ईश्वर की इच्छा

By: Jul 8th, 2023 12:15 am

श्रीराम शर्मा

यूं तो जरा-जरा सी बात पर दु:खी होना बहुत से लोगों का स्वभाव होता है। यह स्वभाव किसी प्रकार भी वांछनीय नहीं माना जा सकता। मनुष्य आनंद स्वरूप है, उसका दु:खी होना क्या? उसे तो हर समय प्रसन्न, आनंदित तथा उत्साहित ही रहना चाहिए। यही उसके लिए वांछनीय है और यही जीवन की विशेषता। इस स्वभाव के अतिरिक्त लोग तब तो अवश्य ही दु:खी रहने लगते हैं, जब वे किसी उच्च स्थिति से नीचे उतर जाते हैं। इस दशा में वे अपने दु:खावेग पर नियंत्रण नहीं कर पाते और फूल जैसे जीवन में ज्वाला का समावेश कर लेते हैं। जब कि उस उतार की स्थिति में भी दु:ख-शोक की उपासना करना अनुचित है। उतार की स्थिति में दु:खी होना तभी ठीक है। जब वह उतार पतन के रूप में घटित हुआ हो। और यदि उसका घटना नियति में नियम परिवर्तन, ईश्वर की इच्छा, प्रारब्ध अथवा दुष्टों की दुरभिसंधियों के कारण हुआ हो

तो कदापि दु:खी न होना चाहिए। तब तो दु:ख के स्थान पर सावधानी को ही आश्रित करना चाहिए। पतन के रूप में उतार का घटित होना अवश्य खेद और दु:ख की बात है। उदाहरण के लिए किसी परीक्षा को ले लीजिए, यदि परीक्षार्थी ने अपने अध्ययन, अध्यवसाय और परिश्रम में कोताही रखी है। समय पर नहीं जागा, आवश्यक पाठ आत्मसात नहीं किए, गुरुओं के निर्देश और परामर्शों पर ध्यान नहीं दिया। अपना उत्तरदायित्व अनुभव नहीं किया और असावधानी तथा लापरवाही बरती है तो उसका फेल हो जाना खेद, दु:ख व आत्महीनता का विषय है। उसे अपने इस किए का दु:ख रूपी दंड मिलना ही चाहिए। वह इसी योग्य था।

उसके साथ न किसी को सहानुभूति होनी चाहिए और न उसे सांत्वना और आश्वासन का सहयोग ही मिलना चाहिए। किंतु उस पुरुषार्थी विद्यार्थी को दु:ख से अभिभूत होना उचित नहीं, जिसने पूरी मेहनत की है और पास होने की सारी शर्तों का निर्वाह किया है। बात अवश्य कुछ उल्टी लगती है कि जिसने परिश्रम नहीं किया, वह तो अनुत्तीर्ण होने पर दु:खी हो और जिसने खून-पसीना एक करके तैयारी की वह असफल हो जाने पर दु:खी न हो। किंतु हितकर नीति यही है कि योग्य विद्यार्थी को असफलता पर दु:खी नहीं होना चाहिए। इसलिए कि उसके सामने उसका उज्ज्वल भविष्य होता है। दु:ख और शोक से अभिभूत हो जाने पर वह निराशा के पर्दे में छिप सकता है।

अयोग्य विद्यार्थी का न तो कोई वर्तमान होता है और न भविष्य। वह निकम्मा, चाहे दु:ख हो, चाहे प्रसन्न कोई अंतर नहीं पड़ता। इस प्रकार पतन द्वारा पाई असफलता तो दु:ख का हेतु है, किंतु पुरुषार्थ से अलंकृत प्रयत्न की असफलता दु:ख खेद का नहीं, चिंतन-मनन और अनुभव का विषय है। आशा, उत्साह,साहस और धैर्य की परीक्षा का प्रसंग है। प्रयत्न की असफलता स्वयं एक परीक्षा है। मनुष्य को उसे स्वीकार करना और उत्तीर्ण करना ही चाहिए।

प्राय: आर्थिक उतार लोगों को बहुत दु:खी बना देता है। जिसका लंबा-चौड़ा व्यापार चलता हो। लाखों रुपये वर्ष की आमदनी होती हो, सहसा उसका रोजगार ठप हो जाए, कोई लंबा घाटा पड़ जाए, हैसियत, बिगड़ जाए और वह असाधारण से साधारण स्थिति में आ गिरे तो वह अवश्य ही दु:खी और शोक-ग्रस्त रहने लगेगा।


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