हिमाचली हिंदी कहानी : विकास यात्रा : किस्त-23

By: Sep 16th, 2023 7:22 pm

कहानी के प्रभाव क्षेत्र में उभरा हिमाचली सृजन, अब अपनी प्रासंगिकता और पुरुषार्थ के साथ परिवेश का प्रतिनिधित्व भी कर रहा है। गद्य साहित्य के गंतव्य को छूते संदर्भों में हिमाचल के घटनाक्रम, जीवन शैली, सामाजिक विडंबनाओं, चीखते पहाड़ों का दर्द, विस्थापन की पीड़ा और आर्थिक अपराधों को समेटती कहानी की कथावस्तु, चरित्र चित्रण, भाषा शैली व उद्देश्यों की समीक्षा करती यह शृंखला। कहानी का यह संसार कल्पना-परिकल्पना और यथार्थ की मिट्टी को विविध सांचों में कितना ढाल पाया। कहानी की यात्रा के मार्मिक, भावनात्मक और कलात्मक पहलुओं पर एक विस्तृत दृष्टि डाल रहे हैं वरिष्ठ समीक्षक एवं मर्मज्ञ साहित्यकार डा. हेमराज कौशिक, आरंभिक विवेचन के साथ किस्त-23

हिमाचल का कहानी संसार

विमर्श के बिंदु

1. हिमाचल की कहानी यात्रा
2. कहानीकारों का विश्लेषण
3. कहानी की जगह, जिरह और परिवेश
4. राष्ट्रीय स्तर पर हिमाचली कहानी की गूंज
5. हिमाचल के आलोचना पक्ष में कहानी
6. हिमाचल के कहानीकारों का बौद्धिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक व राजनीतिक पक्ष

लेखक का परिचय

नाम : डॉ. हेमराज कौशिक, जन्म : 9 दिसम्बर 1949 को जिला सोलन के अंतर्गत अर्की तहसील के बातल गांव में। पिता का नाम : श्री जयानंद कौशिक, माता का नाम : श्रीमती चिन्तामणि कौशिक, शिक्षा : एमए, एमएड, एम. फिल, पीएचडी (हिन्दी), व्यवसाय : हिमाचल प्रदेश शिक्षा विभाग में सैंतीस वर्षों तक हिन्दी प्राध्यापक का कार्य करते हुए प्रधानाचार्य के रूप में सेवानिवृत्त। कुल प्रकाशित पुस्तकें : 17, मुख्य पुस्तकें : अमृतलाल नागर के उपन्यास, मूल्य और हिंदी उपन्यास, कथा की दुनिया : एक प्रत्यवलोकन, साहित्य सेवी राजनेता शांता कुमार, साहित्य के आस्वाद, क्रांतिकारी साहित्यकार यशपाल और कथा समय की गतिशीलता। पुरस्कार एवं सम्मान : 1. वर्ष 1991 के लिए राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार से भारत के राष्ट्रपति द्वारा अलंकृत, 2. हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा राष्ट्रभाषा हिन्दी की सतत उत्कृष्ट एवं समर्पित सेवा के लिए सरस्वती सम्मान से 1998 में राष्ट्रभाषा सम्मेलन में अलंकृत, 3. आथर्ज गिल्ड ऑफ हिमाचल (पंजी.) द्वारा साहित्य सृजन में योगदान के लिए 2011 का लेखक सम्मान, भुट्टी वीवर्ज कोआप्रेटिव सोसाइटी लिमिटिड द्वारा वर्ष 2018 के वेदराम राष्ट्रीय पुरस्कार से अलंकृत, कला, भाषा, संस्कृति और समाज के लिए समर्पित संस्था नवल प्रयास द्वारा धर्म प्रकाश साहित्य रतन सम्मान 2018 से अलंकृत, मानव कल्याण समिति अर्की, जिला सोलन, हिमाचल प्रदेश द्वारा साहित्य के लिए अनन्य योगदान के लिए सम्मान, प्रगतिशील साहित्यिक पत्रिका इरावती के द्वितीय इरावती 2018 के सम्मान से अलंकृत, पल्लव काव्य मंच, रामपुर, उत्तर प्रदेश का वर्ष 2019 के लिए ‘डॉ. रामविलास शर्मा’ राष्ट्रीय सम्मान, दिव्य हिमाचल के प्रतिष्ठित सम्मान ‘हिमाचल एक्सीलेंस अवार्ड’ ‘सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार’ सम्मान 2019-2020 के लिए अलंकृत और हिमाचल प्रदेश सिरमौर कला संगम द्वारा डॉ. परमार पुरस्कार।

डा. हेमराज कौशिक
अतिथि संपादक
मो.-9418010646

-(पिछले अंक का शेष भाग)
डॉ. जियालाल हण्डू ने ‘हिमाचल की श्रेष्ठ कहानियां’ (1987) शीर्षक से कहानी संग्रह का संपादन किया है जिसमें अ_ारह कहानियां समाविष्ट हैं। प्रस्तुत संग्रह में साहित्यकार (डॉ. विद्याधर गुलेरी), भाग्य की विडंबना (सुशीला कटोच), पीले पत्तों का आशियाना (डॉ. जियालाल हण्डू), टूटते हुए (निर्मल फुल्ल), मोहभंग (रवि सिंह राणा), मिस्टर वीआईपी (त्रिलोक मेहरा), सीढ़ी दर सीढ़ी (डॉ. सुशील कुमार फुल्ल), संदीपा (प्रो. प्रिम), अंतिम इच्छा (नरेश कुमार उदास), विकल्प (सुरेश मिश्र), उपहार बिकते हैं (गजराज ठाकुर), विवृत (सुमन शर्मा), पुनिया का बैल (डॉ. शमी शर्मा), अंधेरा है (अश्विनी कुमार अवस्थी), कुहासा (कृष्णा अवस्थी), अनहोनी (सुभाष सागर), दर्द की फैलती छाया और टुटन एक बैसाखी की (डॉ. जियालाल हंडू) संगृहीत हैं। प्रस्तुत संपादित संग्रह रचना मंच पालमपुर के संकल्प की परिणिति है जिसमें प्रदेश के प्रतिष्ठित एवं उदीयमान कहानीकारों की वैचारिक और संवेदनात्मक जमीन से ली गई रचनात्मक उपज को पाठकों के सामने प्रस्तुत किया है। इसमें संपादक डॉ. जियालाल हण्डू का प्रस्तुत संग्रह के संबंध में कहना है, ‘सभी कहानियां आज के मानव के साथ जुड़ी हुई हैं। मानव के जीवन की समस्याओं, मानसिक उलझनों, विसंगतियों तथा विद्रूपताओं को उद्घाटित करने का प्रयत्न इनमें किया गया है। संवेदना के स्वरों से झंकृत इन कहानियों के विविध रंग मानव को हमारे सामने अपने यथार्थ रूप में प्रस्तुत करते हैं। हिमाचल के जीवन से संपृक्त इन कहनीकारों की कहानियों में केवल उतना ही सब कुछ नहीं है जो परंपरा से जुड़ा हुआ है, अपितु इनमें ऐसी बातें भी हैं जो नई और प्रेरणापूर्ण हैं।’

पीसीके प्रेम ने ‘आवाज’ (1988) शीर्षक से चौदह कहानीकारों की कहानियों का संपादन किया है। प्रस्तुत संपादित कहानी संग्रह में अपंग देश की राजकुमारी (डॉ. सुशील कुमार फुल्ल), डग्याली की रात (श्रीनिवास जोशी), खतरनाक लोग (सुदर्शन वशिष्ठ), आरंभ (विजय सहगल), लाल चूड़ा : सफेद बाल (डॉ. पीयूष गुलेरी), सुलगती लकड़ी (जगदीश शर्मा), संभावनाओं के आकाश लोक (सीआरबी ललित), सुगंध (चंद्र मधुर), इलाज (डॉ. पुष्प लता शर्मा), बनना एक अफसर का (आनंद), दोषी (ओमप्रकाश शांत), उपहार (विनोद कुमार लखनपाल), भावना और कत्र्तव्य (कुंवर हरि सिंह) और रिश्ते (पीसीके प्रेम) संगृहीत हैं। प्रस्तुत संपादित संग्रह के प्रारंभ में संपादक पीसीके प्रेम ने ‘आप से’ शीर्षक के अंतर्गत प्रेमचंद की हिंदी कहानी में पदार्पण से लेकर स्वातंत्र्योत्तर काल में कहानी की संवेदना भूमि पर प्रकाश डाला है। संदर्भित संग्रह में समाविष्ट कहानीकारों के संबंध में पीसीके प्रेम का कहना है, ‘जीवन के विभिन्न पहलुओं को उजागर करते हुए उन्होंने हर स्थिति का बखूबी से चित्रण किया है। उनका दायरा अपना है, एहसास और अनुभव निजी है और इन्हीं के बलबूते पर रचना अपने अस्तित्व का आभास करवाती है। समय के बदलते तेवरों के साथ मानवीय मूल्यों का सपाट आकलन, संबंधों की अपरिचयता एवं कुढऩ की अभिव्यक्ति, टूटते संस्कारों व बहती परंपराओं की विडंबना एवं उनकी तीखी ब्यानी ‘आवाज’ में संकलित कहानियों का आधार है।’ डॉ. सुशील कुमार फुल्ल की ‘अपंग देश की राजकुमारी’ में वैधव्य जीवन यापन करने वाली स्त्री की कारुणिक नियति की मार्मिक प्रस्तुति है। श्रीनिवास जोशी की ‘डग्याली की रात’ आंचलिक परिवेश में विन्यस्त कहानी है। प्रस्तुत कहानी में ठाकुर की सामंती मनोवृत्ति और विलासिता मुखर हुई है। डग्याली वाली रात्रि को निम्न मध्यम वर्गीय युवक को बहाना बनाकर अपने घर से भेज देता है और उसकी मंगेतर को रात्रि को अपने पास रख लेता है।

सुदर्शन वशिष्ठ की ‘खतरनाक लोग’ कॉलेज के उन तीन उद्दण्ड और उच्छृंखल सहपाठियों की कहानी है जिनमें से बाद में एक विधायक बन जाता है और उसके लफंगे सहपाठी उसके सहयोगी बनते हैं और गुंडागर्दी करके उसे स्थापित करते हैं। ‘आरंभ’ में रिश्तों में आई स्वार्थपरता मालती के संदर्भ में निरूपित की है। सीआरबी ललित की कहानी ‘संभावनाओं के आकाश में’ गांव से शहर आकर एक ऑफिसर के रूप में नियुक्त होकर अपना दायित्व कत्र्तव्यनिष्ठा और ईमानदारी से करता है, परंतु वह अनुभव करता है कि दूसरे लोगों के मध्य वह अकेला पड़ गया है। चंद्र मधुर की कहानी ‘सुगंध’ एक सत्यनिष्ठ और ईमानदार सेशन जज के निजी जीवन की सादगी और सार्वजनिक जीवन में उसकी प्रतिष्ठा की सुगंध को मूर्तिमान करती है। ‘दोषी’ और ‘उपहार’ पुरुष द्वारा धोखे की शिकार स्त्रियों के उत्पीडऩ को रेखांकित करती हैं। ‘सुलगती लकड़ी’ संतति की उपेक्षा की शिकार मां की व्यथा कथा है। डॉ. पीयूष गुलेरी की ‘लाल चूड़ा : सफेद बाल’ कहानी में हिंदू-सिक्ख के भ्रातृत्व और देश प्रेम की भावना की व्यंजना है। इसमें निजी प्रेम की अपेक्षा देश प्रेम को महत्त्व प्रदान किया गया है। ‘उपहार’ में पति के धोखे की शिकार पत्नी का यथार्थ चित्रण है। वह पति को विदेश जाने के लिए हरसंभव सहायक बनती है, परंतु वह लौटता है तो मेम को लेकर, इस आघात को सहन न करने के कारण पत्नी आत्महत्या कर देती है। पीसीके प्रेम की कहानी ‘रिश्ते’ में मानवीय संबंधों का सूक्ष्म विश्लेषण है।

डॉ. सुशील कुमार फुल्ल और पीसीके प्रेम ने संयुक्त रूप में ‘धुंध में उगते सूरज’ शीर्षक कहानी संग्रह का संपादन किया है। प्रस्तुत संग्रह में बोल मुई बोल (मस्तराम कपूर), गरबा (महाराज कृष्ण काव), नकेल (फकीरचंद शुक्ला), शहरदारी (हेमराज निर्मम), पगली (प्रवीन शर्मा), खो चुके दिन (विजय सहगल), बुआ (त्रिलोक मेहरा), छोटा टेलीफोन : बड़ा टेलीफोन (केशव), घर बोला (सुदर्शन वशिष्ठ), हाटू शिखर (हरिराम जस्टा), पश्चाताप (ज्ञान वर्मा), एक और उदास (सुदेश दीक्षित), फटी धरती : धंसते लोग (धनीराम पालमपुरी), भले लोग (देसराज डोगरा), बड़ी आंखों वाली (पीयूष गुलेरी), ठिठके हुए पल (बद्री सिंह भाटिया), मृगतृष्णा (मनोहर लाल अवस्थी), अपनी अपनी अनकही (प्रत्यूष गुलेरी), बिच्छू (पीसीके प्रेम), खडक़न्नू (सुशील कुमार फुल्ल) संगृहीत हैं। प्रस्तुत संग्रह के प्रारंभ में ‘खोई हुई कहानी की तलाश’ शीर्षक के अंतर्गत संपादक डॉ. फुल्ल ने कहानी के स्वरूप और अभिप्राय को स्पष्ट करते हुए कहानी की प्रासंगिकता को सामने लाया है। संपादित संग्रह की कहानियों के संबंध में उनका कहना है, ‘यहां एक साथ कई लेखकों की कहानियों को प्रकाशित किया जा रहा है। कहानी की आत्मा की तलाश है। अलग-अलग लेखकों का अलग-अलग स्वर एवं स्तर है। उनके तेवर अपने हैं। कथ्य समाज की धारा से जुड़े हैं। मैं ऐसा दावा तो नहीं करता कि वे वर्ष की या समसामयिक संदर्भों की श्रेष्ठ कहानियां हैं, लेकिन इतना विश्वास है कि किन्हीं अर्थों में ये विशिष्ट कहानियां हैं। खोई हुई आत्मा की तलाश में ये सहायक होंगी, इसके प्रति आश्वस्त हूं।’ इसके साथ ही पीसीके प्रेम ने भी संग्रह के प्रारंभ में ‘सहज कहानी बनाम समकालीन कहानी’ में कहानी के स्वरूप और कहानी की रचना प्रक्रिया को स्पष्ट किया है।

नरेश पंडित द्वारा संपादित कहानी संग्रह ‘हिमाचल की प्रगतिशील कहानियां’ (1990) शीर्षक से प्रकाशित है। प्रस्तुत संग्रह में कहानीकारों की पंद्रह कहानियां- डरपोक (जिया सिद्दीकी), धूएं में लुप्त एक याद (हिमेश), मिलते जुलते चेहरे (सुंदर लोहिया), मलवे में दबी जिंदगी (योगेश्वर शर्मा), स्केप गोट (सुशील कुमार फुल्ल), डग्याली की रात (श्रीनिवास जोशी), शेरनी की पूंछ (श्री वत्स), निरवंसिया अर्थात वंशहीन (राजकुमार राकेश), माता दिन अब नहीं है (विजय सहगल), शंकर दास की चि_ी (रेखा), खतरनाक लोग (सुदर्शन वशिष्ठ), उसका खुदा (अरुण भारती), बंजारे (रवि सिंह राणा शाहीन), चंदू (प्रकाश पंत) और मांस भात (नरेश पंडित) संगृहीत हैं। ‘डरपोक’ कहानी में जिया सिद्दीकी ने निम्न मध्यवर्गीय परिवारों की संस्कारहीनता और अव्यावहारिकता और पारिवारिक संरचना के विघटन की स्थितियों का निरूपण किया है। कहानी का प्रमुख चरित्र परिवार में किसी प्रकार की अवांछनीय स्थिति पर भी मौन रहता है। वह ऐसी विपरीत परिस्थितियों में मौन रह कर पलायन करता है। ‘धूएं में लुप्त एक याद’ में लेखक हिमेश ने यह स्थापित किया है कि अंग्रेजों के उपनिवेश के विस्तार से भारत के कुटीर उद्योग और बढिय़ा दस्तकारी किस तरह समाप्त हो जाती है। कहानी में लक्खु ऐसा ही प्रमुख और कुशल दस्तकार है जिसे अंग्रेज अपनी षड्यंत्रकारी नीतियों से गायब कर देते हैं। ‘मिलते जुलते चेहरे’ में सुंदर लोहिया ने नायक के चिंतन और पत्नी से संवाद के माध्यम से यह व्यंजित किया है कि व्यक्ति किसी भी मुकद्दमे में न्यायालय में लड़ते हुए जमीन, आभूषण आदि गिरवी रख देता है। उसकी जीत की मृगतृष्णा का अंत नहीं होता। प्रस्तुत कहानी यह स्थापित करती है कि वर्तमान न्याय व्यवस्था में पीसते उत्पीडि़त जनों के चेहरे मिलते-जुलते ही नजर आते हैं।

श्रीनिवास जोशी की ‘डग्याली की रात’ आंचलिक परिवेश में विन्यस्त कहानी है जिसमें ग्रामीण जीवन में व्याप्त अंधविश्वासों और जाति आधार पर नूपा जैसे गरीब युवकों का उत्पीडऩ और शोषण ठाकुर जैसे सामंत मनोवृत्ति के लोग करते हैं। ‘स्केप गोट’ में सुशील कुमार फुल्ल ने महाविद्यालय में अध्ययनरत छात्रों की संख्या बल पर बसों में सवार होकर किराया न देने और बस के चालक-परिचालक से उनकी टकराहट का चित्रण किया है। श्रीवत्स की ‘शेरनी की पूंछ’ विश्वविद्यालय स्तर पर शोध निर्देशकों और शोध छात्रों की वास्तविकता को अनावृत्त करती है। शिक्षा जगत के सबसे ऊंचे स्तर विश्वविद्यालय में विभागाध्यक्ष और उनके अधीन कार्यरत बुद्धिजीवियों की मानसिकता और मूल्यहीनता को प्रस्तुत कहानी रेखांकित करती है। राजकुमार राकेश की ‘निर्वंशी अर्थात वंशहीन’ में ग्रामीण परिवेश का सूक्ष्म चित्रण करते हुए निर्धन और अभावग्रस्त लोगों के प्रति प्रभुत्व संपन्न लोगों की संवेदनशून्यता और अत्याचार स्वारु की चरित्र सृष्टि के माध्यम से सामने लाए हैं। योगेश्वर शर्मा की ‘मलबे में दबी जिंदगी’ कहानी में गांव से नगरों और महानगरों में गए युवकों के संघर्ष को रोशनलाल की चरित्र सृष्टि के माध्यम से व्यंजित किया है। रोशनु से रोशन लाल बनने वाला यह चरित्र अपने भाई-भाभी के अत्याचारों से मुक्त होने के लिए गांव से शहर भागता है जहां वह रेहड़ी लगाकर तो कभी ढाबे में बर्तन मांजकर अंतत: दूसरे लोगों की भांति सरकारी जमीन पर दुकान खोलकर अपनी आजीविका अर्जित करने के लिए संघर्ष करता है। सरकारी जमीन पर अतिक्रमण के कारण बुलडोजर चलता है। लेखक इस वस्तुस्थिति को चित्रित करता है। रोशनु के जीवन-संघर्ष के माध्यम से यह कहानी ऐसे अनेक संघर्षशील लोगों की पीड़ा को मूर्तिमान करती है। ‘मातादीन अब नहीं है’ कहानी में विजय सहगल ने मातादीन की एक ऐसे चरित्र के रूप में सृष्टि की है जो स्वयं दूसरे के काम आता है, परंतु उसका कोई भी सहायक नहीं होता। यहां तक कि उसके बच्चे भी अपने आप में मगन हो जाते हैं। रेखा की कहानी ‘शंकर दास की चि_ी’ एक बूढ़े व्यक्ति के इर्द-गिर्द विन्यस्त की गई है। प्रस्तुत कहानी में देश विभाजन के समय के नरसंहार और खून की पृष्ठभूमि है। साथ में पंजाब में व्याप्त आतंकवाद के कारण रोज बगुनाहों की हत्या की खबरें शंकर दास जैसे आम आदमी को विचलित करती हैं।                                              -(शेष भाग अगले अंक में)

पुस्तक समीक्षा : ‘रचना’ का एक और आकर्षक अंक

साहित्यिक, सामाजिक संवेदना की त्रैमासिकी पत्रिका ‘रचना’ का जनवरी-जून 2023 संयुक्तांक प्रकाशित हुआ है। डा. सुशील कुमार फुल्ल और डा. आशु फुल्ल इस पत्रिका के संपादक हैं। रचना साहित्य एवं कला मंच पालमपुर द्वारा प्रकाशित इस पत्रिका के इस अंक में अनेक कविताएं, कहानियां एवं व्यंग्य संकलित किए गए हैं। जन्म शती वर्ष पर डा. सुशील कुमार फुल्ल तथा डा. बंशी राम शर्मा के आलेख स्वर्गीय संतराम वत्स्य के योगदान को याद करते हैं। दिव्य हिमाचल के प्रधान संपादक अनिल सोनी के दो व्यंग्य- कुत्ते का बर्थ सर्टिफिकेट तथा बबलू जीत गया, व्यवस्था पर व्यंग्यात्मक कटाक्ष करते हैं। कल्याण जग्गी का व्यंग्य ‘बापू का श्राद्ध’ भी रोचक है। डीसी चंबियाल की कविता ‘काली सडक़ और मेरा गांव’ तथा कुल राजीव पंत की कविता ‘पहाड़ और चाय का प्याला’ पाठकों का ध्यान आकर्षित करती हैं। अनिल सोनी की तीन कविताएं- फिरौती पर, इश्क ऐसा तथा फासले भी विभिन्न भावों को अभिव्यक्त करती हैं। डा. उमेश भारती की कविता बर्बरता काफी रोचक है।

गणेश गनी की आठ कविताएं भी इस अंक में संकलित हैं जो पत्रिका को चार चांद लगाती हैं। चिरानंद शास्त्री की कविता तथा शक्ति चंद राणा के दो गीत पाठकों को आह्लादित करते हैं। जितेंद्र रजनीश की दो कविताएं- घड़ी की सुइयां तथा औरत तू अपनी कहानी लिख, पाठकों का ध्यान आकर्षित करती हैं। प्रार्थना, कोशिश और तीन कविताएं के जरिए चंद्ररेखा ढडवाल ने भी पाठकों को अपनी ओर आकृष्ट किया है। डा. अरविंद ठाकुर की कविताएं- मैं लिखता क्यों हूं तथा तब कविता मरती है, भी काफी रोचक हैं। सरोज परमार ने चार औरतें व बेटी की हंसी नामक कविताओं से पाठकों को नारी समाज से अवगत कराया है। इसी तरह योगेश्वर शर्मा की पीलिया, सुदर्शन वशिष्ठ की घर बोला, डा. अरविंद ठाकुर की फौजी, त्रिलोक मेहरा की युद्ध तथा सुशील कुमार फुल्ल की मेमना कहानियां पाठकों का मनोरंजन करती हैं। यह अंक पाठकों को अवश्य पसंद आएगा।                                                                                                                  -फीचर डेस्क

हिमाचली कविता को शक्ति चंद राणा ने दिया नया व्याकरण

आजकल सोशल मीडिया पर एक हिमाचली गाने ने धूम मचाकर रखी है, ‘चस्का लगेया चंडीगढ़ दा, ए दिल लगदा नहीं सुरगाणी! ता•ाा हवा हुण नहीं गमदी न मगरू रा पानी।’ गीत के रचनाकार एवं गायक हैं शक्ति चंद राणा, जिन्होंने वीडियो में खुद को कलाकार के रूप में पेश किया है। शक्ति चंद राणा की सृजन शक्ति का आभास इससे पहले भी गीतों की बरसात, $ग•ालों की बहार और अनेक पहाड़ी-हिमाचली रचनाओं के मार्फत हुआ है। इन्हीं का हिमाचली कविता संग्रह ‘रंग बिरंगी आई होली…’ चहकती, महकती तथा विचार-विमर्श करती 215 रचनाओं से भरपूर एक बागीचा सजा रहा है।

शक्ति चंद राणा अपनी रचनाओं के माध्यम से माटी को आकार, संस्कृति को पुकार और हिमाचली भाषा को व्यापक आधार दे रहे हैं। इनकी कल्पना की असीम राहों पर संदेश और सबक के मील पत्थर चमकते रहते हैं, ‘रौशनी दे आशकां जो कुत्थू डर मरने दा। शमा परवानेयां जो कितणा आजमाई लै।। दरेयाये दे कनारेयां दा बचणा ऐ मुश्किल। ख्वाजेयां जो रोट कोई कितणे खुआई लै।।’ कविताओं की संरचना में भाव और भाषा का प्रवाह सरलता के साथ अपने अर्थ विज्ञान की भूमिका को परिमार्जित करता है और साथ ही भविष्य के हजारों नए मुहावरे जोड़ लेता है, ‘होले होले चलेंआ मितरा। गिणुंआं चुणुआं मिल्ले साह।। थोड़ा खाणा थोड़ा पीणा। सैह्जें सैह्जें लायां ग्राह।।’ कवि आत्म भाव के अनेक रंगों में अपने मन की होली खेल रहा है, जहां जीवन की लय, कड़वे सत्य, विचार, परंपराएं, परिवेश और मौज-मस्ती उनके साहित्यिक योगदान को बटोरती चल रही है, ‘चोला जोगी रंगला रंगाई लेया लक्ख तू। रंग तिस मस्ती दा चढ़ाणा औणा चाहीदा।। खाणे जो तू खाई लेयां करी हेराफेरियां। रक्खेयां ऐ आद जे चुकाणा औणा चाहीदा।।’ शक्ति चंद राणा की कविता दरअसल लोक चेतना के स्वर में अतीत से वर्तमान के संदर्भों को जोड़ती है। समय को पुकारती कविताओं के भीतर बेचैनी है, तो कहीं यह विश्वास भी कि वक्त सुधर जाएगा। कविताओं के भीतर आत्मबोध कराने की संवेदना नागरिक दायित्व से मुखातिब है, तो मतदाता की जिम्मेदारी में लोकतंत्र की मर्यादा को अंजुलि में भर रही है, ‘अपणा टप्परू चिणदे चिणदे। लोकां दे सैह ढाहन्दे लोक।। अप्पु बोटां पाई ने चुणदे। फिरी कैह्जो पछतान्दे लोक।।’ रंग बिरंगी आई होली…के माध्यम से कवि अपनी शैली से एक नई लोक चेतना, लोक संस्कृति तथा जमीन से जुड़ी अभिव्यक्ति का विस्तार कर रहा है।

ये कविताएं घर-परिवार, आम बोलचाल, गुरु-शिष्य के बीच संवाद तथा यथार्थपरक बातचीत जैसी सरल व सहज हैं, ‘गोहटुआं दी अग्ग जिंह्यां गोऐं गोऐं धुक्खदी। मिन्ही मिन्ही पीड़ इस कालजुयें बुक्कदी।।’ कवि शक्ति चंद पर्वतीय संवेदना को शिखर पर ले जाते हैं, तो कभी प्रेम की गागर में अपना सागर उंडेल देते हैं। इसी संग्रह में ‘कोई बुज्झै सार, बोले अज्ज धरती, कसौटी समें दी, फसलां सुक्कियां, कैहजो बणेया लापरवाह, मारन डुहगियां मारां, सोचा किंह्यां रोग मकाणा, मार डुआरी उडऩे तोते, अपणी-अपणी बोलण सब, चोला जोगी रंगला, नौयें नौयें अक्खर व खड़े कुआलां गोंहदे जा, जैसी कुछ कविताएं अपनी शैली, शिल्प और संवेदना के कारण बेहतरीन काव्यांजलि गढ़ती हैं। कविता संग्रह यूं तो हिमाचली भाषा की संपन्नता, विशिष्टता और माधुर्य में रंग-बिरंगा संसार ओढ़ रहा है, फिर भी कहीं देशभक्ति, कहीं दर्शन, कहीं अध्यात्म, तो कहीं प्रत्यक्ष को प्रमाणित करने की विविधता से सराबोर करता है, ‘झूठ दी मंडी लग्गियो मितरो सच नी मिलदा। पढ़ी लिखी अखबारां एह मन फिरि नी मन्नदा।।’ शक्ति चंद राणा ने देश की स्थिति, परिवेश संरक्षण की उम्मीदों, व्यवस्था की खामियों और जीवन की शिक्षाओं का एक व्याकरण इन कविताओं के मार्फत सौंपा है, फिर भी कहीं कवि कहीं अपने भीतर खुद को मुकम्मल करने की दरगाह पर खड़ा कह रहा है, ‘तिन्हां जोर लाया ‘शक्ति’ डईं डईं कराणी। इक्क नक्के बचांदेयां उमर चली गई।।’      -निर्मल असो

हिमाचली कविता संग्रह : रंग बिरंगी आई होली…
कवि : शक्ति चंद राणा ‘शक्ति’
प्रकाशक : स्वयं प्रकाशित
मूल्य : 395 रुपए


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App