सियासत के दंगल से मुक्त हो कुश्ती

रणभूमि हो या खेल का मैदान, सैनिक व खिलाड़ी देश का इकबाल बुलंद करने के लिए लड़ते हैं। वैश्विक खेल मानचित्र पर तिरंगा फहराकर देश का गौरव बढ़ाने वाले खिलाडिय़ों की भावनाओं का सम्मान होना चाहिए…

प्राचीन काल से भारत का सबसे लोकप्रिय खेल पारंपरिक कुश्ती रहा है। कुश्ती के सम्मान में हर वर्ष 23 मई को ‘विश्व कुश्ती दिवस’ मनाया जाता है। भारतीय ग्रामीण संस्कृति में मनोरंजन का साधन रही पारंपरिक कुश्ती को राजाओं ने संरक्षण प्रदान करके विकसित करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था। बिलासपुर के नलवाड़ मेले में होने वाले कुश्ती दंगल की रियासतकाल से ही देशव्यापी ख्याति रही है। जिला का कोटधार कस्बा पारंपरिक कुश्ती के पहलवानों का गढ़ रहा है। मगर विडंबना है कि देश की शान रही पहलवानी पर गर्दिश के बादल मंडरा रहे हैं। दिल्ली के जंतर मंतर पर धरने पर बैठे देश के अंतरराष्ट्रीय पहलवानों के अश्क कुश्ती के दर्द को बयान कर रहे हैं। अखाड़ों में जोर आजमाईश करके कई कीर्तिमान स्थापित करने वाले पहलवानों का दंगल सियासत से हो रहा है। ओलंपिक खेल, विश्व चैंपियनशिप, एशियन गेम्स व कॉमनवेल्थ जैसे खेल मुकाबलों में भारत के लिए सबसे ज्यादा पदक जीतने का श्रेय कुश्ती को ही जाता है। ओलंपिक में हॉकी के बारह पदकों के बाद सर्वाधिक सात पदक हमारे पहलवानों ने ही जीते हैं। सन् 1920 के एंटवर्प ओलंपिक में रणधीर शिंदे व कुमार नावले नामक दो पहलवानों ने कुश्ती में पहली मर्तबा भारत का प्रतिनिधित्व किया था।

आजाद भारत का पहला व्यक्तिगत ओलंपिक पदक पहलवान खशाबा जाधव ने 1952 के हेलसिंकी ओलंपिक में कुश्ती में ही जीता था। सन् 1934 में लंदन में आयोजित ‘ब्रिटिश एम्पायर गेम्स’ में भारत के पदार्पण में रेलवे के पहलवान राशिद अनवर ने ‘कांस्य’ पदक जीता था। इस प्रकार कॉमनवेल्थ खेलों का पहला पदक भी कुश्ती में ही था। सन् 1954 में ‘मनीला’ में आयोजित दूसरे एशियाई खेलों में भारत के पहलवान ‘खाशीद’ ने ‘रजत’ व सोहन सिंह ने ‘कांस्य’ पदक कुश्ती में जीते थे। पाकिस्तान को चार युद्धों में धूल चटाने वाली भारतीय सेना ने देश को कई अंतरराष्ट्रीय पहलवान दिए जिन्होंने वैश्विक खेल पटल पर पदक जीतकर भारतीय कुश्ती का गौरव बढ़ाया है। सन् 1972 के ‘म्युनिख’ ओलंपिक में भारत का प्रतिनिधित्व करने वाले पहलवान व कुश्ती का मुमताज चेहरा मास्टर चंदगी राम पहलवानी में एक बड़ा नाम रहा है। भारतीय कुश्ती को अंतरराष्ट्रीय पटल पर विशेष पहचान दिलाने वाले चंदगी राम का संबंध सेना की ‘जाट रेजिमेंट’ से था। माटी के अखाड़ों से लेकर मैट पर कुश्ती में कई पदकवीर तैयार करने तथा महिला कुश्ती को निखारने में चंदगी राम का विशेष योगदान रहा था। सन् 1958 के ‘कार्डिफ’ राष्ट्रमंडल खेलों में कैप्टन लीलाराम (ग्रेनेडियर्स) ने कुश्ती में पहला ‘स्वर्ण पदक’ जीतकर नया इतिहास रचा था। ‘पद्मश्री’ लीला राम ने 1956 मेलबॉर्न व 1960 के रोम ओलंपिक में भी भाग लिया था। ‘मेलबोर्न’ ओलंपिक का हिस्सा रहे पहलवान सूबेदार देवी सिंह ‘जाट रेजिमेंट’ ने 1970 के ‘एडिनबर्ग’ राष्ट्रमंडल खेलों में स्वर्ण पदक तथा सेना के ही ओलंपियन पहलवान विश्वनाथ सिंह व कैप्टन सज्जन सिंह दोनों ने रजत पदक जीते थे। 1966 के किग्ंस्टन राष्ट्रमंडल खेलों में स्वर्ण पदक जीतने वाले पहलवान कैप्टन मुख्तियार सिंह ने 1968 के ‘मैक्सिको’ ओलंपिक में भी भाग लिया था। विश्व कुश्ती चैंपियनशिप में भारत के लिए पहला पदक ‘कांस्य’ भी सेना के पहलवान कैप्टन ‘उदय चंद’ (ग्रेनेडियर्स) ने 1961 में योकोहामा में जीता था। तीन ओलंपिक में भाग लेने वाले उदय चंद ने 1962 के जकार्ता एशियाई खेलों में ‘रजत’ तथा 1970 के एडिनबर्ग कॉमनवेल्थ खेलों में ‘स्वर्ण’ पदक जीता था।

सन् 1961 में कुश्ती का प्रथम ‘अर्जुन अवार्ड’ भी कै. उदय चंद को ही मिला था। सेना के ओलंपियन पहलवान उदय चंद व चंदगी राम पारंपरिक कुश्ती में भी दिग्गज थे। 1970 के दशक में माटी के अखाड़े के मशहूर रुस्तम मेहरदीन व मारुति माने को चंदगी राम ने ही चुनौती पेश की थी। द्रोणाचार्य अवार्डी पहलवान कैप्टन ‘चांदरूप’ (ग्रेनेडियर्स) ने भारतीय कुश्ती के लिए महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था। सेना के पहलवान कै. नेत्रपाल हुड्डा ने दो एशियन गेम्स यानी 1970 के ‘बैंकॉक’ में कांस्य तथा 1974 के ‘क्राइस्टचर्च’ में ‘रजत’ पदक देश के नाम किए थे। हिमाचल के अंतरराष्ट्रीय पहलवान कै. रमेश चंद (डोगरा रेजिमेंट) ग्रीको रोमन कुश्ती में एक बड़ा नाम रहा है। देश के लिए युद्धभूमि से लेकर कुश्ती में कई कीर्तिमान स्थापित करने वाले इन महान पहलवानों की खेल विरासत को वर्तमान में सेना के सूबेदार दीपक पुनिया, दीपक नेहरा व नवीन मलिक जैसे पहलवान अंतरराष्ट्रीय खेल मुकाबलों में पदक जीत कर बखूबी आगे बढ़ा रहे हैं। कई युवा पहलवान खेल कोटे के तहत सेना का हिस्सा बनकर प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे हैं। भावार्थ यह है कि भारतीय सेना दशकों से खिलाडिय़ों की प्रतिभा को निखार रही है। भारत में खेल प्रतिभाओं की कमी नहीं है। खेलों के उज्ज्वल भविष्य के लिए खिलाडिय़ों को तराश कर उन्हें सेना की तर्ज पर उचित खेल मंच प्रदान करना होगा। अंतरराष्ट्रीय पहलवानों की शौहरत व प्रदर्शन युवा वर्ग को कुश्ती की तरफ आकर्षित कर रहा है। देश की बालिकाओं के लिए महिला खिलाड़ी रोल मॉडल बन चुकी हैं।

अत: महिला खेल संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए खेल अनुशासन व सुरक्षित माहौल जरूरी है। कुश्ती की बेहतर सूरतेहाल के लिए पहलवानों व कुश्ती संघ में चल रहे सियासी दंगल का समाधान होना चाहिए। जब देश में कई अंतरराष्ट्रीय व ओलंपिक स्तर के नामचीन खिलाड़ी मौजूद हैं तो खेल संघों से सियासत रुखसत होनी चाहिए। मैदाने सियासत के माहिर खिलाड़ी देश के हुक्मरानों को समझना होगा कि अंतरराष्ट्रीय खेल पटल पर राष्ट्रीय ध्वज लहराने की कुव्वत रखने वाले पदकवीर एक दिन में तैयार नहीं होते। खुद को माटी में खपा देने की ललक, सालों की कड़ी मेहनत के साथ वतन के लिए कुछ कर गुजरने का जुनून तथा तिरंगे की शान के लिए जोश व जज्बे के साथ प्रतिद्वंद्वी से आखिरी बाजी व आखिरी सांस तक पूरी शिद्दत से जुझना पडऩा है। रणभूमि हो या खेल का मैदान, सैनिक व खिलाड़ी देश का इकबाल बुलंद करने के लिए लड़ते हैं, पैसा कमाने के लिए नहीं। वैश्विक खेल मानचित्र पर तिरंगा फहराकर देश का गौरव बढ़ाने वाले खिलाडिय़ों की भावनाओं का सम्मान अवश्य होना चाहिए।

प्रताप सिंह पटियाल

स्वतंत्र लेखक


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