़ी सरेल से शोध प्रबन्ध प्रकाशित हुआ ‘किन्नर लोक साहित्य’ शीर्षक से। मुद्रित हुआ मनीमाजरा से। यह एक दुर्लभ ग्रन्थ है। एक अद्भुत सन्दर्भ ग्रन्थ। जब इसकी प्रति विश्व प्रसिद्ध भाषा वैज्ञानिक सिद्धेश्वर वर्मा जी को मिली तो वह इतने प्रभावित हुए कि एक दिन में जितना पढ़ते उसके बारे में प्रतिदिन डा. बंशीराम शर्मा को पोस्ट कार्ड पर अपनी टिप्पणी भेजते। किन्नौर के बारे में आज भी किसी ने कुछ खास जानना हो तो उनका शोध प्रबंध ही सहायक होता है। अभी हाल ही में डा. शकुंतला राणा ने किन्नर लोकसाहित्य को आधार बना कर राजस्थानी एवं हिमाचल के लोकगीतों का तुलनात्मक अध्ययन पीएचडी के लिए किया है। एक जमीन से जुड़ा हुआ आदमी जेबीटी के रूप में अपना जीवन शुरू करता है और फिर छोटे-बड़े पदों पर आगे बढ़ता हुआ सन 1972 में हिमाचल कला संस्कृति भाषा अकादमी में अनुसंधान सहायक के रूप में कार्यरत होता है और फिर भाषा एवं संस्कृति विभाग में सहायक निदेशक के पद पर आसीन होता है और सन् 1986 में हिमाचल अकादमी के सचिव पद को सुशोभित करता है। सन् 1995 में वह अकादमी के सचिव पद से सेवानिवृत्त हुए।

पुस्तक समीक्षा : लघुकथाओं का सुंदर गुलदस्ता

मंडी निवासी लेखक हीरा सिंह कौशल लघुकथाओं का सुंदर गुलदस्ता लेकर आए हैं। उनका ‘ख्यालों के साये में’ नामक लघुकथा संग्रह प्रकाशित हुआ है। नोशन प्रेस से प्रकाशित इस पुस्तक की कीमत मात्र 100 रुपए है। इस पुस्तक के बारे में कृष्ण चंद लिखते हैं कि सचमुच ‘ख्यालों के साये में’ हीरा सिंह कौशल का लघुकथा संग्रह अपने आप में अनूठा है। इसमें हरेक लघुकथा समाज को नई दिशा दिखाती है। इन लघुकथाओं को पढ़ते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि ये घटनाएं कहीं आसपास की ही हैं, जो हमारी नजरों से हमेशा छूट जाती हैं।

भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, ईष्र्या, सुख-दुख, नेताओं की चालबाजी, समाज में व्याप्त मानसिक कुंठा का बखूबी चित्रण, लोगों के तंग दायरे को लेखकीय चासनी से पाठकों के समक्ष रखने का भरपूर प्रयास किया है। छुपा प्यार, झरोखा, खौफ, वेटेज, चोट, जलन, कसूर, चप्पेड़, आरक्षण, पानी, कोशिश, संबंध, प्यार, रुतबा, ख्यालों के साये में, प्रतिशोध, सिलसिला, भ्रम और बदलते आदर्श जैसी लघुकथाएं पाठकों का ध्यान अपनी ओर खींचती हैं। इसी तरह माहिर, हकीकत, असली रूप, तिलांजलि, पारितोषिक, बदली का बदला, पर्दा, टाइम पास, खोज में, दायित्व, हुनर, मायने, चाय-पानी, इनसानियत, अपना दायरा, बेहतर व तमाचा जैसी लघुकथाएं भी विषय विश्लेषण के कारण पाठकों को जरूर पसंद आएंगी।

-फीचर डेस्क


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