मणिपुर जैसी हिंसा से बचने के उपाय

भाग – 2

ये बदलाव — मंत्रालयों पर बहुमत का नियंत्रण खत्म करना; पंचायतों और स्थानीय सरकारों को वास्तविक स्वतंत्रता देना; राष्ट्रपति और राज्यपालों का सीधे चुनाव करना; कार्यकारी प्राधिकार की जांच करने और सरकारों को धार्मिक गतिविधियों से रोकने के लिए विधायिका के दूसरे सदन का उपयोग — करने से भारत के शासन में काफी सुधार होगा। ये लगभग सभी सुधार संयुक्त राज्य अमेरिका में प्रचलित राष्ट्रपति प्रणाली की अंतर्निहित विशेषताएं हैं। भारत साहसपूर्वक उस प्रणाली को पूरी तरह से अपना सकता है। तब हम उस विकेंद्रीकृत संरचना जिसकी हमारे संस्थापकों ने कल्पना की थी, साथ ही विधायी और कार्यकारी शक्तियों का आवश्यक पृथक्करण और हमारे वरिष्ठ अधिकारियों के प्रत्यक्ष चुनाव, इन सबका लाभ उठाएंगे…

मणिपुर लगातार जातीय हिंसा की आग में जल रहा है। अपने पिछले कॉलम में मैंने तर्क दिया था कि हमारी संसदीय प्रणाली की बुनियादी खामियों — निरंकुश बहुमत शासन, सांप्रदायिक सरकारें, विधायी और कार्यकारी शक्तियों का संलयन, और जांच और संतुलन की कमी — ने इतने बड़े पैमाने की जातीय हिंसा में योगदान दिया है। यह संवैधानिक खामियां भारत की सरकारों को अत्यधिक सत्तावादी बना देती हैं, जो एक विविध समाज की जरूरतों के प्रति उत्तरदायी नहीं रह पातीं।

हमारे कई संस्थापकों ने इन खामियों को समझा और उनका समाधान सुझाया। वल्लभभाई पटेल, भीमराव अंबेडकर और महात्मा गांधी सभी ने बहुसंख्यकवाद की इस समस्या से बचने के लिए भारत की संवैधानिक संरचना के लिए दृष्टिकोण पेश किया। लेकिन अंतत: संविधान सभा द्वारा उनके विचारों को नजरअंदाज कर दिया गया।

निरंकुश बहुमत शासन के लिए अम्बेडकर का सुझाया समाधान इसकी कार्यकारी शक्ति को सीमित करके इसे नियंत्रित करना था। उन्होंने लिखा, ‘‘ब्रिटिश प्रकार की कार्यपालिका अल्पसंख्यकों के जीवन, स्वतंत्रता और प्रसन्नता के लिए खतरे से भरी होगी।’’ उन्होंने एक ऐसी सरकार का आह्वान किया जो ‘‘इस अर्थ में गैर-संसदीय हो कि उसे विधानमंडल के कार्यकाल से पहले हटाया नहीं जा सके।’’ वह चाहते थे कि मुख्य कार्यकारी (प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री) और बहुमत से सभी कैबिनेट सदस्यों को पूरे सदन द्वारा चुना जाए और अल्पसंख्यकों के कैबिनेट सदस्यों का चुनाव उनके समुदायों द्वारा किया जाए। जब विधानसभा ने अंबेडकर के प्रस्ताव पर चर्चा शुरू की, तब तक उन्हें संविधान की ड्राफ्टिंग समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया जा चुका था और वे अपने विचारों को आगे बढ़ाने के लिए प्रस्तुत नहीं हुए।

बहुमत को नियंत्रित करने के लिए पटेल का विचार प्रत्येक राज्य में सीधे निर्वाचित मुख्य कार्यकारी (राज्यपाल) रखना था, जिसके पास कुछ विवेकाधीन शक्तियां भी हों। उनके मॉडल ‘प्रांतीय संविधान’ को संविधान सभा द्वारा अनुमोदित भी किया गया था। उन्होंने ‘‘एक लोकप्रिय राज्यपाल द्वारा धारण किए जाने वाले पद की गरिमा’’ की सराहना की और लिखा कि, ‘‘एक राज्यपाल जो पूरे प्रांत के वयस्क मताधिकार द्वारा चुना गया है, लोकप्रिय मंत्रालय पर काफी प्रभाव डालेगा।’’

उनके तर्कों ने संविधान निर्माण में लगे विद्वानों को इतना प्रभावित किया कि उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि राष्ट्रपति का भी चुनाव सीधे होना चाहिए। उन्होंने पटेल की प्रांतीय और नेहरू की संघ संविधान समितियों की संयुक्त बैठक के दौरान इस आशय का एक प्रस्ताव पारित किया। लेकिन नेहरू ने उनके प्रस्ताव को नजरअंदाज कर दिया और बाद में विधानसभा ने पटेल के ढांचे की मंजूरी को पलट दिया।

एक विकेन्द्रीकृत संविधान

बहुसंख्यकवाद से बचने के लिए महात्मा गांधी का दृष्टिकोण बिलकुल अलग था। वह चाहते थे कि भारत में एक विकेंद्रीकृत संवैधानिक ढांचा हो जिसके मूल में पंचायतें हों, जो अपने जिलों के मामले खुद चलाएं। उनके विचारों को उनके एक सहयोगी और बाद में गुजरात के राज्यपाल श्रीमन नारायण अग्रवाल द्वारा ‘स्वतंत्र भारत के गांधीवादी संविधान’ (1946) में रेखांकित किया गया था। पुस्तक में शिक्षा, स्वास्थ्य, अर्थव्यवस्था और प्रशासन में स्थानीय स्तर पर पूर्ण स्वायत्तता के साथ ‘विकेंद्रीकृत ग्राम साम्यवाद’ का वर्णन किया गया है। गांधीजी ने महाराष्ट्र की रियासत में एक दशक तक ऐसे संविधान का प्रयोग किया था। गांधी ने कहा, ‘‘एक मॉडल राज्य के मेरे सपनों में, सत्ता कुछ हाथों में केंद्रित नहीं होगी। एक केंद्रीकृत सरकार महंगी, निरंकुश, अक्षम, भ्रष्ट, अकसर क्रूर और हमेशा हृदयहीन हो जाती है।’’ लेकिन गांधीजी के विचारों को भी संविधान के निर्माण में शामिल नहीं किया गया, जिसे उनकी हत्या के दो साल बाद अपनाया गया था।

बहुसंख्यकवाद से बचने के अन्य उपचार

हमारे संस्थापकों के इन उत्कृष्ट विचारों पर दोबारा गौर करने के अलावा, भारत राज्यसभा का अधिक प्रभावी ढंग से उपयोग भी कर सकता है। हमारी राज्य परिषद, राज्यों का प्रतिनिधित्व करने के बजाय, राजनीतिक दलों की परिषद बन गई है।

मैंने पहले भी तर्क दिया है कि इसके सदस्यों को पूरे राज्य द्वारा सीधे चुना जाना चाहिए, और प्रत्येक राज्य को समान प्रतिनिधित्व दिया जाना चाहिए। इस तरह से बनाया गया सदन बहुसंख्यक कानूनों पर रोक लगाने में अधिक प्रभावी होगा। इसका उपयोग न्यायपालिका की नियुक्तियों और कामकाज की निगरानी के लिए भी किया जा सकता है। और प्रवर्तन निदेशालय (ईडी), केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई), और अन्य जांच एजेंसियां, और चुनाव आयोग की निगरानी के लिए भी।

क्रूर बहुसंख्यकवाद को समाप्त करने के लिए, देश को सरकारों को धार्मिक गतिविधियों में शामिल होने से प्रतिबंधित करने की भी आवश्यकता है। यह ‘चर्च और राज्य का पृथक्करण’ किसी भी विविध लोकतंत्र के लिए मौलिक है। भारत एक धार्मिक परिषद की स्थापना कर सकता है, जिसमें हमारे सभी धर्मों को समान प्रतिनिधित्व और धर्म-आधारित कानूनों में हिस्सेदारी दी जा सकती है।

ये बदलाव — मंत्रालयों पर बहुमत का नियंत्रण खत्म करना; पंचायतों और स्थानीय सरकारों को वास्तविक स्वतंत्रता देना; राष्ट्रपति और राज्यपालों का सीधे चुनाव करना; कार्यकारी प्राधिकार की जांच करने और सरकारों को धार्मिक गतिविधियों से रोकने के लिए विधायिका के दूसरे सदन का उपयोग — करने से भारत के शासन में काफी सुधार होगा।

ये लगभग सभी सुधार संयुक्त राज्य अमेरिका में प्रचलित राष्ट्रपति प्रणाली की अंतर्निहित विशेषताएं हैं। भारत साहसपूर्वक उस प्रणाली को पूरी तरह से अपना सकता है। तब हम उस विकेंद्रीकृत संरचना जिसकी हमारे संस्थापकों ने कल्पना की थी, साथ ही विधायी और कार्यकारी शक्तियों का आवश्यक पृथक्करण और हमारे वरिष्ठ अधिकारियों के प्रत्यक्ष चुनाव, इन सबका लाभ उठाएंगे।

किसी भी तरह, अब समय आ गया है कि भारत बहुसंख्यकवाद को खत्म करे और अधिक विनाशकारी नरसंहार को रोके, जैसा कि हम मणिपुर में देख रहे हैं।

भानु धमीजा

सीएमडी, दिव्य हिमाचल

अंग्रेजी में ‘द क्विंट’ में प्रकाशित

(11 अगस्त, 2023)


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