हिमाचली हिंदी कहानी : विकास यात्रा

By: Jun 4th, 2023 12:06 am

डा. हेमराज कौशिक

अतिथि संपादक

मो.-9418010646

कहानी के प्रभाव क्षेत्र में उभरा हिमाचली सृजन, अब अपनी प्रासंगिकता और पुरुषार्थ के साथ परिवेश का प्रतिनिधित्व भी कर रहा है। गद्य साहित्य के गंतव्य को छूते संदर्भों में हिमाचल के घटनाक्रम, जीवन शैली, सामाजिक विडंबनाओं, चीखते पहाड़ों का दर्द, विस्थापन की पीड़ा और आर्थिक अपराधों को समेटती कहानी की कथावस्तु, चरित्र चित्रण, भाषा शैली व उद्देश्यों की समीक्षा करती यह शृंखला। कहानी का यह संसार कल्पना-परिकल्पना और यथार्थ की मिट्टी को विविध सांचों में कितना ढाल पाया। कहानी की यात्रा के मार्मिक, भावनात्मक और कलात्मक पहलुओं पर एक विस्तृत दृष्टि डाल रहे हैं वरिष्ठ समीक्षक एवं मर्मज्ञ साहित्यकार डा. हेमराज कौशिक, आरंभिक विवेचन के साथ किस्त-8

-(पिछले अंक का शेष भाग)

संसार चंद प्रभाकर के दूसरे कहानी संग्रह ‘जनजीवन’ की कहानियों में ग्रामीण अंचल से संबद्ध विविध समस्याओं को उठाया है। ‘विश्वासघात’ में दो मित्रों के मध्य पैसे को लेकर हुए विश्वासघात की कहानी है। कहानी में संयोग सृष्टि से स्वाभाविकता खंडित हुई है। ‘समझौता’ में दो पुराने सहपाठियों के आदर्शों की टकराहट की व्यंजना और परस्पर प्रेम की अंतर्धारा रूपायित है। कहानी यह भी प्रकट करती है कि समय और परिवेश के परिवर्तन के साथ गांव में भी निश्छलता और ईमानदारी के स्थान पर भ्रष्टाचार व्याप्त होने लगा है। कहानीकार संसार चंद प्रभाकर की कहानियों में विविध घटनाओं और चरित्रों की कथात्मक प्रस्तुति में उनकी किस्सागोई और भाषा की सहजता और शैली की वर्णनात्मकता रोचक है।

‘जमा हुआ जल’ जगदीश शर्मा का सन् 1985 में प्रकाशित पंद्रह कहानियों का संग्रह है। कहानियों का क्रम इस प्रकार है : भावनाओं की व्यथा, अनुत्तरित प्रश्न, विस्मृति की परत, लालल, दूरी, सुलगती लकड़ी, बिखरा जीवन, कटी घास, सती, पंक्तियां पाती की, प्रतीक्षा, व्यथा का भार, जिंदगी और जमा हुआ जल। ‘भावनाओं की व्यथा’ में लेखक ने नारी के निजी व्यक्तित्व, अस्मिता और अस्तित्व के प्रश्न को विवाहित जीवन के संदर्भ में उठाया है। ‘अनुत्तरित प्रश्न’ में लेखक ने व्यावहारिक व्यक्तित्व और कृतित्व की सैद्धांतिकता के अंतर को सामने लाया है। ‘विवशता’ में एक नारी की विवशता का निरूपण है। ‘लालल’ में एक क्षेत्र के लोक विश्वासों और लोक गाथाओं को सांस्कृतिक पृष्ठभूमि में प्रस्तुत किया है। ‘सुलगती लकड़ी’ ग्रामीण परिवेश को साकार करने वाली कहानी है। ‘बिखरा जीवन’ में पारिवारिक जीवन के विघटन के कारणों की ओर संकेत है। ‘रिसती जिंदगी’ में आज के नौकरशाहों के भ्रष्टाचारों को सामने लाया है। ‘जमा हुआ जल’ में नारी जीवन की त्रासदी और पुरुष जाति के स्वार्थों का निरूपण है। इस संग्रह की कहानियां नारी जीवन की समस्याओं को विविध कोणों से प्रस्तुत करती हैं। सभी कहानियां नारी जीवन पर केंद्रित हंै। उनकी कहानियां ज्यादातर वर्णनात्मक शैली में लिखी गई हैं। यही कारण है कि संवादों के अभाव में कहानियों की गतिशीलता और सरसता को व्याघात पहुंचा है। कथ्य महत्वपूर्ण होते हुए भी लेखक की बौद्धिकता कहानियों को जकड़े रखती है। परिवेशगत यथार्थ को सजीवता के साथ सामने लाने वाली सधी हुई भाषा जगदीश शर्मा के पास है, इसमें कोई संदेह नहीं है। पहला कहानी संग्रह होते हुए भी यह उनके प्रौढ़ चिंतन और परिपक्व दृष्टि का परिचायक है।

शंकर लाल शर्मा के दो कहानी संग्रह ‘बिके हुए लोग’ (1984) और ‘कटा हुआ वृक्ष’ (1987) प्रकाशित हैं। शंकर लाल शर्मा की ज्यादातर कहानियां ग्रामीण परिवेश को लेकर लिखी गई हैं और इनमें परिचित देहाती परिवेश में निम्न मध्यम वर्ग के शोषण का चित्रण है। सभी पात्र एकदम जाने-पहचाने और संवेदना के स्तर पर सहज हैं। बुनियादी जरूरतों के लिए जीवन पर्यंत संघर्ष कर टूटने वाले ग्रामीण चरित्रों, मूलभूत विसंगतियों और परिस्थितिगत कमजोरियों की यथार्थ परक अभिव्यक्ति उनकी कहानियों में है। ‘बिके हुए लोग’ संग्रह में कुल ग्यारह कहानियां- उसकी पीड़ा, जिंदगी का बोझ, खंडहर, रेखा, अधूरे वृत्त, बिके हुए लोग, हत्यारा, वापसी, दूसरी बार, विकल्प और मेला संग्रहीत हैं। ‘उसकी पीड़ा’ संग्रह की पहली और सर्वश्रेष्ठ कहानी है। इस कहानी में नारी जीवन की पीड़ा साकार हुई है। ‘जिंदगी का बोझ’ में भीरू और उसकी पत्नी रमी की जिंदगी के जरिए कहानीकार ने यह उद्घाटित किया है कि गांव में आज भी बंधुआ मजदूरों की जिंदगी जीने वाले निचले तबके के लोग मौजूद हैं जिन तक आजादी के लंबे अंतराल के अनंतर भी आजादी की उन्मुक्त पवन नहीं पहुंच पाई है। ‘खंडहर’ आज के रिश्तों की स्वार्थपरता पर आधारित कहानी है।

‘अधूरे वृत्त’ और ‘बिके हुए लोग’ में कहानीकार ने शोषित वर्ग की आर्थिक विपदाओं को बयान किया है। ‘हत्यारा’ में विवाहित पुरुष के साथ अविवाहित युवती के प्रेम को लेकर लिखी कहानी है। ‘विकल्प’ गांव में व्याप्त अंधविश्वासों, अज्ञानता और जड़ मूल्यों को लेकर लिखी कहानी है। शंकर लाल शर्मा की कहानियों में ग्रामीण जीवन में उत्पन्न होने वाली जटिलता और संबंधों की दुरुहता समस्त वैविध्य के साथ उपस्थित है। उनकी कहानी में लोक जीवन का यथार्थ प्रमाणिक व विश्वसनीय रूप में उभरा है। ‘कटा हुआ वृक्ष’ में शंकर लाल शर्मा की दस कहानियां- मनुहार, ढांबू, आधा नाखून, उफान, अडिय़ल लडक़ी, कटा हुआ वृक्ष, रामेसरी, ऋण, सांझ ढलते, करम जली और मंजिल संग्रहीत हैं। प्रस्तुत संग्रह की कहानियां गांव और कस्बों में उभरने वाली आंतरिक जटिलताओं, संबंधों की दुरूहता अपने समस्त वैविध्य के साथ इन कहानियों में रूपायित है। ये कहानियां मानवीय पीड़ा को मुखरित ही नहीं करती, अपितु पीड़ा को जन्म देने वाली शक्तियों के यथार्थ को भी परत दर परत अनावृत करती हैं। ये कहानियां प्रतिरोधी शक्तियों का प्रतिकार करती हुई पाठकों की संवेदनाओं को उद्वेलित भी करती हैं।

राममूर्ति बासुदेव प्रशांत का ‘कटी हुई जिंदगी’ शीर्षक से पहला कहानी संग्रह सन् 1985 में प्रकाशित हुआ। इस संग्रह में दस कहानियां संग्रहीत हैं। कहानीकार ने इस संग्रह की कहानियों में अपने इर्द-गिर्द के परिवेश को अपनी संपूर्ण सच्चाइयों के साथ उभारा है। लेखक ने परिवेश की आंतरिकता को अपनी भोगी हुई जिंदगी के अनुभवों के आधार पर रूपायित करने की कोशिश की है। इन कहानियों में व्यक्ति के अंतद्र्वंद्वों के विश्लेषण के साथ समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार, अनुशासनहीनता और आज के विघटित होते हुए दांपत्य जीवन का जीवंत चित्र उकेरा है। ‘आसक्ति’ में आज के जीवन में दांपत्य जीवन की स्थितियों का अंकन है और ‘असमर्थ’ कहानी आज के विद्यार्थियों में व्याप्त नकल की समस्या को लेकर लिखी गई है। ‘सांप’ कहानी अमीर लोगों के गरीबों के शोषण को लेकर लिखी गई है। ‘तारों मौसी’ में विधवा समस्या और विधवा जीवन की त्रासदी को रेखांकित किया है। ‘अपने लोग’ आज के राजनीतिज्ञों के मुखौटों को चित्रित करती है। इस कहानी में मजदूर वर्ग की लाचारी और विवशताएं सामने लाई गई हैं। ‘पीछे लौटता मन’ और ‘जीवन भर शय्या पर’ में आज के परिवारों के विघटन के लिए उत्तरदायी कारणों की तलाश की गई है।

प्रस्तुत संग्रह की कहानियां आज के बदलते संबंधों और मूल्यों को रेखांकित करती हंै। अरुण भारती का प्रथम कहानी संग्रह ‘भेडि़ए’ शीर्षक से 1985 में प्रकाश में आया। संदर्भित संग्रह में ग्यारह कहानियां- कब्र, टॉवर, रिश्ते, शून्य से शून्य तक, बाहर का आदमी, स्वांग, कुत्ता, जर्द फूलों के चेहरे, अनचाहे रिश्ते, एक छोटी सी कहानी और भेडि़ए संग्रहीत हैं। संकलन की ज्यादातर कहानियों में नर-नारी के वैवाहिक जीवन और काम संबंधों, परिवर्तित मूल्य स्थितियों, आर्थिक दबावों से पीडि़त नारी, पुरुष सत्तात्मक समाज में पति और दूसरे पुरुषों की क्रूरता की शिकार नारी आदि का चित्रण है। ‘कब्र’ में लेखक ने बहुत सी समस्याओं को समेटने की कोशिश की है। गांव की स्वार्थ भरी राजनीति, ऊंच-नीच की जातिगत दीवारें, हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिकता की घिनौनी दीवारें और सब चीजों के केंद्र में पीडि़त नारी का कारुणिक चित्रण इस कहानी में है। ‘रिश्ते’ में सामाजिक रिश्तों की व्यर्थता को उद्घाटित किया है। ‘शून्य से शून्य तक’ अरुण भारती की लम्बी कहानी है। इसमें ज्ञानी के जीवन के उतार-चढ़ाव, परिस्थितियों के कारण अपराधी, हत्यारा और जेबकतरा बनने की स्थितियों का निरूपण है। ‘अनचाहे रिश्ते’ में आज के गांव की राजनीति, वोट के लिए षड्यंत्र, सरकारी पैसों का पंचायतों द्वारा दुरुपयोग, वोट प्राप्त करने के लिए धमकियां आदि रूपायित है। ‘भेडि़ए’ लेखक की सशक्त कहानी है। प्रस्तुत कहानी में ग्रामीण परिवेश यथार्थ और सक्षम रूप में उभरा है। कहानी में नारी जीवन की त्रासदी को व्यंजित किया गया है। अरुण भारती की कहानियां हमारे आसपास के गांव के यथार्थ का खाका पेश करती हैं। संघर्षपूर्ण जीवन को चित्रित करने वाली ये कहानियां अपने परिवेश को साकार करने में सक्षम रही हैं। मुख्य रूप से इन कहानियों में लेखक की दृष्टि नारी और आर्थिक यथार्थ पर केंद्रित रही है।

नवें दशक में बद्रीसिंह भाटिया के चार कहानी संग्रह ठिठके हुए पल (1985), छोटा पड़ता आसमान (1985, मुश्तरका जमीन (1987), बावड़ी तथा अन्य कहानियां (1988) प्रकाशित हुए। उनकी कहानियों में ग्राम चेतना की सहज अभिव्यक्ति है। गांव का पिछड़ापन, निर्धनता, दीनता, अंधविश्वासों और रूढिय़ों में पिसता इंसान, दलित और नारी पर ग्रामीण परिवेश में किए जाने वाले अन्याय और अत्याचारों का चित्रण भाटिया की कहानियों में परिलक्षित होता है। नगर बोध के प्रभाव के फलस्वरूप परिवारों का विघटन, टूटते परिवारों का शहर की ओर प्रस्थान, रिश्तों की औपचारिकता इन कहानियों में मूर्तिमान हुई है। उनकी कहानियों के चरित्र कभी शहर से कोसों दूर आधुनिकता की चकाचौंध से निर्लिप्त ठेठ देहाती जीवन जीते दिखाई देते हैं तो कभी बीमारियों से जूझते और मुक्ति पाने की आशा से नगर के अस्पतालों में उपचार की जटिल प्रक्रियाओं और वहां की उपेक्षाओं से तंग आकर या तो गांव लौट आते हैं या वहीं टूट कर दम तोड़ देते हैं। लेखक ग्रामीण जीवन की समस्याओं को उभारने में स्वयं हिस्सेदार और साक्षी के रूप में आया है जिससे कहानियों में और अधिक जीवंतता आई है।

‘ठिठके हुए पल’ में बद्रीसिंह भाटिया की ग्यारह कहानियां- नंगा वृक्ष, चोमो, सीरी महासीरी, कालिख, ठिठके हुए पल, उसका सपना, दायरे, वसीयत, अपाहिज, शतरंज के मोहरे और भायथू संग्रहीत हैं। ‘ठिठके हुए पल’ का कथ्य बहुआयामी है। देहाती जीवन को अपने पूरे परिवेश के साथ इस कहानी में उभारने की कोशिश है। पुरानी पीढ़ी और नई पीढ़ी के अंतराल को लेखक ने रेखांकित किया है। वृद्ध पिता सेवानिवृत्त होकर घर लौटने पर गांव में और परिवार में परिवर्तन देखता है। अपने परिवार में उसे स्नेह और प्रेम के सूत्र नितांत क्षीण होते हुए अनुभव होते हैं। उसके तीन बेटे एक के बाद एक पृथक होकर शहर में अपनी गृहस्थी बसाकर रहने लगते हैं। वृद्ध और रुग्ण पिता की देखरेख और उपचार की परिवार में किसी को किंचित भी चिंता नहीं होती। पिता अनुभव करता है, ‘पतझड़ के वृक्ष की तरह वह देखता रहा हरे पत्तों को अलग होते’। कहानी रक्त संबंधों में आए बेगानेपन को रेखांकित करती है। ‘नंगा आदमी’ निर्धन कुम्हार के अंतद्र्वंद्व और आंतरिक पीड़ा को व्यंजित करती है। उसकी पत्नी निर्धनता के कारण मर जाती है और गांव के लोग उसका दूसरा विवाह करवाते हैं और इस उक्ति को चरितार्थ करते हैं कि निर्धन की पत्नी सबकी भाभी। वह गांव में अपनी निरीह स्थिति को देखते हुए नसबंदी करने या न करने के द्वंद्व से जूझता है। ‘कालिख’ में प्रतिशोध की भावना से प्रेरित एक ऐसे निर्धन व्यक्ति का चित्रण है जो अपने ही पोषक और संरक्षक को जेल की सलाखों तक पहुंचाता है। इसमें थाने के षड्यंत्र और वहां की पीड़ा को भी व्यंजित किया गया है।

-(शेष भाग अगले अंक में)

हिमाचल का कहानी संसार

विमर्श के बिंदु

1. हिमाचल की कहानी यात्रा
2. कहानीकारों का विश्लेषण
3. कहानी की जगह, जिरह और परिवेश
4. राष्ट्रीय स्तर पर हिमाचली कहानी की गूंज
5. हिमाचल के आलोचना पक्ष में कहानी
6. हिमाचल के कहानीकारों का बौद्धिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक व राजनीतिक पक्ष

लेखक का परिचय

नाम : डॉ. हेमराज कौशिक, जन्म : 9 दिसम्बर 1949 को जिला सोलन के अंतर्गत अर्की तहसील के बातल गांव में। पिता का नाम : श्री जयानंद कौशिक, माता का नाम : श्रीमती चिन्तामणि कौशिक, शिक्षा : एमए, एमएड, एम. फिल, पीएचडी (हिन्दी), व्यवसाय : हिमाचल प्रदेश शिक्षा विभाग में सैंतीस वर्षों तक हिन्दी प्राध्यापक का कार्य करते हुए प्रधानाचार्य के रूप में सेवानिवृत्त। कुल प्रकाशित पुस्तकें : 17, मुख्य पुस्तकें : अमृतलाल नागर के उपन्यास, मूल्य और हिंदी उपन्यास, कथा की दुनिया : एक प्रत्यवलोकन, साहित्य सेवी राजनेता शांता कुमार, साहित्य के आस्वाद, क्रांतिकारी साहित्यकार यशपाल और कथा समय की गतिशीलता। पुरस्कार एवं सम्मान : 1. वर्ष 1991 के लिए राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार से भारत के राष्ट्रपति द्वारा अलंकृत, 2. हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा राष्ट्रभाषा हिन्दी की सतत उत्कृष्ट एवं समर्पित सेवा के लिए सरस्वती सम्मान से 1998 में राष्ट्रभाषा सम्मेलन में अलंकृत, 3. आथर्ज गिल्ड ऑफ हिमाचल (पंजी.) द्वारा साहित्य सृजन में योगदान के लिए 2011 का लेखक सम्मान, भुट्टी वीवर्ज कोआप्रेटिव सोसाइटी लिमिटिड द्वारा वर्ष 2018 के वेदराम राष्ट्रीय पुरस्कार से अलंकृत, कला, भाषा, संस्कृति और समाज के लिए समर्पित संस्था नवल प्रयास द्वारा धर्म प्रकाश साहित्य रतन सम्मान 2018 से अलंकृत, मानव कल्याण समिति अर्की, जिला सोलन, हिमाचल प्रदेश द्वारा साहित्य के लिए अनन्य योगदान के लिए सम्मान, प्रगतिशील साहित्यिक पत्रिका इरावती के द्वितीय इरावती 2018 के सम्मान से अलंकृत, पल्लव काव्य मंच, रामपुर, उत्तर प्रदेश का वर्ष 2019 के लिए ‘डॉ. रामविलास शर्मा’ राष्ट्रीय सम्मान, दिव्य हिमाचल के प्रतिष्ठित सम्मान ‘हिमाचल एक्सीलेंस अवार्ड’ ‘सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार’ सम्मान 2019-2020 के लिए अलंकृत और हिमाचल प्रदेश सिरमौर कला संगम द्वारा डॉ. परमार पुरस्कार।

पुस्तक समीक्षा : पुलिस अधिकारी के लेखन को सलाम

आईपीएस अधिकारी (रिटायर्ड आईजी) ओंकार ठाकुर की अंग्रेजी पुस्तक ‘आल इन दि लाइफ आफ ए कोप’ अब ‘मेरी पुलिस डायरी से’ के रूप में हिंदी के पाठकों के हाथों में है। कुल 251 पृष्ठ और 18 अध्यायों वाली यह पुस्तक, जो आत्मकथात्मक शैली में लिखी गई है, पेटल्स पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, लुधियाना से प्रकाशित है जिसकी कीमत 350 रुपए है। सामान्यत: जब भी आत्मकथात्मक लेखन का प्रसंग हो, अनुभवजन्य निष्कर्ष यह कहने पर विवश करता है कि अधिकतर पुस्तकें लेखक की आत्मश्लाघा, बड़े दावों और स्वयं को बड़ा दिखाने का शब्द समूह बन कर रह जाती हैं। किंतु प्रस्तुत पुस्तक के साथ ऐसा नहीं है। लेखक ने कहीं भी यह प्रयास नहीं किया कि केवल उसकी छवि उभरे और बाकी गौण हो जाएं। लेखक ने केवल साक्षी बनकर रोचक विवरण दिया है। लेखकीय अभिव्यक्ति की यही शालीनता और ईमानदारी इस पुस्तक को अमूल्य बनाती है। प्राक्कथन में लेखक कहते हैं कि ‘निश्चित रूप से, यह आत्मकथा नहीं है।

मेरा जीवन इतना महान कभी नहीं रहा कि एक भव्य आत्मकथा के माध्यम से अनंत निरंतरता का प्रयास करूं। मैं जो लिख रहा हूं, उसकी जड़ें जीवंत पात्रों वाली वास्तविक घटनाओं में हैं। यद्यपि मैंने वर्णन को काल्पनिक कथा शैली में लिखने का प्रयास किया है, तथापि तथ्यों को विकृत करने से परहेज किया है और तथ्यों के साथ ‘काव्यात्मक’ लाइसेंस भी नहीं लिया है। कुछ स्थानों पर कहानी का नाट्यकरण करते समय, वर्णन के कुछ खंडों को जोडऩे वाले अंश, मेरी कल्पना की उपज हो सकते हैं। साथ ही, यह मेरे या किसी अन्य द्वारा किए गए मामलों या स्थितियों का आधिकारिक संग्रह नहीं है। इन संस्मरणों को लिखने का एकमात्र प्रयोजन ज्ञानवर्धन एवं मनोरंजन है।’ गैंगस्टर्स के साथ वो सात दिन, हत्यारे जिन्हें कानून छू नहीं पाया, एक राजनेता पर सीबीआई का छापा, एक रहस्यमयी आतंकवादी मुठभेड़ तथा हिमाचल सीपीएमटी पेपर लीक जैसे अध्याय काफी रोचक हैं। -फीचर डेस्क

इरावती : खामोशी से अपनी बात कहने का साहस

सोशल मीडिया के भडक़ाऊ शोर के बीच खामोशी से अपनी बात कहने का साहस दिखाने का साहस हर कोई नहीं कर सकता। लेकिन कथाकार संपादक राजेंद्र राजन के संपादन में प्रगतिशाील इरावती के साहित्य व मीडिया विमर्श अंक को देखकर यह बात कही जा सकती है। क्योंकि कुछ ही साल पूर्व संपादक राजेंद्र राजन द्वारा इरावती पत्रिका को बंद करने की घोषणा कर जैसे नदी की रवानगी को रोकने का ऐलान कर दिया था, मगर उनके भीतर स्तरीय साहित्यिक पत्रिका को छापने का जुनून इस कदर था कि वे अपने इस वादे पर न केवल खरे उतरे, बल्कि तमाम आर्थिक और रचनात्मक संकट के बावजूद दोबारा अपने मोर्चे पर आ डटे। हाल ही में इरावती का एक और अंक साहित्य व मीडिया विमर्श पर निकला है जो सही मायने में सोशल मीडिया के शोर के बीच खामोशी से अपनी बात कहने के साहस जैसा ही है।

इस अंक को लेकर राजेंद्र राजन की मेहनत और जुनून देखते ही बनता है। आवरण पृष्ठ पर नुक्कड़ नाटक के दिग्गज स्व. सफदर हाशमी की कविता ‘किताबें करती हैं बातें’ प्रकाशित की है तो भीतरी आवरण पर ही विश्व प्रसिद्ध कवि पाब्लो नेरूदा की कविता ‘आरंभिक यात्राएं’ पत्रिका की स्तरीयता को बढ़ाती है। इसके अलावा इस अंक में क्रांतिकारी लेखक शेरजंग को लेकर महत्त्वपूर्ण जानकारी दी गई है। हिमाचल प्रदेश से संबंध रखने वाले इस क्रांतिकारी से शहीद-ए-आजम ने निशाना लगाने का प्रशिक्षण लिया था। वहीं पर भगत सिंह को जेल से आजाद करवाने के लिए खूनी संघर्ष की योजना इनके द्वारा बनाई गई थी। गुरिल्ला युद्ध में महारत हासिल करने वाले इस योद्धा ने गोवा को मुक्त करवाने में अहम भूमिका अदा की। इस बारे में हिमाचल का एक बहुत बड़ा वर्ग अनभिज्ञ है। इसी प्रकार अंक में प्रतिरोध के साहस के कवि के रूप में विजय विशाल की कविताओं पर अलका प्रकाश का आलेख और विजय विशाल की 11 कविताएं शामिल की गई हंै। विजय विशाल आलोचक से पहले एक मंझे हुए कवि हैं।

भले ही देर से सही, पर उनका पहला काव्य संग्रह ‘चिंटियां शोर नहीं करती’ आया है। मीडिया विमर्श में ‘दिव्य हिमाचल’ के प्रधान संपादक अनिल सोनी का साक्षात्कार इलैक्ट्रानिक मीडिया की विश्वसनीयता पर सवाल उठाता है। वहीं चर्चा में भरत प्रसाद, विजय विशाल, प्रोमिला अरोड़ा, मुरारी शर्मा, भारती सिंह व हेमराज कौशिक ने साहित्य और मीडिया के अंतर्संबंध विषय पर सवालों के जवाब दिए हैं, जिससे आज के दौर में मीडिया और साहित्य के रिश्तों और सोशल मीडिया के आम जीवन पर प्रभाव को लेकर कई शंकाओं का समाधान होता है। विनोद प्रकाश गुप्ता शलभ की $ग•ालें ताजगी लिए हुए हैं, जिसकी बानगी उनकी एक $ग•ाल के शे’र के रूप में है : ‘किसी को भी नहीं रहने दिया तन्हा सफर में/उसी के हो गए जो भी मिला प्यासा सफर में।’ वहीं विद्यानिधि छाबड़ा ने पुश्किन की कविताओं का अनुवाद करते हुए साहित्य के निंदा रस का जिक्रकिया है, जो हर दौर में साहित्य की दुनिया में मौजूद रहा है। इसके बावजूद बहुत कुछ अच्छा भी है जो साहित्य को समृद्ध बनाता है। हास्य रस चाहे कविता में हो या फिर लोक नाट्यों में, गंभीर से गंभीर मसले पर चोट करता है। इस अंक में जाहिद अबरोल की नज्में भी ध्यान आकर्षित करती हैं।

जयचंद की लखवाड़ व्यासी बांध, थोड़ी सी आग, पत्थरों की मंडी सतौन और रोशनदान कविताएं अलग तेवर लिए हुए हैं। इसके अलावा सुभाष नीरव की दस कविताएं भले ही छोटी हैं, मगर उनके अर्थ बहुत गहरे हैं। रंजीता सिंह $फलक और रूपेश्वरी शर्मा की कविताएं भी प्रभावित करती हैं। इस अंक में सुदर्शन वशिष्ठ का लेख ‘जब पहाड़ पर खिले सृजन के फूल’ के माध्यम से लेखक यह बताने का प्रयास करते हैं कि यह जरूरी तो नहीं है कि पहाड़ में पैदा होकर ही पहाड़ के बारे में बेहतर लिखा जा सकता है, बल्कि पहाड़ पर बाहरी लेखकों ने बेहतर रचनाएं दी हैं। पहाड़ को देखने और समझने का उनका अलग नजरिया रहा है। ऐसे रचनाकर्मियों में उपेंद्रनाथ अश्क, मोहन राकेश और निर्मल वर्मा का जिक्र किया गया है। इसी प्रकार मुरारी शर्मा की कहानी ‘जलपाश’ नदी में डूबे बच्चे की तलाश तथा ब्यास और चंद्रभागा नदियों के परिवेश व लोक जीवन को खंगालने का प्रयास है। पंजाबी कहानी ‘स्पेस’ में बलजीत सिंह रैना ने नारी जीवन में प्रेम के स्पेस को रेखांकित किया है। ‘लखनऊ से शुरू एक कहानी’ (उपन्यास अंश) राज गोपाल वर्मा, निर्देश निधि का संस्मरण ‘ड्रापी’ व ऐनी फ्रैंक की डायरी के कुछ अंश (जिंदगी के बाद भी जीते रहना चाहती हूं) भी इस अंक में संकलित हैं।

विश्व प्रसिद्ध यह डायरी 1942-1944 के बीच जर्मनी में नाजियों द्वारा यहूदियों पर किए गए अमानवीय अत्याचारों का जीवंत दस्तावेज माना जाता है जिसे 14-15 वर्षीय किशोरी ऐनी फ्रैंक ने यातना शिविर में जाने से पहले नाजियों से छुपते-छुपाते मूलत: डच भाषा में लिखा था, जो इंग्लिश में ‘दि डायरी ऑफ ए यंग गर्ल’ के नाम से 1947 में प्रकाशित हुई। इसके अलावा रंगशाला के रूप में श्रीनिवास जोशी का गेयटी शिमला के गुलगुच्छे जैसी महत्वपूर्ण सामग्री से यह अंक भरा-भरा सा है। इधर ‘चुनी हुई चुप्पियां’ शीर्षक से राजेन्द्र राजन द्वारा लिखा गया संपादकीय पत्रिका के उस तेवर को स्पष्ट करता है जिसकी न केवल आज अनिवार्यता है, अपितु एक जागरूक लेखक का दायित्व भी है। पाठकीय उदासीनता के इस दौर में भी इतनी स्तरीय और महत्त्वपूर्ण सामग्री पाठकों को उपलब्ध करवाने के लिए संपादक बधाई के पात्र हैं। कुल मिलाकर यह अंक अपने आप में संग्रहणीय अंक है।

-मुरारी शर्मा


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