जलवायु परिवर्तन और पर्वतीय आजीविका

अनियंत्रित वाहन आगमन से फैलने वाले धुएं से स्थानीय स्तर पर तापमान वृद्धि की संभावना बढ़ जाती है…

विश्व भर में पर्वतीय क्षेत्र अगम्यता और नाजुकता के कारण हाशिए पर रहते आये हैं। इस तथ्य को मान्यता देते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1992 के पर्यावरण और विकास पर आयोजित रिओ सम्मेलन में माउंटेन एजेंडा 21 के रूप में पर्वतीय क्षेत्रों के लिए एक विशेष अपील जारी की थी। पर्वतों को मानव जाति के लिए जल मीनार, जैव विविधता भंडार, पवित्र स्थल, पर्यटन के रूप में राहत स्थलों, सघन वनों और जलवायु नियंत्रण जैसी अनेक पर्यावरणीय सेवाओं के प्रदाता के रूप में मान्यता दी। इसके साथ ही वर्तमान विकास मॉडल में पर्वतों के साथ जो मुख्य धारा के विकास का रिश्ता बना वह आर्थिक रूप से असमान शर्तों पर स्थापित हुआ है। पर्वतीय संसाधनों पर मुख्य धारा अर्थतंत्र का कब्जा मजबूत होता जा रहा है, किन्तु उसके बदले पर्वतीय क्षेत्रों को जितना आर्थिक संबल वापिस मिलना चाहिए वह नहीं मिलता है। इसलिए विश्व भर के पर्वतों के लिए विशेष व्यवस्था विकसित किये जाने की बात कही गई। हरित प्रभाव गैसों के बढ़ते उत्सर्जन के कारण जलवायु परिवर्तन एक वास्तविकता बन गई है। पर्वतीय स्थलों के संरक्षण से जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों में कुछ राहत की सांस ली जा सकती है। भारतवर्ष के सन्दर्भ में हिमालय क्षेत्र की स्थिति से इस बात को समझा जा सकता है। वर्तमान विकास मॉडल के चलते हिमालय के संसाधनों का दोहन और विकास मैदानी क्षेत्रों की जरूरतों के हिसाब से किया जाता रहा है। बड़े बांध, सीमेंट और मेगा पर्यटन, वनों का दोहन आदि में स्थानीय हित कहीं अनदेखी का शिकार हो जाते हैं। भाखड़ा, पौंग बांधों के विस्थापित पांच दशकों तक भी पूरी तरह से पुनर्वासित नहीं हो पाए हैं।

हिमाचल में बनने वाला सीमेंट जिसके लिए लोग विस्थापन का शिकार हुए, हिमाचल में महंगा मिलता है और हिमाचल से बाहर सस्ता। इसके लिए कई बहाने बनाए जा सकते हैं, जैसे ढुलाई सब्सिडी आदि, किन्तु अंतिम परिणाम तो यही है न कि हिमाचल का सीमेंट हिमाचलियों को महंगा मिलता है। इन बड़े प्रोजेक्टों से कोई रोजगार भी स्थानीय स्तर पर टिकाऊ रूप से पैदा नहीं होता है। पर्वतीय क्षेत्रों में खेती, बागवानी, पशुपालन, दस्तकारी, मधुमक्खी पालन, स्थानीय नदी-नालों से मछली पकडऩा आदि परंपरागत आजीविका के साधन रहे हैं। वर्तमान में नौकरी सबसे आकर्षक आजीविका के रूप में उभरा है, किन्तु नौकरी तो 2-3 फीसदी से ज्यादा के लिए संभव नहीं है। तो बाकी की आबादी को पर्वतीय संसाधनों के टिकाऊ उपयोग पर आधारित व्यवसायों पर निर्भर रहना पड़ेगा। इस दिशा में नए नवाचारों को लेकर गवर्नमेंट कॉलेज शाहपुर में उत्तर-पश्चिमी हिमालय में टिकाऊ आजीविका संवर्धन पर आयोजित 27 मई से तीन दिवसीय कार्यशाला में मुझे जाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उसमें कुछ अच्छे सुझाव सामने आए, उन्हें भी यहां उद्धृत करना प्रासंगिक होगा। पर्यटन में रोजगार की पर्याप्त संभावनाएं हैं, किन्तु पर्यटन को जिम्मेदार बनाना होगा। मेगा पर्यटन कचरा लेकर आता है। सांस्कृतिक प्रदूषण भी एक खतरा हो सकता है। इनसे बचते हुए हिमालय की शुद्ध वायु, स्वच्छ जल, रमणीय भूदृश्य का लाभ लेकर, स्वास्थ्य-पर्यटन, ईको पर्यटन, साहसिक पर्यटन, होम स्टे आदि के माध्यम से जिम्मेदार पर्यटन के रूप में विकसित करके टिकाऊ आजीविका खड़ी की जा सकती है। हिमालय में ऐसे उत्पादों पर जोर देना चाहिए जो केवल यहां के वातावरण में ही हो सकते हों। जिसे हम निश उत्पाद कह सकते हैं, जिसमें बेमौसमी सब्जी आदि पर अच्छा काम हो रहा है।

कुछ पहल सुगन्धित कृषि की दिशा में भी हो रही है। इस क्षेत्र में बहुत काम करने की जरूरत है। खास करके सुगन्धित एस्सेंशिय्ल तेलों के क्षेत्र में। फिलहाल पूरा साल काम देने वाली सुगन्धित फसलों के फसल चक्र को स्थापित करना होगा। सुगन्धित तेलों का अरबों करोड़ रुपए वैश्विक कारोबार है, जिसमें भारत का हिस्सा अभी नगण्य है। हिमालय में इसकी अपार संभावना है, जिसकी खोज की जानी चाहिए। आईएचबीटी पालमपुर इस दिशा में अच्छा काम कर रहा है, किन्तु इसको और ज्यादा बल प्रदान करने की जरूरत है। कुछ ऐसी परियोजनाओं पर काम करने के लिए इस संस्थान को बजट दिया जाना चाहिए जिससे हिमाचल और अन्य हिमालयी राज्यों के लिए उपयुक्त सुगन्धित फसलों का वर्षपर्यंत उत्पादन चक्र स्थापित करने की दिशा में काम हो और उत्पादों की लाभकारी बिक्री की व्यवस्था हो सके। स्वच्छ ऊर्जा की बढ़ती जरूरत के दृष्टिगत इस दिशा में भी काफी काम हो सकता है। हिमालय में चीड़ रोपण ने पर्वतीय चरागाहों और अन्य जैव विविधता को नष्ट किया है जिससे पशुपालन को बड़ा नुकसान हुआ है और इससे आम किसान को कोई आजीविका भी नहीं मिली है। यदि चीड़ की पत्तियों के ब्रिकेट्स बनाए जाएं तो चीड़ की पत्तियां वनों से निकाल कर वनों को आग से भी बचाया जा सकेगा और लोगों को भी काम मिलेगा। इस दिशा में कुछ पहल हो रही है जिसे जहां-जहां चीड़ के वन हैं वहां तक बढ़ाया जाना चाहिए। इसी कड़ी में बांस से एथनोल बनाने का काम है। बांस से गन्ने के मुकाबले दस गुणा ज्यादा एथनोल बनाया जा सकता है।

और इसकी सिंचाई की भी जरूरत नहीं होती। हिमालय की तराई के क्षेत्रों में बांस सफलता से उगाया जा सकता है। इससे तराई के इलाकों में फैले भयंकर खरपतवारों को भी नियंत्रित किया जा सकेगा। हिमाचल सरकार कृषि अवशेषों से एथनोल बनाने की अच्छी पहल शुरू कर रही है किन्तु इसके साथ यदि बांस से एथनोल को जोड़ा जाए तो बहुत बड़े पैमाने पर एथनोल उत्पादन किया जा सकता है जिसकी मांग सतत रहने वाली है और बढ़ती जाने वाली है। औषधियों की खेती में भी कुछ संभावना है, बशर्ते उनके आर्थिक लाभ-हानि पक्ष को देख कर ही किसानों को सुझाव दिया जाए। हिमालय में वनाधिकार कानून 2006 को सही तरीके से लागू करके वनाधारित सामुदायिक आजीविका को बढ़ाया जा सकता है और वन प्रबन्धन में समुदायों की सक्रिय भूमिका को भी सुनिश्चित किया जा सकता है। इससे वन संरक्षण और प्रबन्धन का काम भी बेहतर होगा। इसके साथ दीर्घकालीन राष्ट्रीय हितों की अनदेखी से भी बचना होगा। वनों का अत्यधिक दोहन शुद्ध वायु के भंडार और वनों द्वारा संरक्षित जल को नष्ट करने जैसा है, अनियंत्रित वाहन आगमन से फैलने वाले धुएं से स्थानीय स्तर पर तापमान वृद्धि की संभावना बढ़ जाती है। प्रदूषणकारी उद्योगों को भी हिमालय में स्थान नहीं मिलना चाहिए। हिमालय से संबंधित संवेदनशील मुद्दों में ढील अक्षम्य है।

कुलभूषण उपमन्यु

पर्यावरणविद


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