प्रदेश में तबाही का सिलसिला

हिमालय के लोग विकास रोकने के पक्ष में कदापि नहीं हैं, किंतु अंधाधुंध विकास के नाम पर होने वाली तबाही से बचकर टिकाऊ विकास के लिए आवाज उठा रहे हैं…

हिमाचल प्रदेश में बाढ़-भूस्खलन का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। कुल्लू, मंडी, शिमला, सिरमौर और चंबा जिले बुरी तरह से प्रभावित हुए हैं, किन्तु तबाही कांगड़ा में भी बहुत हुई है। वैसे तो पूरा हिमाचल ही तबाही की चपेट में है। सब कोई हैरान है कि आखिर यह हो क्या रहा है। गांव के गांव तबाह हो रहे हैं। जहां सोच भी नहीं सकते, वहां भी तबाही के बादल छाए हैं। 369 से ज्यादा अमूल्य जीवन इस आपदा में काल का असमय ग्रास बन चुके हैं और 10 हजार करोड़ रुपए से ज्यादा की संपत्ति नष्ट हो चुकी है। दो हजार के लगभग घर पूरे तबाह, 9 हजार के लगभग आंशिक तबाह हो गये हैं। बादल फटने की घटनाओं से प्रदेश दहल गया है। भारी बारिश और बादल फटने की घटना में तकनीकी रूप से कुछ अंतर होता है। जब एक छोटे 100 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में एक घंटे में 10 सेंटीमीटर या इससे ज्यादा बारिश हो जाए तो उसे बादल फटना कहते हैं। हालांकि बादल फटने की पूर्व चेतावनी पूरी तरह से संभव नहीं है, फिर भी 12 घंटे पहले तक भारी से बहुत भारी बारिश की चेतावनी संभव हो गई है। यह चेतावनी एक बड़े क्षेत्र के लिए होती है, सटीक स्थल की पहचान न होने के कारण मोटी सावधानी तो ली जा सकती है, किन्तु घर के अंदर बैठे बिठाए मुसीबत सिर पर आ जाए तो बचना कितना कठिन होता है, इसका अंदाजा भी लगाया नहीं जा सकता है। हम वैश्विक तापमान वृद्धि के दौर से दो चार हो चुके हैं, जिसके कारण जलवायु में अभूतपूर्व बदलाव आ रहे हैं। बारिशों का तरीका भी बहुत बदल गया है।

कभी सूखा और कभी भारी बारिश। थोड़े समय में इतना पानी गिर जाता है जिसके बारे में सोच भी नहीं सकते। जुलाई की 255.9 मिलीमीटर औसत वर्षा के मुकाबले प्रदेश में 437 मिलीमीटर बारिश हुई। सिरमौर में सबसे ज्यादा 1097.5 मि.मी. बारिश हुई और किन्नौर में 199 फीसदी औसत से ज्यादा बारिश हुई। कुल्लू में 476 मि. मी., मंडी में 546 मि. मी., शिमला में 584.6 मि. मी., सोलन में 735.7 मि. मी. वर्षा जुलाई मास में रिकार्ड की गई। अधिकांश जिलों में यह आज तक का अधिकतम है। लाहुल-स्पीति और कांगड़ा को छोड़ कर सभी जिलो में औसत से अत्यधिक बारिश हुई। हालांकि अगस्त में कांगड़ा में भी भारी बारिश में कई जगह बादल फटने जैसे हालात बने हैं। विधानसभा सीट जवाली के कोटला में गांव के ऊपर बादल फटने से बीस पच्चीस घर क्षतिग्रस्त हो गए हैं। जलवायु परिवर्तन के इस दौर में हिमालय जैसी नाजुक और विकट पर्वत श्रृंखला में बहुत ज्यादा सावधानी बरतने की जरूरत है। खासकर बांध, सडक़ निर्माण और भवन निर्माण में बहुत सावधानी की जरूरत है, किन्तु हो इससे उल्टा रहा है। मनमर्जी से हर कहीं घर बनाए जा रहे हैं, बांध निर्माण में हर नदी नाले को पूरी तरह से दोहन करने की दौड़ लगी है, और सडक़ निर्माण में हर घर तक सडक़ पहुंचाने के प्रयास हो रहे हैं।

आवागमन की सुविधा हर नागरिक का अधिकार है, किन्तु हिमालय में सावधानी पूर्वक यह देखा जाना जरूरी है कि भूगर्भीय दृष्टि से यह कहां संभव नहीं है। जहां सडक़ें बनाई जा रही हैं वहां भूगर्भीय कारकों का कोई ध्यान नहीं रखा जाता है। सडक़ निर्माण के लिए पर्वतीय क्षेत्रों के लिए उपयुक्त तकनीक क्या हो, इस दिशा में भी कोई ध्यान नहीं है। हर कहीं मनमर्जी से मलबा फेंक दिया जाता है। 90 डिग्री पर कटिंग की जा रही है, जबकि कटाई ‘एंगल ऑफ रिपोज’ पर की जानी चाहिए। जहां तक संभव हो सडक़ निर्माण ‘कट एंड फिल’ तकनीक से किया जाना चाहिए। जहां जहां फोरलेन का काम लगा है या जहां ग्रामीण सडक़ों के लिए मनमानी डंपिंग की गई है, वहां ही ज्यादा तबाही देखने को मिली है। फोरलेन के चक्कर में कुल्लू-मनाली क्षेत्र तो पूरी तरह आवागमन से वंचित हो गए हैं। सब्जियों और फलों को मंडियों तक पहुंचाना भी कठिन हो गया है। कई गांवों में राशन तक हेलिकाप्टरों से पहुंचाना पड़ रहा है। हिमाचल सरकार और सामाजिक संस्थाएं केंद्र से इस आपदा को राष्ट्रीय आपदा घोषित करने की मांग कर रही हैं। प्रदेश की आर्थिकी भी खतरे में पड़ गई है। अत: सभी विकासात्मक मुद्दों पर नए सिरे से सोचने की जरूरत पड़ गई है। भवन निर्माण के लिए ग्रामीण और अर्बन दोनों क्षेत्रों के लिए भूगर्भ शास्त्र परामर्श केंद्र स्थापित किए जाने चाहिए जहां इंजीनियरिंग और भूगर्भीय विज्ञान के सुझाव एक ही छत के नीचे उपलब्ध हों। व्यवस्था ऐसी हो कि लाभर्थियों पर कोई बोझ न पड़े और लालफीताशाही को बढ़ावा न मिले। जल विद्युत से संबंधित अभय शुक्ल कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक 7000 फुट से ऊपर की जगहों पर जलविद्युत परियोजनाएं न लगाई जाएं।

वर्तमान बांधों में बरसात से पहले निर्धारित जगह खाली रखी जाए जिससे बरसात में बाढ़ का पानी उसमें रोका जा सके और नीचे के क्षेत्रों को बाढ़ से बचाया जा सके। 15 दिन की बारिश की भविष्यवाणी के आधार पर धीरे-धीरे बांध से पानी छोड़ते रहना चाहिए ताकि अचानक पानी छोडऩे की नौबत न आए और इस वर्ष पंजाब और हिमाचल के मंड जैसी स्थिति बांध के नीचे के क्षेत्रों की न आए। हालात को देखते हुए हिमालय में विकास गतिविधियों के लिए कुछ गतिविधियों को प्रतिबंधित करना होगा। कुछ को प्राथमिकता देनी होगी और कुछ के लिए वैकल्पिक तकनीकों और नवाचारों को ढूंढना होगा। इन चार तत्वों के आधार पर हिमालय में पर्वत विशिष्ट विकास मॉडल निर्धारित करके कार्य करना होगा, वरना हम हिमालयी राज्यों में साल दर साल इस तरह की तबाहियों को आमंत्रण दे रहे होंगे। चिपको आन्दोलन के दूसरे दौर में 1980 के दशक के आरंभ से ही हिमालय के लिए पर्वत विशिष्ट विकास नीति के मुद्दे को उठाया जाता रहा है। डा. एसजेड कासिम की अध्यक्षता में योजना आयोग द्वारा एक विशेषज्ञ समूह का भी गठन किया गया था, जिसकी रिपोर्ट 1992 में आ गई थी। उस रिपोर्ट को आधार मान कर वर्तमान की जरूरतों के मुताबिक उसे संशोधित और विकसित करके शीघ्र एक दस्तावेज बना कर उस पर चर्चा और सुझाव लेकर अंतिम रूप दिया जाना चाहिए। अभय शुक्ल कमेटी की रिपोर्ट जो हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा गठित की गई थी, उसकी संस्तुतियां भी देखने योग्य हैं। हिमालय के लोग विकास रोकने के पक्ष में कदापि नहीं हैं, किन्तु अंधाधुंध विकास के नाम पर होने वाली तबाही से बच कर टिकाऊ विकास के लिए आवाज उठा रहे हैं जिसे देश हित और हिमालय हित में गंभीरतापूर्वक सुना जाना चाहिए।

कुलभूषण उपमन्यु

पर्यावरणविद


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