मनुष्य होने की कला

By: Jun 3rd, 2023 12:20 am

ओशो

ऐसा कहा जाता है कि एक बार सूफी फकीर फरीद बनारस के निकट होकर गुजर रहे थे, जहां कबीर रहते थे। फरीद के शिष्यों ने कहा, यदि आप कबीर से भेंट करें तो आप दोनों का मिलना हम सभी के लिए अद्भुत रोमांचकारी, आनंदमय और आशीर्वाद स्वरूप होगा। ऐसा ही कबीर और उनके शिष्यों के मध्य भी हुआ। जब उन्होंने सुना कि फरीद उधर से गुजर रहे हैं इसलिए उन्होंने कबीर से कहा, यदि आप फरीद साहब से कुछ दिन आश्रम में रुकने का आग्रह करें, तो हम सभी के लिए यह बहुत अच्छा होगा। फरीद के शिष्यों ने कहा, आप दोनों के मध्य हुए वार्तालाप को सुनने का हमें महान अवसर मिलेगा।

हम लोग वह सब कुछ सुनने को बहुत आतुर हैं कि बुद्धत्व को उपलब्ध हुए दो संत एक दूसरे से क्या कहते हैं। अपने शिष्यों की बात सुनकर फरीद हंसा और उसने कहा, हम दोनों मिलेंगे तो जरूर लेकिन मैं नहीं सोचता कि वहां कोई बातचीत भी होगी, लेकिन अच्छा है। तुम लोग खुद देखना, क्या होता है? कबीर ने अपने शिष्यों से कहा, फरीद से जाकर कहो कि वह यहां पधारें और विश्राम करें, लेकिन जो भी पहले बोलेगा वह यह सिद्ध करेगा कि वह बोध को उपलब्ध नहीं है। फरीद आए कबीर ने उनका स्वागत किया। वे दोनों हंसे। उन्होंने एक दूसरे का आलिंगन किया और मौन बैठे रहे। फरीद वहां दो दिन रुके और वे कबीर के साथ कई घंटे साथ बैठे रहे। दोनों के ही शिष्य बहुत बेचैनी से प्रतीक्षा कर रहे थे कि दोनों के मध्य कुछ बातचीत हो। कोई कुछ तो कहे, लेकिन कोई एक शब्द तक न बोला। तीसरे दिन फरीद जब चलने लगे तो कबीर ने उन्हें विदा किया। वे दोनों फिर हंसे। एक दूसरे से आलिंगनबद्ध हुए और फिर अलग हो गए। विदा होने के क्षण फरीद के शिष्यों ने उन्हें चारों ओर से घेर कर कहा, सब कुछ व्यर्थ रहा। समय ही बर्बाद हुआ।

हम लोगों को आशा थी कि आप दोनों के मिलने पर कुछ अभूतपूर्व घटेगा। पर कुछ भी तो नहीं हुआ। आप अचानक वहां इतने गूंगे क्यों बन गए। आप हम लोगों से तो बहुत सी बातें करते हैं। फरीद ने उत्तर दिया, वह सभी जो मैं जानता हूं वह भी जानते हैं। कुछ भी कहने को रहा ही नहीं। मैंने उनकी आंखों में झांका और वह वहीं दिखाई दिए जहां मैं हूं। जो कुछ उन्होंने देखा, वही सब कुछ मैंने भी देखा। जो कुछ उन्होंने महसूस किया, मैंने भी वैसा ही महसूस किया। अब वहां कहने को कुछ था ही नहीं। दो अज्ञानी व्यक्ति एक-दूसरे के साथ बातचीत कर सकते हैं। वे बहुत अधिक बातें करते हैं। वे बातें करने के सिवा और कुछ करते ही नहीं। दो बुद्ध आपस में कोई बात कर ही नहीं सकते, क्योंकि वे एक जैसा ही जानते हैं। कहने को कुछ है ही नहीं। केवल बुद्ध और बिना बोध को उपलब्ध व्यक्ति के मध्य ही अर्थपूर्ण संवाद हो सकता है, क्योंकि एक जानता है और दूसरा अभी अज्ञानी है। मैं कहता हूं, एक अर्थपूर्ण संवाद। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि इस संवाद से सत्य सम्प्रेषित किया जा सकता है, लेकिन कुछ इशारों कुछ संकेतों और कुछ भावा व्यक्तियों द्वारा कुछ प्रकट किया जा सकता है, जिससे दूसरा छलांग लगाने को तैयार हो सकता है। सत्य तो सम्प्रेषित नहीं किया जा सकता, लेकिन प्यास दी जा सकती है। कोई भी शिक्षण चाहे वह कितना भी कीमती क्यों न हो, शब्दों के द्वारा वह कुंजी नहीं दे सकता। बुद्ध बहुत बोलते रहे, उन जैसा व्यक्ति खोज पाना कठिन है जो इतना अधिक बोला हो। उन सभी शास्त्रों का, जो उपलब्ध हैं और जो बुद्ध के नाम पर हैं, अध्ययन करते हुए विद्वानों का कहना है कि यह असंभव जैसा लगता है, क्योंकि बोध को उपलब्ध होने के बाद वे चालीस वर्ष और जीवित रहे और पूरे बिहार में एक गांव से दूसरे गांव की ओर यात्रा करते हुए वह बोलते ही रहे। वह बिहार भर में इतना घूमे और बिहरे कि प्रांत का नाम बिहार, बुद्ध के बिहरने से ही पड़ा। बिहार का अर्थ है बुद्ध का यात्रा पथ।


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