भानु धमीजा, सीएमडी, दिव्य हिमाचल

यही कारण हैं कि संसद बहस के लिए निरर्थक हो चुकी है। इतिहास बताता है कि हमारी संसद दशकों से बिना बहस के कानून पारित करती रही है। कुछ उदाहरणों पर गौर करें : 1990 में चंद्रशेखर सरकार ने दो घंटे से भी कम समय में 18 विधेयक पारित किए; 2001 में 32 घंटों में 33 बिल पारित किए गए; 2007 में लोकसभा ने 15 मिनट में तीन विधेयक पारित किए; 2021 में 20 विधेयक बिना किसी बहस के पारित हुए। स्वाभाविक है कि लोकसभा की बैठकों में भी कमी आई है। यह 1952-70 में प्रत्येक वर्ष 121 दिनों के लिए बैठती थी, लेकिन अब औसत केवल 68 दिन है...

अमरीका को ऐसे किसी भी संवैधानिक बदलाव से बचना चाहिए जो शक्तियों के इस सुंदर संतुलन को बदले। अमरीकी सिस्टम की कुछ विशेषताओं पर अकसर ‘अलोकतांत्रिक’ होने के रूप में हमला किया जाता है। जैसे कि इलेक्टोरल कॉलेज, सेनेट का सभी राज्यों को समान वोट और फिलिबस्टर नियम। परंतु उन्हें खत्म करने से सरकार की शक्तियां कुछ ही हाथों में समाहित हो जाएंगी। विश्वास बनाए रखो, अमरीका। आपका लोकतंत्र बिल्कुल सही चल रहा है...

ये बदलाव — मंत्रालयों पर बहुमत का नियंत्रण खत्म करना; पंचायतों और स्थानीय सरकारों को वास्तविक स्वतंत्रता देना; राष्ट्रपति और राज्यपालों का सीधे चुनाव करना; कार्यकारी प्राधिकार की जांच करने और सरकारों को धार्मिक गतिविधियों से रोकने के लिए विधायिका के दूसरे सदन का उपयोग — करने से भारत के शासन में काफी सुधार होगा। ये लगभग सभी सुधार संयुक्त राज्य अमेरिका में प्रचलित राष्ट्रपति प्रणाली की अंतर्निहित विशेषताएं हैं। भारत साहसपूर्वक उस प्रणाली को पूरी तरह से अपना

धार्मिक समानता और नागरिक सद्भाव प्राप्त करने के लिए तीसरी और सबसे महत्त्वपूर्ण आवश्यकता केंद्र और राज्य सरकारों को किसी भी धार्मिक गतिविधि में शामिल होने से रोकना है। यहीं पर भारत सबसे अधिक विफल रहता है। हमारे संविधान में अमेरिका के पहले संशोधन के समकक्ष का अभाव है, जो ‘‘धर्म की स्थापना’’ के किसी

यह राव ही थे जिन्होंने वर्ष 1935 के गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट के तहत भारतीयों को वास्तविक अधिकार देने के लिए ब्रिटिश सरकार को मनाया था। इस कानून ने भारतीयों को पहली बार अपनी प्रांतीय सरकारें बनाने की अनुमति दी, परंतु अंग्रेज उन्हें कोई संप्रभु अधिकार देने के प्रति अनिच्छुक थे। राव का तर्क था

गवर्नरों पर संविधान की खामोशी पर बीआर अंबेडकर इतने उत्तेजित थे कि उन्होंने संपूर्ण दस्तावेज की भत्र्सना कर दी। संविधान अंगीकृत करने के मात्र तीन वर्ष उपरांत उन्होंने राज्यसभा में तर्क दिया कि गवर्नरों को स्पष्ट अधिकार देने के लिए संविधान संशोधित किया जाए। ‘‘हमें यह विचार विरासत में मिला है कि गवर्नर के पास

आज बुनियादी संरचना को न्यायपालिका एक ढाल के रूप में इस्तेमाल कर रही है क्योंकि संविधान न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए उपयुक्त व्यवस्था उपलब्ध करवाने में असफल रहा है। ‘बुनियादी संरचना सिद्धांत,’ या ऐसा कोई भी अस्पष्ट नियम, संविधान में नहीं होना चाहिए।

हाल ही के सभी राष्ट्रपति पार्टी के प्रति उनकी वफादारी और प्रधानमंत्री के प्रति लगाव के लिए विख्यात रहे हैं। प्रतिभा पाटिल ‘गांधी परिवार की कठपुतली’ कहलाती थीं। प्रणब मुखर्जी ‘‘एक वफादार व्यक्ति थे जिन्होंने दिन को रात तक कह दिया था।’’ और जब अल्पज्ञात दलित नेता रामनाथ कोविंद चुने गए, उनके समुदाय के एक

ये ढांचागत चुनौतियां — स्थानीय स्वायत्तता, और केंद्र में शक्तियों के बंटवारे की आवश्यकता — विभाजन से पहले ही स्पष्ट थीं। 1937 में जब अंग्रेजों ने पहली बार भारतीयों को स्वयं प्रांतीय सरकारें बनाने की अनुमति दी, सांप्रदायिक एकता चकनाचूर हो गई थी। जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में चुनावों में कांग्रेस को बड़ी जीत

भानु धमीजा सीएमडी, दिव्य हिमाचल व्यक्तियों के ऐसे छोटे समूहों को समस्त शक्ति सौंपने का दोष हमारे नागरिकों या राजनेताओं को नहीं बल्कि हमारे संविधान को जाता है। यह हमारी सरकार को केंद्रीकृत करता है, हमारी पार्टियों को नियंत्रित करने में असफल है और एक शक्तिहीन संघीय ढांचे का निर्माण करता है… यह अब स्पष्ट