हिमाचली हिंदी कहानी : विकास यात्रा : किस्त-21

By: Sep 2nd, 2023 7:52 pm

कहानी के प्रभाव क्षेत्र में उभरा हिमाचली सृजन, अब अपनी प्रासंगिकता और पुरुषार्थ के साथ परिवेश का प्रतिनिधित्व भी कर रहा है। गद्य साहित्य के गंतव्य को छूते संदर्भों में हिमाचल के घटनाक्रम, जीवन शैली, सामाजिक विडंबनाओं, चीखते पहाड़ों का दर्द, विस्थापन की पीड़ा और आर्थिक अपराधों को समेटती कहानी की कथावस्तु, चरित्र चित्रण, भाषा शैली व उद्देश्यों की समीक्षा करती यह शृंखला। कहानी का यह संसार कल्पना-परिकल्पना और यथार्थ की मिट्टी को विविध सांचों में कितना ढाल पाया। कहानी की यात्रा के मार्मिक, भावनात्मक और कलात्मक पहलुओं पर एक विस्तृत दृष्टि डाल रहे हैं वरिष्ठ समीक्षक एवं मर्मज्ञ साहित्यकार डा. हेमराज कौशिक, आरंभिक विवेचन के साथ किस्त-21

हिमाचल का कहानी संसार

विमर्श के बिंदु

1. हिमाचल की कहानी यात्रा
2. कहानीकारों का विश्लेषण
3. कहानी की जगह, जिरह और परिवेश
4. राष्ट्रीय स्तर पर हिमाचली कहानी की गूंज
5. हिमाचल के आलोचना पक्ष में कहानी
6. हिमाचल के कहानीकारों का बौद्धिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक व राजनीतिक पक्ष

लेखक का परिचय

नाम : डॉ. हेमराज कौशिक, जन्म : 9 दिसम्बर 1949 को जिला सोलन के अंतर्गत अर्की तहसील के बातल गांव में। पिता का नाम : श्री जयानंद कौशिक, माता का नाम : श्रीमती चिन्तामणि कौशिक, शिक्षा : एमए, एमएड, एम. फिल, पीएचडी (हिन्दी), व्यवसाय : हिमाचल प्रदेश शिक्षा विभाग में सैंतीस वर्षों तक हिन्दी प्राध्यापक का कार्य करते हुए प्रधानाचार्य के रूप में सेवानिवृत्त। कुल प्रकाशित पुस्तकें : 17, मुख्य पुस्तकें : अमृतलाल नागर के उपन्यास, मूल्य और हिंदी उपन्यास, कथा की दुनिया : एक प्रत्यवलोकन, साहित्य सेवी राजनेता शांता कुमार, साहित्य के आस्वाद, क्रांतिकारी साहित्यकार यशपाल और कथा समय की गतिशीलता। पुरस्कार एवं सम्मान : 1. वर्ष 1991 के लिए राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार से भारत के राष्ट्रपति द्वारा अलंकृत, 2. हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा राष्ट्रभाषा हिन्दी की सतत उत्कृष्ट एवं समर्पित सेवा के लिए सरस्वती सम्मान से 1998 में राष्ट्रभाषा सम्मेलन में अलंकृत, 3. आथर्ज गिल्ड ऑफ हिमाचल (पंजी.) द्वारा साहित्य सृजन में योगदान के लिए 2011 का लेखक सम्मान, भुट्टी वीवर्ज कोआप्रेटिव सोसाइटी लिमिटिड द्वारा वर्ष 2018 के वेदराम राष्ट्रीय पुरस्कार से अलंकृत, कला, भाषा, संस्कृति और समाज के लिए समर्पित संस्था नवल प्रयास द्वारा धर्म प्रकाश साहित्य रतन सम्मान 2018 से अलंकृत, मानव कल्याण समिति अर्की, जिला सोलन, हिमाचल प्रदेश द्वारा साहित्य के लिए अनन्य योगदान के लिए सम्मान, प्रगतिशील साहित्यिक पत्रिका इरावती के द्वितीय इरावती 2018 के सम्मान से अलंकृत, पल्लव काव्य मंच, रामपुर, उत्तर प्रदेश का वर्ष 2019 के लिए ‘डॉ. रामविलास शर्मा’ राष्ट्रीय सम्मान, दिव्य हिमाचल के प्रतिष्ठित सम्मान ‘हिमाचल एक्सीलेंस अवार्ड’ ‘सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार’ सम्मान 2019-2020 के लिए अलंकृत और हिमाचल प्रदेश सिरमौर कला संगम द्वारा डॉ. परमार पुरस्कार।

डा. हेमराज कौशिक
अतिथि संपादक
मो.-9418010646

-(पिछले अंक का शेष भाग)
आंचलिक भाषा का कथा सूत्रों और चरित्रों में रचा बसा स्वरूप संवादों में स्वाभाविक रूप में जीवंतता से मूर्तिमान हुआ है। यहां यह उल्लेखनीय है कि संदर्भित कहानी संग्रह की पांडुलिपि प्रकाशन से पूर्व उदयपुर में आयोजित प्रतियोगिता में अपनी उत्कृष्टता के कारण पुरस्कृत हुई थी और हिंदी के प्रतिष्ठित लेखक नंद चतुर्वेदी ने इस कहानी संग्रह की भूमिका ‘अर्थ तंत्र का आतंक और यातना का मिजाज’ शीर्षक के अंतर्गत लिखी है। नरेंद्र निर्मोही की कहानियों के संबंध में वे कहते हैं, ‘दरअसल इन कहानियों में यहां से वहां तक फैले हुए अर्थ तंत्र का आतंक नरेंद्र को न चाहते हुए भी चित्रित करना पड़ा है जिसमें हम जिंदगी के समानांतर बहती हुई यात्रा का मिजाज और उसके दबाव को समझ सकें। नरेंद्र निर्मोही की कहानियां न आक्रामक हैं, न यथार्थ का रूमानी रंग ही देती हैं, वहां संकट निवारण के लिए पूर्व निर्धारित किन्हीं उपचारों का उल्लेख नहीं है। कथ्य रूपों की बनावट में से ही व्यवस्था के बदलाव की हरकत होती है।’ निर्मोही की ‘दृश्य-अदृश्य’ कहानी भीमा, पारसा और लूनाराम की भयावह निर्धनता और वीसा महर और उनके लट्ठैतों की निर्ममता, जमीन हड़पने की उनकी साजिशों को अनावृत करती है। निम्न मध्य वर्ग विषम परिस्थितियों की यंत्रणाओं से उत्पीडि़त होकर किस तरह परिस्थितियों के भंवर में कत्ल के अपराध में जेल की सजा भोगता है, उसका यथार्थ यह कहानी परत दर परत अनावृत करती है। ‘तलाश’ में कहानीकार ने पुरुष सत्तात्मक समाज में नारी नियति की तलाश की है। अनाम लडक़ी के समक्ष घर को परिवार से परिभाषित करने का प्रश्न है। नैरेटर अनाम लडक़ी से भेंट करने पर सोचता है- आखिर हमारे घर घर क्यों नहीं है? हर घर मरघट में तब्दील क्यों होता जा रहा है? घर की धुरी तो नारी है, घरों का टूटना-बनना, बिखरना नारी की ही कहानी है। अनाम लडक़ी नैरेटर से कहती है- घर आदमी का होता है, औरत का नहीं, आदमी जब चाहे औरत को घर से निकाल दे।

कहानीकार यह स्थापित करता है कि घर की कोई नई परिभाषा होनी चाहिए जहां बराबरी की साझेदारी हो। लेकिन यह तभी संभव है जब हमारी मान्यताओं और धारणाओं में आमूल परिवर्तन हो। सामंती मूल्य आज भी हमारी सोच पर कुंडली मारकर बैठे हुए हैं। ‘छोटे-छोटे पहाड़’ में पर्वतीय जीवन की दुश्वारियों का चित्रण है। पहाड़ पर्यटकों के लिए प्राकृतिक सौंदर्य से अभिभूत करते हैं, परंतु जिनका जीवन पहाड़ों में बीतता है, उन कठिनाइयों को यह कहानी उस यथार्थ को अनावृत करती है। ‘बारहखड़ी’ वर्तमान शिक्षा पद्धति की जड़ता और अध्यापकों की जड़ सोच और अध्यापन के प्रति समर्पण के अभाव को व्यंग्य के धरातल पर प्रस्तुत करती है। नए अध्यापक शिक्षण संस्थानों में नवीन ऊर्जा और नए नवाचारों के साथ आते हैं, परंतु वे विद्यालय के जड़ वातावरण में समय के साथ ढल जाते हैं और संस्थान पुराने ढर्रे पर ही चलते रहते हैं। ‘संतो’ शीर्षक कहानी में कहानीकार ने संतो के जीवन के संघर्ष, पति के यूनियन में सक्रिय भूमिका के कारण पहले छंटनी, फिर हत्या, विधवा संतो का संकटमय जीवन, दो बच्चों के पालन पोषण की चिंता, अनाज के दाने के लिए तरसना, विधवा नारी के प्रति कालू जैसे नर पिशाचों की कुदृष्टि और रात्रि को अनाज आदि का लालच देकर वासना पूर्ति का साधन बनाने का निष्फल प्रयत्न, प्रतिरोध के कारण संतो की हत्या के प्रयत्न में स्वयं कालू का साथी हत्या का शिकार होता है। संतो की हिम्मत से स्वयं संतो के हंसिये से मर जाता है। इस अपराध में संतो जेल की सलाखों के पीछे पहुंचती है। वहां रोटी देखकर कहती है, काश! उसे कोई बता देता कि जेल में रोटी मिल जाती है तो बडक़ी कम से कम भूख से तो न मरती। ‘सफर दर सफर’ एक ड्राइवर के जीवन की कठिनाइयों और समाज के उसके प्रति दृष्टिकोण को रेखांकित करती है। कहानी में ड्राइवर अपनी जिंदगी का प्रत्यवलोकन करता है। वह अपनी जिंदगी को परत दर परत खोलता है। उसकी जिंदगी में कभी थोड़ा ठहराव आया हो उसे याद नहीं। उसे याद है तो बस यही कि ट्रांसपोर्टर का आदमी तबीयत से कुछ नहीं कर सकता, न शादी, न घर, न प्रेम, न मोहब्बत, न नींद, आराम-मरना भी हड़बड़ी में होता है और जीना भी। संदर्भित संग्रह की शीर्ष कहानी ‘तुरुपचाल’ में गांव के जमीदारों के शोषणमूलक चेहरे को रमेसर की चरित्र सृष्टि के माध्यम से अनावृत्त किया है। किस प्रकार पंचायत में वह निर्णायक भूमिका में दलित वर्ग का उत्पीडऩ करता है।

बंती ऐसी ही एक दलित विधवा स्त्री है जो नितांत निर्धनता और अभाव भरी जिंदगी जीर्ण-शीर्ण झोंपड़ी में बिताती है। जीवन पर्यंत संघर्ष करते हुए कहीं अपने लिए ठिकाना नहीं बना पाती। संपन्न वर्ग की शोषणमूलक प्रकृति को यह कहानी परत दर परत अनावृत करती है। प्रस्तुत कहानी में रूपा जब शहर में अपने मिट्टी के बर्तन बेचने जाता है तो रमेसर को अपना बड़प्पन आहत होता हुआ प्रतीत होता है। ऐसे में वह रूपा से प्रतिशोध लेने के लिए षड्यंत्र रचता है। ‘सुन सको तो’ शीर्षक कहानी में संतू निरपराधी होते हुए भी पकड़ लिया जाता है। उस पर यह आरोप लगाया जाता है कि उसने मजिस्ट्रेट की बेटी से छेड़छाड़ की है, परंतु वह पुलिस की निर्मम पिटाई के बावजूद झूठे अपराध को स्वीकार नहीं करता। लडक़ा पुलिस की मार से अधमरा हो जाता है। अंत में पता चलता है कि मजिस्ट्रेट की लडक़ी अपनी मर्जी से प्रेमी के साथ फरार हो गई है। पुलिस की निर्ममता को कहानी रेखांकित करती है। निर्दोष संतू को निर्ममता से पीटने को लेकर पुलिस खेद भी प्रकट नहीं करती। ‘नियति के दंश’ में कहानीकार ने गणेसी के माध्यम से स्थापित किया है कि किस प्रकार परिस्थितियां व्यक्ति को बुराइयों की ओर ले जाती हैं। ‘दरार’ कहानी सांप्रदायिकता के विष को अनावृत करती है। भजना ताया की जीवन दृष्टि के माध्यम से हिंदू-सिक्ख सौहार्द का निरूपण किया है।

महेश चंद्र सक्सेना का पहला कहानी संग्रह ‘निरुपमा’ शीर्षक से प्रकाशित है। प्रस्तुत संग्रह में तुल बहादुर, निरुपमा, अंधकार में डूबे सूरज, झुलसते गुलाब आदि कहानियां सामाजिकार्थिक विसंगतियों और विडंबनाओं को रेखांकित करने के साथ नारी उत्पीडऩ और शोषण को यथार्थ के धरातल पर अभिव्यंजित करती हैं। डा. ओमप्रकाश सारस्वत की उनकी कहानियों के संबंध में टिप्पणी है, ‘संग्रह की कहानियां यथार्थ और वास्तविकताओं से निर्मित होकर सोद्देश्यता और सामाजिक प्रतिबद्धता को समर्पित हैं। कहानियों के प्लाट और पात्र कहीं भी आम जिंदगी के चौराहे पर पाए जा सकते हैं।’ नवें दशक में ही दीपा त्यागी का कहानी संग्रह ‘औरत का दर्द’ शीर्षक से प्रकाशित है। प्रस्तुत कहानी संग्रह में गरिमा, शुरुआत, तबादला, धुरी से बंधे हुए, उस पार का अंधेरा, बीमार शहर, अनजाने रिश्ते, तलाक के बाद, दिशाहीन, अहसास, खोया हुआ सुख, विभूति, लडक़े, नपुंसक और औरत का दर्द कहानियां संग्रहीत हैं। दीपा त्यागी के संदर्भित संग्रह की कहानियों में दैनिक जीवन की कुंठाओं और विसंगतियों में जी रहे व्यक्ति के जीवन के अंतर द्वंद्वों, नारी के मनोभावों, समाज में उसके शोषण और उत्पीडऩ और स्वावलंबन के लिए उसके संघर्ष को विविध रूपों में उभरा है। उनकी कहानियां किसी न किसी समस्या पर केंद्रित हैं। मुख्यत: विवाह-तलाक, दहेज, कामकाजी महिलाओं का संघर्ष और कठिनाइयों को कहानियों का प्रतिपाद्य बनाया है। ‘गरिमा’ शीर्षक कहानी में एक स्त्री की दूसरी स्त्री के प्रति ईष्र्या भावना को रेखांकित किया है। ‘तबादला’ कहानी में स्थानांतरण के अनंतर उत्पन्न होने वाली समस्याओं को निरूपित किया है। ‘धुरी से बंधे हुए’ शीर्षक कहानी भारतीय नारी की परिवार और पति के प्रति प्रतिबद्धता रेखांकित करती है। ‘उस पार का अंधेरा’ सांप्रदायिक सद्भाव की कहानी है। ‘अनजाने रिश्ते में’ एक तलाकशुदा स्त्री की व्यथा की अभिव्यंजना है। ‘दिशाहीन’ कहानी महिलाओं की दफ्तर की समस्याओं पर केंद्रित है। ‘एहसास’, ‘खोया हुआ सुख’, ‘औरत का दर्द’ आदि कहानियां पारिवारिक रिश्तों और पति-पत्नी संबंध से संबद्ध समस्याओं को निरूपित करती हैं।

नवें दशक में सुदर्शन वशिष्ठ ने चार कहानी संग्रहों ‘खुलते अमलतास’ (1983), ‘घाटियों की गंध’ (1985), ‘काले हाथ और लपटें’ (1985) और ‘दो उंगलियां और दुष्चक्र’ (1986) का संपादन किया है। ‘खुलते अमलतास’ में उन्होंने अ_ारह कहानीकारों की कहानियां- बसंती (ज्ञान वर्मा), कटान होई गया (कुलदीप चंदेल), जो लिखा नहीं जाता (राजकुमार कमल), मोहभंग (डॉ. जय इंद्र पाल सिंह), राम की हत्या (भगवान देव चैतन्य), विनाश काले (गिरधर योगेश्वर), अपराध बोध (केशव चंद्र), भावनाओं की व्यथा (जगदीश शर्मा), मोहभंग (राणा रवि सिंह शाहीन), दोस्ती के उपहार (कमल प्यासा), टुकड़े-टुकड़े विश्वास (डॉ. प्रत्यूष गुलेरी), परित्यक्ता (दिनेश धर्मपाल), विधायक (हेमकांत कात्यायन), पहिए और निशान (नागेश भारद्वाज), अनुदान की भैंस (विनोद हिमाचली), खोया हुआ आदमी (अशोक सरीन), चंदो की वापसी (मोतीलाल घई), बलि वेदी (स्व. लोक रंजन) संगृहीत हैं।

संदर्भित संपादित संग्रह के प्रारंभ में संपादक सुदर्शन वशिष्ठ ने यह स्पष्ट किया है, ‘नए रचनाकारों का संग्रह एक नया प्रयोग है। सफल या असफल बाद में, पहले केवल प्रयोग। इस प्रयोग में नए कहानीकार हैं जिनकी अभी छिटपुट रूप से इधर-उधर रचनायें निकली हैं, हिमाचल में और हिमाचल के बाहर भी। इनमें से कौन रचनाधर्मिता को निभाए चला जाता है, कौन छोड़ देता है यह देखना है।’ इस संग्रह में अंतिम कहानी दिवंगत कथाकार लोक रंजन की है, जिन्हें संपादक ने यह कहानी संग्रह समर्पित किया है। यह कहानी उन्होंने उन्नीस वर्ष की आयु में 15 सितंबर 1946 को लिखी थी। इक्कीस वर्ष की आयु में (जन्म 2 जनवरी 1927, मृत्यु 29 फरवरी 1948) में क्षयरोग से ग्रस्त होने पर उनका असामयिक निधन हो गया था। संपादक ने यह उद्घाटित किया है कि लोक रंजन हिमाचल के वरिष्ठ साहित्यकार चंद्र शेखर बेबस के पुत्र थे और किशोरावस्था में ही कविता, कहानी आदि में सृजन करने लगे थे। प्रस्तुत संग्रह की बसंती, कटान होई गया, अनुदान की भैंस, टुकड़े-टुकड़े विश्वास, चंदो की वापसी आदि कहानियां ग्रामीण परिवेश को मुखरित करती हैं। इनमें पहाड़ी जीवन की कठिनाइयों और समस्याओं को उभारा है। ‘विधायक’ में राजनीति का भ्रष्ट स्वरूप चित्रित है। लोक रंजन की ‘बलि वेदी’ में प्रेम और देशभक्ति का अनूठा समन्वय है। ‘घाटियों की गंध’ (1985) में संपादक सुदर्शन वशिष्ठ ने कहानी के क्षेत्र में पुराने और नए चौदह कहानीकारों को सम्मिलित किया है। इसमें उभरते कहानीकारों की कहानियों को संगृहीत किया है, यथा सूरज की भटकन (राजकुमार कमल), तबादला (राजकुमार राकेश), ज्ञान वर्मा (पर्वत की बेटी), पथराती आंखों की बात (सैन्नी अशेष), मुंडू (लै. कर्नल विष्णु शर्मा), उन्मुक्त बंधन (नरेंद्र अरुण), मानवी (खेमराज गुप्त सागर), अपना पराया (केशव चंद्र), आस्था! (दिनेश धर्मपाल), छलांग (डॉ. जय इंद्रपाल पाल), पल भर का एहसास (राणा रवि सिंह शाहीन), पीछे लौटता मन (डा. राममूर्ति बासुदेव प्रशांत), वे आवाज चीख (भगवान देव चैतन्य), घर की कलह (कुलदीप चंदेल)।                                                                                                                                                      -(शेष भाग अगले अंक में)

पुस्तक समीक्षा : पार्थिवता में देवत्व की तलाश करती कविताएं
साहित्यकार राकेश प्रेम का काव्य संग्रह ‘अस्ति-नास्ति’ प्रकाशित हुआ है। बिंब-प्रतिबिंब प्रकाशन, फगवाड़ा से प्रकाशित इस कविता संग्रह की कीमत 250 रुपए है। राकेश प्रेम की कविताएं जिन चार शीर्षकों में इस संकलन में समाहित हैं, वे प्रकृति, जीव, जगत और मन हैं। स्मरण में यह बात आ सकती है कि वैदिक ऋषियों ने जिस दिव्य तत्त्व की खोज की थी, वह प्रकृति ही थी। इस प्रकृति को कवि ने मनुष्य की अंत: प्रकृति के रूप में आयामित किया है। जीव उपशीर्षक की कविताओं में देहधर्मिता दृष्टिपथ में आ जाती है। जीव और जगत परस्पर संबद्ध हैं। परा और अपरा का संयोग और वियोग का खेल कवि से छिपा नहीं रह पाया है। मन शीर्षक की पहली कविता में संतों की वाणी, भक्तों के भजन, गीता के उपदेश तथा वेदांत का सार घुल-मिल गया है। मन जब बांधता है, तो स्नेह, प्रेम, लालसा, दु:ख, करुणा, क्षमा के आवेग प्रस्फुटित होते हैं और मोक्षदायी विज्ञान की ऊध्र्वता में तटबंधों से अनुशासित होते दिखाई देते हैं। संग्रह की कविताओं में विविध भावों की अभिव्यक्ति हुई है। कठिन विषयों को पेश करते हुए कवि प्रकृति, जीव, जगत और मन की अनुभूति करवाते हैं। ‘आत्मा’ से परिचय करवाते हुए कवि कहता है : ‘जगत में व्याप्त स्पंदन-सी/मूच्र्छा में सजग ज्ञान-सी/अधिष्ठात्री जीवन की!/जिसे न तो जला सकती है अग्नि/ न धार सकती है काया, अंग-उपांग की तरह/अणु-परमाणुओं में है जो स्फुलिंग-कण/शाश्वत, सत्यस्वरूपा!!’ इसी तरह मन की व्याख्या करते हुए कवि कहता है : ‘मन है कोठरी काजल की/मन है धारा निर्मल सुरसरिता की/मन है साधना किसी हठयोगी की!’ संग्रह की अन्य कविताएं भी मन को आकर्षित करती हैं। कुल मिलाकर कहें तो ये कविताएं पार्थिवता में देवत्व की तलाश करती हुई लगती हैं।                                                                                                                                                                                -फीचर डेस्क

फुल्ल जी से साक्षात्कार : साहित्य का इतिहास लिखने को और प्रयासों की जरूरत

उपन्यास, कहानी, नाटक, बाल साहित्य, जीवनी साहित्य, समीक्षा, बाल साहित्य, हिमाचल का हिन्दी साहित्य के इतिहास पर निरन्तर कलम चलाने वाले डॉ. सुशील कुमार फुल्ल किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। लगभग डेढ़ वर्ष में ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित हुईं। इनमें हिमाचल का हिन्दी साहित्य का इतिहास श्रमसाध्य ग्रंथ अत्यंत महत्वपूर्ण है। उनसे साक्षात्कार में कुछ प्रश्न पूछे जो पाठकों से सांझा कर रहे हैं :

प्रश्न : साहित्य का इतिहास लिखना अत्यन्त श्रम साध्य कार्य है। आपके मन में हिमाचल का हिन्दी साहित्य लिखने की बात कैसे पनपी?
उत्तर : साहित्येतिहास लेखन की प्रेरणा का स्रोत वस्तुत: सन् 1976 में भाषा एवं संस्कृति, विभाग शिमला द्वारा आयोजित साहित्यिक गोष्ठी में निहित है, जिसमें चार विद्वानों को हिमाचल की हिन्दी कविता पर अपने वक्तव्य देने थे। चारों में से किसी ने भी शोध पत्र नहीं लिखा था, केवल अनुमान या हवा में तैरती हुई उपलब्ध जानकारी के आधार पर भाषण हुए। डॉ. अनिल राकेशी ने कहा-हिमाचल के हिन्दी साहित्य पर कोई सामग्री एक स्थान पर उपलब्ध नहीं है। मेरे लिए उस गोष्ठी से मिला यह सूत्र ही ‘हिमाचल का हिन्दी साहित्य’ लिखने का कारण बना।
प्रश्न : आपकी 2022 से 2023 में लगभग 15 मास में ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। आपके शब्दों में ही मैं यह प्रश्न पूछने की जुर्रत कर रही हूं कि आपका अत्यधिक लेखन क्या किसी टकसाल में ढल रहा है। पुस्तक लेखन से व्यक्ति शारीरिक व मानसिक रूप से थक जाता है। आपकी क्रियाशीलता का राज?

 उत्तर : एक साथ कई पुस्तकों का प्रकाशित हो जाना सुखद भी होता है, लेकिन कतिपय समस्याओं का कारण भी बनता है। अधिक पुस्तकें एक साथ आएं तो पाठकों का ध्यान बंट जाता है। वास्तव में लिखना पढऩा पुस्तकों की समीक्षा करने में ही मेरा सारा समय व्यतीत होता है। ये पुस्तकें वर्षों से लेखनाधीन थीं, लेकिन छपी एक दो वर्ष में ही। ‘हिमाचल का हिन्दी साहित्य का इतिहास’ से पहले ‘हिन्दी साहित्य का सुबोध इतिहास’ एक महत्वपूर्ण कृति के रूप में मार्किट में आया। अब ‘चन्द्रधर शर्मा गुलेरी’ की सम्पूर्ण कहानियां, अनुपम हिमाचल, ‘मिट्टी की गन्ध’ और ‘हारे हुए लोग’ उपन्यासों के अंग्रेजी अनुवाद ‘दी आउट साईडर’ तथा ‘दी एस्केपिस्ट’ छपे हैं। ‘फैसीनेटिंग शार्ट स्टोरीज’ पुस्तक सम्पादित की है। ‘खिसकती हुई जमीन’ और ‘उड़ान’ उपन्यास आए हैं। ‘मुक्तिद्वार’ तथा अन्य कहाानियां प्रकाशित हुई हैं। ‘कारगिल का हीरो विक्रम बत्तरा’ भी आ गई। और भी दो तीन पुस्तकें सितम्बर में आ जाएंगी।

प्रश्न : कहानी के क्षेत्र में आज का युवा लेखक कितना आगे बढ़ पाया है? क्या आज भी सहज कहानियों के मानदण्ड पर कुछ कहानियां लिखी जा रही हैं?

उत्तर : आज का युवा कहानीकार रचनात्मकता की ऊहापोह में ही खो गया है और बड़ी सरल सपाट कहानियां लिखने में लीन है। सहज कहानी के मानदण्डों के अनुसार कहानी लिखने वाले कम ही लोग हैं, जो कलात्मकता संश्लिष्ट कहानियों में मिलती थी, वह कहीं पुराने लेखकों तक ही सीमित रह गई है। फिर भी कुछ लोग कहानी के क्षेत्र में अच्छी कहानियां लिख रहे हैं। हिमाचल के कवियों की संख्या असंख्य है, कहानीहार भी कम नहीं, लेकिन स्तरीय, श्रेष्ठ कहानियां बहुत कम लिखी जा रही हैं।

प्रश्न : आपने कहानी, उपन्यास, बाल साहित्य, जीवनी साहित्य, समीक्षा, हिमाचल के हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन पर वर्चस्व कायम किया है। इस बार व्यंग्य-यात्रा पत्रिका में आपका व्यंग्य प्रकाशित हुआ है। क्या भविष्य में आपका झुकाव व्यंग्य लेखन की ओर रहेगा। उत्तर : व्यंग्य मेरे लिए कोई नई विधा नहीं है। मेरी अधिकांश कहानियां व्यंग्य कहानियां हैं, जो पात्रों के माध्यम से तीखा कटाक्ष करती हैं, चिकोटी काटती हैं और टारगेट पात्र को कुलबुलाने-छटपटाने पर मजबूर करती हैं। ‘व्यंग्य यात्रा’ में प्रकाशित मेरा व्यंग्य ‘रिकवरी एजेन्ट’ भले ही 2023 छपा है….. इसी वर्ष ‘हम बैठे हैं न’ व्यंग्य प्रकाशित हुआ है। आज से तीस वर्ष पहले एक व्यंग्य ‘हिमप्रस्थ’ में ‘संपादक से लेखक की नोंकझोंक’ भी छपा था… हां, अन्य विधाओं के साथ-साथ व्यंग्य लिखने की ललक भी उभर रही है …जैसे लालित्य ललित हर रोज व्यंग्य लिखते हैं … कुछ वैसी ही।

प्रश्न : क्या आप हिमाचल के हिन्दी साहित्य के इतिहास व अन्य प्रकाशकों से संतुष्ट हैं?

उत्तर : मैं सभी लेखकों से संवाद करने के लिए तत्पर रहता हूं और यह जानने का प्रयत्न करता हूं कि साहित्य में उनके सरोकार क्या हैं? और वे क्यों लिखते हैं। अपने वर्षों के श्रम से उपजी पुस्तक ‘हिमाचल का हिन्दी साहित्य का इतिहास’ से मैं संतुुष्ट भी हूं, असंतुष्ट भी। सन्तुष्ट इसलिए कि मैंने कालक्रम के अनुसार हिमाचल के साहित्यिक अवदान को अनुशासन देने का प्रयत्न किया है, परन्तु जो नए लेखक उल्लेख से छूट गए हैं, अज्ञानवश या प्रमादवश…. उसके लिए असंतुष्ट हूं अपने आप से, परन्तु शीघ्र ही उनका परिचय मिलने पर उन्हें परिशिष्ट पुस्तिका के माध्यम से इसी पुस्तक में जोड़ दूंगा। सामग्री/सूचना एकत्रित कर रहा हूं, आपके पास हो तो मुझे तुरंत भेजें। साहित्येतिहास लेखन यज्ञ के समान है, सबको इसमें आहुति डालनी चाहिए ताकि संकल्प पूरा हो।                               -सरोज परमार


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