आनंदमय जीवन का रहस्य

By: Jul 22nd, 2023 12:20 am

ओशो

उपनिषद जीवन विरोधी नहीं हैं और न ही यह जीवन को अपनाने से इंकार करता है। इसका उद्देश्य संपूर्णता को पाना है। जीवन को उसकी समग्रता के साथ जीना चाहिए। उपनिषद यह नहीं सिखाता कि आपको इस जीवन से बचना चाहिए या जीवन बदसूरत है, बल्कि ये तो जीवन में आनंद भरता है। उपनिषद कहता है कि संसार भक्ति का प्रत्यक्ष रूप है और भक्ति संसार का। हर प्रत्यक्ष घटना के अंदर एक अप्रत्यक्ष बौद्धिक तत्त्व होता है। जब आप एक फूल को देखते हैं तो वह फूल प्रत्यक्ष रूप में आपके सामने है अर्थात आप उसे देख सकते हैं लेकिन इसके अंदर भी एक अप्रत्यक्ष रूप है और वो न दिखने वाला रूप इसकी खुशबू है, जो इस फूल की आत्मा है। आप उस खुशबू को छू नहीं सकते और न ही फूल को तोडक़र उसकी तलाश कर सकते हैं। उसे पाने के लिए आपको एक कवि का दृष्टिकोण अपनाना होगा न कि एक वैज्ञानिक का। वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विश्लेषण कवि के दृष्टिकोण से काफी अलग होता है। विज्ञान कभी भी एक फूल की सुंदरता को नहीं तलाश सकता, क्योंकि इसकी सुंदरता इसमें अप्रत्यक्ष रूप में समाहित होती है।

विज्ञान केवल फूल के प्रत्यक्ष रूप की जांच कर सकता है और यह पता लगा सकता है कि यह किन-किन पदार्थों से बना है लेकिन वह इसकी आत्मा को नहीं तलाश सकता। उपनिषद इस देश के लोगों की और विश्व के हर धार्मिक लोगों की आत्मा है। वो लोग उपनिषद से आनंद प्राप्त करते हैं क्योंकि उपनिषद पूर्णता सिखाता है। परस्पर जुड़ी चीजों को वैसे ही रहना है जैसे वो हैं, लेकिन यह सब जानते हुए भी वो बदलते रहते हैं और लगातार उस अपरिवर्तन को याद रखते हैं। अपने चारों ओर की खुबसूरत दुनिया के सभी मौसम, उसके रंग, उसकी खुबसूरती और भव्यता को महसूस करने के लिए यह जरूरी है कि आप अपरिवर्तन के नियमों का पालन करें, लेकिन अपने जीवन में परिवर्तन को भी स्थान दें, अपरिवर्तन में केंद्रित रहें लेकिन बदलाव को भी खुद से जुडऩे की अनुमति दें। इन सारी चीजों का भी आनंद लें क्योंकि ये सब भगवान के प्रत्यक्ष रूप हैं। यह एक पूर्णतावादी दृष्टिकोण है।

धर्म लगातार प्रत्यक्षता में अप्रत्यक्षता को तलाशता रहता है। इसके लिए किसी चीज से भागना आवश्यक नहीं है, बल्कि अपनी अंतरतम गहराई में तलाश करना है। यह उस स्थिर केंद्र को तलाश रही है जो इस बवंडर का केंद्र है। और यह हमेशा से वहां था और आप किसी भी पल उसका पता लगा सकते हैं। यह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे तलाशने के लिए आपको हिमालय पर जाना पड़े। यह आपके अंदर ही समाहित है। उपनिषद आपको निरपेक्ष और सापेक्ष के बीच चयन करने को कहता है जो कि गलत है। किसी भी तरह का चुनाव आपको अधूरा बना देगा और आप पूर्णता को नहीं पा सकेंगे। बिना पूर्णता के कहीं परमानंद नहीं है, कहीं पवित्रता नहीं है। बिना पूर्णता के आप हमेशा थोड़े असंतुलित और बेसुध रहेंगे। जब आप संपूर्ण रहते हैं तो आप स्वस्थ रहते हैं क्योंकि आप पूर्ण हैं। सापेक्ष का अर्थ है संसार, बदलाव, अद्भुत दुनिया जबकि निरपेक्ष दुनिया का अर्थ है परिवर्तित संसार का अपरिवर्तित केंद्र। परिवर्तन में अपरिवर्तन तलाशें। यह वहीं उपस्थित है। बस आपको इसे तलाशने की तकनीक का पता लगाना है और वह तकनीक है ध्यान करना। ध्यान का अर्थ है खुद को लय में करना। आप शरीर को देख सकते हैं, आप मन को भी देख सकते हैं। अगर आप आंखें बंद करते हैं तो आप दिमाग की हर गतिविधियों को इसके कार्य के साथ देख सकेंगें। आप देख सकते हैं कि किस प्रकार विचार आ जा रहे हैं, इच्छाएं जाग रही हैं, यादें तैर रही हैं और दिमाग की अन्य सारी गतिविधियां हो रही है। इस सबमें केवल एक बात निश्चित है और वह है कि दर्शक या यह सब देखने वाला हमारा दिमाग नहीं है। दर्शक अलग है और गवाह अलग। इस गवाह से अवगत होने के लिए केंद्र को तलाशना आवश्यक है, उस पूर्णता और अपरिवर्तन का पता लगाना जरूरी है।


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