महाराजा रणजीत सिंह का योगदान

अंग्रेजों की ओर से निश्चिंत होकर अब रणजीत सिंह ने अपना सारा ध्यान एकीकरण की ओर लगाया। उसने अपनी सेना के परंपरागत स्वरूप को बदलकर आधुनिकीकरण किया…

विशाल सप्त सिन्धु क्षेत्र अपने आप में पूरे पश्चिमोत्तर भारत को समेटे हुए है। बस इतना ध्यान रहना चाहिए कि पश्चिमोत्तर भारत से अभिप्राय 15 अगस्त 1947 के पहले के भारत से है। इस विशाल क्षेत्र में सैकड़ों नदियां और नाले हैं, लेकिन वे सभी सतलुज, व्यास, जेहलम, रावी व चिनाब इत्यादि नदियों में मिल जाते हैं और ये पांचों नदियां सिन्धु नदी में मिलती हैं। इस प्रकार विशाल सिन्धु नदी अन्त में समुद्र में मिल जाती है। सप्त सिन्धु की सातवीं नदी सरस्वती अरसा पहले सूख गई थी, लेकिन आदि बद्री में उसका स्रोत अभी भी बचा हुआ है। घग्घर और टांगरी नदी सरस्वती नदी के बचे हुए अवशेष ही हैं। लेकिन अनेकों आक्रमणकारियों के हमलों के कारण यह भौगोलिक रूप से तो विद्यमान रहा, परन्तु राजनीतिक व सांस्कृतिक रूप से खंड खंड हो गया। इस क्षेत्र में 1699 में दशगुरु परम्परा के दशम गुरु श्री गोविन्द सिंह जी ने देश धर्म की रक्षा के लिए खालसा पंथ की स्थापना की थी। गोविन्द सिंह जी द्वारा गठित खालसा पंथ ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी। खालसा पंथ ने विदेशी मुगल सत्ता से लोहा लेने की सुप्त ताकत को पुन: जागृत कर दिया। कालान्तर में इस चेतना एवं जागृति को राजौरी-पुंछ के बन्दा बहादुर ने धार दी। उसने 1710 में सरहिन्द को जीत कर सदियों से पराजित हो रहे सप्त सिन्धु क्षेत्र में नई जान डाल दी। लेकिन ईरान के बादशाह नादिरशाह के 1739 के हमले ने तो दिल्ली में मुगल सत्ता के केन्द्र को हिला कर रख दिया था। इसके परिणामस्वरूप सत्ता की केन्द्रीय व्यवस्था छिन्न भिन्न होने लगी। लाहौर के मुगल सूबेदार जकरिया खान की मौत के बाद उसके बेटों में ही घमासान होने लगा। लेकिन इन जकरिया खानों की विदेशी सत्ता से ही स्वतंत्र होने की चिंगारी सप्त सिन्धु क्षेत्र/पंजाब में भी प्रज्वलित होने लगी थी। अब तक इस क्षेत्र में खालसा पंथ अपनी जडें़ जमा चुका था।

‘प्रत्येक घर का बड़ा बेटा खालसा पंथ का’, यह भावना तो गुरु गोविन्द के समय में ही पनपने लगी थी। यही कारण था कि नादिरशाह के हमलों से जो अव्यवस्था पैदा हुई थी, उसके परिणामस्वरूप सप्त सिन्धु/पंजाब क्षेत्र में भी खालसा पंथ के शक्ति केन्द्र दिखाई देने लगे थे। इन्हें मिसल कहा जाता था। लेकिन इसी अव्यवस्था का लाभ अफगानिस्तान का अहमद शाह अब्दाली ने भी उठाया। उसने मुगलों का स्थान लेने के लिए 1747 से लेकर 1767 तक भारत पर आठ बार हमले किए। लेकिन इसका सर्वाधिक दंश पंजाब/सप्त सिन्धु क्षेत्र को ही झेलना पड़ा। मिसलों के सरदारों से जगह जगह अब्दाली के सैनिकों की झड़प होती रहती थी। इन मिसलों में से एक मिसल चढ़त सिंह की भी थी। चढ़त सिंह के पूर्वज गुजरांवाला के सुकरचक गांव के थे। इसलिए यह मिसल सुकरचकिया के नाम से प्रसिद्ध हुई। इधर सप्त सिन्धु क्षेत्र में अहमद शाह अब्दाली के सैनिकों से पंजाब भिड़ रहा था, उधर कुछ अरसा पहले हिन्दुस्तान में व्यापार करने के लिए आई ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी का भी अठारहवीं सदी के मध्य में ही भारत के राजनीतिक क्षितिज पर उदय हो रहा था। 1757 में प्लासी की लड़ाई में मीर जाफर की सहायता से बंगाल के नवाब सिराजुद्दौला को परास्त कर अंग्रेजों ने भी यहां यूनियन जैक गाड़ दिया था और अब वे देश भर में अपने पैर पसारते पसारते सप्त सिन्धु क्षेत्र की ओर बढ़ रहे थे।

इन्हीं दिनों इस क्षेत्र में महाराजा रणजीत सिंह (1780-1839) का राजनीतिक क्षेत्र में उदय होता है। रणजीत सिंह यदुवंशी भट्टी समुदाय से ताल्लुक रखते थे। सप्त सिन्धु क्षेत्र, जैसा कि ऊपर संकेत दिया गया है, राजनीतिक रूप से अनेक छोटे छोटे क्षेत्रों में विभाजित था। सतलुज तक तो अंग्रेजों ने कब्जा कर ही लिया था। रणजीत सिंह समझ गए थे कि यदि अंग्रेजों से मुकाबला करना है तो सप्त सिन्धु क्षेत्र के एकीकरण की ओर कदम बढ़ाना होगा। अब तक पंजाब में मिसलों के नाम से स्थानीय शक्ति केन्द्र आकार लेने लगे। इनमें भंगी, कन्हैया, रामगढिय़ा, सिंहपुरिया, सुकरचकिया, आहलूवालिया, नकई, डल्लेवाला, निशानवालिया, करोडसिंघिया, निहंग मिसल, फुलकियां, फैजलपुरिया मिसलें महत्वपूर्ण थीं। अपने पिता की मौत के बाद रणजीत सिंह 1792 में सुकरचकिया मिसल के सरदार बन गए थे। उन दिनों लाहौर में भंगी और कन्हैया मिसल का कब्जा था। रणजीत सिंह ने सबसे पहले इसी ओर ध्यान दिया। अन्तत: 1799 में उसने लाहौर के किले पर कब्जा कर लिया और स्वयं को पंजाब का नरेश घोषित कर दिया। इस प्रकार सप्त सिन्धु के एकीकरण का अभियान 1799 में ही शुरू हो गया था। विधाता ने रणजीत सिंह को उच्चकोटि की बुद्धि दी थी और साथ ही उसके अन्दर साहस, वीरता तथा युद्ध कौशल पर्याप्त मात्रा में था। उसने देखा कि अंग्रेज कोलकाता से चलकर यमुना के तट तक आ पहुंचे हैं और दूसरी ओर काबुल नरेश शाहजमां ने पंजाब पर फिर से अपना आधिपत्य जमाने के लिए हाथ-पैर मारना शुरू कर दिया है।

उसने सोचा कहीं ऐसा न हो कि अपनी जन्मभूमि को स्वतंत्र करवाने का शुभ कार्य जो कि खालसा पंथ ने आरम्भ किया हुआ था, रुक जाए और हमारी आठ सौ साल की पुरानी पराधीनता चिरस्थायी हो जाए। अतएव वह इस बात पर कटिबद्ध हो गया कि किसी प्रकार भी हो, इन दुर्लभ छोटी छोटी रियासतों को समाप्त करके पंजाब में एक शक्तिशाली राष्ट्रीय सत्ता स्थापित कर दी जाए, जिससे कोई भी विदेशी आक्रमणकारी अब इस ओर आंख उठा कर न देख सके। इसके लिए उसने परम्परागत तौर तरीके छोड़ कर वे नए तरीके भी अपनाए जिससे वह शक्तिशाली अंग्रेजों का भी सामना कर सके। यही कारण था कि उसने अपने राज्य की सेना ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेना की तर्ज पर प्रशिक्षित की और प्रशिक्षण के लिए विदेशी प्रशिक्षकों का उपयोग भी किया। 1808 तक आते आते रणजीत सिंह ने जेहलम और सतलुज के बीच के सभी क्षेत्रों का एकीकरण करने में सफलता प्राप्त कर ली। इधर महाराजा रणजीत सिंह सप्त सिन्धु क्षेत्र के एकीकरण के प्रयास में लगे हुए थे, उधर ईस्ट इंडिया कम्पनी धीरे धीरे पंजाब की ओर सरक रही थी। एक दूसरे की शक्ति तौलने का प्रयास हो रहा था। दोनों की अपनी सीमाएं थीं। दरअसल इसी काल में यूरोप में फ्रांस और इंग्लैंड में घमासान छिड़ा हुआ था। ब्रिटेन को खतरा था कि हो सकता है फ्रांस भारत पर भी हमला कर दे। यह खतरा और बढ़ गया जब 1807 में रूस और फ्रांस में सन्धि हो गई। अंग्रेजों ने अनुमान लगाया कि यदि महाराजा रणजीत सिंह से समझौता हो जाए तो फ्रांस के हमले की स्थिति में वे अंग्रेजों का साथ देंगे। रणजीत सिंह की रणनीति थी कि यदि अंग्रेज सतलुज को अपने राज्य की सीमा मान लेते हैं तो वे निश्चिंत होकर नदी के दक्षिण स्थित क्षेत्रों का एकीकरण कर, एक ताकतवर शक्ति केन्द्र की स्थापना कर सकेंगे।

कम्पनी ने समझौते के लिए बातचीत करने के लिए चाल्र्ज मैटकाफ को अपना राजदूत नियुक्त किया। महीनों तक दोनों पक्षों में बातचीत चलती रही। रणजीत सिंह ने बातचीत के दौरान ही मालवा की रियासतों को अपने राज्य में मिलाना शुरू कर दिया। कम्पनी ने भी अपने सैनिक सतलुज नदी की ओर भेजने शुरू कर दिए। रणजीत सिंह ने इसका उत्तर अपने सैनिक सतलुज के पार भेज कर दिया। अन्त में दोनों पक्षों में समझौता हो गया कि सतलुज नदी दोनों के बीच सीमा का काम करेगी। इस प्रकार लुधियाना में कम्पनी का अड्डा बना। 25 अप्रैल 1809 में हुई यह सन्धि अमृतसर की सन्धि के नाम से जानी जाती है। अंग्रेजों की ओर से निश्चिंत होकर अब रणजीत सिंह ने अपना सारा ध्यान एकीकरण की ओर लगाया। उसने अपनी सेना के परम्परागत स्वरूप को बदल कर उसका आधुनिकीकरण किया। अंग्रेजों के शत्रु, फ्रांस मूल के जनरलों को सेना के प्रशिक्षण के लिए नियुक्त किया। रणजीत सिंह ने कुछ समय में ही साम-दाम-दंड-भेद की कूटनीति का प्रयोग करते हुए उन सभी मिसलों का एकीकरण करने में सफलता प्राप्त की।

कुलदीप चंद अग्निहोत्री

वरिष्ठ स्तंभकार

ईमेल: kuldeepagnihotri@gmail.com


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