हिमाचली हिंदी कहानी : विकास यात्रा

By: Jun 10th, 2023 7:44 pm

कहानी के प्रभाव क्षेत्र में उभरा हिमाचली सृजन, अब अपनी प्रासंगिकता और पुरुषार्थ के साथ परिवेश का प्रतिनिधित्व भी कर रहा है। गद्य साहित्य के गंतव्य को छूते संदर्भों में हिमाचल के घटनाक्रम, जीवन शैली, सामाजिक विडंबनाओं, चीखते पहाड़ों का दर्द, विस्थापन की पीड़ा और आर्थिक अपराधों को समेटती कहानी की कथावस्तु, चरित्र चित्रण, भाषा शैली व उद्देश्यों की समीक्षा करती यह शृंखला। कहानी का यह संसार कल्पना-परिकल्पना और यथार्थ की मिट्टी को विविध सांचों में कितना ढाल पाया। कहानी की यात्रा के मार्मिक, भावनात्मक और कलात्मक पहलुओं पर एक विस्तृत दृष्टि डाल रहे हैं वरिष्ठ समीक्षक एवं मर्मज्ञ साहित्यकार डा. हेमराज कौशिक, आरंभिक विवेचन के साथ किस्त-9

हिमाचल का कहानी संसार

विमर्श के बिंदु
1. हिमाचल की कहानी यात्रा
2. कहानीकारों का विश्लेषण
3. कहानी की जगह, जिरह और परिवेश
4. राष्ट्रीय स्तर पर हिमाचली कहानी की गूंज
5. हिमाचल के आलोचना पक्ष में कहानी
6. हिमाचल के कहानीकारों का बौद्धिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक व राजनीतिक पक्ष

लेखक का परिचय

नाम : डॉ. हेमराज कौशिक, जन्म : 9 दिसम्बर 1949 को जिला सोलन के अंतर्गत अर्की तहसील के बातल गांव में। पिता का नाम : श्री जयानंद कौशिक, माता का नाम : श्रीमती चिन्तामणि कौशिक, शिक्षा : एमए, एमएड, एम. फिल, पीएचडी (हिन्दी), व्यवसाय : हिमाचल प्रदेश शिक्षा विभाग में सैंतीस वर्षों तक हिन्दी प्राध्यापक का कार्य करते हुए प्रधानाचार्य के रूप में सेवानिवृत्त। कुल प्रकाशित पुस्तकें : 17, मुख्य पुस्तकें : अमृतलाल नागर के उपन्यास, मूल्य और हिंदी उपन्यास, कथा की दुनिया : एक प्रत्यवलोकन, साहित्य सेवी राजनेता शांता कुमार, साहित्य के आस्वाद, क्रांतिकारी साहित्यकार यशपाल और कथा समय की गतिशीलता। पुरस्कार एवं सम्मान : 1. वर्ष 1991 के लिए राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार से भारत के राष्ट्रपति द्वारा अलंकृत, 2. हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा राष्ट्रभाषा हिन्दी की सतत उत्कृष्ट एवं समर्पित सेवा के लिए सरस्वती सम्मान से 1998 में राष्ट्रभाषा सम्मेलन में अलंकृत, 3. आथर्ज गिल्ड ऑफ हिमाचल (पंजी.) द्वारा साहित्य सृजन में योगदान के लिए 2011 का लेखक सम्मान, भुट्टी वीवर्ज कोआप्रेटिव सोसाइटी लिमिटिड द्वारा वर्ष 2018 के वेदराम राष्ट्रीय पुरस्कार से अलंकृत, कला, भाषा, संस्कृति और समाज के लिए समर्पित संस्था नवल प्रयास द्वारा धर्म प्रकाश साहित्य रतन सम्मान 2018 से अलंकृत, मानव कल्याण समिति अर्की, जिला सोलन, हिमाचल प्रदेश द्वारा साहित्य के लिए अनन्य योगदान के लिए सम्मान, प्रगतिशील साहित्यिक पत्रिका इरावती के द्वितीय इरावती 2018 के सम्मान से अलंकृत, पल्लव काव्य मंच, रामपुर, उत्तर प्रदेश का वर्ष 2019 के लिए ‘डॉ. रामविलास शर्मा’ राष्ट्रीय सम्मान, दिव्य हिमाचल के प्रतिष्ठित सम्मान ‘हिमाचल एक्सीलेंस अवार्ड’ ‘सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार’ सम्मान 2019-2020 के लिए अलंकृत और हिमाचल प्रदेश सिरमौर कला संगम द्वारा डॉ. परमार पुरस्कार।

डा. हेमराज कौशिक
अतिथि संपादक
मो.-9418010646

-(पिछले अंक का शेष भाग)
‘दायरे’ में ऐसी बहू का चित्रण है जो मायके से आए लोगों का तो सम्मान और आतिथ्य करती है, परंतु ससुराल के पक्ष के लोगों के प्रति अपमान का भाव रखती है और उनकी उपेक्षा करती है। ग्रामीण और शहरी परिवेश के सम्मिश्रण से इस कहानी में संबंधों की संकीर्णता चित्रित हुई है। ‘वसीयत’ में पुत्र द्वारा विजातीय विवाह से उत्पन्न पिता के आक्रोश और बेदखली के निर्णय को चित्रित किया है। पिता द्वारा बहू को स्वीकार न करने के निर्णय और बेदखल करने को लेकर लिखी कहानी है। इसके साथ बड़ी बहू द्वारा ससुर की उपेक्षा और पिता की मृत्यु पर बहू और बेटे के आगमन पर वसीयत में अपने बेदखल होने की खोज का चित्रण है। ‘अपाहिज’ दो अपाहिजों द्वारा विवाह करने और समाज द्वारा उन्हें अस्वीकार तथा वृद्धावस्था में स्वयं संतति द्वारा उपेक्षित और उत्पीडि़त करने को लेकर लिखी कहानी है। ‘शतरंज के मोहरे’ में गांव में व्याप्त भ्रष्टाचार और एक-दूसरे को नीचा दिखाने, गिराने और जमीन हड़पने की स्थितियों का निरूपण है। ‘भायथू’ में घुमंतू गडरिये की कहानी है जिसमें विभिन्न स्थानों पर घूमने वाले गडरिए के बेटे की शिक्षा अर्जित करने की इच्छा और दृढ़ संकल्प को चित्रित किया है। ‘सीरी महासीरी’ भी पिता-पुत्र के संबंधों पर केंद्रित कहानी है। पिता निर्धनता में भी अपनी सारी संपत्ति पुत्र की शिक्षा-दीक्षा में लगाता है। शहर में नौकरी करता पुत्र पत्नी सहित शहर में रहने लगता है। पुन: गांव में लौट कर पिता की सुध नहीं लेता। अंतत: जब लौटता है तब तक पिता का देहावसान हो चुका होता है।

कहानी में यह भी स्थापित किया है कि ग्रामीण परिवेश में पली-बढ़ी पत्नी शहर में रहते हुए किस तरह से परिवर्तित हो जाती है, उसे यथार्थ रूप में चित्रित किया है। यह कहानी रक्त संबंधों में आए बेगानेपन को चिन्हित करती है। ‘उसका सपना’ दलित विमर्श की कहानी है जिसमें दलित जाति के उत्पीडऩ, सवर्ण जाति के अहंकार और अधिकार चेतना को रेखांकित किया है। ‘चोमो’ में धर्म के अंधविश्वासों में किए जाने वाले अनैतिक और अमानवीय व्यवहार का चित्रण है। डोलमा के जीवन की त्रासदी के जरिए लेखक ने लामाओं के कुकृत्य और अनाचार को सामने लाया है। ‘छोटा पड़ता आसमान’ कहानी संग्रह बद्रीसिंह भाटिया का सन् 1985 में ही प्रकाशित हुआ। इसमें उनकी दस कहानियां- ठिठके हुए पल, महादान, कितने चक्कर, छोटा पड़ता आसमान, मृगतृष्णा, चोमो, अपाहिज, बोझ, आहट और पराई मां संग्रहीत हैं। इस संग्रह में उनकी तीन कहानियां ‘ठिठके हुए पल’ में संग्रहीत कहानियों में से लेकर आवृत्ति की गई है। ‘महादान’ में लेखक ने भलखु के चरित्र के माध्यम से यह स्पष्ट किया है कि आज की बीमारी का उपचार आम आदमी के लिए बहुत महंगा है। हर जगह ‘पहुंच’ का सवाल उठता है। किसी को खून बिना कुछ लिए-दिए भी मिल जाता है तो किसी को अस्पताल में खून न मिलने के अभाव में यूं ही दम तोडऩा पड़ता है। ‘कितने चक्कर’ में लेखक ने दुर्घटनाग्रस्त बहादुर मजदूर के जरिए आज की शासन व्यवस्था, नौकरशाही और अस्पताल के जीवन का चित्रण किया है। ‘छोटा पड़ता आसमान’ में आज के रिश्तों के खोखलेपन को उद्घाटित किया है। समाजसेवी और लोकप्रिय कन्हैयालाल गांव में अपने व्यवहार के कारण लोगों में प्रतिष्ठा अर्जित करता है, परंतु वही जब बीमार पड़ता है न तो गांव का कोई व्यक्ति न उसकी पत्नी ही अस्पताल में उसे देखने आते हैं। पत्नी परिवार की व्यस्तताओं का बहाना करती है।

ऐसी स्थिति में उसकी वे मदद करते हैं जिनकी कभी भी उसने जिंदगी में मदद न की होती है। ‘मृगतृष्णा’ में सरकार से दी जाने वाली आर्थिक सहायता के अनुचित बंटवारे का चित्रण है। आर्थिक योजनाओं का लाभ सुपात्रों को न मिलकर कुपात्रों और बिचौलियों को मिलता है। ‘बोझ’ कहानी में गांव के लोगों का पढ़ी-लिखी लड़कियों के प्रति अस्वस्थ दृष्टिकोण का चित्रण है। गांव के लोग पढ़ी-लिखी लड़कियों के संबंध में यह धारणा बनाए हुए हैं कि वे गांव में एडजस्ट नहीं हो पाती। सोनाली के चरित्र के जरिए लेखक ने इस धारणा का खंडन किया है। ‘परायी मां’ रोमैंटिक बोध की कहानी है, किंतु इस कहानी में ‘प्रेम’ त्याग और कत्र्तव्य से जुड़ा है। ‘मुश्तरका जमीन’ में उनकी दस कहानियां हैं- कडिय़ों वाला मकान, एक और विभीषण, शुरुआत, सलीब पर, मुश्तरका जमीन, तूफान उठने से पहले, दो नंबर की कमाई, परत दर परत तथा सर्जन संग्रहीत हैं। ‘मुश्तरका जमीन’ शीर्षक कहानी में यह प्रतिपादित किया है कि पारिवारिक रिश्तों की डोर की सुदृढ़ता और क्षीणता परस्पर व्यवहार, स्नेह और कत्र्तव्य परायणता पर अवलंबित होती है। प्रस्तुत कहानी रक्त संबंधों में आयी स्वार्थपरता के सूक्ष्म तंतुओं को उभारती है।

‘परत दर परत’ में प्रेम की परिणय में परिणति, फिर प्रेम के आवेग के पर्यवसान के अनंतर दांपत्य जीवन के तनाव की मनोवैज्ञानिक स्थितियों का निरूपण है। कहानी में पति-पत्नी के मध्य अहंकार और महत्वाकांक्षा की टकराहट तथा एक दूसरे को नीचा दिखाने की प्रवृत्ति का चित्रण है। ‘कडिय़ों वाला मकान’ भी मध्यवर्गीय परिवार से संबंधित समस्याओं को निरूपित करती है। बड़ी बहन की उत्तरदायित्वपूर्ण जीवनचर्या आकर्षित करती है। ‘सलीब पर’ कहानी कृषक वर्ग की नियति और जिंदगी पर केंद्रित कहानी है। उसका जीवन प्रकृति की अनुकंपा पर आश्रित होता है। वर्षा न होने से सूखा होने की स्थिति में कभी जमीन में फसल न होने से अकाल की सी स्थिति उत्पन्न होती है तो कभी मूसलाधार वर्षा, आंधी, तूफान से जीवन पूरी तरह अस्त-व्यस्त होकर टूटता है। प्रकृति की ऐसी विषम लीला से सेठ साहुकारों की शोषण मूलक प्रकृति प्रखर हो जाती है। भाटिया की इस संग्रह की अन्य कहानियां तूफान उठने से पहले, दो नंबर की कमाई, नियति, सर्जन आदि ग्रामीण परिवेश को मुखरित करती कहानियां हैं। इनमें ग्रामीण जीवन के अंतद्र्वंद्वों को रूपायित किया है। ‘बावड़ी तथा अन्य कहानियां’ शीर्षक संग्रह में छह कहानियां- बावड़ी, मंदा, तीन जमा दो बराबर एक, कितने चक्कर, महादान और मृगतृष्णा संग्रहीत हैं। प्रस्तुत संग्रह की कहानियों में पर्वतीय ग्रामीण जीवन की दुश्वारियां, नगर बोध से उत्पन्न स्थितियों, संवेदन शून्यता और ग्रामीण समाज के रूढि़वादिता और अंधविश्वासों पर तीव्र कटाक्ष और प्रतिकार है। कहानियों में चरित्रों की पीड़ा और आक्रोश का स्वर सहज रूप में मुखरित हुआ है।

‘नियति’ (1985) जोगेश कौर का प्रथम कहानी संग्रह है जिसमें उनकी डीआईजी और दीप्ति, प्रेम साधना, फर्ज, नियति, शराब, आदमी खुशी खोज लेगा, टूटता घर, विश्वास और अविश्वास, अनजाने आदि कहानियां संग्रहीत हैं। संदर्भित संग्रह की कहानियों में प्रमुख रूप में कहानीकार ने आधुनिक परिवार के विघटन से टूटते बिखरते मूल्यों, संबंधों की रागात्मक शून्यता, संवेदनहीनता, नर-नारी संबंधों में संशय और असंतोष आदि को मूर्तिमान किया है। कहानीकार ने वैयक्तिक अनुभूतियों को कलात्मकता से समष्टिगत यथार्थ के रूप में सामने लाया है। ‘डीआईजी और दीप्ति’ में परिवार के विघटन के कारणों और खुशियों का निरूपण है और ‘प्रेम साधना’ अलौकिक प्रेम की और लौकिक प्रेम की भावना को स्पष्ट करते हुए आध्यात्मिक प्रेम के महत्व को प्रतिपादित करती है।
‘फर्ज’ में कहानीकार ने यह स्थापित किया है कि पारिवारिक जीवन की सुखद परिणति के लिए यह आवश्यक है कि प्रत्येक सदस्य अपने कत्र्तव्य का प्रसन्नता से निर्वाह करे। पति-पत्नी तथा परिवार के सदस्यों में अपने-अपने फर्ज के प्रति समर्पित होने से ही परिवार संगठित रहते हैं। ‘नियति’ में नारी की समाज में नियति का निरूपण है। कहानी में यह व्यंजित किया है कि नारी की नियति में परिवर्तन तभी संभव है जब वह अपने आप जागरूक होकर अन्याय और उत्पीडऩ के विरोध में खड़ी होगी। ‘आदमी खुशी खोज लेगा’ में स्थापित किया है कि वास्तविक प्रसन्नता अपने भीतर संतोष में निहित है। असंतोष, भटकन, लालसाएं अप्रसन्नता को जन्म देती हैं। ‘टूटता घर’ पति-पत्नी संबंधों में विघटन के कारणों पर केंद्रित है। ‘विश्वास और अविश्वास’ में परिवार के संदर्भ में विश्वास की शक्ति और अविश्वास की कमजोरी को सामने लाया है। पारिवारिक संबंधों में विश्वास और प्रेम प्रगाढ़ता उत्पन्न करते हैं, साथ में यह कहानी अंधविश्वास के प्रति सजग करते हुए अंधविश्वासों के परिणामों को भी उजागर करती है। इस प्रकार जोगेश कौर की कहानियां संबंधों के ताने-बाने में विन्यस्त पारिवारिक जीवन की स्थितियों का निरूपण करते हुए सामाजिक जीवन की विडंबनाओं को उद्घाटित करती हैं।

सन् 1985 में ही प्रेम कुमारी ठाकुर का ‘वापसी’ कहानी संग्रह प्रकाश में आया। इसमें दस कहानियां- मूक संधि, बैरंग लिफाफा, संबंधों का घेराव, वापसी, पानी के बुलबुले, तलाश, एक वह, धोखा, बेकार और दुविधा संग्रहीत हैं। प्रेम कुमारी ठाकुर ने प्रस्तुत कहानी संग्रह में लगभग सभी कहानियों में नारी और पुरुष संबंधों का चित्रण बड़ी बारीकी से किया है। नारी होने के नाते लेखिका ने नारी-मनोविज्ञान तक गहरे उतरने की कोशिश की है। कहीं आत्म विश्लेषण और परीक्षण के माध्यम से लेखिका ने काम संबंधों का चित्रण अत्यंत संयत रूप में किया है। इन कहानियों में परिवारों की मानसिकता को नर-नारी संबंधों के परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया है। कहानियां कहीं प्रेम का आदर्श प्रस्तुत करती हैं, कहीं विवाह को एक समझौते के रूप में स्वीकार कर जीवन भर उसी में बंधी रहती है। ‘मूक संधि’ में पुरुष समाज के अत्याचारों से लोहा लेने के लिए कृतसंकल्प नारी अनमेल विवाह होने पर भी पति के साथ जीवन निर्वाह की मूक संधि कर लेती है। ‘संबंधों का घेराव’ में लेखिका ने अनमेल विवाह की समस्या को उठाया है और कहानी के अंत में फिल्मी फार्मूले की भांति प्रेमी-प्रेमिका को मिलाया है। ‘वापसी’ में गांव की लडक़ी का आधुनिका बनने और आधुनिकता के खोखलेपन को समझकर गांव की सादगी की ओर उसका वापस आना चित्रित है। ‘पानी के बुलबुले’ असफल प्रेम की कहानी है। इसमें प्रेमी अपने कुकृत्य से प्रेमिका की नजर में गिर जाता है। इस प्रकार प्रेम कुमारी ठाकुर की ये कहानियां पति-पत्नी और प्रेमी-प्रेमिका के इर्द-गिर्द ही घूमती हैं। समाज के बहुत से सरोकार हैं, उनको ये कहानियां स्पर्श नहीं करतीं। भाषा में सपाट बयानगी है और शिल्प की अनगढ़ता से कहानियों की प्रभावोत्पादकता क्षीण हुई है।

इस दशक में कुलदीप चंदेल दीपक के दो कहानी संग्रह ‘परिवर्तन’ (1985) और ‘मनोवृत्ति’ (1988) प्रकाशित हैं। ‘परिवर्तन’ कहानी संग्रह में उनकी सोलह कहानियां संग्रहीत हैं यथा परिवर्तन, आत्महत्या, अधूरी कहानी, कैबरे डांसर, भैय्या की साली, मंगलिक, कलह, अछूत लडक़ी, मछलियों के लिए, साधना पथ, चाय वाली, राक्षस गृह, संदेह, भेडि़ए, मेहंदी वाला हाथ, मेरी गली का लडक़ा। इस संग्रह के प्रारंभ में ‘दो शब्द’ के अंतर्गत कहानीकार ने यह स्पष्ट किया है कि संग्रह में संकलित कहानियां वीर प्रताप, दैनिक ट्रिब्यून, गिरिराज, सानुबंध, मंडी समाचार आदि में पहले ही प्रकाशित हुई हंै। इन कहानियों में समाज के थोथे आदर्शों पर प्रहार है। सामाजिक विषमता, भेदभाव, ऊंच-नीच के प्रति प्रहारात्मक और घृणा का स्वर लक्षित होता है।                                                                            -(शेष भाग अगले अंक में)

पुस्तक समीक्षा : सुंदर गजलों का खजाना
सुरेश भारद्वाज ‘निराश’ सुंदर गजलों का खजाना लेकर आए हैं। गजल संग्रह ‘मेरा इश्क इबादत खुदा की’ में गजल संग्रहित हैं। यह उनका दूसरा गजल संग्रह है। दि पेनमान प्रेस बागपत (यूपी) से प्रकाशित इस संग्रह की कीमत 275 रुपए है। $ग•ाल की बात करें तो आज के शायरों ने गजलमें बहुत सुधार किए हैं और इसे नए सांचे में ढालने के प्रयास किए हैं। पहले गजल को हम प्रेमी और प्रेमिका के संदर्भ में ही देखते रहे हैं, लेकिन कालांतर में अब दूसरे विषयों को भी गजल अपने में समाहित कर रही है। आज के दौर में यह समझा जाता है कि कवि और कविता दोनों ही अपनी पहचान खोने लगे हैं। ऐसे में गजल ही वह विधा है, जिससे दोनों को पहचान मिल सकती है। आज के दौर में मानव में जो संवेदनहीनता देखने को मिल रही है, इसके लिए भी गजल काफी प्रभावी सिद्ध हो सकती है। आज प्रेम, समाज, राजनीति, क्रांति, धरती, आकाश, ब्रह्म, ईश्वर, धर्म, अधिकार, कत्र्तव्य, भ्रष्टाचार, मानवता, शासन, प्रशासन जैसे विषयों पर गजल लिखी जा रही है। ‘जरा सा वक्त लगता है’ में गजलकार कहता है, ‘जरा सा वक्त लगता है यहां महफिल सजाने में/है लगती जिंदगी अपना किसी को भी बनाने में।’ गजल ‘पूजता हूं’ का भाव देखिए : ‘मैं तो दुश्मन से भी कुछ सीखता हूं/उन्हें दिल से बहुत मैं पूजता हूं।’ एक और सुंदर गजल है ‘वक्त को जिसने जिया है’। इसका सौंदर्य देखिए : ‘वक्त की आवाज को अब है बदलना काम उसका/जिंदा है इनसान वो ही वक्त को जिसने जिया है।’ ‘ऐसा जवाब क्या रखना’ में गजलकार कुछ सीख देते हैं : ‘दिल किसी को जो छलनी ही कर दे/यारो ऐसा जवाब क्या रखना।’ ‘कुछ तो होगा नया मुझमें’ में गजलकार सवाल करता है : ‘कुछ तो शायद होगा नया मुझमें/क्यों नहीं मिलता है खुदा मुझमें।’ संग्रह की अन्य गजल भी काफी रोचक हैं। पाठकों को यह संग्रह अवश्य ही पसंद आएगा।                                                -फीचर डेस्क

विचारों के पटल से सृजन के प्रांगण तक ललित मोहन शर्मा

अपनी समृद्ध साहित्यिक पृष्ठभूमि, शब्दों के संवेग, हालात के उद्वेग, अध्यापन और अध्ययन की संवेदना तथा आलोचना की तासीर में ललित मोहन शर्मा हिंदी जगत को तमतमाती 39 कविताएं सौंप देते हैं। संग्रह का शीर्षक और शीर्षक की कविता ‘पटल से प्रांगण तक’ दरअसल कई सन्नाटों को तोडऩे, सिंहासनों पर बिछी सफेदी को निचोडऩे तथा चक्रव्यूहों से निजात पाने की कला में कविता भीतर तक आंदोलित है, ‘मन सिहर उठता है/इतिहास के कितने ही पन्ने/कटे फटे घूरते हैं बार-बार।’ कविताएं लोकतंत्र के चौराहों पर उड़ती धूल, बिखरते सपनों, उजड़ती उम्मीदों और अदृश्य भंवरों से उलझती और सादगी से देश के रंगों से खेलतीं, मानो विचारों की होली का कर्ज कहीं कवि चुकता कर रहा हो, ‘दिशा का चुनाव नहीं/किसी का पक्ष नहीं/चौराहे पर-ड्योढ़ी में/कितना अकेला रह जाता है/जब रुक कर-चीखकर/भीड़ से-वह एक ओर हो लेता है।’ ललित मोहन विचारों को परिमार्जित करते अपने ही आसपास के ऊंघते परिदृश्य को लांघने की चेष्टा करते हैं। वह सत्य के आरपार होने के लिए बार-बार जीवन की अवगुंठित पहेलियों को खोलते हुए कविता को नए औजार और धार सौंप देते हैं। यहां कविता इतिहास की पलकों पर, देशभक्ति की सौंगध पर, समाज-संस्कृति और वैयक्तिक आनंद पर खुद से मुखातिब, खुद से हासिल, खुद से वाकिफ होते हुए पटल से प्रांगण का गठजोड़ समझती है।

अपने अनुभव, अनुभूतियों और अध्यापन के ज्ञान के साथ ललित मोहन का बहुभाषिक होना उनके रचनाकर्म में वैविध्य, दृष्टि व सोच की ऊष्मा को कभी पटल तो कभी प्रांगण में ले आता है, ‘भटकी है राह सोच की/मनगढ़ंत महाकाव्य के/सुनहरे टापुओं में सहमे/भले मानुष चुप्पी साधे/पलायन की राह ढूंढते।’ कविताओं की संरचना में देश की मिट्टी, देश की संवेदना और बुद्धिजीवी कौशल के साथ-साथ इनके अर्थ की चाशनी को बार-बार चखने की जरूरत है, इसलिए कई बेहतरीन कविताएं सृजन का आंगन और विचारों का पटल पूरी तरह बदल देती हैं। इन्हीं कविताओं में से ‘इतिहास की झालर, क्षमा करें प्रभवर, आज फिर आतुर है, झूलता पुल-लोकतंत्र, सतही सत्य नहीं, भूमिका, वारिस, एक कविता नेपथ्य में, किसी एक दिन, खौफ से बेखबर होना है, अंधेरे में सचेत व संविधान की सरगर्मियां इत्यादि झंकृत करती हैं। ललित मोहन की कविताएं जीवन को जीते हुए बेबाक हैं, साथ ही अतीत और वर्तमान के तहखानों से मुलाकात करातीं, शब्दकोषों को खोलतीं और साहित्यिक ऊर्जा की बंद अलमारियों को दस्तक देती हुईं, सृजन के तालू से बाहर निकलती हैं, ‘अतीत के कुछ दंश/प्रांगण के द्वार-पार/बुहारने को आज/मैं बेचैन हो उठा।’ कविताओं के घर्षण के कई बिंदु, राष्ट्र की आसक्तियां और शक्तियों के दोहन में उजड़ता लोकतंत्र भी रूबरू होता है, ‘तथ्यों के अंतरंग अर्थ/वामपंथ या दक्षिण पंथ/न तय कर पाएंगे/पंथ-निरपेक्ष ही।’ ये कविताएं आज की दृष्टि के कुपित अध्याय बनकर लोकतंत्र के ढहते स्तंभों की खाक छान देती हैं। इतिहास के इन्हीं बनते-बिगड़ते दृष्टांत में दर्द है, ‘समाचार नहीं जो सुबह अखबार में पढ़ते हो/न ही वह जो दिन भर टीवी पर देखते बार-बार।’

कविताएं बचपन में खुद को टटोलती हैं ‘दादी की पाजेब’ में, जवानी में ‘असंख्य रूप’ में अभिव्यक्त हैं, तो जीवन की सांझ में ‘वृक्ष और सत्य’ के मार्फत क्षितिज ढूंढ रही हैं, ‘लहर के लहराने का आनंद/समुद्र बनने की ललक से ही/कितना भिन्न है, निम्न है।’ ललित मोहन ऐसे कवि व विचारक हैं, जो व्यवस्था के जंग लगे दरवाजों को खोलने तथा इनसानी फितरत की खिड़कियों से झांकते हुए राष्ट्र के नवनिर्माण को कहीं न कहीं आहूत कर रहे हैं। उनकी कविताएं जागृत करतीं, सोए हुओं को उठातीं और राष्ट्र-समाज निर्माण की ओर ले चलती हैं। कई कविताएं कथ्य और तथ्य के समागम पर जीवन के गहरे भंवर और ईश्वरीय विश्वास की डगर पर स्थापित हैं तथा जहां कवि ‘क्षमा करें, प्रभुवर’ के माध्यम से दिल के खोट के लिए माथा रगड़ता है। कविताएं अपनी विधा की कसौटियों के बाहर खुद को इतना आजमा रही हैं कि पाठक भी दिल से जुबां तक मुरीद हो सकता है। कविता की शैली व प्रयोग को पारंगत करता चिंतन और शब्दों के अभिनव संसार को गढ़ता भाव कई फलसफों की पलकें खोल देता है। ललित मोहन का लालित्य भाव सोच की शुद्धियों-अशुद्धियों के अंतरभेद के बीच सहजता से कई स्वीकारोक्तियां कर लेता है, ‘मगर वे लोग/जिन्होंने खिड़कियां बंद कर दी थीं/वे फलों वाले दरख्त पर/पत्थर फेंकते रहेंगे/फल बटोरते रहेंगे।’                                                                                                                      -निर्मल असो

कविता संग्रह : पटल से प्रांगण तक
कवि : ललित मोहन शर्मा
प्रकाशक : आथर्ज प्रेस, नई दिल्ली
कीमत : 295 रुपए


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