मणिपुर में भारतीय संसदीय प्रणाली की दरारें बेपर्दा

By: Aug 15th, 2023 12:07 am

भाग – 1

संसदीय प्रणाली इस स्थिति को और गंभीर बना देती है जब यह बहुमत पार्टी के नेता को मंत्री चुनने की खुली छूट देती है। इससे अकसर सांप्रदायिक सरकार का निर्माण होता है। मणिपुर के मुख्यमंत्री स्वयं एक मैतेई हैं और उन्होंने अपने विश्वासपात्रों व अंतरंग मित्रों को चुन-चुनकर मंत्री बनाया है। उनका प्रशासन इतना दबंग बन गया कि नौ मैतेई विधायक – आठ स्वयं भाजपा के – जून 2023 में प्रधानमंत्री को सावधान करने जा पहुंचे कि ‘‘जनता वर्तमान राज्य सरकार में संपूर्ण विश्वास खो चुकी है।’’ परंतु एक भारतीय संसदीय सरकार, चाहे कितनी भी सांप्रदायिक या पक्षपातपूर्ण क्यों न हो, को केवल आगामी आम चुनावों में ही उत्तरदायी ठहराया जा सकता है। और बेशक, विधायिका में बहुमत रखने वाले स्वयं को सरकार से कभी बाहर नहीं करना चाहते…

मणिपुर दो माह से भी अधिक समय से प्रचंड जातीय हिंसा की चपेट में है। कम से कम 140 लोग मारे गए हैं, 70,000 बेघर हो गए हैं, हिंसा समूचे पूर्वोत्तर में फैल रही है, और इसके पीछे की सियासत ने देश की संसद को लकवाग्रस्त कर डाला है। फिर भी, भारत की शासन प्रणाली के तहत ऐसा कोई संस्थागत ढांचा नहीं है जो दोषी राजनेताओं को जिम्मेदार ठहराए या उनके अंतरंग मित्रों को दंडित करे। सबसे चिंताजनक यह कि ऐसा कोई तंत्र उपलब्ध नहीं जो हिंसा थमने के बाद भी यह सुनिश्चित कर सके कि ऐसा जातीय उपद्रव दोबारा घटित नहीं होगा।

ये असफलताएं मात्र मणिपुर तक ही सीमित नहीं, बल्कि सभी राज्यों और केंद्र में मौजूद हैं, क्योंकि भारतीय संसदीय शासन प्रणाली हमारे जैसी विविध जनसंख्या के लिए उपयुक्त नहीं है।

बहुमत शासन के आधारभूत संसदीय सिद्धांतों को देखें: जो बहुमत में होते हैं, वे सरकार चलाते हैं। मणिपुर की हिंसा मैतेई बहुमत (जनसंख्या का 53 प्रतिशत) और कुकी अल्पमत (28 प्रतिशत) के मध्य है। राज्य की कुल 60 विधानसभा सीटों में से 40 मैतेई के कब्जे में हैं, परंतु कुकी जनजाति के मात्र 10 विधायक हैं। हिंदू-झुकाव वाले मैतेई मार्च 2022 में 32 सीटों के साथ भाजपा सरकार को सत्ता में लाए, छह महीने बाद इसने दलबदल से पांच एमएलए और जोड़ लिए। जब एक जातीय समुदाय के पास ऐसा प्रभावी बहुमत है, तो अल्पमत हितों की सुरक्षा कौन करेगा?

संसदीय प्रणाली इस स्थिति को और गंभीर बना देती है जब यह बहुमत पार्टी के नेता को मंत्री चुनने की खुली छूट देती है। इससे अकसर सांप्रदायिक सरकार का निर्माण होता है। मणिपुर के मुख्यमंत्री स्वयं एक मैतेई हैं और उन्होंने अपने विश्वासपात्रों व अंतरंग मित्रों को चुन-चुनकर मंत्री बनाया है। उनका प्रशासन इतना दबंग बन गया कि नौ मैतेई विधायक – आठ स्वयं भाजपा के – जून 2023 में प्रधानमंत्री को सावधान करने जा पहुंचे कि ‘‘जनता वर्तमान राज्य सरकार में संपूर्ण विश्वास खो चुकी है।’’ परंतु एक भारतीय संसदीय सरकार, चाहे कितनी भी सांप्रदायिक या पक्षपातपूर्ण क्यों न हो, को केवल आगामी आम चुनावों में ही उत्तरदायी ठहराया जा सकता है। और बेशक, विधायिका में बहुमत रखने वाले स्वयं को सरकार से कभी बाहर नहीं करना चाहते।

बहुमत के शासन और सांप्रदायिक सरकार का यह मिश्रण भारत जैसे विविध लोकतंत्र में घातक बन जाता है, जब एक मुख्यमंत्री को समस्त कार्यकारी एवं विधायी शक्तियां सौंप दी जाती हैं। हमारी संसदीय प्रणाली ‘सब कुछ विजेता का’ वाली सरकारें बनाती है, जिनमें समस्त अधिकार एकल व्यक्ति के हाथ में होते हैं। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि मणिपुर के सीएम ने विधायिका में समर्थन तलाशे बिना सांप्रदायिकता से ओतप्रोत निर्णय लिए। उन्होंने मैतेई लोगों को जनजातीय दर्जा प्रदान करने की घोषणा की, परंतु कुकी जनजाति ने इसे उनकी कबायली जमीन हथियाने के प्रयास के रूप में देखा। मुख्यमंत्री ने नशीले पदार्थों के खिलाफ युद्ध छेड़ा, लेकिन कुकी लोगों के लिए यह उनके समुदाय को उखाड़ फेंकने का बहाना था। सीएम ने मैतेई प्रथाओं को बढ़ावा दिया, परंतु कुकी डर गए और ईसाई मान्यताओं संग हाशिए पर जा पहुंचे। एक संसदीय मुख्यमंत्री के पास कोई भी कानून पास करवाने, किसी पदाधिकारी को नियुक्त करने, और मनमर्जी से काम करने की शक्ति होती है। जांच एजेंसियों और पुलिस सहित तमाम राज्य मशीनरी केवल उसके अधीन होती है। जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश मदन लोकुर लिखते हैं, ‘‘मणिपुर की भयानक परिस्थितियों की जानकारी के बावजूद जिन अधिकारियों ने कार्रवाई नहीं की, वे भी दोषी हैं, परंतु उन्हें जिम्मेदार कौन ठहराएगा?’’

अतीत में भारत के राष्ट्रपति के पास शक्ति थी कि एक राज्य सरकार को जिम्मेदार ठहरा सकें, परंतु इंदिरा गांधी के 42वें संविधान संशोधन ने उसका अंत कर दिया। उन्होंने संविधान को ऐसे संशोधित किया कि अब राष्ट्रपति को प्रधानमंत्री की सलाह के अनुरूप ही फैसला लेना होगा। इसने भारत की प्रणाली में केंद्रीय और राज्य सरकारों पर एकमात्र निष्पक्ष नियंत्रण को हटा डाला। अब राष्ट्रपति प्रधानमंत्री के अधीन है और राज्यों के गवर्नर आम तौर पर शक्तिहीन। इस संवैधानिक व्यवस्था के तहत प्रधानमंत्री पर मणिपुर में राष्ट्रपति शासन लागू करने और अपनी ही पार्टी की सरकार बर्खास्त करने की कोई मजबूरी नहीं है।

जहां तक न्यायपालिका का संबंध है, इसे कार्यपालिका और विधायिका पर नियंत्रण रखने के लिए नहीं, अपितु कानून पर निर्णय करने के लिए बनाया गया है। ज्यादा से ज्यादा यह एक कानून को असंवैधानिक घोषित कर सकती है। जैसा कि भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने हाल ही में कुकी समुदाय की ओर से दाखिल यायिकाओं के विषय में कहा, ‘‘यह वह मंच नहीं है जहां हम यह सब करते हैं। हमें इस विषय के सुप्रीम कोर्ट के दायरे से बाहर होने के बारे में अवगत होना चाहिए। कानून और व्यवस्था निर्वाचित सरकार चला सकती है, हम नहीं।’’ इसके अतिरिक्त, न्यायाधीशों को नियुक्त करने की हमारी प्रणाली अत्यंत अपारदर्शी है। विश्वसनीय विवरणों का आरोप है कि मणिपुर के मुख्यमंत्री ने राज्य के उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति में देरी की।

इसलिए राज्य के स्तर पर बिना किसी उपाय के मामला संसद में पहुंच चुका है। परंतु यह केवल एक गंभीर संकट का राजनीतिकरण है। हमारी संसदीय प्रणाली के तहत विपक्ष दंतहीन है, परिणामस्वरूप यह केवल हो-हल्ला कर सकता है या भाषण दे सकता है। विपक्ष का अविश्वास प्रस्ताव भी गिरना तय था क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी के पास संसद में मजबूत बहुमत है। भारत के 75 वर्षों के इतिहास में मात्र एक सरकार (1990 में वीपी सिंह) ने ही अविश्वास प्रस्ताव के जरिए हार के बाद इस्तीफा दिया है। जहां तक मणिपुर में किए गए अपराधों के संबंध में सीबीआई जांच का सवाल है तो परिणामों पर हमेशा संदेह रहेगा, क्योंकि केंद्र और राज्य सरकारें, दोनों एक ही पार्टी से संबंधित हैं।

हमारी संसदीय प्रणाली में शक्तियों का अति केंद्रीयकरण अंतर्निहित है, जो हमारे सभी मुख्य कार्यकारियों को भयानक रूप से तानाशाह बनने की अनुमति देता है। अगर भारत का भविष्य उज्ज्वल चाहिए तो हमें अपने संविधान का यह मूलभूत दोष दूर करना ही होगा।

भानु धमीजा

सीएमडी, दिव्य हिमाचल

-अंग्रेजी में ‘द क्विंट’ में प्रकाशित

(31 जुलाई, 2023)


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