विवादित होने में ही फिल्म की सफलता

फिल्म उद्योग व्यवसाय करता है तथा कला के साथ राजनीतिक खेल हो जाता है, लोग दंगा-फसाद, आंदोलन तथा विवादित चर्चाओं में व्यस्त हो जाते हैं और बुद्धिजीवी अवाक देखता है…

फिल्म देखते हुए कभी हमारी धडक़नें तेज होने लगती, कभी करुण भाव आता, कभी गुदगुदी, कभी नफरत, कभी आक्रोश, कभी प्यार। हम ऐसा महसूस करते कि फिल्म में अभिनेता नहीं बल्कि ये तो मैं ही हूं, ये तो मेरी कहानी है। फिल्म की कहानी के साथ हम इतना विस्मृत हो जाते कि बैठे-बैठे तीन घण्टे कैसे व्यतीत हो गये हमें पता ही न चलता। फिल्म की कहानी के दृश्यों के साथ शीतल पेय गटकते, पॉपकॉर्न, नमकीन, भूने हुए चने चबाने की गति भी कभी कम तथा कभी तेज होती जाती। दोस्तों, परिवार के सदस्यों तथा सगे संबंधियों के साथ बिना चिंता तथा परेशानी से समय कब बीत जाता पता ही नहीं चलता। अब फिल्मी कहानियां हास-परिहास तथा प्यार प्रेम, दुर्घटनाओं तथा त्रासदी पर ही आधारित न रहकर सामाजिक, ऐतिहासिक, राजनैतिक घटनाओं तथा व्यक्तियों पर भी बनने लगी हैं। देश बंटवारा, धार्मिक, राजनैतिक घटनाओं, जातीय संघर्षों, अनैतिक सम्बन्धों, आंदोलनों, युद्धों, दंगों, सैनिकों, बादशाहों, खिलाडिय़ों तथा राजनीतिज्ञों के जीवन पर अनेकों फिल्मों का निर्माण हो चुका है। फिल्मों तथा विवादों का भी चोली-दामन का साथ हो चुका है। फिल्मों के निर्माण में करोड़ों की धनराशि खर्च होती है।

फिल्म उद्योग में बड़ी फिल्मों के निर्माण में काले धन के प्रयोग पर भी आमतौर पर चर्चा होती रहती है। पूर्व में अन्तर्राष्ट्रीय गिरोहों, अंडरवल्र्ड तथा आतंकी संगठनों की भी प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से भूमिका की चर्चा रही है। कुल मिलाकर फिल्म उद्योग कला, संस्कृति, तकनीक तथा देश-दुनिया के साथ औद्योगिक, राजनैतिक, खेल जगत के बड़े-बड़े घरानों का ऐसा संगम है जहां पर नेम-फेम के साथ चमक-दमक, धन-दौलत, आकर्षण सब कुछ उपलब्ध है। वर्तमान में सिनेमा कलात्मकता, प्रतिभा एवं योग्यता, गीत-संगीत, तकनीक, अभिनय योग्यताओं एवं सृजनात्मक अभिव्यक्तियों के धन दौलत, नेम-फेम, सुर-सुरा तथा सुंदरी का अद्भुत तथा आकर्षक मेल है। आधुनिक फिल्म निर्माण कलात्मक अभिव्यक्ति तथा योग्यता से अधिक कहीं राजनैतिक तथा आर्थिक व्यवस्था पर अधिक आधारित है। बॉक्स ऑफिस में एक दिन, एक सप्ताह तथा एक महीने में कितना व्यवसाय किया है इससे फिल्म की सफलता निश्चित होती है। अब तो फिल्मों के निर्माण में राजनैतिक दलों, केन्द्रीय तथा राज्य सरकारों का भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष सहयोग तथा समर्थन रहता है। कभी सरकारों द्वारा फिल्मों के प्रदर्शन पर बैन लगा दिया जाता है और कभी प्रमोशन के लिए टैक्स माफ कर दिया जाता है। भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में संविधान ने प्रत्येक नागरिक को ऐसी स्वतन्त्रता प्रदान की है कि कोई भी व्यक्ति कहीं भी, किसी विषय पर, कभी भी अपनी भड़ास निकाल सकता है। उद्योगपति, राजनीतिज्ञ तथा खेल जगत की हस्तियां भी अब फिल्मों में हाथ आजमाने लगी हैं। कोई न कोई आकर्षण तो है ही फिल्म उद्योग में। वर्तमान में फिल्म की कहानी, प्रोड्यूसर, निर्देशक, अभिनेता या अभिनेत्री जितना विवादास्पद होगा उतनी ही फिल्म के हिट होने की गारंटी है। फिल्म निर्माण तथा रिलीज से पहले ही फिल्मों पर रोक के लिए धरने-प्रदर्शन, आन्दोलन तथा न्यायालय में स्टे आर्डर के लिए जाना सामान्य बात हो गई है।

फिल्म रिलीज होने से पहले उसकी एडवरटाइजमेंट पर बहुत अधिक धनराशि खर्च की जाती है। समाचार पत्रों, सोशल मीडिया तथा इंटरनेट के माध्यम से एक तूफान सा पैदा कर फिल्म को देखने का आकर्षण पैदा कर दिया जाता है। कभी आन्दोलन हो जाते हैं, कभी सिनेमा घर तथा बॉक्स आफिस फूंक दिए जाते हैं। भारतवर्ष के लोग इतने अति संवेदनशील तथा ज्वलनशील हैं कि आक्रोश में छोटी सी बात पर दंगा फसाद, आन्दोलन, आगजनी, धरना प्रदर्शन के लिए किसी भी चिंगारी के संपर्क में आ सकते हैं, फिर नुकसान चाहे देश का हो, भौतिक संसाधनों का हो या फिर जान-माल का हो। आम जनता लड़ती-झगड़ती है। कानून व्यवस्था चरमराती है और फिल्म की कीमत बढ़ती जाती है। लगभग दो दशकों में बहुत सी विवादास्पद फिल्मों का निर्माण हुआ है जिनका उद्देश्य किसी विशेष धर्म, पड़ोसी देश, समुदाय, जाति के लोगों की भावनाओं के साथ राजनैतिक तथा आर्थिक भी होता है। इन विवादित फिल्मों में द ब्लैक फ्राईडे, फायर, कामसूत्र- अ टेल ऑफ लव, बैंडिट क्वीन, सिन्स, फना, वाटर, आरक्षण, नि:शब्द, पीके, रंग दे बसंती, उड़ता पंजाब, माय नेम इज खान, मैसेंजर ऑफ गॉड, अनफ्रीडम, गर्म हवा, रामलीला, लाल सिंह चड्ढा, ब्रह्मास्त्र, जोधा अकबर, द डर्टी पिक्चर, पद्मावत, क्वीन, इंदू सरकार, द कश्मीर फाइल्स, द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर आदि मुख्य हैं जो विवादों में रहने के बावजूद हिट रहीं। फिल्मों को हिट करने के लिए फिफल्म निर्माता विवादों को हथकंडे की तरह इस्तेमाल भी करने लगे हैं। कई बार तो जानबूझकर ऐसे अति संवेदनशील विषयों का चुनाव कर लिया जाता है जिनका लोग विरोध करें। माननीय न्यायालयों तथा सेंसर बोर्ड द्वारा विवादास्पद दृश्य को हटाने के बाद फिल्म को रिलीज कर दिया जाता है। तब तक फिल्म को पापुलैरिटी मिल चुकी होती है। यह एक सोचा समझा खेल होता है जिसे मासूम तथा भोली-भाली जनता नहीं समझ पाती। आजकल फिल्म निर्माता विपुल अमरतुल शाह, निर्देशक सुदीप्तो सेन तथा अदाकारा अदा शर्मा की फिल्म ‘द केरल स्टोरी’ चर्चा में है।

फिल्म का ट्रेलर रिलीज होने के बाद चर्चा है कि केरल में अब तक बत्तीस हजार हिंदू युवतियों को लव जिहाद के चुंगल में फंसाकर उनका धर्म परिवर्तन कर मुस्लिम बनाया गया। इस फिल्म के रिलीज होने से पहले ही उत्तरप्रदेश तथा मध्यप्रदेश की सरकारें इसे टैक्स फ्री करने का ऐलान कर चुकी हैं। केंद्रीय ग्रामीण विकास तथा पंचायती राज मंत्री बिहार सरकार को इस फिल्म को करमुक्त करने के लिए पत्र लिख चुके हैं। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री इस फिल्म को अपने राज्य में बैन करने का आदेश कर चुकी हैं। देश के प्रधानमंत्री कर्नाटक विधानसभा चुनाव में इस फिल्म का उल्लेख कर चुके हैं। दूसरी ओर केरल हाईकोर्ट द्वारा फिल्म के रिलीज पर अंतरिम रोक लगाने से मना करने के बाद मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंच गया है। क्या विचित्र स्थिति है? फिल्म उद्योग व्यवसाय करता है तथा कला के साथ राजनैतिक खेल हो जाता है, लोग दंगा फसाद, आन्दोलन, धरना प्रदर्शन तथा विवादित चर्चाओं में व्यस्त हो जाते हैं और बुद्धिजीवी वर्ग अवाक देखता रह जाता है।

प्रो. सुरेश शर्मा

शिक्षाविद


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