गीता प्रेस को पुरस्कार के मायने

गीता प्रेस के संस्थापक के लिए यह जरूरी क्यों करार दिया जाए कि गांधी से हर मामले में सहमत होना पहली और अंतिम शर्त है। गीता प्रेस का विरोध करने वाले अब अंतिम हथियार चलाते हैं कि गांधी हत्या के षड्यंत्र में शक की सुई प्रेस के कुछ लोगों पर भी घूम रही थी। सावरकर को तो गिरफ्तार ही कर लिया गया था। नेहरू के पक्षधरों ने तो इसमें परोक्ष रूप से सरदार पटेल को भी लपेटने की कोशिश की थी। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को तो इस बहाने प्रतिबंधित ही कर दिया गया था। लेकिन न्यायालयों ने सभी को बरी कर दिया था। बल्कि अब तो यह संशय उठने लगे हैं कि गांधी हत्या से कौन राजनीतिक लाभ उठाना चाहता था। सरदार पटेल से कौन छुटकारा पाना चाहता था? गांधी हत्या की आड़ में कौन संघ और गीता प्रेस को समाप्त करना चाहता था? भारत में भारतीय धरोहर को कौन समाप्त करना चाहता था? गीता प्रेस के पुरस्कार पर सवाल उठाकर कांग्रेस और कम्युनिस्ट कहीं खुद ही तो नहीं घिर रहे। इस पुरस्कार पर विवाद खड़ा करना तर्कसंगत नहीं है…

गान्धी शान्ति प्रतिष्ठान भारत सरकार का न्यास है जिसके पदेन अध्यक्ष प्रधानमंत्री होते हैं। यह प्रतिष्ठान गान्धी के आदर्शों के लिए एक करोड़ रुपए का पुरस्कार देता है। इस बार यह पुरस्कार गोरखपुर के एक प्रकाशन संस्थान गीता प्रेस को दिया गया है। गीता प्रेस ने अत्यन्त विनम्रता से यह पुरस्कार तो स्वीकार किया है, लेकिन उसकी राशि भारत सरकार को वापस कर दी है। लेकिन सोनिया कांग्रेस के भीतर इस पुरस्कार को लेकर तूफान आ गया है। उसके शीर्षस्थ नेताओं का कहना है कि गीता प्रेस को यह पुरस्कार देने का अर्थ है कि यह पुरस्कार नाथू राम गोडसे को ही दे दिया गया है। कम्युनिस्ट बुद्धिजीवी भी इससे हलकान हो रहे हैं। उनकी दृष्टि में तो हिन्दुस्तान की सारी बीमारियों की जड़ ही गीता प्रेस है। यह प्रेस भारतीय धरोहर से संबंधित पुस्तकें प्रकाशित करवाती है और कम्युनिस्ट विद्वानों को भारतीय धरोहर बीमारी के रूप में दिखाई देती है। यही कारण था कि कम्युनिस्ट यूनियनों से संबंधित कुछ रणनीतिकारों ने कुछ साल पहले यह शोर मचाना शुरू कर दिया था कि गीता प्रेस में श्रमिकों का शोषण होता है। मजदूर हड़ताल पर हैं। उन्हें तनख्वाह नहीं मिल रही। गीता प्रेस लगभग बन्द होने के कगार पर है। कुछ लाल विद्वानों ने तो यह शोध प्रबन्ध भी लिखने शुरू कर दिए थे कि आखिर गीता प्रेस अन्तत: समाप्त कैसे हुई? लेकिन अफवाहों के पैर नहीं होते और पंजाबी भाषा में कहावत है जिसका हिन्दी अनुवाद कुछ इस तरह हो सकता है कि कौवों के चाहने से पशु नहीं मरते। कम्युनिस्टों की गीता प्रेस को लेकर पहली रणनीति फेल हो गई। लेकिन अब गीता प्रेस को गान्धी पुरस्कार मिलने से कौवा एक बार फिर आसपास के वृक्षों पर कांव कांव करने लगे हैं। लेकिन इस बार उनके साथ सोनिया कांग्रेस का एक समूह भी जुड़ गया है।

यह वही समूह है जो पिछले कुछ समय से मुस्लिम लीग को पंथ निरपेक्ष सिद्ध करने के लिए देश विदेश में गला फाड़ रहा है। हो सकता है यह कांग्रेस की विपक्षी एकता का दही जमाने के द्राविड़ प्राणायाम के कारण विवशता में पैदा हुआ विकल्प हो। या फिर भारतीय धरोहर को लेकर उसकी नकारात्मक सोच का भी परिणाम हो सकता है। सोनिया कांग्रेस के लोगों का कहना है कि महात्मा गान्धी का रास्ता गीताप्रेस के रास्ते से मेल नहीं खाता। महात्मा गान्धी स्वयं को भारतीय संस्कृति के सन्दर्भ में सनातनी कहा करते थे। गीता प्रेस भी सनातन धरोहर के संरक्षण व प्रसार के लिए संकल्पित है। फिर दोनों का विरोध कैसे हो सकता है? सोनिया कांग्रेस का कहना है कि गान्धी जी और गीताप्रेस सनातन की अवधारणा को लेकर एकमत नहीं थे। एकमत न होना ही तो सनातन की सबसे बड़ी ख़ूबसूरती है। सनातन युगानुकूल नित्य नई व्याख्या में विश्वास करता है, इसीलिए तो वह आज इक्कीसवीं शताब्दी में भी प्रासंगिक है। यही कारण है कि आज से पांच हजार साल पहले लिखी गई गीता की आधुनिक सन्दर्भों में आज भी देश में ही नहीं विदेश में भी व्याख्या हो रही है। गान्धी जी ने तो स्वयं गीता की व्याख्या की थी। इसी स्थल पर तो गीताप्रेस और गान्धी एक साथ दिखाई देने चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य से सोनिया गान्धी के अनुयायियों को इसी स्थल पर वे परस्पर विरोधी दिखाई देते हैं। धरोहर व दर्शन के मामले में सामी चिन्तन तालबद्ध होने का आदेश देता है। भारतीय परम्परा ‘विप्रा बहुधा वदन्ति’ की है। गीता प्रेस भारतीय ग्रन्थों का प्रकाशन करता है। उनकी व्याख्या का काम विद्वानों का है। लेकिन सोनिया कांग्रेस व कम्युनिस्टों की रणनीति यह है कि ये ग्रन्थ सस्ते मूल्य पर उपलब्ध ही न हों। न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी।

गीताप्रेस का विरोध करने वाले कुछ विद्वान गान्धी जी के दलित समाज की उन्नति के लिए किए जाने वाले प्रयासों को लेकर करते हैं। उनका कहना है दलित समाज की उन्नति को लेकर अपनाए जाने वाले तरीक़ों पर महात्मा गान्धी और गीताप्रेस के संस्थापक एकमत नहीं थे। दोनों के तरीक़े अलग अलग थे। यदि इसी को गीताप्रेस के विरोध का आधार माना जाए तब तो इस विषय पर महात्मा गान्धी और डा. भीमराव रामजी अंबेडकर भी एकमत नहीं थे। अंबेडकर तो दलित उद्धार को लेकर गान्धी के प्रयासों को पाखंड के अतिरिक्त कुछ नहीं मानते थे। अंबेडकर ने तो इस सम्बन्ध में एक दूसरी रोचक घटना का भी उल्लेख भी किया है। बक़ौल अंबेडकर उनके पास जमना लाल बजाज यह सन्देश लेकर आए थे कि वे अपने अछूतोद्धार के प्रयासों में महात्मा गान्धी के साथ मिल कर चलें तो उन्हें पैसे की कमी नहीं होगी और काम भी गति पकड़ेगा। अंबेडकर का उत्तर था कि मैं बहुत से मामलों में गान्धी के साथ सहमत नहीं हूं, इसलिए मैं उनके साथ मिल कर नहीं चल सकता। तब जमना लाल बजाज का रहस्योद्घाटन चौंकाने वाला था। उसने कहा कि नेहरु तो गान्धी जी के साथ किसी एक मामले में भी सहमत नहीं हैं, लेकिन वे फिर भी गान्धी जी के शिष्य हैं तो आप यह क्यों नहीं कर सकते? अंबेडकर का उत्तर था कि यह पाखंड नेहरु कर सकते हैं, मैं नहीं। गीताप्रेस के संस्थापक के लिए यह जरूरी क्यों कऱार दिया जाए कि गान्धी से हर मामले में सहमत होना पहली और अन्तिम शर्त है। गीता प्रेस का विरोध करने वाले अब अन्तिम हथियार चलाते हैं कि गान्धी हत्या के षड्यन्त्र में शक की सुई प्रेस के कुछ लोगों पर भी घूम रही थी।

सावरकर को तो गिरफ्तार ही कर लिया गया था। नेहरु के पक्षधरों ने तो इसमें परोक्ष रूप से सरदार पटेल को भी लपेटने की कोशिश की थी। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को तो इस बहाने प्रतिबन्धित ही कर दिया गया था। लेकिन न्यायालयों ने सभी को बरी कर दिया था। बल्कि अब तो यह संशय उठने लगे हैं कि गान्धी हत्या से कौन राजनीतिक लाभ उठाना चाहता था। सरदार पटेल से कौन छुटकारा पाना चाहता था? गान्धी हत्या की आड़ में कौन संघ और गीता प्रैस को समाप्त करना चाहता था? भारत में भारतीय धरोहर को कौन समाप्त करना चाहता था? गीता प्रैस के पुरस्कार पर सवाल उठाकर कांग्रेस और कम्युनिस्ट कहीं खुद ही तो नहीं घिर रहे। इस पुरस्कार पर विवाद खड़ा करना तर्कसंगत नहीं है।

कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वरिष्ठ स्तंभकार

ईमेल:kuldeepagnihotri@gmail.com


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