संन्यास के नए अर्थ

By: Aug 19th, 2023 12:14 am

ओशो

संन्यास मेरे लिए त्याग नहीं, आनंद है। संन्यास निषेध भी नहीं है, उपलब्धि है, लेकिन आज तक पृथ्वी पर संन्यास को निषेधात्मक अर्थों में ही देखा गया है। त्याग के अर्थों में, छोडऩे के अर्थों में, पाने के अर्थ में नहीं। मैं संन्यास को देखता हूं पाने के अर्थ में। निश्चित ही, जब कोई हीरे,जवाहरात पा लेता है तो कंकड़-पत्थरों को छोडऩे का अर्थ इतना ही है कि हीरे-जवाहरातों के लिए जगह बनानी पड़ती है। कंकड़-पत्थरों का त्याग नहीं किया जाता। त्याग तो हम उसी बात का करते हैं, जिसका बहुत मूल्य मालूम होता है। कंकड़-पत्थर तो ऐसे छोड़े जाते हैं जैसे घर से कचरा फेंक दिया जाता है। घर से फेंके हुए कचरे का हम हिसाब नहीं रखते कि हमने कितना कचरा त्याग दिया। संन्यास अब तक लेखा-जोखा रखता रहा, उस सबका जो छोड़ा जाता है। मैं संन्यास को देखता हूं उस भाषा में, उस लेखे-जोखे में, जो पाया जाता है।
निश्चित ही, इसमें बुनियादी फर्क पड़ेंगे यदि संन्यास आनंद है, यदि संन्यास उपलब्धि है, यदि संन्यास पाना है, तो संन्यास का अर्थ वैराग नहीं हो सकता। तो संन्यास का अर्थ जीवन का विरोध नहीं हो सकता। तब तो संन्यास का अर्थ होगा, जीवन का फैलाव, विस्तार, गहराई। अभी तक जिसे हम संन्यासी कहते हैं वह अपने को सिकोड़ता है। सब तरफ से अपने को बंद करता है।

मैं उसे संन्यासी कहता हूं जो सबसे अपने को जोड़े, जो अपने को ही बंद न करे, खुला छोड़ दे। निश्चित ही इसके अर्थ और भी होंगे। जो संन्यास सिकोडऩे वाला है, वह संन्यास बंधन बन जाएगा, वह संन्यास कारागृह बन जाएगा, वह संन्यास स्वतंत्रता नहीं हो सकता और जो संन्यास स्वतंत्रता नहीं है वह संन्यास ही कैसे हो सकता है। संन्यास की आत्मा तो परम स्वतंत्रता है। इसलिए मेरे लिए संन्यास की कोई मर्यादा नहीं, कोई बंधन नहीं। मेरे लिए संन्यास का कोई नियम नहीं, कोई अनुशासन नहीं। मेरे लिए संन्यास व्यक्ति के परम विवेक में परम स्वतंत्रता की उद्भावना है। उस व्यक्ति को मैं संन्यासी कहता हूं जो परम स्वतंत्रता में जीने का साहस करता है। न कोई बंधन ओढ़ता, न कोई व्यवस्था ओढ़ता, न कोई अनुशासन ओढ़ता, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वह उच्चछृंखल हो जाता है। इसका यह मतलब नहीं है कि वह स्वच्छंद हो जाता है। असलियत तो यह है कि जो आदमी परतंत्र है, वही उच्चछृंखल हो सकता है और जो आदमी परतंत्र है, बंधन में बंधा है, वही स्वच्छंद हो सकता है।

जो स्वतंत्र है, वह तो कभी स्वच्छंद होता ही नहीं। उसके स्वछंद होने का उपाय नहीं है। ऐसे अतीत से मैं भविष्य के संन्यासी को भी तोड़ता हूं और मैं समझता हूं कि अतीत के संन्यास की जो आज तक व्यवस्था थी वह मरण-शय्या पर पड़ी है। उसे हम ढो रहे हैं। वह भविष्य में बच नहीं सकती, लेकिन संन्यास ऐसा फूल है जो खो नहीं जाना चाहिए। वह ऐसी अद्भुत उपलब्धि है, जो विदा नहीं हो जानी चाहिए। वह बहुत ही अनूठा फूल है, जो कभी-कभी खिलता रहा है। ऐसा भी हो सकता है कि हम उसे भूल ही जाएं, खो ही दें। पुरानी व्यवस्था में बंधा हुआ वह मर सकता है। इसलिए संन्यास को नए अर्थ, नए उदभाव देने जरूरी हो गए हैं। संन्यास तो बचना ही चाहिए। वह तो जीवन की गहरी संपदा है, लेकिन अब वह कैसे बचाई जा सकेगी। संन्यासी संसार से टूटता है, तो दरिद्र हो जाता है। क्योंकि जीवन के अनुभव की सारी संपदा संसार में है। जीवन के सुख-दुख का, जीवन की सारी गहनताओं का रस तो संसार में है।


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