हिमाचली हिंदी कहानी : विकास यात्रा

By: May 13th, 2023 7:44 pm

कहानी के प्रभाव क्षेत्र में उभरा हिमाचली सृजन, अब अपनी प्रासंगिकता और पुरुषार्थ के साथ परिवेश का प्रतिनिधित्व भी कर रहा है। गद्य साहित्य के गंतव्य को छूते संदर्भों में हिमाचल के घटनाक्रम, जीवन शैली, सामाजिक विडंबनाओं, चीखते पहाड़ों का दर्द, विस्थापन की पीड़ा और आर्थिक अपराधों को समेटती कहानी की कथावस्तु, चरित्र चित्रण, भाषा शैली व उद्देश्यों की समीक्षा करती यह शृंखला। कहानी का यह संसार कल्पना-परिकल्पना और यथार्थ की मिट्टी को विविध सांचों में कितना ढाल पाया। कहानी की यात्रा के मार्मिक, भावनात्मक और कलात्मक पहलुओं पर एक विस्तृत दृष्टि डाल रहे हैं वरिष्ठ समीक्षक एवं मर्मज्ञ साहित्यकार डा. हेमराज कौशिक, आरंभिक विवेचन के साथ किस्त-5

हिमाचल का कहानी संसार

विमर्श के बिंदु
1. हिमाचल की कहानी यात्रा
2. कहानीकारों का विश्लेषण
3. कहानी की जगह, जिरह और परिवेश
4. राष्ट्रीय स्तर पर हिमाचली कहानी की गूंज
5. हिमाचल के आलोचना पक्ष में कहानी
6. हिमाचल के कहानीकारों का बौद्धिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक व राजनीतिक पक्ष

लेखक का परिचय

नाम : डॉ. हेमराज कौशिक, जन्म : 9 दिसम्बर 1949 को जिला सोलन के अंतर्गत अर्की तहसील के बातल गांव में। पिता का नाम : श्री जयानंद कौशिक, माता का नाम : श्रीमती चिन्तामणि कौशिक, शिक्षा : एमए, एमएड, एम. फिल, पीएचडी (हिन्दी), व्यवसाय : हिमाचल प्रदेश शिक्षा विभाग में सैंतीस वर्षों तक हिन्दी प्राध्यापक का कार्य करते हुए प्रधानाचार्य के रूप में सेवानिवृत्त। कुल प्रकाशित पुस्तकें : 17, मुख्य पुस्तकें : अमृतलाल नागर के उपन्यास, मूल्य और हिंदी उपन्यास, कथा की दुनिया : एक प्रत्यवलोकन, साहित्य सेवी राजनेता शांता कुमार, साहित्य के आस्वाद, क्रांतिकारी साहित्यकार यशपाल और कथा समय की गतिशीलता। पुरस्कार एवं सम्मान : 1. वर्ष 1991 के लिए राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार से भारत के राष्ट्रपति द्वारा अलंकृत, 2. हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा राष्ट्रभाषा हिन्दी की सतत उत्कृष्ट एवं समर्पित सेवा के लिए सरस्वती सम्मान से 1998 में राष्ट्रभाषा सम्मेलन में अलंकृत, 3. आथर्ज गिल्ड ऑफ हिमाचल (पंजी.) द्वारा साहित्य सृजन में योगदान के लिए 2011 का लेखक सम्मान, भुट्टी वीवर्ज कोआप्रेटिव सोसाइटी लिमिटिड द्वारा वर्ष 2018 के वेदराम राष्ट्रीय पुरस्कार से अलंकृत, कला, भाषा, संस्कृति और समाज के लिए समर्पित संस्था नवल प्रयास द्वारा धर्म प्रकाश साहित्य रतन सम्मान 2018 से अलंकृत, मानव कल्याण समिति अर्की, जिला सोलन, हिमाचल प्रदेश द्वारा साहित्य के लिए अनन्य योगदान के लिए सम्मान, प्रगतिशील साहित्यिक पत्रिका इरावती के द्वितीय इरावती 2018 के सम्मान से अलंकृत, पल्लव काव्य मंच, रामपुर, उत्तर प्रदेश का वर्ष 2019 के लिए ‘डॉ. रामविलास शर्मा’ राष्ट्रीय सम्मान, दिव्य हिमाचल के प्रतिष्ठित सम्मान ‘हिमाचल एक्सीलेंस अवार्ड’ ‘सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार’ सम्मान 2019-2020 के लिए अलंकृत और हिमाचल प्रदेश सिरमौर कला संगम द्वारा डॉ. परमार पुरस्कार।

डा. हेमराज कौशिक
अतिथि संपादक
मो.-9418010646

-(पिछले अंक का शेष भाग)
परमानंद शर्मा अंग्रेजी और हिंदी में सृजन करते रहे हैं। ‘बात की बात’ शीर्षक से उनका एक कहानी संग्रह प्रकाशित है। तारापल का ‘उपहार कांटों का’ आठवें दशक के उत्तरार्ध में प्रकाशित संग्रह है। सुदर्शन वशिष्ठ का प्रथम कहानी संग्रह ‘अंतराल में घटता समय’ सन् 1979 में प्रकाशित हुआ। उनकी कहानी सृजन यात्रा उस समय प्रारंभ हो गई थी जब वह स्नातक की शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। उस समय उनकी पहली कहानी ‘बिकने से पहले’ कॉलेज पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। छात्र जीवन के बाद उनकी पहली कहानी ‘रोज की तरह’ थी जो राजस्थान से निकलने वाली पत्रिका ‘कोषा’ में प्रकाशित हुई थी। सन् 1969 में उनके कहानी सृजन को गति मिली। उनकी कहानियां युवक, सप्तसिंधु, आजकल, शीराजा, कादम्बिनी आदि पत्रिकाओं में छपने लगीं। उनके पहले कहानी संग्रह ‘अंतरालों में घटता समय’ में पंद्रह कहानियां संग्रहीत हैं। ‘सरकारी पैसा’ नाथ की मृत्यु पर उसके नाम से आये मनीआर्डर के भुगतान को लेकर लिखी कहानी है। इस अवसर पर पोस्टमैन की भूमिका निभाने वाला दुकानदार किस तरह अपनी सक्रियता दिखाता है, उसका उदघाट्न व्यंग के धरातल पर लेखक ने प्रस्तुत किया है।

‘अंतिम संस्कार’ में आज के रिश्तों की रिक्तता को प्रकट किया है। आज सारे सम्बन्ध अर्थ की नींव पर टिके हैं। आज के रिश्तों के खोखलेपन और विघटन को ‘आखिरी मोड़’ कहानी में भी चित्रित किया है। रिश्ते निजी स्वार्थों की सिद्धि तक ही सीमित रह गए हैं। ‘टपाकड़ा’ कहानी में स्त्री-पुरुष के काम संबंधों का चित्रण मनोवैज्ञानिक धरातल पर किया है। ‘उजाला’ में कहानीकार ने प्रेम और अंतर्जातीय विवाह की समस्या को उठाया है। ‘अंतरालों में घटता समय’ में लेखक ने विभिन्न चरित्रों के माध्यम से आजादी से पहले और आजादी के बाद के बदलते मूल्यों को रेखांकित किया है। सुदर्शन वशिष्ठ इन कहानियों में एक दर्शक की हैसियत से नहीं, एक भोगता की हैसियत से गुजरते हैं। ये कहानियां यथार्थ की भूमि पर अवस्थित हैं। इस संग्रह की अधिकांश कहानियां ग्रामीण क्षेत्रों से संबद्ध हैं। उनकी कहानियों में ग्रामीण जीवन की वास्तविकता को समझने का जागरूक प्रयत्न है।

आठवें दशक के अंत में प्रत्यूष गुलेरी द्वारा संपादित कहानी संग्रह ‘स्मृति’ शीर्षक से सन् 1980 में प्रकाशित हुआ। इस संकलन की कहानियों का क्रम इस प्रकार है : सुंदरिया की मां (मस्तराम कपूर), वह और मैं (गिरिधर योगेश्वर), दिल की गांठ (अमर सिंह रणपतिया), दढिय़ल (डॉ. मनोहर लाल), बिहारी डैमिया (पूर्णचंद पद्म), विस्मृता (लेख राम शर्मा), ज्योति (नवीन हलदूणवी), नियुक्ति पत्र (हरिश्चंद्र पुष्कर), सुहाग का सिंदूर (रमेश शर्मा अरुण), डायरी के पन्ने (अशोक पुंज), आदमी भी जानवर है (अमरनाथ खन्ना), अंतिम संस्कार (सुदर्शन वशिष्ठ), ये भेडि़ए (पीयूष गुलेरी), समस्या का अंत (देसराज डोगरा), फासला (सुशील कुमार फुल्ल), आसमान से धरती पर (श्रीकांत प्रत्यूष गुलेरी)। ग्रामीण बोध को मुखरित करने वाली इन कहानियों में ग्रामीण परिवेश और माटी की गंध को अनुभूत किया जा सकता है। कहानीकार मस्तराम कपूर की ‘सुंदरिया की मां’ में ग्रामीण लोगों में व्याप्त अंधविश्वासों, भूत-प्रेतों का भय, ओझाओं और उनके जाल में फंसने की स्थितियों का निरूपण है। ‘वह और मैं’ में गिरधर योगेश्वर ने नर-नारी संबंधों के संदर्भ में प्रेम और वासना, धनलोलुपता आदि का चित्रण किया है। ‘दढिय़ल’ कहानी में डॉ. मनोहर लाल ने विचारधारा की रूढि़वादिता सामने लाई है। एक युवक का दाढ़ी बढ़ाना उसकी यातना का कारण बन जाता है। वह संधिग्ध दृष्टि का शिकार होकर पीडि़त होता है। हरिचंद पुष्कर की ‘नियुक्ति पत्र’ में एक ऐसे संघर्षशील बेरोजगार युवक की दुखद गाथा है जिसकी नौकरी की प्रतीक्षा में अभाव जीवन यापन करती हुई उसकी मां मृत्यु को प्राप्त हो जाती है और स्वयं वह भी रोग ग्रस्त होकर मृत्यु को प्राप्त करता है।

सुदर्शन वशिष्ठ ने ‘अंतिम संस्कार’ में एक पुत्र की पिता के प्रति विद्रोही भावना को व्यक्त किया है। अमर सिंह रणपतिया की ‘दिल की गांठ’ प्रेरणादायी कहानी है। उसमें पत्नी मद्य व्यसनी पति को अपनी विवेकशीलता और त्याग से सद्मार्ग की ओर उन्मुख करती है। ‘ये भेडि़ए’ में डॉ. पीयूष गुलेरी ने रक्त संबंधों में आयी कृतघ्नता को पिता-पुत्र के संबंधों के माध्यम से रेखांकित किया है। देसराज डोगरा की ‘समस्या का अंत’ नगरों में आवास की समस्या पर केंद्रित कहानी है। डॉ. सुशील कुमार फुल्ल की ‘फासला’ कहानी संबंधों के विघटन पर केंद्रित है। ‘आसमान से धरती पर’ में कहानीकार संपादक डॉ. प्रत्यूष गुलेरी ने दफ्तरों में कार्यरत युवतियों की उच्छृंखलता और मूल्यहीनता को चित्रित किया है। साथ में कहानीकार ने यह चित्रित किया है कि आज के समय में व्यक्ति की संवेदनहीनता यहां तक पहुंच गई है कि किसी की मृत्यु पर भी अपनी भौतिक आकांक्षाओं से व्यक्ति मुक्त नहीं हो पाता। बिहारी डैमिया, विस्मृता, ज्योति, सुहाग का सिंदूर, डायरी के पन्ने आदि सामान्य, सरल कहानियां हैं। प्रस्तुत संग्रह की ज्यादातर कहानियां हिमाचल प्रदेश के जीवन को रेखांकित करती हैं और रसानुभूति उत्पन्न करती हैं।

डॉ. सुशील कुमार फुल्ल अ_ारह वर्ष की उम्र में ही कहानी सृजन की ओर उन्मुख हो गए थे। उनकी प्रथम कहानी ‘परित्यक्ता’ शीर्षक से सन् 1959 में प्रमुख हिंदी दैनिक में प्रकाशित हुई थी। इसके पश्चात कई कहानियां एक के बाद एक अनेक पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं। सारिका के नवंबर 1968 के अंक में उनकी कहानी ‘बढ़ता हुआ पानी’ शीर्षक से प्रकाशित होकर चर्चित हुई थी। इसी भांति सन् 1978 में अखिल भारतीय कहानी प्रतियोगिता में उनकी ‘मेमना’ कहानी को प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ था। मेमना उनकी चर्चित कहानियों में से है। उनकी बहुत सी कहानियों में गद्दी जीवन का यथार्थ मुखरित हुआ है। ‘सहज कहानी’ के प्रणेता के रूप में तीन कहानी संग्रहों के संपादन के अनंतर सन् 1980 में उनका ‘खंड खंड मानसिकता’ शीर्षक से प्रथम कहानी संग्रह प्रकाशित हुआ। उनके इस कहानी संग्रह में उनकी तेरह कहानियां- भटकाव, अनुपस्थिति, मंगलवार, ताश के पत्ते, गुंडे, प्रेम का अंतर्राष्ट्रीय संस्करण, मां, अपने लिए, आग, अपनी अपनी बात, टुकड़े-टुकड़े, अपने अपने दुख व फासला संग्रहीत हैं। इस संग्रह की पहली कहानी ‘भटकाव’ में मध्यवर्गीय परिवार से संबंध रखने वाली सताईस वर्षीय युवती के मानसिक उद्वेलन का चित्रण है। ‘अनुपस्थिति’ बहु आयामी कहानी है। एक ओर वैधव्य जीवन की पीड़ा भोगती हुई मां है तो दूसरी ओर सुहागिन होकर पति परित्यक्ता होकर विधवा की तरह जीवन जीने वाली बेटी का चित्रण है। इनके साथ तीसरा कथासूत्र प्रीतम और शैलजा के प्रणय संबंध को लेकर कहानी के अंत तक मूक भाव से चलता रहता है। ‘मंगलवार’ में पति-पत्नी के दैनिक जीवन के तनाव को अंकित किया है। ‘ताश के पत्ते’ में एक दुहाजू की पत्नी के जीवन की त्रासदी को व्यक्त किया गया है। ‘गुण्डे’ में पूंजीपतियों के शोषण को रेखांकित किया गया है। ‘प्रेम का अंतर्राष्ट्रीय संस्करण’ में भारतीय आध्यात्मिक मूल्यों और पाश्चात्य जीवन के भौतिक मूल्यों की अभिव्यक्ति है। ‘मां’ में सास-बहू के रिश्ते का परंपरागत रूप और उसकी टकराहट को दिखाया गया है। ‘अपने लिए’ में मध्यवर्गीय परिवार में जन्म लेने वाली बेटी का चित्रण है जो अपने जीवन को छोटे भाई-बहनों के लालन-पालन में लगाने के लिए विवश होती है। ‘अपनी-अपनी बात’ में दांव-पेच की राजनीति, राजनीतिज्ञों के षड्यंत्र और वोट की संस्कृति का चित्रण है। ‘फासला’ में कहानीकार ने नगर बोध के परिणाम स्वरूप रिश्तों में बढ़ते फासले और उनकी औपचारिकता को रेखांकित किया है।

हिमाचल की हिंदी कहानी का नवां दशक पर्याप्त समृद्ध है और हिंदी कहानी के सृजन की संभावनाओं का सूचक है। इस दशक के प्रारंभ में डॉ. मस्तराम कपूर का ‘ग्यारह पत्ते’ शीर्षक कहानी संग्रह निधि प्रकाशन दिल्ली से सन् 1981 में प्रकाशित है जिसमें उनकी ग्यारह कहानियां संग्रहीत हैं। इस कहानी संग्रह की कहानियों का परिवेश प्रमुख रूप में महानगर का है और पात्र पढ़े-लिखे मध्यवर्ग से संबंध रखते हैं। प्रस्तुत संग्रह की शीर्षक कहानी ‘ग्यारह पत्ते’ मध्यवर्गीय परिवार से संबद्ध उस कर्मचारी की जीवनचर्या से संबंध रखती है जो ईमानदारी के मूल्य का निर्वाह करता है। पहली तारीख को प्राप्त वेतन को उसी दिन पारिवारिक दायित्व में खर्च कर देता है। कहानी में एक ईमानदार मध्यवर्गीय व्यक्ति की जीवनचर्या के माध्यम से आर्थिक कठिनाइयों से जूझते परिवार की दारुण दशा का निरूपण किया है। बच्चे अपनी आवश्यकताओं को उत्तरोत्तर स्थगित करने के लिए विवश होते हैं। ‘मां फलेषु कदाचन’ कहानी में भी एक ओर झुग्गी झोपड़ी से महलों तक की यात्रा करने वाले लोग हैं तो दूसरी ओर ईमानदार व्यक्ति की निरंतर बिगड़ती आर्थिक स्थिति और विफलता का निरूपण है। ‘खुमारी’ कहानी में भी यह प्रतिपादित किया है कि भीषण आर्थिक विषमता में जूझता हुआ व्यक्ति आदर्श जीवन मूल्यों के संबंध में चिंतन केवल नशे अथवा खुमारी में ही कर पाता है। ‘टोपियों की गड़बड़ी’ में शिक्षा, व्यवसाय, न्याय, प्रशासन आदि की विकृतियों को व्यंग्य के धरातल पर प्रस्तुत किया है। उद्घाटन, अजीब लोग, दीक्षा, अवरोध, लिखित, लंच आदि इस संग्रह की अन्य कहानियां हैं जिनमें सामाजिक सरोकारों की व्यंजना है। इस कहानी संग्रह की भूमिका में डॉ. मस्तराम कपूर यह स्वीकार करते हैं कि कहानी सृजन यात्रा के विकास के साथ साहित्य संबंधी विचारों में उत्तरोत्तर स्पष्टता आई। मेरे लिए लेखन जिंदगी का संघर्ष है, रोजी रोटी का संघर्ष नहीं। वैचारिक संघर्ष जो परिस्थितियों के टकराव से पैदा होता है। मेरा सौंदर्य बोध यदि इसे सौंदर्य बोध कहा जा सकता हो इसी संघर्ष की उपज है। डॉ. कपूर की ऐसी रचना करने में रुचि नहीं है जो इस देश के करोड़ों भूखे लोगों से दृष्टि हटाकर अलौकिक सुख या स्वर्गीय आनंद की सृष्टि करके सर्वकालिक और सार्वभौमिक होने का दावा करें।

उनका दूसरा कहानी संग्रह ‘ब्रीफकेस’ शीर्षक से सन् 1987 में प्रकाशित हुआ जिसमें उनकी सात कहानियां- ब्रीफकेस, हमदर्द, वैतरणी के पार, ठकुरानी का स्पर्श, चुगद, आदमी और कुत्ते तथा मन की आवाज संग्रहीत हैं। इस कहानी संग्रह के लेखकीय वक्तव्य में डॉ. मस्तराम कपूर की लेखकीय चिंता है, ‘आजादी के चालीसवें वर्ष में देश की आम जनता राजनेताओं द्वारा लूटे और ठगे जाने के एहसास से निराश और क्षुब्ध दिखाई देती है, कहानी लिखना भी पलायन की एक क्रिया लगने लगती है। लेकिन अगर व्यवस्था के तात्कालिक संकट को मानव जीवन के व्यापक संकट के एक पहलू के रूप में देखा जाए तो कहानी लेखन इस संकट से जूझने की एक सार्थक गतिविधि बन जाती है।’ प्रस्तुत संग्रह की ‘ठकुरानी का स्पर्श’ में लेखक ने यह प्रतिपादित किया है कि कैसे जन्मजात श्रेष्ठता या हीनता के पूर्वग्रह आधारहीन हैं, किंतु हम इनसे मुक्त नहीं हो पाते। ‘हमदर्द’ कहानी भी मन को बराबर परेशान करते रहने वाले इस विचार के विश्लेषण की कहानी है कि दुर्घटना या त्रासदी से मनुष्य एक प्रकार का सुख कैसे ग्रहण करता है। ‘मन की आवाज’ में बाल कहानी विधा का अभिव्यक्ति के लिए प्रयोग है। ‘आदमी और कुत्ते’ में पशुओं के व्यवहार और आज के सभ्य आदमी के व्यवहार की तुलना करके इसे सार्वजनिक रचना बनाया है। जुगत, वैतरणी के पार और ब्रीफकेस आदि कहानियां वर्तमान जीवन की विडंबनाओं को पकडऩे की कोशिश में लिखी गई हैं।                                                                                                                                                                                 -(शेष भाग अगले अंक में)

‘अंधेरों में से…’ निकल कर रोशन मुलाकात करतीं कविताएं

काव्य संग्रह : अंधेरे में से…
कवि : दिलीप कुमार पांडेय
प्रकाशक : आस्था प्रकाशन
कीमत : 295 रुपए

कविता की बगावत हमेशा से अंधेरों से रही है और इन्हीं में से एक ‘अंधेरे में से…’ निकल कर दिलीप कुमार पांडेय ने अपने आसपास के तमाम धुंधलकों से झांकते हुए काव्य संग्रह पेश किया है। वह हर मौन से मुखातिब हैं, अंधेरों से वाकिफ हैं और विडंबनाओं से आजि•ा होकर चीख उठते हैं, ‘मुझे जलाया जा रहा है/मैं आग की लपेट में हूं/मैं जल रहा हूं।’ परिवेश के भीतर चिंताओं के जंगल में कोई निपट अकेला नहीं भटक रहा, बल्कि वहां इनसान की फितरत, व्यवस्था की कामचोरी और सियासत की सीनाजोरी में, ‘खो तो रहा है बीहड़ जंगल/जहां अब, शेर या बाघ नहीं रहा करते/नदारद पशु-पक्षी भी, अब बाहर से/खरीददार आ रहे हैं/या भाड़े पर…’।

दिलीप पांडेय की कविताएं अपनी भूमिका तराशती हैं, समाज के घाव सहलाती हैं, तमाम आशाओं-निराशाओं के भंवर में गहरे तक छान के जो लाती हैं, उसी को सादगी से परोस देती हैं। कहीं अतीत के खंडहर में रह गए वक्त के घाव उठा कर चलना और कहीं खुद से रूबरू होकर भविष्य का इंतखाब करते-करते कुछ कविताएं मीलों आगे निकल कर गहराई से संबोधित होती हैं और कहीं छपाक से ठहरी हुई छील से मुलाकात करती हैं। कविताएं खुद में खुद को समाए हाथ-पांव मार रही हैं। कहीं घने बादलों के पीछे गर्जना, तो कहीं गली के किसी नुक्कड़ के शोर से खुद को चुनती और बुनती हुई, शृंखलाबद्ध हो जाती हैं। कुल 81 कविताओं के फलक पर दबोच, वजूद की हत्या, मठभूमि, अंधेरे में से, शैतान घायल होगा, अतिक्रमण, आज की दीवार, धीमी रोशनी, शहर मौन है, वक्त की चक्की, गांव की पगडंडी, शिकायत, कोहराम और खिसकते बंधन जैसी कविताएं अपने गंतव्य और मंतव्य की अभिव्यक्ति में पाठक को अपना प्रवाह सुनाती हैं।

कवि ढोंगी समाज की कंदराओं में फंसे झूठ-फरेब और बनावटी शृंगार को अनावृत करने निकला है, ‘बर्दाश्त नहीं कर सकते हो/षड्यंत्र के खिलाफ उठी हुई/आवाज को/लेकिन इतना जरूर है/उस आवाज को तुम/हमेशा के लिए नहीं दबा सकते।’ अपने इर्द-गिर्द के खंडहरों में झांकने के बजाय इनसान मरुस्थलों में अपने हिस्से की जमीन पर रेखाचित्र बना रहा है। रेत के महलों पर कारीगरी कर रहा है। निपट अकेला और स्वार्थ की चाकरी करता यह युग किसी मरुस्थल से कम तो नहीं है, ‘ऐसे घनचक्करी माहौल में/अंधेरी रात भी/सो नहीं रही है…।’ संग्रह की अधिकांश कविताएं जिंदगी के चौराहों पर दिशा ढूंढती, ढांढस बंधाती हुईं, तमाम भंवरों से बाहर निकलने की ‘हांक’ हो जाती हैं, ‘ग्रंथियों को काटना-छांटना होगा/तपिश में जलना होगा/सवालों के घेरे में बंद पड़े मन को/जगाना होगा।’ दिलीप कुमार पांडेय जीवन को काल में और समय को रफ्तार में देखते-देखते विरक्त होती स्मृतियों को ओढ़ लेते हैं, ताकि जिंदा रहने के लिए कुछ तो जिक्र हो। वह कविताओं के आसपास हर मंजर में इत्ति$फाक को चिन्हित करते और व्यवस्था पर भिन्न भिन्ना रहीं काली करतूतों का उल्लेख भी कुछ यूं करते हैं, ‘समय की धार में/बिना मतलब/बिना मकसद/जिस पथ में आवाज नहीं/उसी पथ पर/मुहं फुलाए वह/बेकार बैठा है।’ कविताएं मेहनत से तराशी हुईं जैसे दुनिया के संघर्ष में अपनी मौजूदगी दर्ज करती हैं। कवि हर वर्ग, युवा पीढ़ी और बुनियादी सवालों के भंवर को छानकर कुछ पीड़ाएं, कुछ कड़वे घूंट और कुछ मरी हुई ख्वाहिशों को जीने के बाहुपाश को सौंप देता है। कभी आंदोलनों के बीच, तो कभी मन के घने संताप के बीच, जीवन के अनुभव-अनुक्रम बांटते, फासलों को पाटते, वजूद की चुनौतियों के साथ दिलीप पांडेय अपनी कविता की सहजता को ताकतवर बना रहे हैं, ‘हर दीवार/चटक रही है/उसकी छाती में/छेद पड़ रहे हैं/जबरन खींचतान करते…।’ विकास के मोहरों ने समाज को न जाने कितनी बेडिय़ां पहना दी हैं। इन्हीं में से झांकते जिंदगी के फफलों का स्पर्श करती कविताएं, आधुनिक जीवन शैली की जरूरतों की खरोंचों से जख्मी हालात में जैसे आह सी निकलती, ‘उनकी अंदर से निकलती/सुलगती आह को/दर्द में पड़े सुराख को/कभी किसी ने करीब से/इतने सालों में/उन्हें गौर से देखा है क्या…।’

अंधेरों में से, बचपन सिर्फ जिंदगी से ही पीछे नहीं रह जाता, बल्कि जब विकास यौवन पर होता है, तो कहीं बहुत पीछे कुछ ऐसे निशान रह जाते, जो अतीत के कभी सुनहरे कदम रहे होते हैं, फिर भी, ‘मगर एक दिन समारोहों की/बाहरी बत्तियां बुझ जाती हैं/मुंह चिढ़ाती दिखती हैं/अंतिम समय में/जगह वही रहती है/तुम्हारे शरीर को/बेरहमी से जलाया जाता है…।’                                                     -निर्मल असो

पुस्तक समीक्षा : पर्यटक स्थलों को उकेरता ‘प्रणाम पर्यटन’ का अंक
लखनऊ से प्रकाशित तथा पर्यटन एवं संस्कृति को समर्पित पत्रिका ‘प्रणाम पर्यटन’ का जनवरी-जून 2023 संयुक्तांक आ चुका है। इसमें विभिन्न पर्यटक स्थलों के सौंदर्य को उकेरा गया है। पत्रिका को पढऩे के बाद लोग घूमने का आनंद उठा सकते हैं। संपादक प्रदीप श्रीवास्तव का संपादकीय ‘पिन कोड और सुशीला चौरसिया’ पाठकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करता है। सुषमा मुनींद्र अंडेमान के सौंदर्य से रूबरू करवा रही हैं। ‘एक रात में पत्थरों पर उकेर दिए 99,99,999 चित्र’ गोवर्धन यादव का आलेख है। हरिशंकर राढ़ी भाखड़ा नंगल, आनंदपुर साहिब तथा नैनादेवी की सैर करवा रहे हैं। बी. कृष्णा नारायण ने यूरोप के भौगोलिक महत्त्व पर आलेख लिखा है। मध्य प्रदेश के पर्यटक स्थल कोठी चंदेरी पर मजीद खां पठान ने आलेख लिखा है। ओमप्रकाश क्षत्रिय बताते हैं कि मंदसौर में भी है एलोरा का कैलाश मंदिर। रेगिस्तान को कैसे स्वर्ग बनाया जा सकता है, यह बता रहे हैं गिरीश पंकज। धरमचंद आहूजा ने कुरुक्षेत्र के पौराणिक महत्त्व को उकेरते हुए कलम चलाई है। दार्जिंिलग की यात्रा क्यों अद्भुत है, यह बता रही हैं संध्या प्रह्लाद। पुरातात्विक स्थल हुलास खेड़ा पर उत्तम सिंह का आलेख भी पाठकों का ध्यान अपनी ओर खींचता है। सुनीता भट्ट पैन्यूली, मीनू मीना सिंह, उषा किरण के आलेख भी पठनीय हैं। 75 रुपए मूल्य वाले इस अंक में कविताएं व लघुकथाएं भी संकलित की गई हैं।                                                          -फीचर डेस्क


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