हिमाचली हिंदी कहानी : विकास यात्रा

By: May 27th, 2023 7:47 pm

कहानी के प्रभाव क्षेत्र में उभरा हिमाचली सृजन, अब अपनी प्रासंगिकता और पुरुषार्थ के साथ परिवेश का प्रतिनिधित्व भी कर रहा है। गद्य साहित्य के गंतव्य को छूते संदर्भों में हिमाचल के घटनाक्रम, जीवन शैली, सामाजिक विडंबनाओं, चीखते पहाड़ों का दर्द, विस्थापन की पीड़ा और आर्थिक अपराधों को समेटती कहानी की कथावस्तु, चरित्र चित्रण, भाषा शैली व उद्देश्यों की समीक्षा करती यह शृंखला। कहानी का यह संसार कल्पना-परिकल्पना और यथार्थ की मिट्टी को विविध सांचों में कितना ढाल पाया। कहानी की यात्रा के मार्मिक, भावनात्मक और कलात्मक पहलुओं पर एक विस्तृत दृष्टि डाल रहे हैं वरिष्ठ समीक्षक एवं मर्मज्ञ साहित्यकार डा. हेमराज कौशिक, आरंभिक विवेचन के साथ किस्त-7

हिमाचल का कहानी संसार

विमर्श के बिंदु
1. हिमाचल की कहानी यात्रा
2. कहानीकारों का विश्लेषण
3. कहानी की जगह, जिरह और परिवेश
4. राष्ट्रीय स्तर पर हिमाचली कहानी की गूंज
5. हिमाचल के आलोचना पक्ष में कहानी
6. हिमाचल के कहानीकारों का बौद्धिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक व राजनीतिक पक्ष

लेखक का परिचय

नाम : डॉ. हेमराज कौशिक, जन्म : 9 दिसम्बर 1949 को जिला सोलन के अंतर्गत अर्की तहसील के बातल गांव में। पिता का नाम : श्री जयानंद कौशिक, माता का नाम : श्रीमती चिन्तामणि कौशिक, शिक्षा : एमए, एमएड, एम. फिल, पीएचडी (हिन्दी), व्यवसाय : हिमाचल प्रदेश शिक्षा विभाग में सैंतीस वर्षों तक हिन्दी प्राध्यापक का कार्य करते हुए प्रधानाचार्य के रूप में सेवानिवृत्त। कुल प्रकाशित पुस्तकें : 17, मुख्य पुस्तकें : अमृतलाल नागर के उपन्यास, मूल्य और हिंदी उपन्यास, कथा की दुनिया : एक प्रत्यवलोकन, साहित्य सेवी राजनेता शांता कुमार, साहित्य के आस्वाद, क्रांतिकारी साहित्यकार यशपाल और कथा समय की गतिशीलता। पुरस्कार एवं सम्मान : 1. वर्ष 1991 के लिए राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार से भारत के राष्ट्रपति द्वारा अलंकृत, 2. हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा राष्ट्रभाषा हिन्दी की सतत उत्कृष्ट एवं समर्पित सेवा के लिए सरस्वती सम्मान से 1998 में राष्ट्रभाषा सम्मेलन में अलंकृत, 3. आथर्ज गिल्ड ऑफ हिमाचल (पंजी.) द्वारा साहित्य सृजन में योगदान के लिए 2011 का लेखक सम्मान, भुट्टी वीवर्ज कोआप्रेटिव सोसाइटी लिमिटिड द्वारा वर्ष 2018 के वेदराम राष्ट्रीय पुरस्कार से अलंकृत, कला, भाषा, संस्कृति और समाज के लिए समर्पित संस्था नवल प्रयास द्वारा धर्म प्रकाश साहित्य रतन सम्मान 2018 से अलंकृत, मानव कल्याण समिति अर्की, जिला सोलन, हिमाचल प्रदेश द्वारा साहित्य के लिए अनन्य योगदान के लिए सम्मान, प्रगतिशील साहित्यिक पत्रिका इरावती के द्वितीय इरावती 2018 के सम्मान से अलंकृत, पल्लव काव्य मंच, रामपुर, उत्तर प्रदेश का वर्ष 2019 के लिए ‘डॉ. रामविलास शर्मा’ राष्ट्रीय सम्मान, दिव्य हिमाचल के प्रतिष्ठित सम्मान ‘हिमाचल एक्सीलेंस अवार्ड’ ‘सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार’ सम्मान 2019-2020 के लिए अलंकृत और हिमाचल प्रदेश सिरमौर कला संगम द्वारा डॉ. परमार पुरस्कार।

डा. हेमराज कौशिक
अतिथि संपादक
मो.-9418010646

-(पिछले अंक का शेष भाग)
प्रख्यात आलोचक और कथाकार विजय मोहन सिंह हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय में आठवें दशक के उत्तरार्ध और नवें दशक के प्रारंभिक वर्षों में सेवारत रहे। हिमाचल की कहानी यात्रा में उन्हें स्मरण करना समीचीन होगा। यहां के लेखकों और कवियों की सृजनशीलता में वे सहभागी रहे। यहां के बहुत से सर्जक उनसे रचनात्मक दृष्टि से प्रभावित भी रहे। प्रख्यात आलोचक होने के साथ-साथ वे कथाकार और संपादक भी थे। उन्होंने नयी धारा, वागर्थ, इंद्रप्रस्थ पत्रिकाओं का संपादन और संचालन किया। इसके अतिरिक्त 1960 के बाद की कहानियों का एक चयन और संपादन किया। उनकी पहली कहानी ‘एक छोटे बच्चे का हाथ’ शीर्षक से ‘ज्ञानोदय’ में अप्रैल 1960 में प्रकाशित हुई थी। उनकी ‘समस्या’, ‘महत्वहीन’ और ‘निर्वेद’ शीर्षक कहानियां ‘नई धारा’ के जनवरी-फरवरी 1967 से जून 1972 के मध्य प्रकाशित हुई। ‘टट्टू सवार’ विकल्प के कथा साहित्य विशेषांक 1968 में प्रकाश में आयी। विजय मोहन सिंह ने आलोचना में महत्वपूर्ण ग्रंथों के सृजन के साथ हिंदी कथा साहित्य को भी समृद्ध किया। उनके पांच कहानी संग्रह टट्टू सवार, एक बंगला बने न्यारा (1982), $गमे-हस्ती का हो किससे, शेरपुर 15 मील (1995) व चाय के प्याले में गेंद (2012) हैं। ‘टट्टू सवार’ में उनकी प्रारंभिक कहानियां संग्रहीत हैं। ‘एक बंगला बने न्यारा’ में उनकी ग्यारह कहानियां- अगला दिन, विस्तार, मकबरे, एक अदृश्य शक्ति, सहयोग, ठंड, कबंध, आरामगाह के बाहर, मास मीडिया, संयुक्त परिवार, एक बंगला बने न्यारा संग्रहीत हैं। ‘शेरपुर 15 मील’ में उनकी सन् 1983 से 1993 तक लिखी गई बारह कहानियां सम्मिलित हैं। इस संग्रह के प्रारंभ में उन्होंने कहानी की पठनीयता की ओर ध्यान आकर्षित किया है। उन्होंने कहा है, ‘इधर मेरा ध्यान इस तथ्य की ओर गया कि हिंदी में क्रमश: कहानियों से पठनीयता अथवा ‘पढऩे का सुख’ गायब होता जा रहा है जो मेरी दृष्टि में कहानी लेखन की पहली शर्त है। इसके अलावा मुझे यह भी लगता रहा है कि कथा लेखन में जरूरत से ज्यादा कहने की प्रवृत्ति बढ़ती गई है और पंक्तियों के बीच या कहानी की ओट में कुछ पढऩे या पाने को नहीं रह जाता। ‘स्पष्ट’ को ही और अधिक शब्द विस्तार देकर स्पष्टतर बनाने की कोशिश में कथा रचना की कुछ अनिवार्य शर्तों का निर्वाह भी नहीं हो पाता।

इससे कहानी और अपठनीय और अनावश्यक शब्द बोझ से दब जाती है। सहज संकेतों में कुछ कह जाने का चलन ही समाप्त होता जा रहा है।’ इस कहानी संग्रह में बारह कहानियां- आईना और लैंप, वह आज भी नहीं आया, किस्सा श्याम सुंदरी, लौटना, किला, प्रूनिंग, भुट्टे की गंध, नए मकान की नींव, कुत्ते वाली रोटियां, आइसक्रीम, सब कुछ करीने से और शेरपुर 15 मील सम्मिलित हैं। ‘$गमे हस्ती का हो किससे’ में अंगरक्षक, तेज धूप में व जब तक चली चले नामक तीन कहानियां स्त्री स्वतंत्रता और उनके संदर्भ में दांपत्य और स्त्री-पुरुष के परिवर्तित संबंधों के वस्तुगत यथार्थ को सामने लाती है। ‘अंगरक्षक’ संग्रह की लंबी कहानी है। इसमें विशेष समुदाय के बीच एक स्त्री की स्थिति का निरूपण है। ‘ओघ’ कहानी का सूत्र कहानीकार ने कामायानी से लेकर समकालिक प्रतीक के रूप में प्रयुक्त किया है। इन कहानियों में वर्तमान समय में स्त्री की मानसिकता का वस्तुगत गंभीर अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। ‘चाय के प्याले में गेंद’ में उनकी नौ कहानियां- चाय के प्याले में गेंद, विभाजन, बुद्ध मुद्रा, कुंडलिनी, बोझ, जब तक असह्य न हो जाए, सैर करने के लिए थोड़ी सी फि•ाा और सही, चेरोखरवारो का गांव, अपनी तरह से जीना और हमेशा प्रतीक्षालय संग्रहीत हैं। विजय मोहन सिंह कहानी के लिए सामाजिक-राजनीतिक रूप से प्रासंगिक होना अनिवार्य नहीं मानते, लेकिन वह केवल बुद्धि या कल्पना का विलास होकर रह जाए, इससे भी वे सहमत नहीं हैं। विजय मोहन सिंह की कहानियां अपने समय और समाज के धरातल पर खड़ी होकर कथा रस का निर्वाह भी करती हैं और इस तरह एक स्वस्थ और समग्र पठनीयता का आधार पाठक को देती हैं।

नवें दशक में डा. सुशील कुमार फुल्ल का सन् 1984 में ‘मेमना’ शीर्षक से कहानी संग्रह प्रकाश में आया। इस संग्रह के आने से पूर्व ही मेमना कहानी चर्चित हो गई थी। इस कहानी पर कहानीकार को ऑल इंडिया हिंदी स्टोरी कंपीटीशन का प्रथम पुरस्कार मिला था। इस कहानी का अनुवाद हिंदी में इण्डियन लिटरेचर में तथा कई अन्य भाषाओं में भी हुआ है। ‘हिमप्रस्थ’ कहानी प्रतियोगिता में भी इस कहानी को प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ था और इस पत्रिका के नवर्षांक 1980 में यह कहानी प्रकाशित हुई थीं। धौलाधार के आंचल में स्थित गद्दी और गुज्जर समुदाय की जीवनचर्या, संघर्ष और जीवन दृष्टि को फुलमा, घासीराम, सुनकू आदि चरित्रों के माध्यम से व्यंजित किया है। ‘मेमना’ शीर्षक संग्रह में बाहर का आदमी, थका हुआ इनसान आदि उल्लेखनीय कहानियां हैं। मेमना में आंचलिक परिवेश मुखरित हुआ है। ‘बाहर का आदमी’ में क्षेत्रवाद की संकीर्णता का प्रतिकार और राष्ट्रीयता की भावना को उजागर किया गया है। लेखक ने ‘थका हुआ इंसान’ में एक ऐसे दंपति का अंकन किया है जिनके ऊपर सत्ताईस-अ_ाईस वर्षीय कन्याओं का बोझ है। नवें दशक में डॉ. सुशील कुमार फुल्ल के तीन अन्य कहानी संग्रह ‘मेरी प्रिय कहानियां’ (1987), ‘मेरी आंचलिक कहानियां’(1987) और ‘ब्रेकडाउन’ (1990) प्रकाशित हुए। ‘मेरी आंचलिक कहानियां’ शीर्षक संग्रह की कहानियों में पर्वतीय जीवन की दुश्वारियां, परंपरागत रूढिय़ों और रीति-रिवाजों को विभिन्न कथा सूत्रों के माध्यम से विन्यस्त किया है। इन कथा सूत्रों के माध्यम से आंचलिक परिवेश, आर्थिक जीवन की विडंबनाएं और परिवेश मुखरित हुआ है। ‘मेरी प्रिय कहानियां’ में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक विसंगतियों का यथार्थ चित्रण है। मेमना, सांप, खडक़न्नू, होरी की वापसी, रिज पर फौजी, मां, निर्णय, अधर में लटके हुए आदि फुल्ल की कुछ प्रमुख कहानियां हैं। डॉ. गणपति चंद्र गुप्त ने ‘हिंदी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास’ खंड दो में डॉ. सुशील कुमार फुल्ल के हिंदी कहानी साहित्य के योगदान को रेखांकित किया है। इसे स्पष्ट करते हुए डा. गुप्त ने लिखा है : ‘सहज कहानी के नव-अभ्युत्थान में डॉ. सुशील कुमार फुल्ल का योगदान वस्तुत: कहानी की शिथिल पड़ गई धारा को पुनर्जीवित करने एवं संजीवनी प्रदान करने का रहा है।

समानांतर कहानी को सरलता से निकालकर पुन: कहानी को संश्लिष्टता से अलंकृत कर कलात्मकता की ओर ले जाना अपने आप में एक रचनात्मक कदम है। विश्व कहानी साहित्य की प्रवृत्तियां फुल्ल की कहानियों में सहज स्वाभाविक ढंग से अनुस्यूत हुई हैं।’ डॉ. गणपति चंद्रगुप्त का यह कथन कहानीकार फुल्ल की रचनाशीलता और कहानी के क्षेत्र में उनके अवदान पर महत्वपूर्ण टिप्पणी है। एक संवेदनशील कहानीकार के रूप में वह निरंतर सृजनरत हैं। उनकी कहानियों का फलक बहुविध बहुआयामी है। उनकी कहानियों में उनकी कथात्मक दृष्टि और प्रयोजनीयता सदैव विद्यमान रहती है। किसी कहानी का सृजन करते हुए वे किसी विचार बिंदु को कलात्मक सांचे में स्वाभाविक रूप में ढालकर प्रस्तुत करते हैं, वहां कोई विचार बिंदु आरोपित नहीं रहता, वह कहानी में रच-बस कर नि:सृत होता है। उनकी भाषा में सहजता भी है और कलात्मकता भी। बहुत सी कहानियों में प्रतीक और बिंब उभरे हैं, जो उनकी कथा दृष्टि की परिपक्वता के परिचायक हैं, परंतु सभी कहानियां इस कोटि में नहीं आती। नवें दशक में ही विजय सहगल का प्रथम कहानी संग्रह ‘आधा सुख’ (1984) प्रकाशित हुआ जिसमें उनकी तेरह कहानियां- बिना पलक की मछलियां, उमस, रम•ाान मियां, अपने लोग, नरभक्षी, आधा सुख, ओहदे का बोझ, दलदल, मेहराब, मातादीन अब नहीं रहा आदि संग्रहीत हैं।

प्रस्तुत कहानी संग्रह की कहानियां लघु कलेवर की हैं। इन कहानियों का कथ्य अपनी संक्षिप्तता में भी तीव्रता से प्रयोजन सिद्धि की ओर अग्रसर होता है। इन कहानियों की संवेदना भूमि का एक छोर महानगरों से संबद्ध है तो दूसरा छोर पहाड़ी आंचल के ग्रामीण जीवन से संपृक्त है। महानगर में रहते हुए भी उनके पात्र गांव की स्मृतियों में विचरण करते हैं। ‘दलदल’ कहानी में नगर बोध से उत्पन्न जीवन मूल्यों और ग्रामीण जीवन मूल्यों की परस्पर टकराहट को कथा नायक की मनोस्थिति के माध्यम से मूर्तिमान किया है। ‘अपने लोग’ में नगरीय जीवन की समस्याओं, आजीविका की चिंता के साथ आवासीय समस्याओं और दमघोटु वातावरण को चित्रित किया है। ‘बिना पलक की मछलियां’, ‘नरभक्षी’, ‘आधा सुख’, ‘रम•ाान मियां’ आदि कहानियों में मध्यवर्गीय चरित्रों का प्रेम और यौन संबंधों का निरूपण और यौन कुंठाओं की अभिव्यंजना है। इसके अतिरिक्त जीवन से संबद्ध पारिवारिक और सामाजिक सवालों को इन कहानियों में समेटा है। विजय सहगल की कहानियों की भाषा कथ्य और चरित्रों के अनुरूप सहज स्वाभाविक रूप में विकसित हुई है।

‘खुले हाथ’ (1984) राजकुमार का प्रथम कहानी संग्रह है। इससे पूर्व उनकी कहानियां आठवें दशक में हिमप्रस्थ, विपाशा, सूत्र गाथा, पंच जगत, हिमोत्कर्ष आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई थी। ‘खुले हाथ’ संग्रह में उनकी ग्यारह कहानियां संग्रहीत हैं। वेटिंग रूम, पीले गुलाब, फिलास्फर, कमाई, शिरायें, दु:स्वप्न, सलीव दर सलीव, निरस्त्र, घुटन, दंशित और खुले हाथ प्रस्तुत संग्रह की कहानियां हैं। संदर्भित कहानियों में कहानीकार नितांत निजी और अंतरंग अनुभूतियों के जरिये समष्टि अनुभव के संश्लिष्ट सत्य की यथार्थ अभिव्यक्ति करता है। इनकी कहानियों में मध्यवर्गीय और निम्न मध्यवर्गीय परिवारों की विवशताओं, समस्याओं और मानसिकता को बखूबी उजागर करने का प्रयत्न है। ‘वेटिंग रूम’ में नारी विवशताओं और पुरुष की वासनात्मक दृष्टि का चित्रण है। ‘कमाई’ ग्रामीण परिवेश में विन्यस्त कहानी है जिसे मातृ-पितृ विहीन बेटा-बेटी के संदर्भ में उद्घाटित किया है। ‘घुटन’ में क्षय रोग से पीडि़त युवक के मन की घुटन प्रस्तुत की गई है और ‘खुले हाथ’ आज की नौकरशाही की विकृतियों को सामने लाती है। संसार चंद प्रभाकर ग्रामीण जीवन के कथाकार हैं। ‘मानव मन’ (1984) और ‘जन जीवन’ (1988) उनके दो कहानी संग्रह इस अवधि में प्रकाशित हुए। ‘मानव मन’ में प्रभाकर की बारह कहानियां संग्रहीत हैं। उनकी कहानियों में ग्रामीण जीवन की टूटती पिसती जिंदगी के संघर्ष की यथार्थ तस्वीर मिलती है। अन्याय और शोषण का प्रतिकार उनकी कहानियों का प्रमुख स्वर है। महमूद की चि_ी, सती, मतवन्ना, प्रार्थना पत्र, वसीयतनामा, वारिस, गौ हत्या आदि कहानियां सामाजिक चेतना से संपन्न हैं। उनकी कहानियों का शिल्प सादा है। ज्यादातर कहानियां वर्णनात्मक शैली में प्रस्तुत है। संग्रह की पहली कहानी ‘महमूद की चि_ी’ ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर लिखी कहानी है। कहानी में मध्यकालीन सामाजिक-आर्थिक परिवेश अपनी समस्त अच्छाइयों-बुराइयों के साथ उभरा है। ‘वारिस’ में जाति व्यवस्था से उत्पन्न रूढिय़ों और अंधविश्वासों का चित्रण है। ‘गौ हत्या’ में लेखक विधवा नारी जीवन की समस्याओं की ओर लौटता है। ‘प्रार्थना पत्र’ झकझोर देने वाली मार्मिक कहानी है। इस कहानी में एक मजदूर की व्यथा गाथा है। ‘दायित्व’ में पक्षियों के प्रति मानव के दायित्व की ओर संकेत है और ‘वसीयतनामा’ में आज की न्याय व्यवस्था और कानून के लचीलेपन और खोखलेपन को उद्घाटित किया गया है।                                                            -(शेष भाग अगले अंक में)

पुस्तक समीक्षा : समर्पित गजलें  इश्क की हिंदी गजलें  
प्रख्यात लेखक सुरेश भारद्वाज ‘निराश’ का हिंदी गजल संग्रह ‘समर्पित इश्क’ प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह में 100 पृष्ठों में 75  गजलें   संकलित की गई हैं। प्रकाशक वर्तमान अंकुर, नोएडा से प्रकाशित इस संग्रह की कीमत 199 रुपए है। लेखक ने अपनी संघर्ष यात्रा का विस्तृत ब्योरा भी पेश किया है जो पाठकों को प्रेरणा देता है। निराश जी ने सामाजिक एवं पारिवारिक समर्पित इश्क के साथ-साथ देश भक्ति पर  गजलें   लिखी हैं। उन्होंने देश भक्ति गीत में सरहद पर तैनात सैनिकों, शहीदों और अपने देश के प्रति सम्मान जताया है। पहली गजल ‘रात है तन्हा’ में लेखक कहता है : ‘चांद मेरी गली आया है फिर/उसने दिल मेरा दुखाया है फिर/रात है तन्हा कोई अपना हो/दर्द ने हमको सताया है फिर/चोटियां ढक गई हैं चांदी से/जश्न बादल ने मनाया है फिर/धूप टुकड़ा सी है हिस्से मेरे/सर्दी ने रंग जमाया है फिर।’ ‘बेसहारा देखा है’ में लेखक खुद को बेसहारा बताते हुए कहता है : ‘खुद को जब भी देखा मैंने बेसहारा देखा है/पार कैसे उतरूं धुंधला सा किनारा देखा है/धारा नदिया की बहे है करती कल कल किसलिए/सात सुर हों मिलते जैसे गीत प्यारा देखा है।’ मन क्या चाहता है, ‘मन करता है’ में यह स्पष्ट हुआ है : ‘अपने होकर भी किनारा करते हैं जो अपनों से/ताने उनके अब कहां जो सहने का मन करता है/मिल के रहना जिंदगी है जी सके तो दिल से जी/साथी दायें का हो बायां कहने का मन करता है।’ ‘यार नहाया होगा’ में फिर बेबसी न•ार आती है : ‘कोई अपना ही तो हमको भी सताया होगा/दिल के भीतर मेरे वो कहर भी ढाया होगा/मंजिलों के ये निशां चुभने लगे पैरों में/यार ने पैरों में मरहम तो लगाया होगा।’ संग्रह की अन्य $ग•ालें भी पठनीय हैं। यह संग्रह पाठकों को जरूर पसंद आएगा, ऐसी आशा है। सभी $ग•ालें संग्रहणीय हैं।                                                                                                                                                                -फीचर डेस्क

अंग्रेजी में बही सरोज की कविताओं की नदी

नदी होने की चाह पालने की तरह मन को प्रिय लगने वाली रचना को अनूदित करने की इच्छा करना तो सरल है, पर नदी होने की तरह भावानुवाद दुष्कर कार्य है। अनुवाद की कोशिश तो की जा सकती है, लेकिन नदी के प्रवाह की तरह रचना का भावानुवाद तभी किया जा सकता है जब आप रचना की भाषा और उसकी अनूदित भाषा में नदी के गायन की तरह सरल, सहज, स्वाभाविक और निरंतर प्रवाहमान हों। भावानुवाद में व्यक्ति का दोनों भाषाओं में प्रवीण होना आवश्यक है। नहीं तो किसी सामान्य फुटबॉलर की तरह किक तो मारी जा सकती है, पर पेले, मारीडोना, मैसी या रोनोल्डो की तरह कलात्मक गोल नहीं दागे जा सकते। भाषा की सांगीतिक लय जहां किसी रचना को कंचन की तरह शोभायमान कर सकती है, वहीं खडख़ड़ाहट उसके साथ खिलवाड़ देती है। हिंदी कविता में अपनी खास पहचान रखने वाली कवयित्री सरोज परमार के चर्चित काव्य संग्रह ‘मैं नदी होना चाहती हूं’ के अंग्रेजी अनुवाद ‘लैट मी ए पार्टीसिपेटरी फ्लो’ में विद्वान शिक्षक, सम्पादक एवं लेखक डॉ. डीसी चम्बियाल काफी हद तक सफल रहे हैं। समय को सम्बोधित करते सरोज के हिन्दी काव्य संग्रह में सम्मिलित कविताओं में प्रवाहमान शब्दों की तरह कविताओं के अंग्रेजी अनुवाद में कहीं भी शब्दों का प्रवाह अवरुद्ध हुआ प्रतीत नहीं होता, पर अनूदित संग्रह का शीर्षक ‘लैट मी ए पार्टीसिपेटरी फ्लो’ खटकता है, जबकि चाह और होने देने का भेद व्यक्ति के कर्म में भेद करता है। प्रकाशक के कहने पर बदला गया इसका शीर्षक बाजार के लिहाज से भले सही हो, पर साहित्य में ऐसी बातों की कोई जगह नहीं। इसके अतिरिक्त पुस्तक के अंतिम कवर पृष्ठ पर कवयित्री का परिचय जानने वालों को खटकता है।

कवयित्री करीब डेढ़ दशक पहले बैजनाथ महाविद्यालय से सेवानिवृत्त हो चुकी हैं, पर परिचय के अनुसार वह अभी भी सेवारत हैं। लेकिन इस संग्रह के नामकरण के अनुसार समय से बन्दिश करती नदी पर उनकी आठ कविताओं का अनुवाद पाठक को सोचने पर विवश करता है कि क्या अपनी नैसर्गिकता में जीने वाली नदियों का अब कोई भविष्य बचा है? मौज़ूदा दौर के अंगारों के समान कवयित्री द्वारा उठाए गए दहकते प्रश्नों के साथ स्त्री विमर्श के मुद्दों को अनुवादक सहेजने में सफल रहे हैं। इसी तरह नदी श्रृंखला कविताओं में पर्यावरण में छाई आलूदगी और मानव जीवन के मुद्दों को अनुवादक सरस शब्दों में पाठकों के सामने लाने में सफल रहे हैं। अनुवादक ने पाठकों को रचना की मूल भाषा हिन्दी से जोड़े रखने के लिए कई शब्दों का अंग्रेजी में अनुवाद नहीं किया है, जो उसे मूल कर्म के साथ जोड़े रखने में मदद करते हैं। यथा बख्शीश, धर्म, हाट, घराट, खेत, खलिहान, पयस्विनी, दादी, झूलापुल, हीर, इन्द्रलोक, सावन, जनाब, लोक, आरती, पूजा, मोंगरा, पुण्य, चिनार, कांगड़ी, फैरन, बापू, बाबा, नाटी, अमृत कुंड, बांज, जुम्बिश, बाकरखानी, शिद्दत, पाटी, संस्कार, दुरभिसंधि, रस, फौजी, तल मेरे लड्डू घोरे, बताशा, शाबाश और सोहम-सोहम जैसे शब्द मूल रूप में अनुवाद में शामिल हैं। यहां तक कि अनुवादक ने दो कविताओं के शीर्षक में ‘शिद्दत’ और ‘चिनार’ को बनाए रखा है। ‘वेयर आई बिलोंग्ड’ के साथ ब्रैकेट में ‘लौटना’ और ‘पोस्टर’ के साथ ‘पीठ पर चिपका इश्तहार’ पढ़ते हुए भले लगते हैं। पहली कविता ‘उसे नदी होने दो’ (लैट हर बी ए रिवर) में नदी के धर्म की उद्घोषणा में अंग्रेजी अनुवाद की खूबसूरती देखिए : ‘रिवर-धर्मा इज नॉट स्टॉपिंग (ठहरना नहीं नदी का धर्म)/लैट हर फ्लो (उसे बहने दो)/लैट हर बी ए रिवर (उसे बहने दो)।’

वहीं दूसरी कविता ‘वजूद खोती नदी’ (लूजिंग आईडेंटिटी) में वह सावधान करती हैं : ‘वंडरस्ट्रक क्रिकेट (हैरान हैं झींगे)/एस्टोनिश्ड फिशेज (पशेमान हैं मछलियां)/विल ट्रीज, बर्डज एंड क्लॉउड (क्या पेड़, पंछी, बादल भी) (देखते-देखते यूं ही)/वेनिश लाईक दिस (गुम हो जाएंगे।)’ डॉ. चम्बियाल ने, वूमेन : फाईव शॉट्स (औरत : पांच स्थितियां) में कवयित्री, औरत की जिस त्रासदी की बात करती हैं और वह उसे सभी समाजों में झेलनी पड़ती है, को भी बड़ी सुन्दरता के साथ शब्दों में पिरोया है। स्त्री विमर्श पर लिखे गए लम्बे लेखों की अपेक्षा कवयित्री के बेहद कम शब्दों को अनुवादक ने सार्थक किया है। उसकी व्यथा प्रकट करने में सफल रही हैं। स्पैरो ऑव यार्ड (आंगन की चिडिय़ा) में औरत की इसी व्यथा को अनुवादक ने सही पकड़ा है। ए फिश एंड द गंगा (नथनी में उलझी मछली) और दि क्लॉक (घड़ी) सदियों से औरत के गले में पड़े तौक और बेडिय़ों में जकड़े मन और जिस्म को और उघाड़ती है। परिवार की खातिर अपने तमाम सुखों को ताक पर धरने वाली औरत की व्यथा के फूटकर बाहर निकलने को अनुवादक ने बेहद सलीके से शब्दों में पिरोया है। यह सरोज परमार की कलम का ही जादू है कि उनके प्रस्तुत संग्रह ‘मैं नदी होना चाहती हूं’ के प्रकाशन के बाद गद्य और पद्य, दोनों में नदी से सम्बन्धित शीर्षकों की बाढ़ सी आ गई थी। कुछ महानुभावों ने तो उनकी कविताओं को अपनी रचनाओं का आधार बनाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। संक्षेप में कहा जाए तो सभी अनूदित कविताएं श्लाघनीय और सहेजने वाली हैं। कवयित्री के पूर्ण पके हुए अनुभवों को अनुवादक नए रूप में सामने लाए हैं। सभी कविताएं विशिष्ट रूप से रेखांकित होने की स्वतंत्र हकदार हैं।

ग्रोइंग अप, लैट हर फ्लो, रिवर्स रोमान्स, ए लॉस्ट रिवर, एट वन विश, डिवोस्र्ड वुमेन, नो रे ऑव होप, खजियार लेक, लग्जरी ऑव कम्पैशन, चिनार, टू स्प्रिंग, शूज आदि सभी कविताओं में डॉ. चम्बियाल ने कवयित्री के भावों को बेहद सधे हुए अन्दाज में अंग्रेजी में ढाला है। कोई भी अनूदित रचना ऐसी नहीं जहां पाठक अपने को उनके साथ जुड़ा हुआ महसूस न करे। कवयित्री और अनुवादक के जीवन के तमाम रंगों, अनुभवों और अर्थों को आत्मसात कर सकने की योग्यता, उनकी बहुआयामी चेतना उन्हें अपनी संवेदनशीलता और स्वानुभूति से कविता की यथार्थ अभिव्यक्ति में परिवर्तित करने की क्षमता प्रदान करती है। इसमें कोई दोराय नहीं कि प्रस्तुत काव्य संग्रह संग्रहणीय है। ऑथर्ज प्रैस, हौज खास, नई दिल्ली से प्रकाशित इस काव्य संग्रह में कुल 91 पृष्ठ हैं।                               -अजय पाराशर


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