हिमाचली हिंदी कहानी : विकास यात्रा

By: May 20th, 2023 7:43 pm

डा. हेमराज कौशिक
अतिथि संपादक
मो.-9418010646

कहानी के प्रभाव क्षेत्र में उभरा हिमाचली सृजन, अब अपनी प्रासंगिकता और पुरुषार्थ के साथ परिवेश का प्रतिनिधित्व भी कर रहा है। गद्य साहित्य के गंतव्य को छूते संदर्भों में हिमाचल के घटनाक्रम, जीवन शैली, सामाजिक विडंबनाओं, चीखते पहाड़ों का दर्द, विस्थापन की पीड़ा और आर्थिक अपराधों को समेटती कहानी की कथावस्तु, चरित्र चित्रण, भाषा शैली व उद्देश्यों की समीक्षा करती यह शृंखला। कहानी का यह संसार कल्पना-परिकल्पना और यथार्थ की मिट्टी को विविध सांचों में कितना ढाल पाया। कहानी की यात्रा के मार्मिक, भावनात्मक और कलात्मक पहलुओं पर एक विस्तृत दृष्टि डाल रहे हैं वरिष्ठ समीक्षक एवं मर्मज्ञ साहित्यकार डा. हेमराज कौशिक, आरंभिक विवेचन के साथ किस्त-6

विमर्श के बिंदु
1. हिमाचल की कहानी यात्रा
2. कहानीकारों का विश्लेषण
3. कहानी की जगह, जिरह और परिवेश
4. राष्ट्रीय स्तर पर हिमाचली कहानी की गूंज
5. हिमाचल के आलोचना पक्ष में कहानी
6. हिमाचल के कहानीकारों का बौद्धिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक व राजनीतिक पक्ष

लेखक का परिचय

नाम : डॉ. हेमराज कौशिक, जन्म : 9 दिसम्बर 1949 को जिला सोलन के अंतर्गत अर्की तहसील के बातल गांव में। पिता का नाम : श्री जयानंद कौशिक, माता का नाम : श्रीमती चिन्तामणि कौशिक, शिक्षा : एमए, एमएड, एम. फिल, पीएचडी (हिन्दी), व्यवसाय : हिमाचल प्रदेश शिक्षा विभाग में सैंतीस वर्षों तक हिन्दी प्राध्यापक का कार्य करते हुए प्रधानाचार्य के रूप में सेवानिवृत्त। कुल प्रकाशित पुस्तकें : 17, मुख्य पुस्तकें : अमृतलाल नागर के उपन्यास, मूल्य और हिंदी उपन्यास, कथा की दुनिया : एक प्रत्यवलोकन, साहित्य सेवी राजनेता शांता कुमार, साहित्य के आस्वाद, क्रांतिकारी साहित्यकार यशपाल और कथा समय की गतिशीलता। पुरस्कार एवं सम्मान : 1. वर्ष 1991 के लिए राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार से भारत के राष्ट्रपति द्वारा अलंकृत, 2. हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा राष्ट्रभाषा हिन्दी की सतत उत्कृष्ट एवं समर्पित सेवा के लिए सरस्वती सम्मान से 1998 में राष्ट्रभाषा सम्मेलन में अलंकृत, 3. आथर्ज गिल्ड ऑफ हिमाचल (पंजी.) द्वारा साहित्य सृजन में योगदान के लिए 2011 का लेखक सम्मान, भुट्टी वीवर्ज कोआप्रेटिव सोसाइटी लिमिटिड द्वारा वर्ष 2018 के वेदराम राष्ट्रीय पुरस्कार से अलंकृत, कला, भाषा, संस्कृति और समाज के लिए समर्पित संस्था नवल प्रयास द्वारा धर्म प्रकाश साहित्य रतन सम्मान 2018 से अलंकृत, मानव कल्याण समिति अर्की, जिला सोलन, हिमाचल प्रदेश द्वारा साहित्य के लिए अनन्य योगदान के लिए सम्मान, प्रगतिशील साहित्यिक पत्रिका इरावती के द्वितीय इरावती 2018 के सम्मान से अलंकृत, पल्लव काव्य मंच, रामपुर, उत्तर प्रदेश का वर्ष 2019 के लिए ‘डॉ. रामविलास शर्मा’ राष्ट्रीय सम्मान, दिव्य हिमाचल के प्रतिष्ठित सम्मान ‘हिमाचल एक्सीलेंस अवार्ड’ ‘सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार’ सम्मान 2019-2020 के लिए अलंकृत और हिमाचल प्रदेश सिरमौर कला संगम द्वारा डॉ. परमार पुरस्कार।

-(पिछले अंक का शेष भाग)
‘रिश्तेदार’ ओंकार राही का सन् 1981 में प्रकाशित प्रथम कहानी संग्रह है जिसमें उनकी अ_ारह कहानियां संग्रहीत हैं। उनकी कहानियां जिन चित्रों को पाठकीय मन पर छोड़ती हैं वे आदमी के अकेलेपन, आहत और कुंठित होने और उसकी अस्मिता की खंडित होने से संबंध रखती हैं। उनकी कहानियों में अज्ञात दहशत, आंतरिक अव्यक्त उदासियां और मन के संबंधों के टुकड़े टुकड़े होने की विवशताएं गहराई से चित्रित हुई हैं। कहानीकार ने रिश्तों के सरोकारों को कहानियों के माध्यम से उस जीवन सत्य को पकडऩे की कोशिश की है जो स्वीकृत नैतिक मूल्यों, सामाजिक औपचारिकताओं के प्रभाव में दबकर छूट जाते हैं। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को लेकर लिखी कहानियों में भी लेखक ने जीवन के वास्तविक सत्य को पहचानने की कोशिश की है। ‘रिश्तेदार’ संग्रह की पहली शीर्षक कहानी है। यह कहानी रोमांटिक रेशों से बुनी ‘प्लेटोनिक’ प्रेम की कहानी है। ‘प्रतिमान’ में ऐसे युवक का चित्रण है जिसे गंड मूल नक्षत्र में पैदा होने पर अंधविश्वासों से चिपके रहने के कारण माता-पिता उसे पैदा होते ही छोड़ देते हैं। ‘प्रतिशोध’ ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर लिखी कहानी है। इसमें सामंतीय मनोवृत्ति को उद्घाटित किया गया है। ‘अधूरे महल’ भी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में लिखी कहानी है, जो कांगड़ा के पुराने किले पर जहांगीर के आक्रमण को लेकर है। ‘वृतवाला’ में एक चित्रकार की मानसिकता, मन के अंतद्र्वंद्व और कला के प्रति प्रेम को व्यक्त किया गया है। ओंकार राही की कहानियां आर्थिक संदर्भों का कम स्पर्श करती हैं, जबकि ‘प्रेम’ और ‘काम’ के घेरों में बंद रहती हैं।

दिनेश धर्मपाल के नवें दशक में तीन कहानी संग्रह क्षितिज (1981), सौरभ (1983) और आलोक (1984) प्रकाशित हुए। ‘क्षितिज’ में दिनेश धर्मपाल की आठ कहानियां संग्रहीत हैं। कहानियों का क्रम इस प्रकार है : अभिनय, अकेली, अनाम, आखिरी इच्छा, वह रोई, पथिक, निलंबित और संकल्प। इन कहानियों में समसामयिक सामाजिक संदर्भों में टूटते मानव को चित्रित किया गया है। आज के आम आदमी की जिंदगी के यथार्थ की कड़वाहट और मूल्यों का संघर्ष इस संग्रह की कहानियों में अभिव्यक्ति हुआ है। उनकी कहानियों की संवेदना एक ओर समसामयिक सामाजिक संदर्भों से संबद्ध है, तो दूसरी ओर ऐतिहासिक घटनाओं और चरित्रों का संस्पर्श करती हैं। ‘क्षितिज’ में समसामयिक संवेदना की आहट है तो ‘सौरभ’ और ‘आलोक’ में अतीतोन्मुखी आदर्शवाद की झलक है। उनकी समसामयिक सामाजिक संरचनाओं के चित्रण की पकड़ जितनी शिथिल है, उतनी ही ऐतिहासिक संदर्भों को पकडऩे की ऊर्जा उनमें विद्यमान है। ‘सौरभ’ कहानी संग्रह में अतीतकालीन घटनाओं को जीवन से और जीवन को मनुष्य के मनोरागों से जोड़ा गया है। ‘सौरभ’ में संग्रहीत कहानियों में यह दृष्टिगोचर होता है। कहानीकार ने इन कहानियों का सृजन करने के लिए ऐतिहासिक-पौराणिक संदर्भों का गहन अध्ययन किया है। नगर और ग्रामीण जनता के निकट संपर्क में आकर लोक प्रचलित विश्वासों, लोक कथाओं और किंवदंतियों के आधार पर भी कुछ कहानियों का सृजन है। कहानीकार ने अपनी अनुभूति एवं रूपविधायनी कल्पना का अवलंबन लेकर अपनी कहानियों में अतीत को सजीव कर दिया है। ‘सौरभ’ में लेखक ने इतिहास-पुराण से प्रेरणादायी चरित्रों को लेकर कुछ शाश्वत जीवन मूल्यों को प्रतिष्ठित करने की कोशिश की है। ‘आलोक’ दिनेश धर्मपाल का तीसरा कहानी संग्रह है।

इस संग्रह की रचनाओं के संबंध में लेखक का कहना है, ‘इस पुस्तक की रचना ऐसे प्रबुद्ध पाठक के लिए हुई है जो विचारों को महत्त्व देता है। जो कहानी को मनोरंजन के लिए नहीं, उद्देश्य के लिए पढ़ता है। थोथा मनोरंजन भी किसी विकार से कम नहीं, जबकि यथार्थपूर्ण आनंद मनोरंजन के साथ परिवर्तन की भूमिका निभाता है, व्यष्टि में भी, समष्टि में भी।’ प्रस्तुत कहानी संग्रह में कहानियों का क्रम इस प्रकार है : स्वप्न, त्याग, विश्वास, श्रद्धा, विवेक, वरदान, कलश आदि। इस संग्रह की कहानियों के माध्यम से कुछ मानवीय आदर्शों और मूल्यों को स्थापित करने का लेखक का लक्ष्य है। लेखक की दृष्टि अतीतोन्मुखी है और वह अतीत को प्रेरणादायी पृष्ठभूमि में प्रस्तुत करना चाहता है। इसलिए उनकी कहानियों की संवेदना आज की कहानी की संवेदना से मेल नहीं खाती।

केशव का ‘अलाव’ शीर्षक से दूसरा कहानी संग्रह सन् 1983 में प्रकाशित हुआ। इस संग्रह में उनकी छह कहानियां- अलाव, तरकस खाली है, जंगल, गटर, विनस के इर्द-गिर्द, छोटा टेलीफोन बड़ा टेलीफोन संग्रहीत हैं। ‘अलाव’ केशव की लंबी और महत्त्वाकांक्षी कहानी है। यह कहानी एक उपन्यास का विस्तृत फलक लिए हुए है। संदर्भित कहानी में हिमाचल प्रदेश की गंवई जिंदगी का जीवंत चित्र उकेरा गया है। इस कहानी का कथ्य उनकी दूसरी कहानियों से भिन्न है। उनकी दूसरी कहानियों की संवेदना प्रमुख रूप में आधुनिकता बोध और नगर बोध से संबद्ध है, जबकि इस कहानी में ग्रामीण जीवन की एक-एक स्पंदन की सूक्ष्म अनुभूति और अनुगूंज रूपायित है। ग्रामीण जीवन के आर्थिक संघर्ष और विसंगतियों का ताना-बाना अवकाश प्राप्त माधव के चरित्र के इर्द-गिर्द बुना गया है। ‘तरकस खाली है’ में एक ऐसे युवक का चित्रण है जो आर्थिक मुक्ति के लिए सुबह से शाम तक संघर्ष करता है। जहां कहीं भी अवसर मिलता है, वह अपने आपको उससे भी ज्यादा निचोडऩे की गुंजाइश होने पर तत्पर हो जाता है। ‘जंगल’ में कहानीकार ने दांपत्य जीवन की जटिलताओं को मध्यमवर्गीय परिवार से संपृक्त करके देखा है। ‘गटर’ का शिल्प विधान केशव की दूसरी कहानियों से भिन्न है। इस कहानी में व्यवस्था की विकृतियों के खंड चित्र हैं। ‘वीनस के इर्द-गिर्द’ प्रेम और काम संबंधों को लेकर लिखी कहानी है। ‘छोटा टेलीफोन बड़ा टेलीफोन’ में आज की नौकरशाही और भ्रष्ट व्यवस्था को अनावृत्त किया गया है। केशव की कहानियों में भारतीय समाज की समस्याओं और स्थितियों की पीड़ा भरी जानकारी कभी गांव के परिवेश में और कभी नगरीय जीवन से संपृक्त होकर मिलती है। केशव की कहानियों में भाषा सौष्ठव, परिवेश की प्रतिबद्धता और काव्यात्मक अभिव्यक्ति आकर्षित करती है।

सुदर्शन वशिष्ठ के नवें दशक में दो कहानी संग्रह ‘सेमल के फूल’ (1985) और ‘पिंजरा’ (1986) प्रकाशित हुए। ‘सेमल के फूल’ में ग्यारह कहानियां संग्रहीत हैं : दंश, धूप की कीमत, हाथी थान, गेट संस्कृति, ड्राई एरिया, ढोंगी, नेताजी गांव में, दग्धा, कुछ भी नहीं, मौत नहीं आती और सेमल के फूल। संदर्भित संग्रह की कहानियों में आम आदमी की पीड़ा को गांव की जिंदगी से जोडक़र देखा है। आजादी के बाद भी गांव में कितनी अभावग्रस्तता, दरिद्रता, अंधविश्वास और अशिक्षा और सामाजिक कुरीतियां विद्यमान हैं, वे दूर नहीं हुई हैं। सरकार की विकास की नीतियां नगरों तक या नगरीय क्षेत्रों से जुड़े गांवों तक पहुंच कर समाप्त हो जाती हैं और गांव का आम आदमी आज भी उन्हीं संघर्षों से जूझ रहा है जिनसे वह आजादी से पूर्व जूझ रहा था। वशिष्ठ की कहानियां ग्रामीण बोध को तो साकार करती ही हैं, नगरीय जीवन की घुटन और स्वार्थपरता को भी उद्घाटित करती हैं। ‘दंश’ कहानी में एक ऐसे बालक के जीवन की त्रासदी का चित्रण है जो अर्थाभाव और गांव में शिक्षा की असुविधा के कारण आगे नहीं पढ़ पाता। ‘धूप की कीमत’ में यह दिखाया गया है कि नगरीय जीवन जीने वाले आम आदमी की ग्रामीण जीवन जीने वाले आम आदमी से बेहतर जिंदगी नहीं है। दोनों अपने-अपने परिवेश के घेरे में घुट रहे हैं। ‘हाथी थान’ का कथ्य यात्रा विवरण तक सीमित रह गया है। संवेदनात्मक धरातल पर कहानी का कथ्य कमजोर है। ‘ड्राई एरिया’ सुदर्शन वशिष्ठ की लघु कहानी है। इसमें शराब की लत वाले व्यक्तियों की मानसिकता का चित्रण है। ‘सेमल के फूल’ में जानकी उस नारी वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है जो मालिकों की खुशी के लिए पत्नियों को उनकी सेवा में प्रस्तुत करते हैं। ‘दग्धा’ और ‘कुछ भी नहीं’ लेखक की कमजोर रचनाएं हैं। सुदर्शन वशिष्ठ के ‘पिंजरा’ शीर्षक संग्रह में आठ कहानियां संग्रहीत हैं : ऋण का धंधा, औरंगजेब की जीत, दीमक के पंख, नर्गिस के फूल, बुरे दिन, भौंहों का दर्द, खेल-खेल में और पिंजरा। ‘ऋण का धंधा’ में लेखक ने यह प्रतिपादित किया है कि सरकार की निचले तबके के लोगों को ऊपर उठाने और उन्हें राहत देने की योजनाएं किस भ्रष्ट तरीके से क्रियान्वित होती हैं। जिसे लाभ या राहत मिलनी चाहिए, वह राहत की बजाय और दबता चला जाता है। ‘औरंगजेब की जीत’ वशिष्ठ की सशक्त कहानी है। आंचलिक परिवेश में बुनी इस कहानी में पुरानी पीढ़ी के राजनीतिज्ञों के चुनाव जीतने के तरीके और नयी पीढ़ी के चुनाव में विजय प्राप्त करने के लिए नैतिक-अनैतिक युक्तियों का चित्रण है। ‘दीमक के पंख’ में निम्न-मध्यम वर्गीय विधवा नारी की दयनीय दशा का चित्रण है जिसे आर्थिक स्वावलंबन के लिए और अपने बेटे को पालने के लिए घर-घर नौकरी करनी पड़ती है। नारी नियति को यह कहानी रेखांकित करती है। ‘नर्गिस के फूल’ यात्रा विवरण का आभास देने वाली कहानी है।

पहाड़ी जीवन की निश्छलता और नि:स्वार्थ भावना को प्रस्तुत कहानी में उमा के चरित्र के द्वारा प्रकट किया गया है। ‘बुरे दिन’ में सांप्रदायिक दंगों से उत्पन्न स्थिति में कफ्र्यू लगने से उत्पन्न जनजीवन की अस्तव्यस्तता को प्रस्तुत किया गया है। सुदर्शन वशिष्ठ की कहानियों का प्रतिपाद्य ग्रामीण जीवन की समस्याओं के अनछुए संदर्भो से संबद्ध है। नवीन आर्थिक परिस्थितियों से जूझता निम्न-मध्यमवर्गीय समाज, उसकी विवशताएं, पीड़ाएं, प्रवंचनाएं, जिजीविषा, रोजी-रोटी की तलाश का मार्मिक चित्रण सुदर्शन वशिष्ठ की कहानियों में हुआ है। कथावस्तु और पात्रों के प्रति कहानीकार का रागात्मक संबंध है। यथार्थ के सशक्त और जीवंत चित्रण में अनुभूतियों की सहज अभिव्यक्ति, दुराव-छिपाव और किसी प्रकार के उलझाव के बिना सामान्य जीवन से विराट संवेदनाओं का प्रस्तुतीकरण अपने आप में कम महत्त्व नहीं रखता। उनकी कहानियों में बदलती संवेदना की आहट सुनाई देती है।
-(शेष भाग अगले अंक में)

सीने पे रेगिस्तान लिए ‘पानी के चुभते कांटे’

उपन्यास : पानी के चुभते कांटे
लेखक : त्रिलोक मेहरा
प्रकाशक : नमन प्रकाशन, नई दिल्ली
कीमत : 550 रुपए

हर लेखक अपने उपन्यास के शीर्षक तक पहुंचते-पहुंचते पूरे कथानक के न जाने कितने चक्कर काटता है और अपने ही लेखन की पृष्ठभूमि, लिखने की सार्वभौमिकता तथा अपने ही आलोच्य पक्ष से जो कुछ सुनता या चुनता है, उसमें कांटों और फूलों का आपसी संघर्ष स्पष्ट हो जाता है। कुछ ऐसा ही इंतखाब त्रिलोक मेहरा के ता•ाा उपन्यास ‘पानी के चुभते कांटे’ में भी दर्ज है। नदी के स्रोत, आस्था के संदर्भ और मानवीय रिश्तों की पराकाष्ठा में पानी हमारे अस्तित्व की निशानियों में कहीं गहरे से बैठा रहता है। कहीं ‘पंगा गांव’ भी कभी अस्तित्व में रहा, लेकिन साथ बहती ब्यास नदी को पीने के लिए जब विकास रेगिस्तान से उठकर इसके छोर तक पहुंचा, तो एक दीवार सी सीने में लिए यही गांव ‘पौंग डैम’ की मीलों लंबी विशालता में एक कहानी बन गया। यह उपन्यास डूबे हुए परिवेश में तैरती इतिहास की पलकों को खोलने का प्रयास करता है। उन सिसकियों को पानी की कैद से मुक्ति दिलाना चाहता है, जिनके वजूद में आज भी विस्थापन का दर्द और न्याय की प्रताडऩा के घाव छिपे हैं। रिश्ते उस नदी के साथ, जमीन के साथ, बोलियों-मुहावरों के साथ, गलियों में शोर से पंजबड़ मेले की रूह के साथ और जीवन की उमंगों में बहते अनेक दरियाओं के साथ, जिन्हें अचानक बांध के विराम में दफन कर दिया गया। कभी जिस हलदून घाटी में, ‘बर्हिया बसौआ, न रिह्या अंब न रिह्या कोआ।’ जैसी चिंताओं के बीच मौसम का हाल और जमीन की ताल मिलाई जाती थी, वह परिवेश उस बांध के आगे लुट चुका है। पंजाब और राजस्थान के बीच हुए समझौते के बीच आज का हिमाचल लुट चुका है। लुटे-पिटे हजारों विस्थापित और बांध के अस्तित्व के पैंतालीस सालों को चीरता उपन्यास उन तमाम धोखों का विवरण देता है, जो रेगिस्तान को हरा-भरा बना कर भी समझौते के बंजरपन में उम्मीदों का गला घोंटते हैं। वे आज भी रेगिस्तान की रेत हटाकर उस समझौते की छांव ढूंढ रहे हैं, जो कांगडिय़ों को हलदून घाटी से उजाडक़र पुनर्वास के स्वप्न लोक में ले जाने का वादा था। राजस्थान की जमीन को नहरी अव्वल बनाने के बदले वे तमाम विस्थापित आज भी सीने पर एक रेगिस्तान लिए घूम रहे हैं। वैद्य आत्माराम के बहाने लेखक अतीत और भविष्य के ऐसे सेतु पर चल रहा है, जहां मानवीय चिंताएं चूल्हे से लेकर उजड़ते चमन तक की हैं, ‘वह जसवां, वह गुलेर। हमारे मन रियासतों में कैद थे, इसलिए तड़प रहे हैं।

आजाद हुए तो पंजाब की गोद में बैठ गए। विस्तृत मैदान से सटा पहाड़ है। हम पंजाब के पहाडि़ए, मुंडू बनकर ही नहीं रहेंगे। डैम ने बड़ा पंगा खड़ा किया है। हमें उजाड़ देगा।’ उपन्यास के भीतर दर्जनों गांव सिसक रहे हैं जैसे मंगवाल की चादर पर बांध को उकेरा जा रहा हो। चतरम्बा गांव और जगतपुर रेलवे स्टेशन को जिन्होंने डूबते देखा उनकी सूखी आंखों के सामने राजस्थान में नए भूगोल का व्याकरण अनूपगढ़, नाचना, जैसलमेर और रामगढ़ के आसपास जीने के नए शब्द ढूंढ रहा है। अपने कंधे पर कांगड़ा की संस्कृति, बोली, संस्कार, शिष्टाचार और पहाड़ की ईमानदारी को उठाकर वे तमाम पौंग बांध के सताए फिर से बसना चाहते थे, लेकिन वहां तो पहले ही भ्रष्टाचार की फसलें उगी हुई थीं। राजस्थान में बसने की तमाम शर्तों में हलदून घाटी की तौहीन के कई समुद्र उस रेत में निकले जिसे सींचने के लिए कांगड़ा की कुर्बानियों ने बूंद-बूंंद खून बहाया, ‘मालिक को मुरब्बे के लिए पहचानपत्र चौबीस घंटे अपने साथ रखना होगा। उन्होंने पूछा- कितने साल। पूरे बीस साल।’ पौंग बांध एक ऐसा समझौता साबित हुआ, जिसकी रार में आज भी मुआवजे और मुरब्बे के आबंटन की चोरियां और बांध में खोई हुई लोरियां, रुला जाती हैं। विस्थापन के तमाम तर्कों के बीच उपन्यास प्रशासनिक उच्छृंखलता के अति निर्लज्ज अध्यायों का पटाक्षेप करता है। शायद आज का पंजाब राज्य तत्कालीन मुख्यमंत्री सरदार प्रताप सिंह कैरों को याद नहीं करता होगा, लेकिन पौंग में समाए जज्बात इस शख्स के फैसले पर पनाह मांगते हुए आज भी उसे कोसते हैं। राजनीति और राजनेता ही पौंग बांध की डूब से सुरक्षित बच निकले और आज भी इसके नाम पर वोट बटोरते देखे जा सकते हैं। बनते बांध के गारे में खेत ही दफन नहीं हुए, बल्कि मानवीय सांसों के मकबरे, मेहनत-मजदूरी का पसीना और जीवन के दलदल से उभरा अनिश्चय में डूबना ही अब विस्थापन का प्रोफेशन बन गया है, जहां जिंदगी के बार्टर में अतीत का भविष्य से बेमेल आदान-प्रदान हो गया। जो रेगिस्तान में घर बनाने, खेत बनाने, सपने बसाने और विस्थापित जिंदगी को ठिकाने लगाने आए थे, उन्हीं की आंखों में आज भी बच गई सूखी रेत झोंक कर लूटा जा रहा है।

वे आज भी रेगिस्तान की रेत हटाकर उस नमी को ढूंढ रहे हैं, जो उन्होंने या उनके पुरखों ने पौंग बांध बनाकर राजस्थान को सौंपी है। उपन्यासकार त्रिलोक मेहरा बांध में डूबी मिट्टी से कहानियों की धडक़न सुन रहे हैं। त्रिलोक मेहरा का यह उपन्यास पौंग बांध की पीड़ा को कई भागों में बंटे परिवेश में रेखांकित करता है। एक वह भाग जब बांध परियोजना टटोलने कोई धीरे-धीरे कदम बढ़ा रहा है और दूसरे जब डैम अपने भीतर अतीत के सारे निशान छुपा रहा है, ‘जित्थू कम कित्ता हत्थ लेई खुरपे ते डाटियां, अज पाणियें च डुब्बिया सेह डल ते भाटियां।’ आज विस्थापन के पैंतालीस साल बाद भी पुनर्वास की अंतहीन विरह में यादों के झुरमुट उस रेगिस्तान में उग रहे हैं, जो पौंग में समाए वतन की मिट्टी को बांध के मार्फत आए पानी में खोजते हैं। रेगिस्तान को सींच कर हिमाचल को मिले कांटे आज भी शूल की तरह चुभ रहे हैं और समझौते की सूली पर हजारों आहें अगर सुननी हैं, तो त्रिलोक मेहरा के उपन्यास ‘पानी के चुभते कांटे’ का हर पन्ना दस्तावेज बनकर खड़ा है।                                                                                                                                              -निर्मल असो

पुस्तक समीक्षा : ‘स्मारिका’ में सामाजिक गतिविधियों का ब्योरा
मंजूषा सहायता केंद्र कलोल (बिलासपुर) की पत्रिका ‘स्मारिका’ का सातवां अंक प्रकाशित हुआ है। इस अंक में सामाजिक गतिविधियों का विस्तृत ब्योरा दिया गया है। कर्नल जसवंत सिंह चंदेल इस सहायता केंद्र के अध्यक्ष हैं। कमजोर वर्गों के लोगों की मदद करने में जसवंत चंदेल हमेशा आगे रहे हैं। पत्रिका के नए अंक में जहां केंद्र की सामाजिक गतिविधियों का ब्योरा है, वहीं कुछ अन्य पठनीय सामग्री भी दी गई है। अंक के आरंभ में बताया गया है कि इस केंद्र का नाम मंजूषा कैसे पड़ा? डा. रविंद्र कुमार ठाकुर के आलेख ‘वंदन’ में जसवंत चंदेल के व्यक्तित्व व कृतित्व का उल्लेख किया गया है। शीला सिंह कुछ सच्ची और प्रेरणादायी बातें लेकर आई हैं। हिमाचल की नदियों पर ललिता कश्यप का आलेख प्रदेश की भौगोलिक स्थिति को समझाता है।

जगदीश चंद पुंडीर ‘हमारे बच्चे और हमारे सपने’ के बारे में बात करते हैं। मनीषा ठाकुर ने सहायता केंद्र के बारे में रोचक सामग्री प्रस्तुत की है। ‘मानवता कराह उठी’ में सुषमा खजूरिया ने संस्मरण पेश किया है। आराधना चंदेल ‘परोपकार’ का भाव समझा रही हैं। एक और संस्मरण ‘कलोल तब और अब’ में नरैणू राम हितैषी ने इस गांव की खासियत का उल्लेख किया है। रविंद्र कुमार शर्मा ने साइबर क्राइम को एक चुनौती के रूप में लिया है। स्वाधीनता आंदोलन में हिमाचल की भूमिका पर कर्नल जसवंत सिंह चंदेल प्रकाश डाल रहे हैं। कुछ रोचक कविताएं तथा इस सहायता केंद्र से मदद पाने वाले लोगों के चित्र इस अंक की अन्य सामग्री है, जो पाठकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करती है।                                                                                                                                                                          -फीचर डेस्क


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