हिमाचली हिंदी कहानी : विकास यात्रा : किस्त-20

By: Aug 27th, 2023 12:05 am

कहानी के प्रभाव क्षेत्र में उभरा हिमाचली सृजन, अब अपनी प्रासंगिकता और पुरुषार्थ के साथ परिवेश का प्रतिनिधित्व भी कर रहा है। गद्य साहित्य के गंतव्य को छूते संदर्भों में हिमाचल के घटनाक्रम, जीवन शैली, सामाजिक विडंबनाओं, चीखते पहाड़ों का दर्द, विस्थापन की पीड़ा और आर्थिक अपराधों को समेटती कहानी की कथावस्तु, चरित्र चित्रण, भाषा शैली व उद्देश्यों की समीक्षा करती यह शृंखला। कहानी का यह संसार कल्पना-परिकल्पना और यथार्थ की मिट्टी को विविध सांचों में कितना ढाल पाया। कहानी की यात्रा के मार्मिक, भावनात्मक और कलात्मक पहलुओं पर एक विस्तृत दृष्टि डाल रहे हैं वरिष्ठ समीक्षक एवं मर्मज्ञ साहित्यकार डा. हेमराज कौशिक, आरंभिक विवेचन के साथ किस्त-20

हिमाचल का कहानी संसार

विमर्श के बिंदु

1. हिमाचल की कहानी यात्रा
2. कहानीकारों का विश्लेषण
3. कहानी की जगह, जिरह और परिवेश
4. राष्ट्रीय स्तर पर हिमाचली कहानी की गूंज
5. हिमाचल के आलोचना पक्ष में कहानी
6. हिमाचल के कहानीकारों का बौद्धिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक व राजनीतिक पक्ष

लेखक का परिचय

नाम : डॉ. हेमराज कौशिक, जन्म : 9 दिसम्बर 1949 को जिला सोलन के अंतर्गत अर्की तहसील के बातल गांव में। पिता का नाम : श्री जयानंद कौशिक, माता का नाम : श्रीमती चिन्तामणि कौशिक, शिक्षा : एमए, एमएड, एम. फिल, पीएचडी (हिन्दी), व्यवसाय : हिमाचल प्रदेश शिक्षा विभाग में सैंतीस वर्षों तक हिन्दी प्राध्यापक का कार्य करते हुए प्रधानाचार्य के रूप में सेवानिवृत्त। कुल प्रकाशित पुस्तकें : 17, मुख्य पुस्तकें : अमृतलाल नागर के उपन्यास, मूल्य और हिंदी उपन्यास, कथा की दुनिया : एक प्रत्यवलोकन, साहित्य सेवी राजनेता शांता कुमार, साहित्य के आस्वाद, क्रांतिकारी साहित्यकार यशपाल और कथा समय की गतिशीलता। पुरस्कार एवं सम्मान : 1. वर्ष 1991 के लिए राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार से भारत के राष्ट्रपति द्वारा अलंकृत, 2. हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा राष्ट्रभाषा हिन्दी की सतत उत्कृष्ट एवं समर्पित सेवा के लिए सरस्वती सम्मान से 1998 में राष्ट्रभाषा सम्मेलन में अलंकृत, 3. आथर्ज गिल्ड ऑफ हिमाचल (पंजी.) द्वारा साहित्य सृजन में योगदान के लिए 2011 का लेखक सम्मान, भुट्टी वीवर्ज कोआप्रेटिव सोसाइटी लिमिटिड द्वारा वर्ष 2018 के वेदराम राष्ट्रीय पुरस्कार से अलंकृत, कला, भाषा, संस्कृति और समाज के लिए समर्पित संस्था नवल प्रयास द्वारा धर्म प्रकाश साहित्य रतन सम्मान 2018 से अलंकृत, मानव कल्याण समिति अर्की, जिला सोलन, हिमाचल प्रदेश द्वारा साहित्य के लिए अनन्य योगदान के लिए सम्मान, प्रगतिशील साहित्यिक पत्रिका इरावती के द्वितीय इरावती 2018 के सम्मान से अलंकृत, पल्लव काव्य मंच, रामपुर, उत्तर प्रदेश का वर्ष 2019 के लिए ‘डॉ. रामविलास शर्मा’ राष्ट्रीय सम्मान, दिव्य हिमाचल के प्रतिष्ठित सम्मान ‘हिमाचल एक्सीलेंस अवार्ड’ ‘सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार’ सम्मान 2019-2020 के लिए अलंकृत और हिमाचल प्रदेश सिरमौर कला संगम द्वारा डॉ. परमार पुरस्कार।

डा. हेमराज कौशिक
अतिथि संपादक
मो.-9418010646

-(पिछले अंक का शेष भाग)
किशोर वय की प्रेम अनुभूतियां किस तरह भावी जीवन में चेतन-अवचेतन मन में नीड़ बनाए रखती हैं, उसके यथार्थ को भी ये कहानियां निरूपित करती हैं। पति-पत्नी के संबंधों में किसी तीसरे के हस्तक्षेप से आयी स्थितियों को भी ये कहानियां चित्रित करती हैं। आधुनिक दांपत्य जीवन की त्रासदी और संबंधों में किसी न किसी रूप में आई दरार और टूटन, घुटन और अलग होने की संवेदना और तनाव आदि की अभिव्यंजना कहानियों में हुई है। कहानीकार प्रभात कुमार ने इन कहानियों में सहज-सरल भाषा शैली में मनोविज्ञान की समझ के साथ मध्यवर्गीय परिवारों के टूटते-बनते संबंध कोमलता से विन्यस्त किए हैं और संबंधों की तह तक में प्रवेश करके उनका यथार्थ चित्रण
किया है।

राजेंद्र राजन का पहला कहानी संग्रह ‘टापू’ शीर्षक से सन् 1990 में प्रकाशित हुआ है। प्रस्तुत संकलन में राजेंद्र राजन की तेरह कहानियां- कठपुतलियां, टापू, बेठू, परत दर परत, हत्या : एक स्कूप की, अपराध बोध, परिचय दर परिचय, पहली असामी, रीते हुए रिश्ते, प्रतिबद्ध, अंगूर की बेल, अपरिचिता और त्रिभुज संगृहीत हैं। संदर्भित संकलन में राजेंद्र राजन की गांव और शहर दोनों से संबंधित कहानियां सम्मिलित हैं। कुछ कहानियां कथा, संस्मरण, रिपोर्ताज का समन्वित रूप प्रस्तुत करती हैं। राजेंद्र राजन की कहानियों का परिवेश मध्यवर्ग का है। संदर्भित संग्रह की कहानियों में व्यवस्था की विसंगतियों और राजनीतिक नेताओं के छल कपट, छुटभैया नेताओं की गांव के वातावरण को खंडित करने, अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए अपने प्रभाव और दबाव का प्रयोग करने के अनेक खंड चित्र विद्यमान हैं। कहानीकार ने व्यक्तिगत अनुभवों को कलात्मक रूप में प्रस्तुत कर सार्वजनिक बनाया है। हाशिये पर जीने वाले व्यक्तियों की संवेदनाओं का अंकन कहानियों में विद्यमान है। कहानीकार ने संकलन के प्रारंभ में ‘रचना के बहाने’ शीर्षक के अंतर्गत यह स्थापित किया है कि संवेदनशीलता रचना कर्म की पहली शर्त है। जीवन की खट्टी मी_ी अनुभूतियों तथा कड़वी सच्चाइयों से दो-चार होने के बाद संवेदनशील ह्रदय आउटलेट की तलाश में छटपटाने लगता है। पिंजरे में तडफ़ड़ाते पक्षी की मानिन्द। साहित्य की समझ को रचना में ट्रांसफर करने का हल्का सा प्रयास है प्रस्तुत कथा संग्रह। ‘कठपुतलियां’ ग्रामीण परिवेश से संबद्ध कहानी है। इस कहानी में लेखक ने चित्रित किया है कि मंत्री के आगमन पर गांव के छोटे नेता, प्रधान आदि आम जनता को कठपुतलियों की भांति समझ कर उन्हें राजनेता के अभिनंदन में सम्मिलित करते हैं। मंत्री को प्रसन्न करके अपनी संपत्ति बढ़ाते हैं। आर्थिक अभावों से ग्रस्त वर्ग और हाशिए का समाज उनके अमानवीय व्यवहार के शिकार होते हैं। वे कभी भ्रष्टाचार आदि के विरोध में खड़े होते हैं तो बड़े अधिकारी यहां तक कि आयुक्त तक प्रधान की बात को ही वरीयता प्रदान करते हैं। रिडक़ु जैसे पढ़े-लिखे युवक जब गांव में अनियमितताओं और धन के दुरुपयोग को लेकर प्रतिनिधिमंडल के रूप में तथ्य को सामने लाते हैं तो भी प्रधान की बात को ही महत्व प्रदान किया जाता है।

‘बेठू’ में बंधुआ मजदूरी करने को अभिशप्त लोगों की पीड़ा को मुखरित किया है। गांव में प्रधान आदि धन संपन्न व्यक्ति सामंतीय मनोवृत्ति के अवशेष हैं जो हाशिए के समाज का पुश्त दर पुश्त से शोषण कर रहे हैं। कहानी में जगरे ऐसा ही चरित्र है जिसका नाम बाल्यकाल में जगदीश होता है। जैस-जैसे बड़ा होता है लोग उसका नाम बिगाड़ते चले गए। जगदीश से जग्गी, जग्गी से जग्गू और फिर जग्गू से जगरा, नाम बदलने के साथ उसकी नियति भी उसी तरह बदलती जाती है और वह बंधुआ मजदूरी का जीवन जीने के लिए अभिशप्त होता है। उसकी पहचान एक बेठू के रूप में ही होती है। उसके बाप-दादा बंधुआ मजदूरी करते रहे, उन्हें कोई हक नहीं है कि वे पैरों में जूता या सिर पर टोपी पहनें, ऐसा करना परंपरा का उल्लंघन माना जाता है। ठाकुर के सामने टोपी-जूता पहनना अपने लिए मुसीबत बुलाने जैसा है। गांव में सामंतीय व्यवस्था में आकंठ डूबी बंधुआ प्रथा समाप्त करने के लिए सरकार का प्रतिनिधिमंडल गांव में उन्हें मुक्त करने को लेकर पहुंचता है। उन्हें प्रसन्नता होती है। जमींदार के शोषण और साहूकार और अमीर लोगों के शोषण से मुक्त होंगे। परंतु वह केवल दिखावा मात्र होता है। जब जग्गू अपनी इस नियति के संबंध में बयान देने के लिए उद्यत होता है तो ठाकुर का बेटा हेडमास्टर चेतावनी देता है कि मेरे खिलाफ बयान दिया तो उसी वक्त दोगरी से सामान उठाकर बाहर फिंकवा दूंगा। दाने-दाने के लिए मोहताज हो जाएगा। यह सब नाटक है कोई मुक्त वुक्त होने वाला नहीं है। तुम लोगों को फिर से बसाने की योजना महज एक ढोंग है। जगरा का बंधुआ मजदूरी से मुक्त होने का सपना खंडित होता है। संग्रह की शीर्ष कहानी ‘टापू’ सन् 1984 के दंगों पर केंद्रित सांप्रदायिक सौहार्द की कहानी है। 31 अक्टूबर 1984 की सन्नाटे भरी रात में दिल्ली की भयावह दशा का चित्रण है। ऐसे भयानक समय में जब चारों और धर्म और सांप्रदायिकता के नाम पर दंगे हो रहे थे, उस समय बहुत से लोग थे जो मानवता के रक्षक धर्म, जाति और सांप्रदायिकता से ऊपर उठकर एक-दूसरे की सहायता के लिए जोखिम उठा रहे थे। यही कारण है कि दिल्ली के बस अड्डे पर खड़े युवक में यह विश्वास है कि उसके निकट खड़ा हिंदू उसे मार नहीं डालेगा। जब वहां से प्रस्थान करता है तो वहां उपस्थित लोगों को चिंता होती है कि शहर में व्याप्त गुंडागर्दी से वह मारा न जाए। उसे सुरक्षित पहुंचाने का कार्य हिंदू ही करता है। कहानीकार ने प्रस्तुत कहानी के माध्यम से इस सच्चाई को सामने लाया है। ‘परत दर परत’ में नगरीय जीवन की कृत्रिमता और आधुनिकता के नाम पर मध्यवर्गीय परिवारों की मिथ्या प्रदर्शन वृति और गांव में रह गए अपने ही माता-पिता और बंधुओं के प्रति उपेक्षा भाव का चित्रण है। संदर्भित कहानी में बेटा शहर में आजीविका के लिए जाता है और वहीं अपनी मर्जी से दांपत्य जीवन में बंधता है। पत्नी में आधुनिकता का दंभ है और धन के कारण पति दबा-दबा सा रहता है। पोते के जन्म के अवसर पर जब मां गांव से शहर जाती है तो बहू की उपेक्षा और अपमान की शिकार होकर निराश होकर घर लौटना चाहती है। शहर में बेटे के घर में मां की हैसियत नौकरानी से अधिक नहीं होती।

बहू की मां और उसके परिवार के अन्य सदस्यों के समक्ष भी मां ग्रामीण खानपान, वेशभूषा, व्यवहार को लेकर उनकी उपेक्षा, हास्य और अपमान की पात्र बनती है। अंतत: शहर के उस दमघोंटु वातावरण से निराश होकर गांव लौटती है। परंतु पोते के प्रति उसका स्नेह और निश्छल भावना अंत तक बनी रहती है। जाते-जाते पचास का मुड़ा तुड़ा नोट पोते को देती है। ‘हत्या : एक स्कूप की’ में कहानीकार ने स्थापित किया है कि पत्रकारिता निजी स्वार्थों के कारण किस तरह बिक जाती है। संपादक अपने लाभ के लिए किस प्रकार एक बहुत बड़े स्कूप को इसलिए प्रकाशित नहीं करता क्योंकि जिस संस्थान के खिलाफ सनसनीखेज रिपोर्ट होती है उसका मालिक अखबार को फाइनेंस करने को सहमत हो जाता है। संपादक कहता है, ‘आखिर किसी बिंदु पर तो समझौता करना ही पड़ता है। क्या फर्क पड़ता है गर एक स्कूप की हत्या हो गई। यूं भी कोर्ट कचहरियों के चक्कर लगा लगा कर तंग आ चुका हूं मैं।’ ‘त्रिभुज’ में बेकारी से पीडि़त युवाओं की दशा का चित्रण है। ‘अपरिचिता’ में नैरेटर को बस में बैठी लडक़ीनुमा औरत के प्रति बस यात्रा के दौरान उसके जीवन के संबंध में जिज्ञासा उत्पन्न होती है। एक बालक की मां अपने से डेढ़ गुना बड़े शराबी पति के साथ न जाने कैसे दाम्पत्य जीवन में बंधी होगी। नैरेटर सोचता है कि इस दुव्र्यसनी, लापरवाह, गैर जिम्मेदार और मृत्यु के कगार पर पहुंचे व्यक्ति के साथ वह किस तरह से दांपत्य जीवन में बंधी होगी और भविष्य में किस तरह से निर्वाह करेगी। नैरेटर के स्वयं चेतन-अचेतन मन में उस स्त्री के प्रति मन ही मन आकर्षण और विकार उत्पन्न होता है। कहानीकार ने प्रस्तुत कहानी में पति को बूढ़ा कहा है। वास्तव में वह दुव्र्यसनी होने के कारण वृद्ध अवश्य प्रतीत होता है, परंतु वह आयु में तीस वर्ष के आसपास है। कहानी में इस चरित्र की सृष्टि सही परिप्रेक्ष्य में नहीं की गई है। ‘अंगूर की बेल’ में शहर में रह रहे मध्यवर्गीय परिवार की प्रदर्शन वृति, आवासीय कठिनाइयों, शहर के मोहल्ले का घुटन भरा परिवेश और दांपत्य जीवन की कुंठाओं का निरूपण है। किराए के मकानों की घुटन भरी जिंदगी, नौकरी के तनाव, एक मध्यवर्गीय शहरी दंपति की किराए के मकान की जिंदगी से निकल कर फ्लैट लेने की चाह, फिर फ्लैट की कठिनाइयां और और इर्द-गिर्द का घुटन और सीलन भरा वातावरण पारिवारिक सुख-शांति को तहस-नहस करने की स्थितियों का निरूपण है। ‘प्रतिबद्ध’ में कहानीकार ने शहर में कंपनी की नौकरी करने वाले व्यक्ति की घर और यूनियन के बीच निरंतर पिसने की स्थितियों का अंकन किया है।

घर और दफ्तर में यही अंतर है कि यूनियन के नेता के रूप में निगम के मैनेजिंग डायरेक्टर के समक्ष वह शेर की भांति मांगों को लेकर भयंकर रूप में दहाड़ता है। परंतु पत्नी के समक्ष घर में उसकी नौकरी छूटने के कारण नौकर की सी हैसियत हो जाती है। इस चक्रव्यूह में फंसे व्यक्ति की नियति को कहानी में रूपायित किया है। यूनियन के नेता के रूप में वह निगम की आंखों में खटकता है और घर में आर्थिक तंगी के कारण जूझता हुआ पत्नी के व्यंग्य बाणों से आहत होता है। ‘रीते हुए रिश्ते’ शहर में व्यक्ति के आजीविका के लिए संघर्ष, असुरक्षित प्राइवेट नौकरी और आवासीय कठिनाइयां और एक कमरानुमा किराए का मकान, पारिवारिक जिम्मेदारियों में पीसते आदमी की मनोस्थिति, रागात्मकता शून्यता, कुंठाओं और संबंधों में उष्णता का अभाव और दांपत्य संबंध तक की घुटन को कहानी रेखांकित करती है। ‘पहला आसामी’ कहानी व्यंग्य के धरातल पर पुलिस की कार्यपद्धति और उनके प्रति समाज के दृष्टिकोण को अनावृत करती है।
नरेंद्र निर्मोही का प्रथम कहानी संग्रह ‘तुरुपचाल’ शीर्षक से सन् 1990 में प्रकाशित हुआ है। संदर्भित कहानी संग्रह में सत्रह कहानियां- तुरुपचाल, दृश्य-अदृश्य, वापसी, सिफलिस, अगला खेल, सलीब ढोते हुए, सुन सको तो, घिरनी, सरबती, रोशनी का इतिहास, बारहखड़ी, तलाश, नियति के दंश, छोटे-छोटे पहाड़, संतो, सफर दर सफर और दरार संगृहीत हैं। नरेंद्र निर्मोही की इन कहानियों में ग्रामीण समाज के निम्न मध्य वर्ग की आर्थिक कशमकश का प्रमुख रूप में चित्रण है। इन कहानियों में संरचनात्मक ऋजुता है। कहानीकार ने संयोगात्मक घटनाओं और प्रसंगों की अवतारणा करने की अपेक्षा घटनाओं और प्रसंगों की सृष्टि देखें और अनुभूत जीवन प्रवाह से की है। आग्रहपूर्वक किसी जीवन मूल्य और विचार को प्रतिपादित करने के लिए कहानियों की सृष्टि नहीं की गई है, परंतु कहानियों में मानवीय मूल्य और जीवन की विसंगतियों, विषमताओं, सांप्रदायिकता के जघन्य रूपों तथा सेठ साहूकारों, जमींदारों की शोषण मूलक प्रकृति को जीवंतता से निरूपित किया है। यह कहानीकार नरेंद्र निर्मोही की कहानी कला की विशिष्टता है। निर्मोही की कहानियां सामाजिक सरोकारों को जिस कथा कौशल और संवेदनात्मक गहराई से विन्यस्त करती हैं और भाषा और शिल्प-शैली की देशकाल और पात्रों की मनोदशा, स्थिति और परिवेश के अनुरूप ढालती हैं, वह अभिभूत करती है।                                                                                     -(शेष भाग अगले अंक में)

पुस्तक समीक्षा : नरेश मेहता के काव्य का विश्लेषण करती किताब

प्रकाश चंद धीमान ‘दूसरा सप्तक’ के महत्त्वपूर्ण कवि नरेश मेहता के काव्य का विश्लेषण करती किताब लेकर आए हैं। ‘संशय की एक रात में आधुनिक बोध’ नामक इस पुस्तक का प्रकाशन साहित्य संस्थान, गाजियाबाद ने किया है जिसकी कीमत 250 रुपए है। पुस्तक के वण्र्य विषय के संबंध में लेखक खुद कहते हैं, ‘पढ़ते-पढ़ते नरेश मेहता और वह भी उनकी कृति ‘संशय की एक रात’ में इतनी रुचि बढ़ी कि इसमें कुछ ढूंढ पाने की लालसा दिल में घर कर गई। लेकिन इसमें तलाश करूं क्या? मेरे लिए यह समस्या बन गई होती, यदि डा. सरस्वती भल्ला ने मेरा मार्गदर्शन कर इस कृति में ‘आधुनिक बोध’ पर मंथन करने की बात न सुझाई होती।’ इस पुस्तक के कुल छह अध्याय हैं। पहला अध्याय है विषय उपस्थापन। दूसरा अध्याय है नरेश मेहता : व्यक्तित्व और कृतित्व। तीसरा अध्याय है संशय की एक रात : स्रोत और कथावस्तु। चौथा अध्याय है : आधुनिक बोध : विविध संदर्भ।

पांचवां अध्याय है संशय की एक रात में आधुनिक बोध। इस अध्याय में आधुनिक बोध के जिन सोपानों का विश्लेषण हुआ है, वे हैं : संशयग्रस्तता, पराजय, विवशता, पश्चाताप, व्यैक्तिकता, निर्णय-अनिर्णय के बीच की अनिश्चितता, व्यर्थता बोध, खंडित व्यक्तित्व तथा कर्म प्रतिनिधित्व। छठा अध्याय है : निष्कर्ष, जिसमें सार और उपलब्धियां दी गई हैं। सार के रूप में कहा जा सकता है कि ‘संशय की एक रात’ के समस्त पात्र केवल पुराण के पात्र नहीं हैं, वे आज की जटिल संवेदना के वाहक और इतिहास व्यंग्य के भोक्ता पात्र हैं। उनके सारे भावोन्मेष, अंतद्र्वन्द्व और निर्णय-अनिर्णय में आज की चेतना प्रभाहित है। ‘संशय की एक रात’ में आधुनिक बोध शरीर में प्राण की तरह घुला-मिला है, जिसकी गंध व स्पर्श के कारण ही इसका महत्त्व अक्षुण्ण है। साहित्य में रुचि रखने वाले पाठकों को यह किताब पसंद आएगी, ऐसी आशा है। -फीचर डेस्क

मंडी की पगडंडियों से लाहौर की आजाद राहों तक भाई हिरदा राम

हिमाचली नायक और नायकत्व खोज रहे गंगाराम राजी ऐतिहासिक उपन्यासों की एक बड़ी शृंखला खड़ी कर रहे हैं। ‘बम मास्टर भाई हिरदा राम’, इसी शृंखला की ताजपोशी में पुन: मंडी के इतिहास की समीक्षा कर रहा है। गंगाराम राजी की खूबी यह है कि वह केवल ठोस संदर्भों की चौखट ही नहीं लांघते, बल्कि इतिहास में कल्पना का समावेश करते हुए, एक कालखंड खड़ा कर देते हैं। इस उपन्यास की पृष्ठभूमि में मंडी का इतिहास तो है, साथ ही आजादी के संघर्ष के कई अहम किरदार भी जुड़ जाते हैं, लेकिन यह सब ‘भाई हिरदा राम’ के चारित्रिक केंद्र में होता है। कहानी मंडी की संकरी गलियों से निकल कर अंडेमान की काल कोठरी तक पहुंच जाती है, तो पाठक भी उपन्यास से चलकर भाई हिरदा राम की आत्मकथा तक पहुंच जाता है। हिरदा राम का जीवनवृत्त खींचते लेखक उनके व्यक्तित्व को बचपन से पकड़ते-पकड़ते क्रांतिकारी परिदृश्य की परिपक्वता तक ले जाते हैं। बाल हिरदे का हिरदा राम से संघर्ष की यात्रा में उपन्यास के कई नाटकीय मंच हैं और जहां लेखक छूट लेकर अपने विचारों की अनुगूंज पैदा करते हुए हरिद्वार की पंडा संस्कृति पर भी चोट कर जाते हैं। कहीं आज भी हिरदा राम कह रहा है, ‘मैं अमृतसर में चौरास्ती अटारी में रहता था। अमृतसर में रहकर लगभग सभी क्रांतिकारियों से मेरी मुलाकात होती ही रहती थी।

यहां हम सबसे मिलने वही क्रांतिकारी आते थे जो देश को आजाद कराने के लिए बम के प्रयोग को सही मानते थे। मैं तो भाई बम बनाता था। जाहिर है गर्म दल से हूंगा।’ उपन्यास में मंडी की रियासत, मंडी शहर की विरासत, संस्कृति और अतीत के संदर्भ में वर्तमान की झलक मिलती है। वह इतिहास की गहराई को छानते समाज का चित्रण करते हुए मंडी में खत्री समाज के बरअक्स उस दौर के परिवर्तनों की याद को चस्पां कर देते हैं, जहां नन्हे हिरदे को आठवीं के बाद कांगड़ा में आगे की पढ़ाई का रास्ता नहीं मिलता, लेकिन किस तरह वह मंडी की पगडंडियों से निकलकर लाहौर में बन रही आजादी की सडक़ पर पहुंच जाता है। राजी के उपन्यासों में विषयों की विविधता, विचारों की धाराएं और तर्क के अपने शोर हैं, तो कहीं संस्कृति के दीप जलते हैं। वह हिरदा राम की बारूद से खेलने की प्रेरणा और उनके मन में बम बनाने के भूत का पीछा करते हुए उस अतीत को खोज लाते हैं, जो आज भी मंडी की गलियों में कहीं छुपा बैठा है। हिरदा राम के चरित्र को पढऩे और गढऩे के लिए वह ठोस इतिहास के पन्नों को भी लेकर आते हैं, जहां तिथियां शौर्य से भर जाती हैं, तो मुलाकातों की जमीन पर रास बिहारी बोस, करतार सिंह सराभा, भाई परमानंद तथा पिंगले आदि आकर खड़े हो जाते हैं।

उपन्यासकार गंगाराम राजी क्रांतिकारी कहानियों के कई संदर्भों को पुनर्जन्म देते हुए भी मुख्य रूप से भाई हिरदा राम के चरित्र को पूजते हैं, ‘गुरु जी कोई खबर आपके चेले हिरदे की हो तो पढक़र मुझे बताओ।’ मास्टर गज्जन सिंह की व्यथा को जानता था। जब से हिरदा अमृतसर गया है तो मंडी शहर में हिरदे की बातें सब घर में होती ही थीं। ‘गुरु जी क्या खबर है। मेरा हिरदा ठीक तो है।’ ‘भाई गज्जन ध्यान से सुनो, हिरदा मंडी की शान है। यह तुम्हारा ही बेटा नहीं है, यह मंडी का बेटा है।’ उपन्यासकार अपनी रचना के विमर्श में अपनी खास शैली, मनोविज्ञान, अध्यात्म, कल्पना, समाज, भाषा, परिवेश, मिथक तथा संभाव्य सत्य को प्रश्रय देते हुए प्रतीत होते हैं। यहां भी वह चूहे की कहानी में तार्किक तथा अंधविश्वास की माटी को खुर्द-बुर्द करते दिखाई देते हैं। उपन्यास कई कोणों में विभक्त है, इसलिए इसे साहित्य की किसी विशुद्ध परिभाषा में समेटा नहीं जा सकता। कभी लगता है कि यह ऐतिहासिक तथ्य के यथार्थवादी चित्रण का लोभ संवरण कर रहा है, लेकिन अगली ही पंक्तियों में सृजनात्मक कल्पना के पन्ने जोड़ रहा है। उपन्यासकार की वास्तविक तड़प ऐसे नायकों को उनकी वास्तविक पहचान दिलाना रहा है, इसलिए आजादी के पहले जश्न में हिरदा राम को मंडी समारोह में औपचारिक निमंत्रण न देने का उल्लेख प्रश्न उठाता है। हिरदा राम के प्रति औपन्यासिक आदरांजलि देकर गंगाराम राजी काफी हद तक अपने प्रयास को अंजाम दे पाए, लेकिन ऐतिहासिक पन्नों की न•ार में कुछ और अध्याय क्रांति उद्घोष का स्वर समवेत कर सकते थे।                              -निर्मल असो

उपन्यास : बम मास्टर भाई हिरदा राम
लेखक : गंगाराम राजी
प्रकाशक : नमन प्रकाशन, नई दिल्ली
मूल्य : 395 रुपए


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