हिमाचली हिंदी कहानी : विकास यात्रा

By: Aug 12th, 2023 7:20 pm

कहानी के प्रभाव क्षेत्र में उभरा हिमाचली सृजन, अब अपनी प्रासंगिकता और पुरुषार्थ के साथ परिवेश का प्रतिनिधित्व भी कर रहा है। गद्य साहित्य के गंतव्य को छूते संदर्भों में हिमाचल के घटनाक्रम, जीवन शैली, सामाजिक विडंबनाओं, चीखते पहाड़ों का दर्द, विस्थापन की पीड़ा और आर्थिक अपराधों को समेटती कहानी की कथावस्तु, चरित्र चित्रण, भाषा शैली व उद्देश्यों की समीक्षा करती यह शृंखला। कहानी का यह संसार कल्पना-परिकल्पना और यथार्थ की मिट्टी को विविध सांचों में कितना ढाल पाया। कहानी की यात्रा के मार्मिक, भावनात्मक और कलात्मक पहलुओं पर एक विस्तृत दृष्टि डाल रहे हैं वरिष्ठ समीक्षक एवं मर्मज्ञ साहित्यकार डा. हेमराज कौशिक, आरंभिक विवेचन के साथ किस्त-18

हिमाचल का कहानी संसार

विमर्श के बिंदु

1. हिमाचल की कहानी यात्रा
2. कहानीकारों का विश्लेषण
3. कहानी की जगह, जिरह और परिवेश
4. राष्ट्रीय स्तर पर हिमाचली कहानी की गूंज
5. हिमाचल के आलोचना पक्ष में कहानी
6. हिमाचल के कहानीकारों का बौद्धिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक व राजनीतिक पक्ष

लेखक का परिचय

नाम : डॉ. हेमराज कौशिक, जन्म : 9 दिसम्बर 1949 को जिला सोलन के अंतर्गत अर्की तहसील के बातल गांव में। पिता का नाम : श्री जयानंद कौशिक, माता का नाम : श्रीमती चिन्तामणि कौशिक, शिक्षा : एमए, एमएड, एम. फिल, पीएचडी (हिन्दी), व्यवसाय : हिमाचल प्रदेश शिक्षा विभाग में सैंतीस वर्षों तक हिन्दी प्राध्यापक का कार्य करते हुए प्रधानाचार्य के रूप में सेवानिवृत्त। कुल प्रकाशित पुस्तकें : 17, मुख्य पुस्तकें : अमृतलाल नागर के उपन्यास, मूल्य और हिंदी उपन्यास, कथा की दुनिया : एक प्रत्यवलोकन, साहित्य सेवी राजनेता शांता कुमार, साहित्य के आस्वाद, क्रांतिकारी साहित्यकार यशपाल और कथा समय की गतिशीलता। पुरस्कार एवं सम्मान : 1. वर्ष 1991 के लिए राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार से भारत के राष्ट्रपति द्वारा अलंकृत, 2. हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा राष्ट्रभाषा हिन्दी की सतत उत्कृष्ट एवं समर्पित सेवा के लिए सरस्वती सम्मान से 1998 में राष्ट्रभाषा सम्मेलन में अलंकृत, 3. आथर्ज गिल्ड ऑफ हिमाचल (पंजी.) द्वारा साहित्य सृजन में योगदान के लिए 2011 का लेखक सम्मान, भुट्टी वीवर्ज कोआप्रेटिव सोसाइटी लिमिटिड द्वारा वर्ष 2018 के वेदराम राष्ट्रीय पुरस्कार से अलंकृत, कला, भाषा, संस्कृति और समाज के लिए समर्पित संस्था नवल प्रयास द्वारा धर्म प्रकाश साहित्य रतन सम्मान 2018 से अलंकृत, मानव कल्याण समिति अर्की, जिला सोलन, हिमाचल प्रदेश द्वारा साहित्य के लिए अनन्य योगदान के लिए सम्मान, प्रगतिशील साहित्यिक पत्रिका इरावती के द्वितीय इरावती 2018 के सम्मान से अलंकृत, पल्लव काव्य मंच, रामपुर, उत्तर प्रदेश का वर्ष 2019 के लिए ‘डॉ. रामविलास शर्मा’ राष्ट्रीय सम्मान, दिव्य हिमाचल के प्रतिष्ठित सम्मान ‘हिमाचल एक्सीलेंस अवार्ड’ ‘सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार’ सम्मान 2019-2020 के लिए अलंकृत और हिमाचल प्रदेश सिरमौर कला संगम द्वारा डॉ. परमार पुरस्कार।

डा. हेमराज कौशिक
अतिथि संपादक
मो.-9418010646

-(पिछले अंक का शेष भाग)
‘उसके तीसरे दिन’ कहानी में ठाकुर की बेटी और जुलाहिन बेटे की प्रेम कथा है जो जाति विधान की दीवारों के कारण परिणति तक नहीं पहुंचती। ‘मंडराते मेघ’ राष्ट्रभक्ति और राष्ट्रप्रेम से ओतप्रोत कहानी है। देश के लिए प्राणोत्सर्ग करने वाले युवकों की आज भी कमी नहीं है। सन् 1965 की युद्ध की घटनाओं की पृष्ठभूमि में प्रस्तुत कहानी की सृष्टि की गई है। यह कहानी भारत माता के आत्मसम्मान के लिए आत्मोत्सर्ग की प्रेरणा देती है। कहानी का यह कथन द्रष्टव्य है, ‘लाल मेरे! यह ध्यान रहे- भारत माता की ओर कोई कुदृष्टि से ताक ना पाए, उंगली से संकेत न करें। देश की रक्षा के लिए प्राणों की परवाह मत करना। बिना विजयश्री के लौटना कायरों का कार्य है। वीर पुरुष तो युद्ध भूमि में ही सुहाते हैं। युद्धभूमि ही वीरों की क्रीड़ा स्थली है।’ ‘बहुत हो चुका’ कहानी में अस्पताल के दुष्चक्रों का चित्रण जीवंत रूप में उकेरा गया है। दयालु और सह्रदय डॉक्टरों को भत्र्सना सहनी पड़ती है। ‘टुकड़े-टुकड़े विश्वास’ शीर्षक कहानी में भी अस्पताल के दमघोटु वातावरण का त्रासद चित्र प्रस्तुत किया गया है।

‘प्रेम रत्न’ में कहानीकार ने स्थापित किया है कि छोटे-छोटे झगड़े परस्पर संवाद, प्रेम और समझ से निपटाए जा सकते हैं। ‘नैनसुख’ कहानी रेस्ट हाउस में पूर्व सैनिक और वर्तमान में चौकीदार के रूप में कार्यरत नैनसुख के शोषण की स्थितियों को अनावृत करती है। चौकीदार सेना के अनुभवों के अनुरूप अनुशासन प्रिय है, परंतु अपने अधिकारियों की पगार करते-करते अंदर ही अंदर कुढ़ता रहता है। रेस्ट हाउस में दफ्तर के अधिकारियों के द्वारा की जाने वाली मदिरा पार्टियों, अधिकारियों-कर्मचारियों की अनुशासनहीनता को देखकर और उन अधिकारियों की पगार करते-करते वह अंदर ही अंदर कुढ़ता रहता है। अंतत: अपने इस शोषण के विरोध में उसमें प्रतिकार भाव जागृत होता है। वह निर्णय लेता है कि वह सबको सबक सिखाएगा। ‘टूटा हुआ आदमी’ में नारी उत्पीडऩ और नारी नियति की व्यथा कथा है। संध्या ऐसी नारियों की प्रतिनिधि चरित्र है जो पति की भत्र्सना, निर्ममता और उत्पीडऩ की शिकार होती है। कहानी में लेखक स्थापित करता है कि नारी की यह विडंबनात्मक स्थिति है कि घर हो या बाहर, वह पुरुष की भोग्या दृष्टि की शिकार है।

‘अपनी-अपनी अनकही’ कहानी प्रमुख रूप में वृद्ध पिता की पांच वर्ष की लंबी बीमारी पर केंद्रित है। इन्हें प्रतिवर्ष कैंसर पीडि़त होने के कारण अस्पताल में चेकअप करवाना होता है। दोनों बेटे सेवारत हैं। पिता पत्र द्वारा दोनों को सूचित करता है परंतु उनकी निजी समस्याएं हैं और उनकी सोच भी एक जैसी ही है। बडक़ा सोचता है छोटा जाए, छोटा सोचता है बडक़ा जाए। पिता भी बेटों की सोच को समझता है परंतु वह सब अव्यक्त रहता है। एक तरह से अपनी-अपनी अनकही रहती है। इस कहानी का एक बड़ा हिस्सा निकट संबंधियों पर केंद्रित है जो चंडीगढ़ शहर में रहते हैं और उधर बीमार पिता के साथ मां और बेटा उपचार के लिए उनके घर में रहते हैं। उपचार के लिए आए अपने संबंधियों के प्रति उनमें किसी प्रकार की सहानुभूति और आत्मीयता नहीं होती। कहानीकार इस प्रारंभिक भाग के अंतर्गत चित्रित करते हैं कि शहर के निकट संबंधी किस तरह बीमारी की अवस्था में भी यह चाहते हैं कि इस शहर में उपचार न करवाएं, कहीं दूसरे शहर में जाकर बेहतर उपचार का तर्क देकर मुक्त होना चाहते हैं। आज के नगरीय जीवन में संबंधों की आत्मीयता किस तरह तिरोहित हो गई है, कहानी इसे जीवंतता से मूर्तिमान करती है। यहां भी दोनों पक्ष सब समझते हुए भी अनकहा ही रखते हैं। अंत में पिता के साथ मां-बेटा दूसरे स्थान पर ठहर कर घुटन भरे वातावरण से मुक्त होते हैं।

कहानीकार प्रत्यूष गुलेरी की समाज के विभिन्न रूपों को उकेरती ये कहानियां अपने निकट परिवेश से संबद्ध हैं। कहानियों के कथा सूत्र और पात्र कहानीकार ने सहज, सरल शैली में निबद्ध किए हैं। कहानियों में उनकी भाषा का चित्रात्मक और संवादात्मक स्वाभाविक रूप आकर्षित करता है। कहानीकार ने लोक जीवन से संपृक्त शब्दों, मुहावरों के साथ पात्रानुकूल भाषा के हिंदी, अंग्रेजी शब्दों के स्वाभाविक प्रयोग के साथ लोकजीवन से संपृक्त लोक भाषा के आंचलिक शब्दों का सहज स्वाभाविक प्रयोग किया है। कहानियों का शिल्प कहीं वर्णनात्मक तो कहीं संस्मरणात्मक और संवादमूलक है। कई घटनाओं के संदर्भ में कहानीकार का आवेगात्मक स्वर भी मुखर हुआ है। सामाजिक और राजनीतिक जीवन के यथार्थ को उकेरती ये कहानियां सहजता और पठनीयता का गुण लिए हुए हैं। हंसराज भारती का प्रथम कहानी संग्रह ‘गिली मिट्टी की महक’ (1989) शीर्षक से प्रकाशित है जिसमें उनकी पंद्रह कहानियां- मिट्टी की महक, अंतहीन प्रतीक्षा, हरे शाल वाली, मन का बोझ, क्लास फैलो, कोई न सुने, खोया हुआ कल, तमाचा, मोहभंग, उसका फैसला, एक अधूरी कहानी, पंजाबी धर्म, गुमशुदा मौसम, एक याद भूली-सी और दूध वाली संग्रहीत हैं।

पंजाब में जब आतंक और भय का परिवेश था, उस समय हंसराज भारती अमृतसर में कार्यरत थे। वहां मनुष्य की बर्बर प्रवृत्तियों का नग्न नृत्य उन्होंने देखा था। तदयुगीन परिवेश की भयावह और अमानवीयता का अंकन करते हुए कहानीकार ने समानांतर रूप में यह भी उद्घाटित किया है कि उस समय ऐसे भी लोग थे जिनमें मानवीयता, करुणा और परस्पर सौहार्द व सहानुभूति विद्यमान थी जिससे वे हिंसात्मक परिवेश में भी पीडि़त जन की रक्षा के लिए जोखिम उठा रहे थे। ‘मिट्टी की महक’ में कादिर प्रमुख चरित्र है। कहानीकार ने उसके चरित्र की परिणति के माध्यम से अपने देश की मिट्टी के प्रति प्रेम को दिखाया है। जीवनपर्यंत वह अपनी मिट्टी के प्रति निष्ठावान बना रहता है। देश सीमा की रक्षा करते हुए शहीद के शव के रूप में अपने उस गांव लौटता है जहां से वह धर्म और संप्रदाय की संकीर्णता के कारण भाग गया था। ‘मन का बोझ’ कहानी पंजाब के तत्कालीन यथार्थ को निरूपित करती है जिसमें आतंकवाद की भयावह छाया में सर्वत्र संदेह और अविश्वास के कारण एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से दूर होता है। पंजाब में आतंक की विष बेल बढऩे से जो भयावह स्थितियां उत्पन्न हुई, उसके कटु यथार्थ को कहानीकार ने बलवंत कौर की त्रासदी के माध्यम से व्यंजित किया है। हंसराज भारती की ‘गुमशुदा मौसम’ इस दृष्टि से उत्कृष्ट रचना है। कहानी में चरणजीत सिंह केंद्रीय चरित्र है जिसके इर्द-गिर्द कथा तंतुओं की निर्मिति की गई है।

चरणजीत सिंह उर्फ चन्नी कई वर्षों तक कनाडा में रहने के अनंतर जब भारत लौटकर पंजाब में स्थित अपने गांव तक पहुंचता है तो उसे अमृतसर से लेकर गांव तक पहुंचते हुए स्थान-स्थान पर जिस परिवर्तित परिवेश में वीरानियों और सन्नाटे को देखता है, उससे वह चकित रहता है। उसे पंजाब के खुशहाल और मन को विश्रांति देने वाले गांव में वीरानियां, पुलिस की छावनियां और सन्नाटे भरा वातावरण दिखाई देता है। गांव के खेतों में पूर्ववत हरियाली का वह अटूट क्रम तो दृष्टिगत होता है, परंतु हृदय में जो वसंत का उल्लास होता है, वह पूरी तरह से गायब नजर आता है। हंसराज भारती कहानी को जिस अंतिम परिणति तक पहुंचाते हैं, वह मार्मिक और हृदयस्पर्शी है। कहानी के अंत में उसकी पूर्व प्रेमिका पुष्पा का उससे अनायास मिलना जिसका पति आतंकवाद का शिकार हुआ है, कहानी को नितांत मार्मिक बनाता है। यह भी उल्लेखनीय है कि यह कहानी संवेदना भूमि की समकालीनता के कारण सराही गई है। डॉ. पुष्पपाल सिंह के संपादित संग्रह ‘पंजाब का राजनीतिक परिदृश्य और हिंदी कहानी’ (1994) में उत्कृष्टता के कारण देश के चर्चित कथाकारों के साथ सम्मिलित है। उनकी एक अन्य कहानी ‘अजनबी’ पंजाब की त्रासदी पर सृजित कहानी है। यह कहानी वर्तमान साहित्य (1990) में अपनी संवेदना की उत्कृष्टता के कारण पुरस्कृत भी हुई थी। उसका फैसला, पंजाबी धर्म और खोया हुआ कल आदि कहानियां ग्रामीण और कस्बाई जीवन के कुछ पक्षों को चित्रित करती हैं।

कहानियों में कहीं आत्मीयता और निजीपन है तो कहीं रोमांटिक रेशों से बुने गए क्षण अपनी सुखद अनुभूति कराते हुए धर्म, जाति और वर्ग की दीवारें ध्वस्त करते हुए दिखाए गए हैं। ‘कोई न सुनें’ में कहानीकार ने शिक्षा जगत के अनुभवों को भी कहानी का विषय बनाया है। प्रस्तुत कहानी में एक नए स्कूल के अध्यापक की नियति की सटीक रूप में व्यंजना की है। ‘दूध वाली लडक़ी’ संग्रह की अंतिम कहानी है जिसमें एक निर्धन, अशिक्षित, मुस्लिम गुज्जर युवती प्रमुख चरित्र है। गुज्जर परिवार जम्मू के पहाड़ी क्षेत्रों से पठानकोट, गुरदासपुर आदि मैदानी क्षेत्रों में अपने मवेशियों सहित डेरा डाल कर और गांव और कस्बों में घर-घर जाकर दूध बेचता है। लेखक ने दूध बेचने वाली ऐसी लडक़ी का चित्रण किया है जो निर्धन, निर्भीक और स्पष्टवादी है। उसकी स्थिति का लाभ उठाने वाले मनचलों को वह निर्भीकता से आड़े हाथों लेती है। उसके स्पष्टवादी व्यक्तित्व से बैंक बाबू प्रभावित होता है और उसकी प्रशंसा करता है। कुछ समय के अनंतर जब वह अपने देस लौटती है तो बैंक बाबू से कहती है ‘तुम्हारे कारण मुझे बड़ी बदनामी सहन करनी पड़ी। खुदा तुम्हें सदा सलामत रखे।’ सुनकर बाबू अवाक रह जाता है।

हंसराज भारती की इन कहानियों से गुजरते हुए यह बात प्रमाणित होती है कि उनके पास किस्सागोई का फन है और कथा कहते हुए पाठक से तादात्म्य स्थापित कर अधिग्राह्य बनाते हैं। भारती की ये कहानियां युगीन परिवेश की विषम परिस्थितियों से नाभि नाल से आबद्ध हंै। निर्मम समय में निर्मम होती मनुष्यता का यथार्थ प्रस्तुत संग्रह की कई कहानियों में मूर्तिमान हुआ है। कहानीकार ने इन कहानियों के माध्यम से मानव मूल्यों के ह्रास के कारणों की तलाश करते हुए मनुष्यता और सौहार्द की भावना जागृत की है। प्रस्तुत संग्रह की कहानियां लघु कलेवर में भी सामाजिक सरोकारों और प्रेम संबंधों के ताने-बाने में जीवन के यथार्थ को जीवंतता से उभारने में सक्षम हैं। कुछ कहानियों में अनुभवों और संवेदना की अपरिपक्वता है। संदर्भित संग्रह की कहानियां भाषा की सहजता और शिल्प की सादगी में भी जीवन के गहन मंतव्य उद्घाटित करने में सक्षम हैं।

राजकुमार राकेश का पहला कहानी संग्रह ‘पतलियों और मुंह के बीच’ शीर्षक से सन् 1989 में प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह के प्रकाशन से पूर्व राजकुमार राकेश की घाटियों की गंध, चिंगारियां, आहटें, नई सदी, टूटे चक्रव्यूह, खामोशी, पिघलती रही जैसी कहानियां वीर प्रताप, ट्रिब्यून, कथा लोक, विश्वज्योति, पंजाब सौरभ, हिमप्रस्थ, मर्यादा, विपाशा, मधुमती आदि पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी थीं। संदर्भित कहानी संग्रह में उनकी बारह कहानियां- पतलियों और मुंह के बीच, डूबती आंखों का दर्द, पहरा, छिन्दे, तरेइया, एनकाउंटर, चक्रव्यूह, वशिष्ठ के वंशज, दायरे, निलंबन, आखिरी पन्ना और कुकुरमुत्ता संग्रहीत हैं।                                -(शेष भाग अगले अंक में)

पुस्तक समीक्षा : सामाजिक आंदोलन का एक सशक्त दस्तावेज

साहित्यकार बलदेव राज भारतीय के नए व्यंग्य संग्रह ‘कुछ उरे परे की’ में संकलित 38 व्यंग्यों को पढऩे से पहले प्राक्कथन में हमें डा. प्रमोद कुमार वाजपेई व्यंग्य विधा से परिचित कराने हेतु आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, डा. प्रभाकर माचवे, प्रसिद्ध व्यंग्यकार शरद जोशी तथा बालेन्दु शेखर की परिभाषाओं से अवगत कराते हैं और तब उन पर खरा उतरते हुए प्रस्तुत व्यंग्य संग्रह बारे स्पष्ट शब्दों में कहते हैं, ‘श्री बलदेव राज भारतीय का व्यंग्य संग्रह ‘कुछ उरे परे की’ सामाजिक आंदोलन का एक सशक्त दस्तावेज है जो पाठकों को समाज में व्याप्त विसंगतियों को समझने व उनसे निपटने के लिए एक भूमिका का कार्य करेगा।’ संग्रह की विषयवस्तु से परिचित कराते लेखक ‘अपनी बात’ यूं कहते हैं …‘संग्रह में शामिल व्यंग्य जहां सामाजिक, राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्थाओं पर कटाक्ष हैं, वहीं मनुष्य के दंभ और अहंकार पर चोट भी करते हैं’, और उनका यह कथन व्यंग्य-अध्ययन के पश्चात कसौटी पर खरा भी उतरता है।

‘आयोजन एक गप्प प्रतियोगिता का’ हो, चाहे ‘कर्णधार मेरे देश के’ की बात हो रही हो या फिर ‘भ्रष्टाचार से एक मुलाकात’ हो रही हो और चाहे ‘श्री भ्रष्टाचार महात्म्य कथा’ पढ़ी जा रही हो, सर्वत्र देश में पनपते भ्रष्टाचार पर खूब प्रहार किया गया है। ‘राजनैतिक मौसम का हाल’ (पृष्ठ 48-49) बताते हुए लेखक कह उठता ही ‘पहले तो चुनाव का मौसम पांच साल में एक बार ही आता था, पर अब इस मौसम का भरोसा नहीं रहा कि यह कब आ जाए।’ आज सामाजिक व्यवस्था इतनी विद्रूप हो गई है कि ‘सिफारिश ऊपर वाले की’ भी काम नहीं आती, हां! ‘ऊपर वाले’ की जरूरत काम कर जाती है। ‘जब बापू फिर से भारत आए’ तो यहां के हाल देखकर दंग रह गए और तंग होकर शीघ्र ही वापस परम धाम को चले गए। नि:संदेह संग्रह के सभी व्यंग्य पठनीय हैं जो व्यंग्य के साथ हास्य का पुट भी स्वयं में समाहित किए हुए हैं, और हमें याद दिलाते हैं आचार्य हजारी प्रसाद के इन शब्दों की …‘व्यंग्य वह है जो अधरोष्ठों में हंस रहा हो और सुनने वाला तिलमिला उठा हो…।’ नि:संदेह पठनीय, मननीय तथा चिंतनीय इस व्यंग्य संग्रह के प्रकाशन पर लेखक को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं। -आचार्य ओमप्रकाश राही

कविता की फिर से जोरदार बात शुरू करते गणेश गनी

एक बार फिर ‘जो बात शुरू हुई थी’, उसका उल्लेख करता साहित्य संवाद पुस्तक के रूप में परिमार्जित हो रहा है। यहां कविताओं का चयन कवि की मुंडेर पर पक्षियों की तरह परंपरा बना रहा है, तो यह प्रयास कविता में अभिव्यक्ति को अभिव्यक्ति की कसौटी मेें परख भी रहा है, ‘आठवां पहर आते-आते, यह दुविधा भी दूर हुई कि, पूर्ण विराम तो बात खत्म करने की घोषणा है, जबकि कविता में बात तो अभी शुरू हुई है।’ यह संग्रह इसलिए अनूठा है क्योंकि यहां कविता खुद मुखातिब है। गणेश गनी ने कवियों से कहीं ज्यादा कविताओं को जोड़ा है। यहां कविताएं संदर्भ जोड़ती हैं, परिवेश से मुलाकात करती हैं, समाज की नब्ज पर हाथ रखती हैं, इनसानी मजबूरियों की आहें बटोरती हैं, तो उन सदमों को छू लेती हैं जो सदियों से गली-सड़ी मानसिकता के बीच अपाहिज निष्कर्षों की बदबू में खुद को मार रहे हैं। यहां कविता संग्रह का क्षेत्र, विचारों का दायरा और भावनाओं का संगम बुहत गहरा है, ‘दंगे के समाजशास्त्र पर/चर्चा में मशगूल हैं बुद्धिजीवी/जबकि दंगे का न तो कोई/समाजशास्त्र होता है/और न ही अर्थशास्त्र।’

गणेश गनी दरअसल कविता के भारत में परिक्रमा से निकली कविता को ढूंढते 19 कवियों के लिए लाल कालीन बिछा रहे हैं, हालांकि आज कई कवियों को यह भी मालूम नहीं कि वे क्यों और किसलिए कविता लिख रहे हैं। कुमार कृष्ण के माध्यम से कविता की सुबह और कविता की आशा को यह संग्रह कुछ यूं बटोर रहा है, ‘इस धरती पर कुछ तो है/जो फूल को प्यार/प्यार को फूल में बदलता है/इस धरती पर कुछ तो है/जो कागज को बना देता है कविता।’ कविता की ऊर्जा को वाक्यों की सूक्ष्म दृष्टि में मदन कश्यप का शिल्प जब परिभाषित करता है, ‘कोमल-कोमल शब्दों में/जारी होती रहीं क्रूर हिदायतें/फिर भी बड़ी हो गयी बेटी/बड़े हो गये उसके सपने।’ समाज से कट कर सोशल मीडिया में खुद को मांज रहे कवियों से कहीं दूर जो अपने सन्नाटों में कविता कह रहे हैं, उनके भीतर कहीं कुल्लू की कवयित्री इंदु भारद्वाज जब पहाड़ की गूंज पैदा करती हैं, ‘दिन और रात व्यस्त हैं/गेहूं की कटाई में…/पहाड़ के कंधे पर सिर टिकाए/सुस्ता रहा थका सूरज।’ उत्तराखंड के कवि शिरिष कुमार मौर्य अपने भीतर के अंगारे चुन रहे हैं, फिर भी खुद से पूछते हैं, ‘नींद में मुझे सुनाई दी एक आवाज/मुझसे किसी ने कहा-उठो/मैं पूछने लगा/कहां से उठूं/नींद से उठूं/कि सपने से उठूं।’ गणेश गनी एक ऐसे संग्रह को परोस रहे हैं जहां भारत की सदियां कभी अतीत से पूछ रही हैं, तो कभी भविष्य के इंतजार में खुद में झांक रही हैं। इन समीक्षाओं में कवि की कोरी कल्पना नहीं, उसके भीतर उफनती विचारों की नदियों का विवेचन है, तो कहीं जीवन का ज्वारभाटा आकर टकरा रहा है। ऐेसे ही जयपुर के कवि माया मृग हमारे सामने जीवन के चक्र को लाकर खड़ा कर देते हैं, ‘रास्तों के अपने अर्थ होते हैं/गुजरो तो समझ आता है, न गुजरो तो भी…।’ जीवन की कविता और जीने की कविता के द्वंद्व में फंसा कवि बदलते सामाजिक मूल्यों, व्यवस्था के निर्देशों और क्रांतियों के भंवर में अपना पक्ष खोजते-खोजते कभी मीलों आगे, तो कभी समय से पीछे हो जाता है, फिर भी वह जीवित है, तो इसलिए कि कविता उसे प्राण देती है, ‘जल्दबाजी मत करो/उसे मृत घोषित करने की/कि वह इस नि:शब्द समय में/लिखे जाने वाले अनिवार्य आख्यान का/पहला शब्द है।’
-राजेंद्र ठाकुर

साहित्य संवाद : जो बात शुरू हुई थी
संपादक : गणेश गनी
प्रकाशक : बिंब प्रतिबिंब प्रकाशन, फगवाड़ा, पंजाब
कीमत : 200 रुपए


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