बढ़ते मानव, घटती जमीन

जमीन को बढ़ाना हमारे बस में नहीं है, परंतु हम जनसंख्या को नियंत्रित करने का काम जरूर कर सकते हैं। हम इस पृथ्वी पर किराएदार की तरह हैं। इस पर आने वाली पीढ़ी का भी इतना ही अधिकार है जितना हमारे पूर्वजों का था और हमारा है। क्या हम अपने बच्चों को जनसंख्या से त्रस्त धरा को सौंपना चाहेंगे…

18वी शताब्दी के दार्शनिक टॉमस मुल्थस ने कहा था- ‘मानव की बच्चे पैदा करने की न मिटने वाली प्यास हमें इस उपग्रह पर अंतत: एक दिन अत्यधिक जनसंख्या तक ले जाएगी। मानव सब संसाधनों को खा जाएगा और स्वयं महा अकाल का शिकार हो जाएगा।’ इतने वर्ष पहले मानव के भविष्य के बारे में उनका ये आकलन सही है और एक भयानक त्रासदी की ओर संकेत करता है। इसे देखते हुए हमारे देश में जनसंख्या विनियमन कानून लागू करना एक बड़ा महत्त्वपूर्ण व प्रशंसनीय कदम होगा। इस कानून को राजनीतिक या धार्मिक रंग देना या इस दृष्टि से देखना सरासर अनुचित, बेमानी व अवांछनीय है क्योंकि बढ़ती जनसंख्या के परिणाम धर्म और जाति में पहचान नहीं करेंगे। ये समझना कठिन नहीं है कि तीव्र गति से बढ़ती हुई जनसंख्या विकास पर नकारात्मक प्रभाव डाल रही है। क्या आपने कभी गूगल पर जनसंख्या घड़ी को देखा है। ज़रूर देखिएगा। जब देखेंगे तो अचरज और चिंता में पड़ जाएंगे।

आपको लगेगा कि इस धरती पर बेशुमार आदमी हैं जो तीव्र गति से बढ़ रहे हैं। आपको समझ आ जाएगा कि यदि जनसंख्या की ये घड़ी इसी गति से चलती रही, तो एक दिन ज़मीन कम पड़ जाएगी। विश्व में एक दिन में 3 लाख से अधिक बच्चे पैदा हो रहे हैं। जन्म और मृत्यु का हिसाब-किताब लगाया जाए तो जनसंख्या में प्रतिदिन 2 लख से अधिक की बढ़ोतरी हो रही है। 1970 के मुकाबले आज विश्व की जनसंख्या दुगुनी हो गई है। संयुक्त राष्ट्र संघ के अनुमान के अनुसार 2050 तक पृथ्वी पर 9.8 बिलियन से अधिक आदमी हो जाएंगे। भारत की जनसंख्या इस समय 140 करोड़ से अधिक हो चुकी है। विश्व की आबादी का 18 प्रतिशत हिस्सा हमारे देश में ही बसता है। हमारा देश अब आबादी में चीन से आगे निकल गया है। जाहिर है हमारी स्थिति व समस्या और भी चिंताजनक है। पृथ्वी का क्षेत्रफल 510.1 मिलियन वर्ग कि. मी. है जो विशाल ज़रूर लगता है, परन्तु वास्तव में यह स्थिर और सीमित है, अर्थात धरती उतनी ही रहेगी जितनी ये है। इसे मजऱ्ी से अपनी सुविधा के अनुसार बढ़ाना या घटाना किसी इनसान के बस की बात नहीं है। न ही अभी तक पृथ्वी के अलावा किसी अन्य उपग्रह पर इनसानी जहां बसाना संभव हो पाया है। इस दिशा में खोज ज़रूर चल रही है, परंतु फिलहाल हमें इसी पृथ्वी पर रह कर अपना जहां बसाना और चलाना है। पृथ्वी पर रहने वाले लोग निरंतर बढ़ते जा रहे हैं। हमें धरती रहने के लिए भी चाहिए और इसी धरती से जीने के लिए अन्न चाहिए। तेजी से बढ़ते इनसानों को रहने के लिए अधिक मकानों की जरूरत पड़ेगी और भोजन प्रदान करने के लिए अधिक अनाज की आवश्यकता होगी। जाहिर है दिन प्रतिदिन हमारी भूमि की आवश्यकता बढ़ती जाएगी। उस स्थिति में मानव जंगलों की ओर रुख करेगा। नतीजा ये होगा कि जंगल सफाचट होते जाएंगे। सांस लेने के लिए ऑक्सीजन की कमी होती जाएगी क्योंकि यह पेड़ों से मिलती है और पेड़ जमीन के अलावा कहीं और नहीं उगते। सांस लेने को शुद्ध हवा मयस्सर नहीं होगी। इन्हैलर को साथ लेकर चलना पड़ेगा। प्राकृतिक संसाधनों का अधिकाधिक शोषण होगा। पानी की कमी तो होगी ही होगी, साथ ही स्वच्छ पानी भी नहीं मिलेगा।

मानव और वनों में पलने वाले जीव-जंतुओं के बीच अस्तित्व के लिए संघर्ष होगा। मनुष्य को अधिक जमीन की आवश्यकता होगी और जंतुओं के लिए जंगल कम हो जाएंगे। शक्तिशाली होने के कारण आदमी जंतुओं को मारता चला जाएगा जिससे प्राकृतिक व पारिस्थितिकी संतुलन बिगड़ जाएगा। अपनी अन्य आवश्यकताओं व विकास के लिए इसी धरती से हमें संसाधन भी चाहिए। धरती पर उपलब्ध संसाधनों का अधिकाधिक दोहन होने के कारण हमारी शानदार पृथ्वी एक मरीज की भांति हो जाएगी। समझने के लिए सामान्य समझ ही काफी है कि जैसे-जैसे पृथ्वी पर लोग बढ़ते जाएंगे, हर एक आदमी का हिस्सा इस पर घटता चला जाएगा। मेरे पड़दादा के पास 200 बीघा जमीन थी जो दादाओं, पिता-चाचा-तायों से होते हुए बंटती चली गई और मेरे हिस्से में बची है 5 बीघा खेती योग्य जमीन। कारण संतानें बिना नियंत्रण के पैदा होती चली गईं। इसी तरह पूरे विश्व में आबादी बढ़ रही है। जाहिर है हर व्यक्ति का जमीन का हिस्सा घट रहा है। दरअसल जनसंख्या में बढ़ोतरी ऐसी समस्या है जो हर तरह के विकास पर ऋणात्मक प्रभाव डालती है। बढ़ती हुई आबादी की मांग को पूरा करने के लिए प्रकृति के नियमों को अनदेखा किया जा रहा है। तभी तो कभी कहीं बाढ़ का तांडव होता है तो कभी सूखे से हाहाकार मचता है। यदि भारत में जनसंख्या वृद्धि की दर यही रहती है, जल्द ही आम आदमी की न्यूनतम आवश्यकताएं भी पूरी नहीं होगी। बच्चे पैदा करने के बाद उनका बेहतर लालन-पालन करना भी मां-बाप का दायित्व होता है। परिवार में अधिक बच्चे होने से उन्हें बढिय़ा व संतुलित भोजन उपलब्ध करवाना आसान नहीं होता। उन्हें उच्च व बेहतर शिक्षा दिलाना भी मां-बाप के लिए मुश्किल हो जाता है। यदि परिवार सीमित होगा, तो बच्चों की बेहतर परवरिश की जा सकती है। बेटे की चाहत में बच्चों की टीम पैदा करके केवल बेरोजगारी, गरीबी और कुपोषण की समस्याओं को और विकट बनाया जा सकता है।

इन समस्याओं के लिए हमेशा सरकार को दोषी ठहराना भी ठीक नहीं। आम जनचेतना व समझने की आवश्यकता है। जनसंख्या नियंत्रण कानून आज नहीं तो कल लागू करना ही होगा। इसमें शरीयत या धर्मशास्त्रों को नाक घुसेडऩे की जरूरत नहीं। विश्वास रखें, न जन्नत दोजख होगी, न अल्ला नाराज होगा और न ही मृत्यु के बाद मुक्ति की राह में रोड़ा आएगा। बेटी के अर्थी को मुखाग्नि देने से कोई नरक में नहीं जाएगा। यदि बांसुरी अपनी मां सुषमा स्वराज को मुखाग्नि दे सकती हैं, तो हमारी बेटियां क्यों नहीं? जमीन को बढ़ाना हमारे बस में नहीं है, परंतु हम जनसंख्या को नियंत्रित करने का काम जरूर कर सकते हैं। हम इस पृथ्वी पर किराएदार की तरह हैं। इस पर आने वाली पीढ़ी का भी इतना ही अधिकार है जितना हमारे पूर्वजों का था और हमारा है। क्या हम अपने बच्चों को जनसंख्या से त्रस्त और ग्रस्त धरा को विरासत में सौंपना चाहेंगे?

जगदीश बाली

स्वतंत्र लेखक


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