आप भी करते हैं ‘टी बैग’ का इस्तेमाल तो सावधान! हो सकता है कैंसर जैसा घातक रोग

By: Sep 30th, 2023 3:53 pm

प्रयागराज। भारत के स्वतंत्र शोधकर्ता पद्मश्री वैज्ञानिक डॉ अजय कुमार सोनकर ने दावा किया है कि ‘टी बैग’ का इस्तेमाल से अतिसूक्ष्म प्लास्टिक कण (माइक्रान एवं नैनो) हमारे खून में पहुंचकर कैंसर जैसे घातक रोग का कारक बन रहा है। डॉ सोनकर ने बताया कि एक टी बैग में 20 से 30 फीसदी प्लास्टिक के फाइबर होते हैं जो माइक्रॉन एवं नैनो आकार में लाखों की संख्या में चाय की प्याली के रास्ते हमारे खून में पहुंचकर कैंसर जैसी जानलेवा व्याधियां पैदा कर रही है। हमारे खून में प्लास्टिक के कण भेजने वाला अकेला माध्यम टी बैग ही नहीं है, बल्कि यह भोजन, वाष्प के साथ बादल में पहुंचकर वर्षा के पानी से भी पहुंच रहा है।

उन्होंने बताया कि प्लास्टिक में बिस्फेनाल-ए (बीपीए) रसायन के अलावा पैलेडियम, क्रोमियम और कैडिमियम जैसे तमाम धातुएं शामिल हैं जो कैंसर जैसे अनेक रोगों को जन्म देने में सक्षम हैं। हमारे घर के अंदर से लेकर बाहर तक प्लास्टिक का वर्चस्व है। घरों में पानी के पाइप, छत पर रखी पानी की टंकी, भोजन के बर्तन, किचन मे नमक से लेकर लगभग हर खाद्य एवं पेय पदार्थ यहां तक की जीवन रक्षा वाली तरल दवा भी प्लास्टिक की बोतल में मिलती हैं। डा. सोनकर ने “यूनीवार्ता” को बताया कि शरीर में एंडोक्राइन प्रणाली में ग्रंथियों और अंगों का एक जटिल समूह होता है जो हार्मोन का उत्पादन और स्राव करके शरीर के विभिन्न जैविक कार्यों को विनियमित और नियंत्रित करता है। बीमार पड़ने या मानसिक व्याधि से गुजरने पर यही एंडोक्राइन प्रणाली हमारा उपचार करती है। प्लास्टिक के रसायन एंडोक्राइन प्रणाली को बाधित कर देते हैं जिससे हमारा शरीर गम्भीर बीमारियों से ग्रसित हो जाता है।

पद्मश्री सोनकर ने अपने अंडमान-नीकोबार प्रयोगशाला में सीप के टिश्यू कल्चर के जरिए फ़्लास्क में मोती तैयार करने का काम कर पूरी दुनिया में अपना नाम रोशन किया है। समुद्री जीव जंतुओं की दुनिया पर केंद्रित तमाम साइंटिफ़िक जर्नल्स ‘एक्वाक्लचर यूरोप सोसायटी’ वर्ल्ड अक्वाकल्चर, इनफोफिश इन्टरनेशनल में डॉक्टर अजय सोनकर के इस नए रिसर्च का प्रकाशन वर्ष 2021 हो चुका है। मोती बनाने की विधा में ‘टिश्यू कल्चर’ की आधुनिकतम तकनीक का उपयोग करते हुए नियंत्रित इपीजेनेटिक द्वारा ख़ास मोती बनाने वाले भारतीय वैज्ञानिक सोनकर को स्विट्जरलैंड के ज्यूरिख विश्वविद्यालय के ‘फॉरेंसिक जेनेटिक मेडिसिन विभाग’ ने इस क्षेत्र में आगे के अनुसंधान के लिए पिछले वर्ष मार्च में एक साथ मिलकर काम करने का प्रस्ताव दिया है।

डॉ. सोनकर ने बताया कि उन्होंने अंडमान नीकोबार द्वीप समूह से सीप के अंदर से टिश्यू बाहर निकालकर कृत्रिम वातावरण में रखकर उसमें मोती उगाने का करिश्मा किया है। उन्होंने बताया कि अब मोती बनाने के लिए सीप पर निर्भरता समाप्त हो गई और इसके साथ ही सीप के लिए ज़रूरी समुद्री वातावरण की आवश्यकता भी समाप्त हो गई। भारत सरकार ने इस नई उपलब्धि पर उन्हें वर्ष 2022 में पद्मश्री पुरस्कार से नवाजा गया था।

डॉ सोनकर ने बताया ‘‘इस अनुसंधान के लिए ‘टिश्यू कल्चर’ का उपयोग करने के साथ-साथ ‘नियंत्रित इपीजेनेटिक’ का भी इस्तेमाल किया। ‘टिश्यू कल्चर’ का उपयोग करके हमने सीप के जीन के उन कुछ गुणों को अभिव्यक्त होने से रोक दिया जिसके कारण मोती में अशुद्धियां आती हैं। उसी प्रकार कुछ ऐसे जीन को अपनी अभिव्यक्ति देने के लिए प्रेरित कर दिया जो शुद्धतम मोती के तत्व उत्पन्न करते हैं।” पद्मश्री पुरस्कृत वैज्ञानिक ने बताया कि “मैं उस समय हतप्रभ था जब समुद्री सीप के मेंटल टिस्यू का माइक्रोस्कोप में विश्लेशण कर रहा था तभी मुझे टिस्यू में कुछ अज्ञात कणों की उपस्थिति दिखी। जांच में वो माइक्रान साइज प्लास्टिक के कण थे। अचम्भित था कि समुद्री सीप के टिस्यू में यह कहां से आया। स्वाभाविक था टिश्यू में ये खून से आया होगा, खून में भोजन से आया होगा। ”

उन्होंने कहा, “मैंने समुद्र के पानी और उसके शैवालों का गहन परिक्षण किया। मुझे पानी और शैवालों के हर नमूने में प्लास्टिक के सूक्ष्म कण मिले। शैवाल या प्लवक भोजन श्रृंखला के नीव हैं, ये भोजन श्रृंखला के प्रथम पायदान है। वहीं से ये समुद्री सीपों के खून में पहुंचा। खून में प्लास्टिक के कण पहुंचने की प्रक्रिया में मनुष्य का खून अपवाद नहीं है।” वैज्ञानिक सोनकर ने बताया कि अपने विदेश भ्रमण के दौरान मलेशिया, सिंगापुर और कोस्टारिका जैसे अनेक स्थानों से समुद्री जल के नमूने लेकर परीक्षण किया तो सभी में माइक्रान एवं नैनो साइज के प्लास्टिक कण मिले। ये कण इतने सूक्ष्म होते हैं कि हवा में तैरते रहते हैं और सांस लेने के साथ हमारे फेफड़े में पहुंच रहे हैं। सिचाई के जल में मौजूदगी के कारण वनस्पतियों में भी ये प्लास्टिक के सूक्ष्म कण पहुंच गए हैं।

उन्होंने बताया कि माइक्रो प्लास्टिक अब पृथ्वी पर हर जगह मिलने वाले कणों में से एक हैं। दुनिया के सबसे ऊंचे ग्लेशियर हो या गहरे समुद्र हर जगह प्लास्टिक के ये सूक्ष्म कण मौजूद हैं। कनाड़ा, ब्रिटेन और अमेरिका जैसे अनेक देशों ने भी अपने शोध में पाया है कि ये कण आंखो से देखे नहीं जा सकते, ना चाहते हुए भी ये सांस के जरिए हमारी दैनिक खुराक का हिस्सा बनते जा रहे हैं। डॉ. सोनकर ने बताया कि प्लास्टिक का सामान्य आणुविक गुण है कि समय के साथ इसका लचीलापन घटता है और ये भंगुर होकर टूटने लगता है। खुले वातावरण में धूप के सम्पर्क में भंगुर होने की प्रक्रिया तेज हो जाती है। धीरे-धीरे प्लास्टिक टूटकर महीन पाउडर जैसा होकर हर तरफ फैल जाता है। बारिश में बहकर हमारे जल श्रोतों, तालाबों, नदियों और वहां से समुद्र में पहुंच जाता है।
उन्होंने कहा कि प्लास्टिक के सूक्ष्म कण फलों सब्जियों और अनाज में भी पहुंच गए हैं।

उन्होंने बताया कि वाष्पीकरण के कारण जब पानी भाप बनकर आसमान की तरफ जाता है तो ये प्लास्टिक के सूक्ष्म कण वाष्प के साथ बादलों में पहुंच जाते हैं और बारिश के साथ पृथ्वी एवं सुदूर निर्जन स्थान पर भी पहुंचते है। उन्होंने बताया कि जिस प्लास्टिक का उपयोग करके हम उसे इधर उधर फेंक देते हैं, वह किसी ना किसी माध्यम से हमारे खाने की प्लेट में जहर बनकर वापस लौट आ रहा है। यूरोपीय देश के वैज्ञानिकों ने डॉ. सोनकर से विचार विमर्श कर सच्चाई का पता लगाने के लिए शोध किया। उन्होंने उनके शोध में सत्यता पाया और तब उन्होंने पाया कि एक समय वर्षा का पानी अमृत समान था, लेकिन अब जहर के समान है। दो दशक पहले तक गांवों में शादी-व्याह या किसी बड़े कार्यक्रम में पत्तल में भोजन और मिट्टी के पुरवा में पानी पिलाया जाता था लेकिन आज हम प्लास्टिक पर निर्भर हो गए हैं।


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