अंकों के आगे जहां और भी है…

कहीं कोई गायक, कोई धावक, कोई नर्तक, कोई संगीतज्ञ, कोई लेखक अपने हुनर को आवाज नहीं दे पाता क्योंकि वे अंकतालिका में ऊपर नहीं आते और जो अंक तालिका में ऊपर नहीं आते, वो फिर कहां आ पाते हैं। मालूम नहीं ऐसे कितने हुनरमंद सितारे अंकों के पर्दे के पीछे छुप जाते हैं और चांद की चमक का माद्दा रखने वाले चेहरे टूटे हुए सितारे बन जाते हैं। निस्संदेह मेहनत कर बेहतर अंक आने चाहिए, पर अंक ही सब कुछ नहीं। अंकों के आगे भी जहां है। वास्तव में हमें बहुआयामी शिक्षा चाहिए…

अमूमन बहुत से सफल व अनुभवी लोग कहते हैं कि विद्यालयों की परीक्षाओं में मध्यवर्ती अंक हासिल करने वाले छात्र अक्सर ऊंचा मुकाम हासिल करते हैं और शतक के निकट रहने वाले बहुतायत उस ऊंचाई को नहीं छू पाते या कहीं भीड़ में खो जाते हैं। परंतु बावजूद इसके हकीकत यह है कि हमें अंकों से ही मुहब्बत है।

हिमाचल प्रदेश स्कूल शिक्षा बोर्ड, सीबीएसई व अन्य शिक्षा बोर्ड के परीक्षा परिणाम आए हैं। अखबारों में मैरिट सूची में आए छात्रों के चेहरे चमक रहे हैं। सोशल मीडिया पर भी अंकों की धूम मची है। बधाई दी व ली जा रही है। मैरिट में आए छात्रों के अंकों को देख कर ऐसा लग रहा है जैसे छात्रों के अंक नहीं बल्कि बुखार में तपते किसी आदमी के बुखार को थर्मामीटर पर देख रहा हूं या तेंदुलकर, कोहली जैसे शतकवीरों के शतकों के आंकड़े टीवी स्क्रीन पर देख रहा हूं। इन शतकवीरों को बधाई तो जरूर बनती है, परंतु में एक और महत्त्वपूर्ण पक्ष की ओर ध्यान आकृष्ट करना चाह रहा हूं।

अंकों की दौड़ व स्पर्धा का एक पहलू यह भी है कि कम अंक हासिल करने वाली बहुआयामी प्रतिभाएं कहीं अनदेखी रह रही हैं। अधिक से अधिक अंक पाने की होड़ में छात्र ऐसे तोते बन रहे हैं जिन्हें ‘राम राम’ रटना आ गया है। वे एक ही रंग के तोते बन रहे हैं। वे ‘राम राम’ बोलते हैं और उन्हें नहीं मालूम कि राम को भगवान भी कहते हैं। ये भी कम कमाल नहीं कि छात्र भाषा व साहित्य के विषयों में भी शत-प्रतिशत अंक प्राप्त कर रहे हैं। अंग्रेजी, संस्कृत, हिंदी व समाज शास्त्र गणितीय विषय नहीं हैं। इनमें शत-प्रतिशत अंक हैरान तो करते ही हैं, पर कई सवाल भी खड़ा करते हैं।

एक वो हमारा जमाना था जब 75-80 प्रतिशत अंक लेकर मैरिट में पहले सौ में शुमार हो जाते थे। इससे कम आने पर भी मस्ती होती थी। एक आज का जमाना है कि 75-80 प्रतिशत वाले की तो बात ही नहीं होती और इससे नीचे वालों की तो जैसे कोई हस्ती ही नहीं होती। 90-95 प्रतिशत वाले भी बुझे-बुझे से रहते हैं क्योंकि वे इस दबाव में रहते हैं कि क्या किसी श्रेष्ठ संस्थान में दाखिला मिल पाएगा कि नहीं। कमाल यह भी है कि उत्तर पुस्तिकाओं का मूल्यांकन करने वाले गुरुजी को अंग्रेजी, समाज शास्त्र, हिंदी व संस्कृत जैसे मानविकी विषयों में भी छात्रों के अंक काटने का मौका नहीं मिलता। शतकवीर छात्र बधाई के पात्र हैं क्योंकि वे तो वैसा कर रहे हैं जैसी व्यवस्था उनके लिए बनी है। वो वैसा बन रहे हैं जैसे सांचे व ढांचे में उन्हें रखा जा रहा है। ढांचा और सांचा उन्हें बढिय़ा किस्म के तोते बना रहा है। अपने 24 वर्षीय अध्यापन का अनुभव बताता है कि अक्सर अंग्रेजी जैसे विषयों में 90 से अधिक अंक लेने वाले छात्रों को भी इस विषय का आधारभूत ज्ञान नहीं है। बच्चों को अंकों की जो घुट्टी पिलायी जा रही है, उससे वह हर विषय में शत-प्रतिशत अंक लेना चाहता है। वह एक अंक कट जाने का अफसोस करता है। माता-पिता भी अपने बच्चों पर अंकों का दबाव बनाए रखते हैं क्योंकि अच्छे संस्थान में दाखिले के लिए अंक चाहिए। बातें सर्वांगीण विकास की होती हैं, परंतु आंख, कान, मन सब अंकों पर ही अटके रहते हैं। उत्कृष्ट शिक्षण संस्थानों में दाखिला भी अंकों के अनुसार हो रहा है। उदाहरण तो एडिसन, आइन्सटीन, स्टीव जॉब्स व रौवलिंग जैसे लोगों के दिए जाते हैं, परंतु मन है कि अंकों से ही प्रीत कर बैठा है। अच्छे अंक लेना उपलब्धि तो है, पर अंकों का अत्यधिक दबाव होने से छात्र ‘तोता राम’ बन कर रह गए हैं। यह छात्र के मानसिक विकास व व्यक्तित्व के लिए उचित नहीं।

अंकों के इस संघर्ष में छात्र ‘येन केन प्रकारेण’ अंक प्राप्त करने का प्रयास करता है। इस दौड़ में समाज भी अपना हिस्सा बाकायदा निभा रहा है। नाते-रिश्ते वालों के तो क्या कहने। उन्हें अपने भतीजे, भांजों व अन्य नाते-रिश्ते में परिणामों की चिंता रहती है। परिणाम आते ही उनकी कुदृष्टि अंकों पर जरूर पड़ती है। अंकों का विश्लेषण करने में वे बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं। कम अंक वाले छात्र बड़ी मुश्किल से इस समय को गुजारते हैं। अच्छे शिक्षण संस्थान के अलावा मा-बाप इसे समाज में अपनी नाक का विषय भी बना लेते हैं। उधर हर अध्यापक चाहता है कि उसका छात्र अच्छे अंक ले और ऐसा प्रयास उसे करना भी चाहिए। परंतु कई अध्यापकों के लिए भी अंक प्रतिष्ठा व विश्वसनीयता का सवाल होता है। अत: वे छात्रों को बढिय़ा से बढिय़ा ‘तोता राम’ बनाने का पूरा प्रयास करते हैं। परीक्षा भवनों में भी ये प्रयास दिखता ही रहता है। आखिर अपने विषय में डिस्टिंकशन आने पर गुरुजी का रुतबा बना रहता है। जब अंकों का खेल चल ही रहा है तो पीछे कौन रहना चाहता है।

मैं यह नहीं कह रहा हूं कि बेहतर अंक आना खराब बात है, पर यह भी महत्त्वपूर्ण है कि अंक कैसे-कैसे करके आए हैं और क्या अंक ही सब कुछ है। अंकों की इस भागमभाग में हमारी वो खेल प्रतिभाएं कहीं मन मसोस कर रह जाती हैं जो सत्र भर टूर्नामेंटों में ट्रॉफियां जीत कर स्कूल का नाम रौशन करते हैं। उनके लिए सिर्फ कुछ पलों की तालियों के सिवाय कोई अंक नहीं। कहीं कोई गायक, कोई धावक, कोई नर्तक, कोई संगीतज्ञ, कोई लेखक अपने हुनर को आवाज नहीं दे पाता क्योंकि वे अंकतालिका में ऊपर नहीं आते और जो अंक तालिका में ऊपर नहीं आते, वो फिर कहां आ पाते हैं। मालूम नहीं ऐसे कितने हुनरमंद सितारे अंकों के पर्दे के पीछे छुप जाते हैं और चांद की चमक का माद्दा रखने वाले चेहरे टूटे हुए सितारे बन जाते हैं। निस्संदेह मेहनत कर बेहतर अंक आने चाहिए, पर अंक ही सब कुछ नहीं। अंकों के आगे भी जहां है। वास्तव में हमें बहुआयामी शिक्षा चाहिए। हमें केवल अंक पाने वाले ‘राम राम’ कहने वाले तोते नहीं, बल्कि जिंदगी से लोहा लेने वाले विधाओं के धनी इनसान चाहिए। प्रतिभा का आकलन केवल अंक नहीं हो सकते।

जगदीश बाली

स्वतंत्र लेखक


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