हिमाचली हिंदी कहानी : विकास यात्रा -24

By: Sep 24th, 2023 12:05 am

कहानी के प्रभाव क्षेत्र में उभरा हिमाचली सृजन, अब अपनी प्रासंगिकता और पुरुषार्थ के साथ परिवेश का प्रतिनिधित्व भी कर रहा है। गद्य साहित्य के गंतव्य को छूते संदर्भों में हिमाचल के घटनाक्रम, जीवन शैली, सामाजिक विडंबनाओं, चीखते पहाड़ों का दर्द, विस्थापन की पीड़ा और आर्थिक अपराधों को समेटती कहानी की कथावस्तु, चरित्र चित्रण, भाषा शैली व उद्देश्यों की समीक्षा करती यह शृंखला। कहानी का यह संसार कल्पना-परिकल्पना और यथार्थ की मिट्टी को विविध सांचों में कितना ढाल पाया। कहानी की यात्रा के मार्मिक, भावनात्मक और कलात्मक पहलुओं पर एक विस्तृत दृष्टि डाल रहे हैं वरिष्ठ समीक्षक एवं मर्मज्ञ साहित्यकार डा. हेमराज कौशिक, आरंभिक विवेचन के साथ किस्त-24

हिमाचल का कहानी संसार

विमर्श के बिंदु

1. हिमाचल की कहानी यात्रा
2. कहानीकारों का विश्लेषण
3. कहानी की जगह, जिरह और परिवेश
4. राष्ट्रीय स्तर पर हिमाचली कहानी की गूंज
5. हिमाचल के आलोचना पक्ष में कहानी
6. हिमाचल के कहानीकारों का बौद्धिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक व राजनीतिक पक्ष

लेखक का परिचय

नाम : डॉ. हेमराज कौशिक, जन्म : 9 दिसम्बर 1949 को जिला सोलन के अंतर्गत अर्की तहसील के बातल गांव में। पिता का नाम : श्री जयानंद कौशिक, माता का नाम : श्रीमती चिन्तामणि कौशिक, शिक्षा : एमए, एमएड, एम. फिल, पीएचडी (हिन्दी), व्यवसाय : हिमाचल प्रदेश शिक्षा विभाग में सैंतीस वर्षों तक हिन्दी प्राध्यापक का कार्य करते हुए प्रधानाचार्य के रूप में सेवानिवृत्त। कुल प्रकाशित पुस्तकें : 17, मुख्य पुस्तकें : अमृतलाल नागर के उपन्यास, मूल्य और हिंदी उपन्यास, कथा की दुनिया : एक प्रत्यवलोकन, साहित्य सेवी राजनेता शांता कुमार, साहित्य के आस्वाद, क्रांतिकारी साहित्यकार यशपाल और कथा समय की गतिशीलता। पुरस्कार एवं सम्मान : 1. वर्ष 1991 के लिए राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार से भारत के राष्ट्रपति द्वारा अलंकृत, 2. हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा राष्ट्रभाषा हिन्दी की सतत उत्कृष्ट एवं समर्पित सेवा के लिए सरस्वती सम्मान से 1998 में राष्ट्रभाषा सम्मेलन में अलंकृत, 3. आथर्ज गिल्ड ऑफ हिमाचल (पंजी.) द्वारा साहित्य सृजन में योगदान के लिए 2011 का लेखक सम्मान, भुट्टी वीवर्ज कोआप्रेटिव सोसाइटी लिमिटिड द्वारा वर्ष 2018 के वेदराम राष्ट्रीय पुरस्कार से अलंकृत, कला, भाषा, संस्कृति और समाज के लिए समर्पित संस्था नवल प्रयास द्वारा धर्म प्रकाश साहित्य रतन सम्मान 2018 से अलंकृत, मानव कल्याण समिति अर्की, जिला सोलन, हिमाचल प्रदेश द्वारा साहित्य के लिए अनन्य योगदान के लिए सम्मान, प्रगतिशील साहित्यिक पत्रिका इरावती के द्वितीय इरावती 2018 के सम्मान से अलंकृत, पल्लव काव्य मंच, रामपुर, उत्तर प्रदेश का वर्ष 2019 के लिए ‘डॉ. रामविलास शर्मा’ राष्ट्रीय सम्मान, दिव्य हिमाचल के प्रतिष्ठित सम्मान ‘हिमाचल एक्सीलेंस अवार्ड’ ‘सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार’ सम्मान 2019-2020 के लिए अलंकृत और हिमाचल प्रदेश सिरमौर कला संगम द्वारा डॉ. परमार पुरस्कार।

डा. हेमराज कौशिक
अतिथि संपादक
मो.-9418010646

-(पिछले अंक का शेष भाग)
वह कथा लेखिका से भयावह स्थिति से निजात पाने के लिए पढ़ी-लिखी होने के कारण सरकार को चि_ी लिखने का आग्रह करता है कि यारो कुछ तो सोचो, इस खून खराबे का क्या फायदा। यारो ढंग से रहो, कमाओ, खाओ, हंसो-खेलो, ईश्वर ने इतना दिया है, धरती माता भी इतनी दयालु है। कहानी लेखिका घर-घर बर्तन मांजने वाले निम्न मध्यवर्गीय अनपढ़ शंकर दास की बूढ़ी आंखों में धरती माता को छलछल रोते देखती है। कहानीकार रेखा ने एक सामान्य चरित्र के इर्द-गिर्द कहानी के तंतु विन्यस्त कर संवेदनशील कहानी की सृष्टि की है। सुदर्शन वशिष्ठ की ‘खतरनाक लोग’ राजनीति और सत्ता से संपृक्त लोगों की मानसिकता को अनावृत्त करती है। अरुण भारती की ‘उसका खुदा’ कहानी सांप्रदायिक सौहार्द की कहानी है। रवि सिंह राणा शाहीन की ‘बंजारे’ शीर्षक कहानी विभिन्न स्थानों, नगर-नगर, बस्ती-बस्ती में घूमकर बर्तन बेचने वाले समुदाय के अस्थायी जीवन की कठिनाइयों को रेखांकित करती है। केशव चंद्र की ‘मुखौटा’ कहानी सत्ता से जुड़े चाटुकार लोगों के चेहरों को निरावृत करती है। प्रकाश पंत की कहानी ‘चंदू’ मानव स्थितियां को सूक्ष्मता से कथ्य का अंग बनाती है। संपादक नरेश पंडित की मांस-भात शीर्षक कहानी गांवों के निर्धन किसान शंकर के इर्द-गिर्द विन्यस्त की गई है जिसके माध्यम से कहानीकार ने यह स्थापित किया है कि मजदूर प्रतिदिन श्रम के लिए बेरोजगारी के कारण बिकता है। हर प्रात: मजदूर वर्ग बाजार में श्रम बेचने के लिए, दिहाड़ी लगाने के लिए प्रतीक्षारत रहता है। श्रम न बिकने की स्थिति में श्रमिक का परिवार भूखा रहने के लिए विवश होता है। प्रस्तुत कहानी इस दारुण दशा को रेखांकित करती है।

विवेच्य अवधि में डॉ. कुलदीप अग्निहोत्री के दो कहानी संग्रह ‘घेरे के बंदी’ और ‘अपना अपना दुख’ शीर्षक से प्रकाशित हैं। ‘घेरे के बंदी’ में आठ कहानियां- निर्णय, प्रमोशन, उसकी वापसी, भोर होने तक, हम भरत अस्मि, टुकड़े-टुकड़े हत्या, महानगर में घूमता राक्षस और वसुधा का अंत संगृहीत हैं। प्रस्तुत संग्रह की शीर्षक कहानी ‘निर्णय’ में आपातकाल की स्थिति में व्यक्ति की स्वतंत्रता के हनन, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दमन और बुद्धिजीवियों की आपातकालीन स्थिति में भयावह परिवेश में मौन रहने और समर्थन में रेजोल्यूशन तक पास करने की स्थितियों का निरूपण है। प्रोफेसर शर्मा विश्वविद्यालय के विभाग में आपात स्थिति के समर्थन में सहमति के हस्ताक्षर न करने के कारण जेल की सलाखों के पीछे चला जाता है और दूसरे प्रोफेसर जो जेपी के बिहार आंदोलन पर व्याख्यान श्रृंखलाओं का आयोजन करते थे, वे इस भयावह स्थिति में समर्थन में न केवल उतरते हैं अपितु प्रोफेसर शर्मा के विरुद्ध प्रस्ताव भी पारित करते हैं। ‘प्रमोशन’ कहानी भी आपातकाल की परिस्थितियों में पुलिस की मनमानी और ज्यादतियों को रेखांकित करती है। ‘भोर होने तक’ और ‘वापसी’ में विदेश में नौकरी की तलाश में गए युवा किस प्रकार विषम परिस्थितियों में फंस कर भ्रष्टाचार के मार्ग पर अग्रसर होकर भारत लौटने के योग्य भी नहीं रहते। विदेशी परिवेश पर रचित इन कहानियों में संस्मरण तत्व प्रमुख है। ‘उसकी वापसी’ कहानी विदेश में जमकर अपने देश, परिवार और संस्कृति से विमुख हो जाने वाले युवाओं की कहानी है। वे वहां इसलिए रुक जाते हैं कि उन्हें पुश्तैनी गरीबी से मुक्ति मिले। दूसरे देशों में पैसे के लोभ में जाने वाले इन युवकों की परेशानियों और अपमानजनक स्थितियों का निरूपण प्रस्तुत कहानियों में किया गया है। ‘महानगर में घूमता राक्षस’ शीर्षक कहानी में महनगरीय जीवन से उत्पन्न स्थितियों का निरूपण है।

महानगरीय जीवन में व्यक्ति भीड़ में परिवर्तित हो गए हैं। भीड़ में भी व्यक्ति अकेला और अजनबीपन और सुरक्षा से भयभीत है। महानगरों में व्यक्ति बस, रेल या सडक़ पर भीड़ में ही लोगों के साथ निरंतर चलता रहता है। उसके लिए कोई दुर्घटना, अमानवीय घटना या हत्या केवल मात्र समाचार है। संवेदना पूरी तरह निष्प्राण है। डबल डैकर बसें, सडक़ों के हादसे, खंडहरनुमा मकानों में गहमागहमी, ट्रैफिक का भयंकर जाल, शहर की दमघोंटु जिंदगी को कहानी परत दर परत अनावृत करती है। ‘टुकड़े टुकड़े हत्या’ में एक विधवा मां के एकमात्र बेटे के विदेश में आजीविका के लिए जाने, फिर वहीं बसने और गृहस्थी बसाने से विधवा मां का एकाकी जीवन और विदेश में जीवन यापन करने और भारतीय जीवन मूल्यों और संस्कारों के ढहने का चित्रण है। मां के विदेश में जाने की घुटन को भी कहानी निरूपित करती है। मां बेटे को नितांत निर्धनता में भी संघर्ष करके पढ़ाती है। उसकी खुशी और उसके जीवन के उत्थान के लिए विदेश जाने के लिए पैसों की व्यवस्था करती है। प्रस्तुत कहानी बेटे-बहू की उत्तरदायित्वहीनता और संवेदनशून्यता को रेखांकित करती है। ‘हम भरत अस्मि’ में एक विदेशी युवती के भारतीय जीवन आदर्शों के प्रति अगाध श्रद्धा को अभिव्यंजित किया है।

‘वसुधा का अंत’ में सामंतीय व्यवस्था के समाप्त होने पर भी सामंती जीवन जीने वाले लाल बिहारी की जिम्मेदारी और हवेली की शान बीते युग की बात हो जाती है, परंतु लाल बिहारी के पुत्र बेनी माधव में जमींदारी और धन संपत्ति की समाप्ति पर भी अभिजात्य अहंकार का दंभ बना रहता है। बेनी माधव की इकलौती मातृहीन बेटी वसुधा के विवाह के संदर्भ में आर्थिक कठिनाइयां किस तरह बाधक बनती हैं, इसको यह कहानी रेखांकित करती है। सामंतीय शान के दंभ को यह कहानी अनावृत करती है और दहेज विभीषिका के चेहरे को भी सामने लाती है। कुलदीप अग्निहोत्री की संदर्भित संग्रह की कहानियां सामाजिक और राजनीतिक जीवन की विसंगतियों और राजनीतिक सत्ता की अमानवीयता और युवा पीढ़ी की दिग्भ्रमित अवस्था और मूल्यहीनता को रेखांकित करती हैं। कहानियों का प्रतिपाद्य अनुभवजन्य और समकालीन यथार्थ को निरूपित करता है। समकालीन यथार्थ को व्यंजित करने वाली इन कहानियों में अनुभव की प्रमाणिकता के साथ भाषा शिल्प का सुगठित स्वरूप है। ‘रह गए सो सीप’ (1988) कैलाश भारद्वाज का अनेक विध रचनाओं का संग्रह है जिसमें उनकी पीड़ा पतित पावन की, गाड़ी रुक गई आदि कहानियां संगृहीत हैं। अन्य रचनाओं में संस्मरणात्मकता और कथा तंतुओं की निर्मिति विद्यमान है।

विवेच्य अवधि में बीआर मुसाफिर का ‘रूपा’ (1984), लक्ष्मण सिंह के ‘यह कैसा अतीत’ (1989) और ‘साहूकार का बेटा’ (1990), केएस राणा का ‘कथांश’ (1989), राम हर्ष तिवारी का ‘धूप छांव’ (1989), बीआर पदम का ‘दर्दनामा’ (1989) प्रकाशित है। नवें दशक में कुछ अन्य कहानीकार भी हैं जिनके स्वतंत्र कहानी संग्रह तो नहीं आए परंतु वे विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लिखते रहे हैं। बहुत से ऐसे कहानीकार हैं जो किसी संपादित कहानी संग्रह में भी सम्मिलित नहीं हैं। रमेश पठानिया, सतपाल शर्मा, अशोक गौतम, अर्पणा धीमान, उषा दीपा मेहता, तारा नेगी, राज शर्मा, सत्यापुरी नाहनवीं, जितेंद्र अवस्थी, जयकुमार, रतन चंद निर्झर प्रभृति उल्लेखनीय हैं। रमेश पठानिया की सृजन यात्रा 20 अक्टूबर 1985 के दैनिक ट्रिब्यून के रविवारीय परिशिष्ट में प्रकाशित कहानी ‘ढहती दीवारों’ से होती है। उसके बाद उनका कहानी सृजन क्रम जारी रहा। अतीत, पहाड़ से गिरा आदमी, टुकड़ों में बंटी अम्मा, भीगे नयन आदि कहानियां दैनिक ट्रिब्यून के रविवारीय परिशिष्टों में इस अवधि में प्रकाशित होती रही हैं। वे हिंदी और अंग्रेजी में समान रूप में लिखते रहे हैं। पत्रकारिता और संपादन से भी संपृक्त रहे हैं। हिमाचल कला संस्कृति और भाषा अकादमी के दो कहानी संग्रहों में उनकी तीन कहानियां अंग्रेजी में प्रकाशित हैं।

अशोक गौतम ने विवेच्य अवधि में अनेक कहानियों का सृजन किया है जो विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहीं। यह अलग बात है कि उनकी कहानियों का अभी तक कोई संकलन प्रकाशित नहीं हुआ है। उनके साहित्यिक जीवन की शुरुआत कहानी लेखन से 1985 में गिरिराज में प्रकाशित कहानी ‘परदेसी’ (19 जून 1985) से होती है। उनकी कहानियों के अधिकतर कथानक सामाजिक विषयों पर केंद्रित हैं। नवें दशक के उत्तरार्ध में अशोक गौतम की गिरिराज में आधुनिक कुंती, मां, मेमना, बंद हुए लोग, बन्ने पर अटकी सांस, पंखों पर, प्रतीक्षा और ‘एक डर का अंत’ प्रकाशित हुई। इसी प्रकार वीर प्रताप में फिर वही तनहाइयां, आशा, रिसती हुई जिंदगी, आखिरी खत, रोने लगी शहनाइयां, झील के किनारे, प्रयास जारी है व ‘यादों से घिरा शहर’ प्रकाशित हुई। दैनिक ट्रिब्यून में फालतू आदमी, कब आओगे पापा, एक और शोभा, विद्रोह और हिमप्रस्थ में मजदूरदार और युद्ध विराम कहानियां प्रकाशित हुई हैं। शंकर वशिष्ठ ने आठवें दशक के उत्तरार्ध में कहानी सृजन की शुरुआत की। उस समय वीर प्रताप में प्रकाशित ‘दहेज की अर्थी’ और ‘सुख के घाव’ दो उनकी उल्लेखनीय कहानियां हैं।
सदी के अंतिम दशक में हिमाचल प्रदेश की हिंदी कहानी निश्चित रूप में संवेदना और शिल्प की दृष्टि से पहले से संपन्नतर हुई है। इस अवधि में त्रिलोक मेहरा, सुंदर लोहिया, सुदर्शन वशिष्ठ, सत्य पाल शर्मा, एसआर हरनोट, बद्री सिंह भाटिया, नरेश पंडित, योगेश्वर शर्मा, रेखा, अरुण भारती, श्रीनिवास जोशी, पीसीके प्रेम, सुशील कुमार फुल्ल, राज कुमार राकेश, उषा दीपा मेहता, उषा आनंद, राजकुमार, तारा नेगी, हंसराज भारती, साधुराम दर्शक, रतन चंद्र रत्नेश, राजीव सिंह, प्रत्यूष गुलेरी, गुरमीत बेदी, भगवान देव चैतन्य, सुरेश कुमार प्रेम, राजगोपाल शर्मा, महेश चंद्र सक्सेना, रजनीकांत, रोशन लाल संदेश, सुदर्शन भाटिया, मदन गुप्ता स्पाटु प्रभृति कहानीकारों के कहानी संग्रह प्रकाश में आए हैं।

त्रिलोक मेहरा का प्रथम कहानी संग्रह ‘कटे फटे लोग’ (1991) शीर्षक से प्रकाशित है। प्रस्तुत संग्रह में ग्यारह कहानियां- बुआ, पीढिय़ों का दर्द, सुपुत्र श्रीमती, सरकंडे, कारदार जिंदा है, अपाहिज, किनारे की दुकान, एक विद्यार्थी की वसीयत, बकरा और कटे फटे लोग संगृहीत हैं। ‘बुआ’ ग्रामीण परिवेश में विन्यस्त कहानी है। संदर्भित कहानी में कहानीकार ने यह स्थापित किया है कि गांव की युवा पीढ़ी शिक्षित होकर शहर की ओर पलायन करती है और पुरानी पीढ़ी ग्रामीण संस्कारों और पुश्तैनी घर-जमीन से पृथक होकर शहर नहीं जाना चाहती है। बुआ ऐसी ही चरित्र है जो गांव के घर में एकाकी रहती है। वह नहीं चाहती कि वह दो बेटों में से किसी के पास शहर में भटकती रहे। शहरों में बेटों की निजी व्यस्तताएं यहां तक बढ़ जाती हैं कि मां की मृत्यु पर बहू और पुत्र ही पहुंच पाते हैं। गांव में बुआ के प्रति ग्रामीण समाज की संवेदनशीलता और सहयोग को भी कहानी चित्रित करती है। ‘पीढिय़ों का दर्द’ में धर्मांधता और अंधविश्वास की रिक्ततता सामने लाई है जिसमें व्यक्ति मृत्यु के बाद के संस्कार पुत्र के अभाव में किस से कराए जाएं, बेटा और बेटी के अंतर को पीढिय़ां कैसे बनाए रखती हैं, इसे कहानी रूपायित करती है। ‘अपाहिज’ में बाबू और अफसर की कार्य पद्धति, उनके व्यवहार, एक दूसरे के प्रति दृष्टिकोण और फाइलों के जंगल में उन्हें निपटाने की प्रक्रिया आदि को यह कहानी निरूपित करती है।

-(शेष भाग अगले अंक में)

हिमाचल के साहित्यिक इतिहास तक प्रमाणिकता के साथ डा. सुशील फुल्ल

यह पुस्तक हिमाचल के हिंदी साहित्य से मुखातिब होते-होते कई कवियों की श्रेष्ठ कविता, कहानीकारों की कहानियों में भूमिका, उपन्यासकारों की आंचलिकता, लोक नाट्य की छवि से निकलते रंगमंच, निबंध साहित्य के चिंतन-मनन, आलोचना से समीक्षा तक, बाल साहित्य से व्यंग्य तक और पत्र-पत्रिकाओं की छानबीन में प्रदेश की अभिव्यक्ति के अनछुए अंदाज को सार्वजनिक कर देती है। डा. सुशील कुमार फुल्ल हिमाचल के हिंदी साहित्य की शोध प्रक्रिया से गुजरते हुए, हिमाचल का हिंदी साहित्य का इतिहास जैसे प्रकाशन की प्रासंगिकता में 424 पन्ने तराश देते हैं। हम ऐसे प्रकाशन की जरूरतों को अंगीकार करते हुए हिंदी साहित्य के शैशव काल से हिमाचल में साहित्य की चोटियों पर पहुंच जाते हैं।

कुल पंद्रह अध्यायों में साहित्य का सागर, कभी शांत होकर अपनी गहराई की माप-मपाई कराता है, तो कभी उद्वेलित भाव में समाज-संस्कृति और समय के भाव में उन ज्वारभाटों से टकराता है, जिन्हें यहां के साहित्यकारों ने भीतर तक जीया है। साहित्य में हिमाचली चरित्र कविता ओढ़ता है या कहानी में खुद को खोजता है। आलोचना के विषय वस्तु में कितना व्यंग्य और आलेख में कितना मौलिक है, इसकी खोजबीन में हिंदी साहित्य का इतिहास लेकर डा. सुशील कुमार फुल्ल वो कार्य कर रहे हैं, जो यहां पठन-पाठन की तासीर से पाठ्यक्रम की अनिवार्यता को इसके समक्ष लाकर खड़ा कर देता है। यह जांचने और वांचने की सामग्री से भरपूर हिमाचल की साहित्यिक रुह को पकडऩे का जज्बा है, जिसके तहत दीप जलाए लेखक ने सैकड़ों लेखकों की पीठ थपथपाई है। यह इतिहास का विवेचन है, इसलिए समस्त रचनाओं के बजाय रचनाकारों से जुड़ी चार सौ साल की यात्रा है, जहां राजाओं के प्रश्रय से आधुनिक क्षमता के आलोक में साहित्यकार की खुलती हुई पलकें-संवेदना के हर पल के साक्ष्य रूप में उपस्थिति दर्ज करा रही हैं। युगों को पलटते डा. सुशील कुमार फुल्ल का ऐतिहासिक तराजू अपने दाएं पलड़े में देश के संदर्भों का मानदंड रखता है, तो बाएं बाजू वह हिमाचली साहित्यकारों को कभी चढ़ा, तो कभी उतार रहे हैं, ताकि पैमाना ईमानदार रहे। जाहिर है यहां साहित्यकार स्वयं को खोजते हुए इतिहास की जिल्द में अपनी कहानी सुना रहे हैं। सुंदर लोहिया के कविता भाव में, ‘जंगल में हुड़दंग मचा, पेड़ एक-दूसरे से भिड़ गए, शाखाओं ने हाथापाई की, एक गिलहरी समझाने दौड़ी, पत्तों में ऐसी गुम हुई/कि चार दिन बाद/औंधी पड़ी मिली।’ यहां श्रीनिवास श्रीकांत के कविता संग्रह नाच रहे हैं, तो केशव, अवतार सिंह एनगिल, सतीश धर, परमानंद शर्मा, सीआरबी ललित, अनूप सेठी, पवनेंद्र पवन, सुरेश सेन निशांत, एचएम तूर, सरोज परमार सरीखे दर्जन कवियों की यात्रा में, ‘खामोशी/कहने से पहले होती है/कहने के बाद भी/कहने में भी रहती है/कहीं न कहीं।’ हिमाचल की लोक संस्कृति से जुड़ी कविता की जगह व्यापक है और यह सबसे पहले अवतरित होकर खुद को पारंगत कर रही है। हिमाचली कहानी के दर्पण में पुस्तक भारतीय संदर्भ की शुरुआत चंद्रधर शर्मा गुलेरी से करते हुए श्याम लाल शर्मा तक करीब सौ कहानीकारों के परिचय को जोड़ देती है।

कहानीकारों का उल्लेख एक उज्ज्वल कहानी की तरह संसार में सितारों की भीड़ देख रहा है। हिमाचल की वैचारिक भूमि में तपती कहानी यशपाल के अठारह कहानी संग्रहों में डेढ़ सौ कहानियों की भूमिका लिख देती है। लेखक कहानी संग्रहों की छानबीन में सहज, जनवादी, सक्रिय व समांतर कहानियों के बीच गौतम शर्मा व्यथित की ‘मुरली’, डा. सुशील फुल्ल की ‘मां’, मनोहर सागर पालमपुरी की ‘लोक परलोक’ और योगेश्वर शर्मा की ‘उसका टुकड़ा’ का खास जिक्र छेड़ देते हैं। ‘बर्फ के हीरे’ संग्रह में सत्येन शर्मा ग्यारह, डा. पीयूष गुलेरी स्मृति के संपादन में 16, ‘साहित्य निकाय’ में संत राम शर्मा 22, नरेश पंडित, हिमाचल की प्रगतिशील कहानियों में नौ, डा. सुशील व पीसीके प्रेम के संयुक्त संपादन में ‘धुंध में उगते सूरज’ में 21 तथा राजेंद्र राजन के ‘नवां दशक-हिमाचल की प्रतिनिधि कहानियां’ में 14 कहानीकारों के कथालोक का उल्लेख हो रहा है। हिमाचल की कहानी मानवीय प्रवृत्ति, सामाजिक-आर्थिक अन्याय के विरुद्ध लघु विरोध, भावनाओं के आवेश, काव्यात्मकता, आंचलिकता व प्रकृति के सान्निध्य में फलते-फूलते शिल्प और तीक्ष्ण विलक्षणताओं के साथ पेश हो रही है। यशपाल के बारह उपन्यासों में मिट्टी गंध महसूस करते ‘मनुष्य के रूप’ में पहाड़ी जनजीवन की झलकियां रूबरू होती हैं, तो कैलाश भारद्वाज के ‘मीठा •ाहर’ रामकृष्ण कौशल के ‘पथ के राही’, संतराम शर्मा के ‘उसी छत के नीचे’ गंगाराम राजी के ग्यारह उपन्यासों में जनपद की पृष्ठभूमि, युग बोध, रोमांस तथा रचना शिल्प पर समीक्षात्मक टिप्पणियां, पुस्तक को संदर्भों से सराबोर कर देती हैं। एसआर हरनोट के उपन्यास ‘हिंडिम्ब’ में गढ़े गए मानकों की विश्लेषणात्मक समीक्षा हुई है। इतिहास के उपन्यास और उपन्यास में इतिहास का जिक्र करती पुस्तक राजेंद्र राजन, राजकुमार राकेश, हरदयाल नास्तिक, ओंकार राही, रमेश शर्मा, कृष्ण कुमार नूतन, उत्तम परमार, मस्तराम कपूर, सुशील कुमार, शांता कुमार, सुदर्शन वशिष्ठ, नागेश भारद्वाज, केशव, बद्री सिंह भाटिया, महाराज कृष्ण काव, हरिराम जस्टा, कश्मीरी लाल, श्याम सिंह घुना, साधुराम पुरी दर्शक, संसार चंद्र प्रभाकर, पीसीके प्रेम, राकेश मंडोत्रा, त्रिलोक मेहरा, गौतम शर्मा व्यथित, चंद्ररेखा ढडवाल, पौमिला ठाकुर, डा. पीयूष गुलेरी व मुरारी शर्मा आदि तक पहुंच जाती है।

कहानी, उपन्यास के साथ एकांकी एवं नाटक की समीक्षा और गेयटी थियेटर की पृष्ठभूमि में रामकृष्ण कौशल, नरेंद्र अरुण, काहन सिंह जमाल, डा. हरिराम जस्टा, रमेश शर्मा, ओमप्रकाश सारस्वत, अशोक हंस, श्रीनिवास जोशी, डा. व्यथित, कमल हमीरपुरी व कृष्णचंद्र महादेविया के योगदान का रंगमंच सज जाता है। पुस्तक हिमाचल के साहित्यिक व्यक्तित्व में हर विधा के इतिहास को रूपांतरित करती जब निबंध साहित्य का उल्लेख करती है, तो यशपाल की परंपराओं को मनोहर लाल, प्रेम पखरोलवी, सुदर्शन वशिष्ठ, हरिश्चंद्र पराशर, हिमेश, जयदेव विद्रोही, जगदीश शर्मा, रमेशचंद्र मस्ताना, प्रभात शर्मा, डा. सूरत ठाकुर, डा. शंकर वशिष्ठ से अमरदेव आंगिरस तक ले आती है। इसी तरह आलोचना एवं समीक्षा के तहत हुई पड़ताल को संतराम शर्मा, डा. तुलसी रमण, डा. आशु फुल्ल, डा. नीरजा सूद, डा. ललिता शर्मा, डा. सत्यपाल शर्मा व डा. शकुंतलता राणा आदि के समीप खड़ा कर देती है।

किताब साहित्यिक इतिहास को समर्पित है, तो डा. फुल्ल बाल साहित्य, पत्र-पत्रिकाओं, व्यंग्य, यात्रा, जीवनी से संस्मरण तक की खाक छान कर ला रहे हैं। हिमाचल में बाल साहित्य में मस्तराम कपूर, अर्चना फुल्ल, डा. राममूर्ति गिरिधर योगेश्वर, प्रत्यूष गुलेरी, सैन्नी अशेष, हरिकृष्ण मुरारी, पवन चौहान, कृष्णा अवस्थी व संतराम वत्स्य तक पसरे बाल मनोविज्ञान की विधा में साहित्य की चमक ले आते हैं। हिमाचल में व्यंग्य की धार को पैना करते डा. ओमप्रकाश सारस्वत, सुदर्शन वशिष्ठ, अजय पाराशर, अशोक गौतम, प्रभात कुमार, गुरमीत बेदी व कल्याण जग्गी के अलावा डा. मनोहर लाल व रत्न सिंह हिमेश की रचनाधर्मिता को शोधपूर्ण सलाम करती यह पुस्तक हिमाचल के साहित्यकारों की जगह सुनिश्चित करते हुए, इनके लेखन के कद्दावर पक्ष का विमोचन कर रही है। जाहिर है यह पुस्तक इस तरह के प्रकाशन की साहित्यिक मिलकीयत से निकले अध्ययन की परिपाटी को प्रदेश के विश्वविद्यालयों के प्रवेश द्वार तक पहुंचा रही है। अब यह हिमाचल के विश्वविद्यालयों के प्रशासन को चाहिए कि इस पुस्तक को साहित्य के पाठ्यक्रम की अनिवार्यता से जोड़ें।

-निर्मल असो

पुस्तक का नाम : हिमाचल का हिंदी साहित्य का इतिहास
लेखक : डा. सुशील कुमार फुल्ल
प्रकाशक : इंद्रप्रस्थ प्रकाशन
कीमत : 1395 रुपए


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